धर्म-संस्कृति-समाजविमर्श

आपकी जाति क्या है?—दो

एक सच्चा दिलचस्प क़िस्सा सुनिए।

दलित मित्रों से यही कहूँगा कि अपने नाम में ‘भारतीय’, ‘कमल’, ‘सरोज’ वग़ैरह लगाकर आप बराबरी हासिल करने का सपना तो छोड़ ही दीजिए। इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं है। गान्धीजी ने बड़ी इज़्ज़त के साथ ‘हरिजन’ नाम दिया था, पर क्या हुआ? हरि का जन भी अछूत होने से कहाँ बच पाया? असली ब्राह्मण, असली क्षत्रिय, असली वैश्य बनिए, नक़ली लोग अपने-आप एक दिन किनारे हो जाएँगे।

जब मैं हिन्दुस्तान टाइम्स में काम नया-नया पर लगा तो उस समय ‘कादम्बिनी’ के सम्पादक थे, विजय किशोर मानव। वे अपने साथ काम करने वालों को थोड़ा हड़काते-गड़काते ज़रूर थे, पर दिल के बहुत साफ़ व्यक्ति थे। पीठ पीछे किसी के बारे में कोई मनगढ़न्त राय बनाकर प्रचारित करने वाला काम नहीं करते थे। कोई बात लग जाए तो सीधे बोल देते थे, मन पर बोझ लेकर नहीं ढोते थे..(उम्मीद करता हूँ कि मानव जी इसे पढ़ रहे होंगे तो दिल पर नहीं लेंगे।)

ख़ैर, मेरे पास अपना कोई वाहन नहीं था और न ही मुझे कुछ चलाना आता था। मानव जी अक्सर मुझे अपने साथ अपनी गाड़ी में ले जाते और मेरे घर के नज़दीक दिल्ली की मण्डावली वाली मदर डेयरी की सड़क पर छोड़ देते। एक दिन रास्ते में उन्होंने कहा—‘‘यार, सन्त जी, हो तो तुम पण्डित जी ही, पर कौन वाले पण्डित जी हो?’’  यह सुनकर मैं हँसा। मैंने कहा—‘‘आप जैसा समझ रहे हैं, वैसा मामला नहीं है। उस तरह वाले पण्डित जी में मेरा कोई विश्वास नहीं है। वैसा वाला पण्डित जी मुझे मत समझिए।’’ उनकी जिज्ञासा बढ़ी तो मैंने कहा—‘‘जातियों का मामला दूसरा है, पर मैं वर्ण-व्यवस्था के मूल स्वरूप को बेहतर मानता हूँ। उस हिसाब से जो सेवा का काम करे, वह शूद्र (आज का सेवक वर्ग)…जो पेट के भरण-पोषण से जुड़े खेती-बाड़ी वाले काम या कारोबार-व्यापार वग़ैरह करे, वह वैश्य (आज का व्यापारी वर्ग)…जो देश-समाज की रक्षा के काम में लगा हो, वह क्षत्रिय (आज का सैनिक वर्ग)…और जो ज्ञान लेने-देने के काम में हो, वह ब्राह्मण (आज का ज्ञानी वर्ग)… या कहें कि विद्वान हो तो पण्डित।’’ मैंने आगे कहा–‘‘बनियावृत्ति मुझमें नहीं है, हिसाब-किताब रखना मेरे लिए टेढ़ा है, तो मैं वैश्य तो नहीं हूँ। बात-बात में लट्ठ उठा लेने वाला स्वभाव भी मेरा नहीं है, इसलिए क्षत्रियत्व भी मुझमें नहीं है। मुझे सेवा के काम अच्छे लगते हैं, इसलिए मैं स्पष्ट रूप से शूद्र हूँ। इसके अलावा ज्ञान लेने-देने में दिलचस्पी है, यह करता ही रहता हूँ तो मैं ब्राह्मण भी हूँ। इस हिसाब से मुझे शूद्र और ब्राह्मण के रूप में आप देख सकते हैं। यह सिर्फ़ मानने की बात नहीं है, बल्कि वास्तविकता में यही मैं हूँ।’’

