आपकी जाति क्या है?—एक
पाक कला पहले शूद्रों के लिए हुआ करती थी। ब्राह्मण की रसोई बनाने की ज़िम्मेदारी शूद्रों की थी। उत्तर भारत ने अपनी सांस्कृतिक पहचान काफ़ी खो दी है, पर दक्षिण भारत के कई इलाक़ों में जब कोई सन्न्यास ग्रहण करता है, तो वहाँ की परम्पराओं में वे पुराने चिह्न आज भी आप देख सकते हैं।
कुछ दिन पहले किसी ने एक प्रवचन का वीडियो पोस्ट किया था। प्रवचन बुरा नहीं था। उपदेशक का कहना था कि हम जहाँ हों, उसी जगह पर हमें बेहतर करने की कोशिश करनी चाहिए। किसी की बराबरी करने का कोई अर्थ नहीं।
जिन सज्जन ने इसे पोस्ट किया था, उन्होंने अपने लिए अर्थ कुछ यों निकाला—
‘‘बाह्मण का आशीर्वाद प्राप्त करो, बराबरी करने की मत सोचो…’’
मुझे इस वाक्य में एक ख़ास तरह की मानसिक बीमारी दिखाई दी, तो लगा कि इस पर प्रतिक्रिया देनी चाहिए। सो, मैंने जो लिखा, उसे आप भी पढ़िए—
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‘‘बाह्मण का आशीर्वाद प्राप्त करो, बराबरी करने की मत सोचो..’’—यह बात ग़लत तो नहीं है, पर मनु के नाम पर प्रचिलत हो चुका स्कन्द पुराण का यह सूत्र हमेशा याद रखना चाहिए—‘‘जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते…’’ मतलब यह कि जन्म से सभी शूद्र होते हैं, संस्कारों से व्यक्ति द्विज बनता है। यहाँ द्विज का अर्थ समझते चलिए। द्विज का अर्थ है, वह मनुष्य, जिसका दूसरा जन्म हुआ हो। एक जन्म हर प्राणी का होता है, पर मनुष्यों में एक जन्म के बाद एक दूसरा जन्म भी हमारे धर्मशास्त्र मानते हैं। इस दूसरे जन्म को ज्ञान का जन्म कहा जाता है। पढ़ाई-लिखाई, सीखने-सिखाने; यानी मस्तिष्क को संस्कारित करने पर यह जन्म सम्भव होता है; और, यह दूसरा जन्म जिसका हो जाय, उसे ही द्विज कहा जाता है। इस सूत्र का निहितार्थ यह है कि जन्म से सभी शूद्र होते हैं, क्योंकि सबके ही नवजात शिशु एक जैसे होते हैं, उनमें ज्ञान और विवेक नहीं होता। प्राचीन भारत के पारम्परिक संविधान की हैसियत रखने वाले महाग्रन्थ मनुस्मृति में भी ऐसी बातें जगह-जगह दर्ज हैं।
तात्पर्य यह कि किसी व्यक्ति का वर्ण इस बात से तय होता है कि उसे सीख कैसी मिली है और अपने लिए उसने किस तरह के काम का वरण किया है। इस हिसाब से अगर कोई ‘द्विवेदी’ लिखता है, पर दो वेदों का ज्ञान उसे नहीं है तो वास्तव में वह ‘द्विवेदी’ नहीं है। अगर कोई ‘त्रिवेदी’ लिखता है, लेकिन तीन वेदों का ज्ञान उसे नहीं है तो असलियत यही है कि वह ‘त्रिवेदी’ नहीं हो सकता। ‘चतुर्वेदी’ कहलाने का सीधा मतलब है कि चार वेदों का ज्ञान होना चाहिए। नाम में ‘शुक्ल’, पर पता भी न हो कि शुक्ल यजुर्वेद क्या है, तो वह व्यक्ति ‘शुक्ल’ (‘शुक्ल’ के दूसरे अर्थ भी ले सकते हैं) तो नहीं ही है। अगर पण्डित रामभरोसे मिश्र चमड़े का कारोबार करते हैं, जूते की दुकान चलाते हैं तो वास्तविकता यही है कि वे चर्मकार (या कहें चमार) हैं। यह सुनकर बुरा मानने की ज़रूरत नहीं है। हमारे पुरखों का समाज ऐसे ही चलता था। जिस काल को आप रामराज्य या आदर्श जैसा कहते हैं, उस पर निगाह दौड़ाएँ तो उस ज़माने में किसी के नाम के आगे पाण्डेय, शुक्ल, सिंह, वर्मा, यादव…वग़ैरह कुछ भी लिखा नहीं मिलेगा। राम, लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न, अज, दिलीप, दशरथ…या महाभारत कालीन पात्रों को ही देख लें–अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव, भीष्म, दुर्योधन, श्रीकृष्ण वग़ैरह-वग़ैरह।
