स्मृति पटल

अवचेतन में बसी बाँसुरी

पढ़ाई के दौरान प्रयाग सङ्गीत समिति में बाँसुरी पकड़ना सीख ही रहा था कि क्रान्तिकारियों के झण्डे का डण्डा हाथ में आ गया। नतीजा यह निकला कि मैं कोई बाँसुरीवादक नहीं बन पाया, पर बाँसुरी आज भी मेरे अवचेतन में जैसे बसी हुई है।

पटना के सर्फ़ुद्दीन देश के सबसे बड़े बाँसुरी निर्माताओं में से एक हैं। दिल्ली के सुभाष ठाकुर और उनकी पत्नी पूनम तो मशहूर बाँसुरी निर्माता हैं ही। ‘पूनम फ्ल्यूट्स’ के नाम से वे पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। ‘कान्हा फ्ल्यूट्स’ के अलावा मुम्बई के आनन्द धोत्रे और तमिलनाडु में मदुराई वाले कृष्णाराम भी प्रसिद्ध नाम हैं। सर्फ़ुद्दीन जी को याद करने की ख़ास वजह यह है कि उनकी भेजी हुई बाँसुरी मुझे मिली तो देखा कि बड़ी मुहब्बत से उन्होंने उस पर मेरा नाम उकेरा हुआ है। सरगम बजाया तो और ख़ुशी हुई कि बाँसुरी क़ायदे से ट्यून की गई है। पिचलैब की टेस्टिङ्ग में भी यह पूरी तरह खरी उतरी।

पढ़ाई के दौरान प्रयाग सङ्गीत समिति में बाँसुरी पकड़ना सीख ही रहा था कि क्रान्तिकारियों के झण्डे का डण्डा हाथ में आ गया। नतीजा यह निकला कि मैं कोई बाँसुरीवादक नहीं बन पाया, पर बाँसुरी आज भी मेरे अवचेतन में जैसे बसी हुई है। कभी-कभार यों ही कुछ राग या सरगम टेर लेता हूँ। बस स्वान्तः सुखाय। किसी पार्क में बैठकर तान छेड़ने का मन भी करता ही है, पर बाँसुरी के गुरुजी ने शुरू में ही कुछ सीख दी थी, उसे भी याद रखना पड़ता है। यह भी मज़ेदार है कि अपने जीवन में मैं गुरुपूर्णिमा के दिन सिर्फ़ एक ही व्यक्ति से मिलने गया हूँ, और वे थे हमारे इलाहाबादी मशहूर बाँसुरीवादक हरिप्रसाद चौरसिया जी के गुरु भोलागुरु यानी भोलानाथ प्रसन्ना।

गुरु-शिष्य परम्परा सङ्गीत के क्षेत्र में ही शायद वर्तमान में ठीक-ठाक ढङ्ग से बची हुई है। हरिप्रसाद चौरसिया ने तो इसे ग़ज़ब ही निभाया है। बाँसुरी में रुचि रखनेवालों को पता होगा कि चौरसिया जी लबड़हत्थे हैं। मतलब यह कि वे बायें हाथ से बाँसुरी बजाते हैं। शुरू में ऐसा नहीं था। वे भी आम लोगों की तरह दायें हाथ से ही बजाते थे। हुआ यह कि एक बार सङ्गीत की बारीकियाँ सीखने की मंशा लिए उस्ताद अलाउद्दीन खाँ साहब की बेटी अन्नपूर्णा देवी के पास पहुँचे। अन्नपूर्णा देवी ने चौरसिया जी को शिष्य बनाने से इनकार कर दिया। चौरसिया जी धुन के धनी थे। तीन साल तक उन्होंने पीछा नहीं छोड़ा। अन्ततः अन्नपूर्णा जी पिघलीं। एक शर्त के साथ उन्होंने गुरु बनने की हामी भरी। शर्त यह थी कि आगे से चौरसिया जी दायें हाथ से बाँसुरी नहीं बजाएँगे। बायें हाथ को साधना कष्टसाध्य था, पर चौरसिया जी ने भी सङ्कल्प लिया तो लिया। तब से लगभग चार दशक बीतने को आए, पर आज तक उन्होंने एक भी दिन दायें हाथ से बाँसुरी नहीं बजाई। गुरुवाई और चेलाई की इस बन्दिश का ही नतीजा है कि कान्हा की बाँसुरी के स्वर आज पूरी दुनिया में गूँजने लगे हैं।

वास्तव में गुरु-शिष्य परम्परा की उदात्तता ही है, जिसने भारत को ज्ञान का धनी बनाया। आज के दौर में गुरु असली मिले तो चेला नक़ली…और चेला असली मिले तो गुरु नक़ली। असली को असली मिले तो समझिए कि समय का अहोभाग्य! (4 नवम्बर, 20219)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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