मानव जी समझदार थे, और सचमुच उन्होंने फिर कभी मुझसे इस तरह का कोई सवाल नहीं किया।

जातियों के मामले में मुझे भी याद नहीं कि कब से मेरी यह धारणा बनी। छठी-सातवीं में पढ़ता था तो गाँव में आयोजित भागवत के एक कार्यक्रम में लोगों ने मज़ाक़-मज़ाक़ में एक दिन सवेरे पण्डित जी नहीं थे तो मुझे ही प्रवचन-पीठ पर बैठा दिया…और मैंने यह किया कि दो-तीन दिन में जो सुना था, उसी पर सवाल दागने शुरू कर दिए। उन बचकाने सवालों पर लोगों को भी मज़ा आया। उसी दिन गाँव के एक बुज़ुर्ग राममूरत शर्मा जी ने मुझे ‘पण्डित जी’ की उपाधि दे दी। कई लोग मुझे ‘पण्डित सन्त…(सन्त के आगे एक शब्द था, जिसे मैं बचपन के हिस्से में ही रहने देना चाहता हूँ, इसलिए नहीं लिख रहा)’ कहकर बुलाने लगे। मेरी हमजोली वाले मेरे स्वभाव के हिसाब से कोई ‘कबीरदास’ तो कोई ‘कबिरा’ भी कहता। आज की तारीख़ में कुछ लोग इलाहाबादी वर्मा जी या लालाजी समझ लेते हैं। एक थीं मधु भटनागर, जो मेरे लिए दीदी थीं, तो उनके नाते भी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में एक मुँहबोली बहन थी, अल्पना जायसवाल। मेरे लिए सगी-जैसी ही थी। तो उसकी वजह से कुछ लोग बनिया भी समझने लगे थे। कुछ लोग गुजराती पटेल समझते रहे। मैंने कभी किसी को कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया। नाम के ‘समीर’ से कुछ लोग मुसलमान भी समझते हैं। आज भी शालीमार गार्डन के मेरे मुहल्ले में कुछ लोग ईद की बधाई देते हैं और मैं स्वीकार भी करता हूँ। इस दिन मेरे घर में सिंवई बनती भी है। ऐसे लोग भी हैं, जो हरिजन-जैसा कुछ समझते हैं, उनका भी स्वागत करता हूँ। मेरा हाल यह है कि ज़रूरत पड़ने पर कुछ ख़ास लोगों के यहाँ हवन करवा देता हूँ, शादी-ब्याह के मन्त्र भी पढ़ देता हूँ। कामचलाऊ पुरोहिताई जानता ही हूँ। जो मेरे अनुसार आयोजन की हामी भरता है, उसके यहाँ पूजापाठ करवाने में मुझे कोई दिक़्क़त नहीं। कुल मिलाकर आज की तारीख़ में नब्बे फ़ीसद लोग मुझे पण्डित जी समझते और कहते हैं और बाक़ी बचे और कुछ; पर मैं मैं ही हूँ। कोई जो समझना चाहे वही या कुछ भी नहीं। अजीब है कि अनजान रिक्शावाला भी कुर्ता देखकर पण्डित जी या गुरुजी जैसा कुछ बोल देता है। कायस्थ सङ्घ वाले अपने सङ्गठन के सम्मेलन के लिए न्योता दे चुके हैं, ब्राह्मण और पटेल सङ्घ वाले भी। यह बात अलग है कि मैं कभी किसी जातीय सङ्गठन में शामिल नहीं होता। क्या किया जाए…जो जैसा समझ ले, समझने दीजिए। कल को उसे कुछ और समझ में आए तो अपना माथा पीटे।