याद रखिए, उस ज़माने में अछूत नाम की कोई चीज़ नहीं थी। महाभारत के मूल श्लोक दस से सोलह हज़ार तक ही माने जा सकते हैं। राजा भोज ने अपने ‘सञ्जीवनी’ नामक ग्रन्थ में बहुत पहले लिख दिया था कि व्यास जी के समय में महाभारत में दस हज़ार श्लेक थे, जो विक्रमादित्य के समय में बढ़कर बीस हज़ार हो गए। यह भी कि उनके पिता के समय में महाभारत के श्लोकों की सङ्ख्या पच्चीस हज़ार पहुँच गई और उनकी ख़ुद की आधी उम्र बीतते-बीतते तीस हज़ार; यदि इसी तरह इसके श्लोकों की सङ्ख्या बढ़ती रही तो यह एक दिन ऊँट का बोझ हो जाएगा। आज के सवा लाख श्लोकों से तुलना करें तो मतलब साफ़ है कि महाभारत में नब्बे प्रतिशत कहानी हज़ारों साल बाद की जोड़ी हुई है। इसके बावजूद आज के जैसा जातीय अछूतपन तब भी वहाँ नहीं है। वेदों, उपनिषदों में तो बिलकुल नहीं है। वाल्मीकि के वर्णनों से समझ सकते हैं कि शम्बूक जैसी इक्का-दुक्का कथाएँ भी गुरुघण्टालों द्वारा बहुत बाद की जोड़ी हुई दिखाई देंगी। वाल्मीकि की शुरुआती उद्घोषणाएँ पढ़ लीजिए तो समझ में आ जाएगा कि पूरा-का-पूरा उत्तरकाण्ड बाद का है; यानी न शम्बूक वध न सीता का परित्याग।
यह भी समझिए कि पाक कला पहले शूद्रों के लिए हुआ करती थी। ब्राह्मण की रसोई बनाने की ज़िम्मेदारी शूद्रों की थी। उत्तर भारत ने अपनी सांस्कृतिक पहचान काफ़ी खो दी है, पर दक्षिण भारत के कई इलाक़ों में जब कोई सन्न्यास ग्रहण करता है, तो वहाँ की परम्पराओं में वे पुराने चिह्न आज भी आप देख सकते हैं। सन्न्यास ग्रहण करने वाला व्यक्ति कुम्हार, लुहार, धरिकार, चर्मकार, धोबी (धवल)—सबके पाँव धोता है और उनसे इस बात की माफ़ी माँगता है कि सन्न्यास लेने के बाद वह उनकी बनाई चीज़ें अब आगे से इस्तेमाल नहीं कर पाएगा, तो इससे उनके रोज़गार में कुछ कमी आ सकती है, सो उसे वे क्षमा दें।
मनु को समझने के बाद मनुस्मृति मुझे बड़े काम की लगती है। हाँ, पढ़ने पर जो श्लोक साफ़-साफ़ घालमेल वाले लगते हैं, उन्हें तो किनारे करना ही पड़ेगा। मनु का एक श्लोक देखिए—स्वाध्यायेन जपैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः।। तात्पर्य यह कि पढ़ने-पढ़ाने, जप-तप, नानाविध अनुष्ठानों, विद्याओं व महायज्ञों में पारङ्गतता, सत्कर्म आदि से यह देह ब्राह्मणत्व को प्राप्त होती है।
जाति का मतलब है, जो जन्म से हो। गाय, भैंस, घोड़ा, गधा, आदमी–ये जातियाँ हैं। कोई घोड़ा या गधा ‘पाण्डेय जी’, ‘शुक्ल जी’, ‘यादव जी’, ‘सिंह साहब’ नहीं होता। मनुष्यों में, वह भी सिर्फ़ भारत में ऐसा है तो महज़ मानसिकता की वजह से। आजकल की जातीयता अगर मनुष्य की जन्मगत विशेषता होती तो ईसाइयों, मुसलमानों वग़ैरह में भी मौर्या जी, पटेल जी, चौबे जी होते। कुछ चीज़ें वहाँ भी हैं, पर वे और तरह की हैं। अगर समझदारी जन्मगत जातीयता की बपौती होती तो किन्हीं ख़ास एक-दो जातियों के लोग ही सबसे ऊँचे प्रशासनिक पदों पर पहुँच पाते। सच्चाई यह है कि पढ़ाई और प्रतिस्पर्धा का मौक़ा बराबर मिलता है तो किसी भी जाति से आईएएस या पीसीएस निकल आते हैं।
भारत की व्यवस्थाओं की बात करते हुए आदिलाबाद के रवीन्द्र शर्मा (गुरुजी) कहते थे कि विभिन्न व्यवसायों की बोधक जाति जन्मना वाली जाति से अलग है, इसकी उत्पत्ति ‘ज्ञाति’ से है। ज्ञाति यानी जाति का मतलब वह समूह, जो किसी ख़ास विद्या की जानकारी रखता हो, या कहें महारत रखता हो। इस अर्थ में जाति के सूत्र अतीत के साथ जिस तरह से जुड़ते हुए मुझे दिखाई देते हैं, उसे आपको समझाने की कोशिश करता हूँ।
यों समझिए कि जब महाभारत-जैसा बड़ा युद्ध हुआ तो यह समाज काफ़ी छिन्न-भिन्न हो गया। शिक्षा की संस्थाएँ, गुरुकुल, राज्य-व्यवस्थाएँ अराजकता का शिकार होती गईं। एक बहुत उन्नत समाज मुश्किल दौर में आ पहुँचा। अगर नेतृत्व ठीक न मिले तो किसी भी बड़े युद्ध के बाद ऐसा ही होता है। जब राज्य से सहायता-सहकार बन्द हो जाय तो सोचिए कि समझदार लोग क्या करेंगे। ऐसे में समाज को सँभालने में ज्ञानी लोगों की सबसे बड़ी भूमिका होती है। हुआ यह कि अपने-अपने काम के माहिर लोगों ने जहाँ जैसी सहूलियत मिली, अपना सामाजिक योगदान देने का काम शुरू किया। महाभारत के पूर्वकालीन समाज को आप देखेंगे तो वहाँ सङ्गीत, आयुर्वेद, भौतिक-रसायन-पदार्थ विज्ञान, योग, गणित जैसी भाँति-भाँति की विद्याओं का काफ़ी विकास दिखाई देगा। सोचिए कि कोई समाज बिखरने लगे और क़बीलाई स्थिति में जा पहुँचे तो अपनी-अपनी विद्याओं में महारत रखने वाले लोग क्या करेंगे। ज़ाहिर है कोई दूर किसी गाँव में बैठा हुआ चारों वेदों का जानकार था, तो उसने ‘चतुर्वेदी’ लिखकर जताना शुरू किया कि भाई किसी को इस ज्ञान की ज़रूरत हो तो आ जाना, चारों वेदों का ज्ञाता ‘चतुर्वेदी’ फलाँ जगह मिल जाएगा। कोई वेद-शास्त्र पढ़ाने का काम करता था, तो नाम में ‘उपाध्याय’ लिखकर इसे ज़ाहिर करता था। एक तरह से इसे अपने पेशे का विज्ञापन समझिए और कुछ नहीं। दो वेदों वाला ‘द्विवेदी’, शुक्ल यजुर्वेद वाला ‘शुक्ल’, कपड़े साफ़ करने वाला ‘रजक’ (कुछ इलाक़ों में ‘धवल’), मिट्टी के बरतन का काम करने वाला ‘कुम्भकार’, कारीगरी करने वाला ‘विश्वकर्मा’, चमड़े का काम करने वाला ‘चर्मकार’ (बिगड़ा हुआ नाम ‘चमार’), समाज की रक्षा करने के काम लगा हुआ ‘सिंह’…वग़ैरह-वग़ैरह।
याद रखने की बात है कि चमड़े का काम साफ़-सफ़ाई से किया जाने वाला काम था, इसलिए यह बस्ती के बाहर किया जाता था और जो भी समूह जितनी देर तक इस काम में लगा होता था, उतनी देर तक किसी को छूने से बचता था, अछूत था; लेकिन नहाने-धोने के बाद वह अछूत नहीं रह जाता था और न ही किसी से किसी भी तरह छोटा या नीच। वैदिक समाज को वेदों की ही निगाह से समझेंगे तो वहाँ कोई भी वर्ण किसी से छोटा या बड़ा दिखाई नहीं देगा। किसी भी वर्ण की स्त्री अपनी इच्छा से अपने लिए कोई भी वर चुन सकती थी। ऊँघट-घूँघट तक तब नहीं था, ये सब आजकल की बातें हैं। विवाह के लिए यदि गुण-कर्म-स्वभाव मेल खाता था तो वर-वधू का वर्ण समान मान लिया जाता था। आप प्राचीन शास्त्रों के पन्ने पलटेंगे तो अनेक ऋषि-महर्षि ऐसे मिलेंगे, जिनमें से किसी का बचपन चाण्डाल कुल में बीता तो किसी का शूद्र, वैश्य या क्षत्रिय में, पर ज्ञान प्राप्ति के बाद वे ब्राह्मण ही माने गए। जाबाल ऋषि तो अज्ञात कुल के थे, पर ऋषित्व के चलते वे भी ब्राह्मण ही थे।