कोई चाहे तो अपने हिसाब से जातीय पड़ताल करता रहे, पर मैं वही हूँ जो हूँ; और, किसी को वही समझता हूँ, जो वह है। कोई मुझे अपने हिसाब से समझाना चाहे, इसका कोई मतलब नहीं है। जातीय संस्कार अच्छे-अच्छों के भीतर से आसानी से बाहर नहीं निकलते, पर मेरे भीतर से ये बचपन में ही जाने कहाँ निकल गए थे। कोई जाति बताकर मुझसे अपना काम नहीं निकलवा सकता। इतनी आदत बना चुका हूँ कि दुश्मन भी क़ाबिल लगे तो तारीफ़ कर दूँ, फिर जाति क्या चीज़ है! इसी नाते, जो जाति जानना चाहता है, उससे साफ़ कह देता हूँ कि दुनिया की सबसे छोटी जाति मुझे समझिए, फिर लगे तो दोस्ती का हाथ बढ़ाइए, वरना जै राम जी की! आप जितना ही ख़ुद को बड़ा समझेंगे, उतना ही मैं आपको छोटा समझूँगा।   

अब ज़रा एक बार फिर शुरुआती वाक्य पर आइए और समझिए कि सचमुच ब्राह्मण से आशीर्वाद लेना पुण्य (अच्छा) का काम है….पर सचमुच के ब्राह्मण से। हमें सदियों से धार्मिक कर्मकाण्ड के तौर पर पाँच-सात ब्राह्मण बुलाकर भोजन करवाने की बात सिखाई जाती रही है, तो वास्तव में यह बड़े काम की चीज़ है। एक पूरी सभ्यता, एक पूरी संस्कृति का ताना-बाना इसमें मौजूद है। इसके असली रहस्य की बात फिर कभी….पर यह अच्छा है। हाँ, जब आप ऐसा करें तो जहाँ तक हो सके उन पाँच-सात जनों को बुलाएँ, जिनमें सचमुच ब्राह्मणत्व मौजूद हो। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि कोई ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ है या हरिजन अथवा मुसहर के। ज्ञान लेने-देने के काम में लगा मुसलमान या ईसाई भी ब्राह्मण ही है। गणिका के पुत्र सत्यकाम जाबाल की कथा याद कीजिए और सोचिए कि जब बालक सत्यकाम ने गुरुकुल में दाख़िला लेते समय ऋषि से कहा कि मेरी माता का नाम जाबाला है, पर माँ गणिका रहीं, तो मुझे नहीं पता कि मेरा पिता कौन है। ऋषि ने तुरन्त कहा कि इतना स्पष्ट सत्य बोलने वाला तो निःसन्देह ब्राह्मण ही हो सकता है, तो तुम ब्राह्मण हो।

मेरा साफ़ मानना है कि चारों वर्णों के बीच हमारे प्राचीन समाज में ऊँच-नीच जैसी कोई स्थिति नहीं रही है, पर ब्राह्मण वर्ण के बारे में एक ख़ास तरह के सम्मान की बात ज़रूर रही है। इसे कुछ यों समझ सकते हैं कि आईएएस आला दर्जे का पद है, पर किसी आईएएस के सामने उसका शिक्षक आ जाए तो वह शिक्षक के पाँव छू लेता है। पद तो आईएएस का बड़ा है, पर सम्मान शिक्षक या कहें गुरु का कुछ ख़ास है। असल में सम्मान इस बात का है कि शिक्षक ने उसके जीवन को गढ़ने का काम किया, उसे राह दिखाई या कहें कि उसके जीवन की दिशा तय की। मतलब यह कि ज्ञानी वर्ग या कहें ब्राह्मण वर्ग समाज को दिशा देने का काम करता है, इसलिए एक अलग तरह के सम्मान का पात्र बन जाता है। यहाँ बात ऊँच-नीच या छोटे-बड़े की नहीं है।

ज्ञान के साथ सत्यवादिता और निर्विकार आचरण ब्राह्मणत्व का आधार है। ऐसा इसलिए कि उम्मीद की जाती है कि समाज को दिशा देने की असली ज़िम्मेदारी ब्राह्मण की है। सो, आप ख़ुद तय कीजिए कि आपका वर्ण क्या है। बस इतनी आदत बनाइए कि आप जो भी हों, छोटे या बड़े, नीच या ऊँच बिलकुल नहीं हैं। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र होना आपकी पेशागत विशिष्टता हो सकती है, बस। इसीलिए दलितों से मैं कहता हूं कि आप ख़ुद को नीची या छोटी जाति समझना बन्द कीजिए। पैदा आप किस कुल में हुए, इससे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण यह है कि इस वक़्त आप हैं क्या! ब्राह्मणवाद एक पारिभाषिक शब्द बन गया है, इसलिए इसका विरोध जायज़ हो सकता है, पर ब्राह्मणत्व एक सद्गुण है, इसे अपनाइए। व्यापार में लगे हों तो वैश्य वर्ण का द्योतक पेशागत उपनाम अपने साथ लगाइए। दो वेद पढ़िए और ‘द्विवेदी’ लिखिए; अग्निहोत्र कीजिए, ‘अग्निहोत्री’ लिखिए। वैसे, ऊँच-नीच और छूत-अछूत की मानसिकता समाप्त हो जाए तो किसी को अपना पेशागत कोई उपनाम लगाने में शायद कोई परेशानी न होगी। पेशा बदलने के साथ उपनाम भी बदल जाए, क्या दिक़्क़त? मान लीजिए कि हीराचन्द स्वर्णकार या सुनार को सोन-चाँदी का काम रास नहीं आया और उन्होंने लॉण्ड्री खोल ली, तो ज़ाहिर है वे हीराचन्द स्वर्णकार से हीराचन्द रजक या धवल बन गए। एक बार ज़रूर समझने की है कि कारोबार वाली चीज़ों में तो इस तरह के परिवर्तन आसान हो सकते हैं, पर जहाँ बात ज्ञान वाले काम-धन्धे की है, वहाँ यह आसान नहीं है। जैसे कि अगर आप एक बार तीन वेदों का ज्ञान प्राप्त करके त्रिवेदी बन गए, तो ऐसा नहीं हो सकता कि आप अगले दिन से द्विवेदी होने का विकल्प चुन लें। आप और ज्ञान प्राप्त करके चतुर्वेदी तो हो सकते हैं, पर अपने ज्ञान को कम करने का कोई विकल्प आपके पास नहीं होता। हाँ, यह ज़रूर हो सकता है आप पहले चारों वेद पढ़ा रहे हों, पर एक दिन तय कर लें कि अब आप एक या दो ही वेद पढ़ाएँगे, तो यह एक अलग बात है। उपाध्याय का काम छोड़कर आप जूते की फैक्ट्री लगाकर चर्मकार के धन्धे में भी आ ही सकते हैं और चर्मकार बन ही सकते है।