यहाँ यह भी याद रखिए कि ‘गड़रियों के गीत’ लगने वाले वेद मन्त्रों का सही अर्थ समझने के लिए वैदिक व्याकरण और यास्क के निरुक्त व निघण्टु (वर्तमान में ये ही उपलब्ध हैं) जैसी चीज़ों का सहारा लेना पड़ेगा। किसी दिन उदाहरण के साथ मन्त्रों के अर्थ निकालने की विधि पर बात की जा सकती है। वेदमन्त्रों के अर्थ निकालने का तरीक़ा समझने के बाद मुझे मूल किताबों से जूझना अच्छा लगता है। ऐसा कई बार ऐसा हुआ है कि किसी समझदार के कहने पर कोई मशहूर किताब मैंने पढ़नी शुरू तो की, पर बाद में पछताना पड़ा कि समय नष्ट हुआ और हाथ कुछ नहीं आया। याद रखिए, नक़ली व्याख्याएँ हमारे चरित्र में गुणात्मक परिवर्तन का बेहतर उपादान नहीं बन पातीं। कई बार ऐसा करते हुए हम ख़ुद इतने नक़ली हो जाते हैं कि आसान चीज़ों की भी नक़ली व्याख्याओं में ही मगन होने लगते हैं, रस लेने लगते हैं। बहरहाल, लाखों की भीड़ में से बढ़िया किताबें चुनना और पढ़ना बड़ी बात है और ज़रूरी भी, क्योंकि गुरुओं के अविश्वसनीय होते जाने के इस दौर में कुछ अच्छी किताबें बेहतर मार्गदर्शक और साथी हो सकती हैं।
यह अजीब-अजीब लगेगा, पर दक्षिणपन्थी और वामपन्थी, दोनों ही तरह के इतिहासबोध से उबर कर थोड़ा आराम-आराम से समझेंगे तो बात समझ में आएगी।
यों, आप अपने को जैसा चाहें वैसा मानें, पर जो भी लेखक, पत्रकार, शिक्षक वग़ैरह (भले ही उनके नाम में गुप्ता, मौर्या, वर्मा, शुक्ल कुछ भी लगा हो) हैं, उन्हें मैं ब्राह्मण ही मानता हूँ। मानना क्या, वे हैं ही। इसी फेसबुक के मित्रों में भाषा-साहित्य पर काम करने वाले, शिक्षा के काम में लगे या अख़बारों-चैनलों के तमाम पाण्डेय, शुक्ल, मिश्र, शर्मा आदि-आदि वास्तव में ब्राह्मण हैं; पर भाषा और साहित्य की सेवा में लगे ध्रुव गुप्त, विवेक गुप्ता, रागिनी गुप्त भी असल में ब्राह्मण ही हैं, भले ही अपने नाम में ‘गुप्त’ या ‘गुप्ता’ लगाए फिरते रहें। हिन्दी को माँजने के काम में लगे आलिम देहलवी जैसे लोग अपने कर्म में ब्राह्मण के अलावा और क्या हो सकते हैं? ये कुछ नाम यों ही याद हो आए तो लिख दिया, बाक़ी के मित्र भी अपने बारे में ऐसा ही सोच सकते हैं। प्रसिद्ध पत्रकार प्रभाष जोशी के लिए हर पत्रकार ‘पण्डित’ था। यह ज़रूर हो सकता है कि बाह्मणों में भी अलग-अलग वृत्तियों के लोग हों..जैसे कि चाण्डाल वृत्ति के ब्राह्मण, लम्पट वृत्ति के ब्राह्मण, बनिया वृत्ति के ब्राह्मण, शूद्र वृत्ति के ब्राह्मण, क्षत्रिय वृत्ति के ब्राह्मण आदि-आदि।
मैं ख़ुद को शूद्र वृत्ति का ब्राह्मण मानता हूँ, क्योंकि मुझे लोगों की सेवा करना और ज्ञान लेना-देना अच्छा लगता है। (…जारी)