दलित मित्रों से यही कहूँगा कि अपने नाम में ‘भारतीय’, ‘कमल’, ‘सरोज’ वग़ैरह लगाकर आप बराबरी हासिल करने का सपना तो छोड़ ही दीजिए। इससे कुछ हासिल होने वाला नहीं है। गान्धीजी ने बड़ी इज़्ज़त के साथ ‘हरिजन’ नाम दिया था, पर क्या हुआ? हरि का जन भी अछूत होने से कहाँ बच पाया? असली ब्राह्मण, असली क्षत्रिय, असली वैश्य बनिए, नक़ली लोग अपने-आप एक दिन किनारे हो जाएँगे। जब तक सामने असली नहीं है, तब तक नक़ली सिक्का बस धोखे में चल रहा है। अपने बच्चों का यज्ञोपवीत कराइए। भारतीय संस्कृति का एक महान् चिह्न आज महामूर्खतापूर्ण बना दिया गया है। याद रखिए कि पहले हर द्विज का यज्ञोपवीत संस्कार होता था। इसके में ही ज्ञान की शर्त समाहित थी, इसलिए शूद्र (ज्ञानरहित, पर अछूत या किसी से छोटा क़तई नहीं) को छूट थी। गुरुकुल में जब बच्चा अध्ययन करने के लिए प्रवेश करता था, तो उसका यज्ञोपवीत किया जाता था। तीन के भीतर तीन, यानी नौ धागों का बटा हुआ सूत्र पहनाकर हर धागे में समाहित प्रतीकात्मक अर्थ उसे समझाया जाता था और जीवन में उसे निबाहने का सङ्कल्प दिलाया जाता था। उदात्त जीवन के सङ्कल्पों को हम कभी भूलें नहीं, इसलिए यज्ञोपवीत के धागे के रूप में इसे शरीर पर धारण कराया जाता था। इसे एक तरह से आजकल की रोज़मर्रा के कामों को याद दिलाने वाली डायरी के मानिन्द समझिए। एक बार वाक़या कुछ यों हुआ कि मेरे साथ सामाजिक काम में लगे एक बालक ने फ़ैसला लिया कि वह यज्ञोपवीत संस्कार करवाएगा। आज़ादी बचाओ आन्दोलन के हमारे अगुआ प्रो. बनवारीलाल शर्मा जी ने यह कहकर विरोध किया यह ब्राह्मणवाद की निशानी है, पर मैंने बालक का समर्थन किया और यज्ञोपवीत के अनुष्ठान को सम्पन्न कराने में सहभागी बना। दुर्भाग्य से लोग धीरे-धीरे यज्ञोपवीत, यज्ञ वग़ैरह के उद्देश्य भूल चुके हैं और सचमुच ये चीज़ें ब्राह्मणवाद की पहचान बन गई हैं। लोगों को नहीं मालूम कि पहले महिलाएँ भी यज्ञोपवीत धारण करती थीं। आज तो यह बस विवाह के मण्डप में  कर्मकाण्ड के तौर पर पहना भर दिया जाता है, जिसे आप जीवन भर जब-जब पेशाब कीजिए, तब-तब कान पर लटका लीजिए और मूर्खतापूर्ण तथाकथित वैज्ञानिक तर्क देते घूमिए कि कान पर जनेऊ लटकाने से फलाँ नस पर एक्यूप्रेशर होता है और मूत्र-त्याग बेहतर होता है। ऐसे तर्क देनेवालो, ज़रा गम्भीरता से सोचो कि कान पर जनेऊ आप बस एक-दो फेरे लटका भर लेते हो, इतना कस के बाँधते नहीं कि कोई दबाव पड़े। इससे ज़्यादा दबाव तो हवा के झोंके से पड़ जाय।

चीज़ों के असली अर्थ समझिए और जीवन में अपनाइए। वास्तव में सद्गुण एक ऐसी चीज़ है, जिसे जीवन में उतारने पर एक दिन ऐसा आता है कि अपने-आप ऊँचा पायदान हासिल होने लगता है। मनुष्य आख़िर मनुष्य ही है और उदात्त मूल्य व्यवहार में सामने दिखते रहें तो धीरे-धीरे उसे वह स्वीकारने की दिशा में चल पड़ता है।   

अगर किसी को आप नीचा या ऊँचा मानते हैं तो समझिए कि यह आपकी मानसिक बीमारी है और इसे दूर करने की ज़रूरत है। वास्तव में आज जो ऊँची जातियाँ मानी जा रही हैं, उनका सबसे बड़ा दायित्व है। अगर ये जातियाँ चाह लें तो समाज से ग़ैरबराबरी वाली जाति-व्यवस्था समाप्त होने में देर नहीं लगेगी। हमारा समाज इस मानसिक बीमारी से उबर पाए तो इसके पास इतनी मेधा और ज्ञान की ऐसी विरासत है कि यह दुनिया को आज भी जीने की सही राह दिखा सकता है। (समाप्त—20 अगस्त, 2019 फेसबुक)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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