इतिहास को तो इतिहास रहने दें!
हरिलाल को हिन्दू धर्म में वापस लाने कोशिश आर्यसमाजियों ने की और कस्तूरबा गान्धी की इसमें विशेष भूमिका रही। यह बात अलग है कि हरिलाल न तो मन से मुसलमान बने थे और न ही हिन्दू धर्म में वापस इसलिए आए कि उन्हें अपनी ग़लती का एहसास हो गया।
विचारधारा के आग्रहों से ग्रस्त लोग इतिहास को अपनी-अपनी निजी रुचियों, मन्तव्यों के हिसाब से मोड़ने की जुगत लगाते रहते हैं। आप इतिहास की वामपन्थी और दक्षिणपन्थी पोथियाँ पढ़िए और पुराने मूल दस्तावेज़ों को देखिए तो कई जगहों पर शातिराना ढङ्ग से इतिहास के सच को मनमुताबिक मोड़ने की कोशिशें दिखाई देंगी। प्रमाण के तौर पर एक उदाहरण दे रहा हूँ।
17 सितम्बर, 2019 के हिन्दुस्तान टाइम्स में गान्धी की 150वीं जयन्ती के मौक़े पर चल रही शृङ्खला के तहत गोपालकृष्ण गान्धी का एक लेख छपा था। गोपालकृष्ण गान्धी की हमारे जैसे लोग काफ़ी इज़्ज़त करते हैं। ज़ाहिर है, उनके लिखे को ज़्यादातर लोग प्रमाण के तौर पर याद रखेंगे। उन्होंने एक जगह लिखा है कि गान्धी के बागी बेटे हरिलाल ने जब इस्लाम कबूला तो हिन्दू महासभा ने उन्हें दुबारा धर्म परिवर्तन कराकर हिन्दू बनाया।
गोपालकृष्ण गान्धी ने लिखा है तो ज़्यादातर लोगों के लिए यह पुख़्ता सामान्य ज्ञान है, जबकि बात सरासर ग़लत है। हिन्दू महासभा का इससे कोई लेना-देना था ही नहीं। यह काम आर्यसमाजियों का था। शुद्धि-आन्दोलन आर्यसामजियों का एक महत्त्वाकाङ्क्षी आयोजन हुआ करता था। तब आर्यसमाजियों का एक तबक़ा गर्म-दल वालों के साथ था तो दूसरा गान्धी के नर्म-दल के साथ। यों भी कह सकते हैं कि गर्म-दल और नर्म-दल, दोनों में सबसे बड़ी तादाद आर्यसमाजियों की ही थी। आर्यसमाजी हिन्दू महासभा में भी थे। यहीं पर इस बात पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि हिन्दू महासभा को अक्सर एक प्रतिगामी सङ्गठन की तरह प्रस्तुत किया जाता है, जबकि इसने भी कई महत्त्वपूर्ण काम किए। मदनमोहन मालवीय और भाई परमानन्द जैसे लोग किसी समय इसके कर्ताधर्ताओं में हुआ करते थे। यह भी मज़ेदार है कि आर्समाजियों का एक धड़ा मुसलमान-विरोधी था तो दूसरा धड़ा साम्प्रदायिक सद्भाव के कामों में बढ़चढ़कर हिस्सा लेता था।
वास्तविकता यही है कि हरिलाल को हिन्दू धर्म में वापस लाने की कोशिश आर्यसमाजियों ने की और कस्तूरबा गान्धी की इसमें विशेष भूमिका रही। यह बात अलग है कि हरिलाल न तो मन से मुसलमान बने थे और न ही हिन्दू धर्म में वापस इसलिए आए कि उन्हें अपनी ग़लती का एहसास हो गया। हरिलाल प्रतिक्रियाओं के मारे एक ऐसी मनःस्थिति में थे, जिसका विश्लेषण एक विशिष्ट निष्पक्षता की माँग करता है। फिलहाल, मैं बस यह कहना चाहता हूँ कि हमें इतिहास को इतिहास ही रहने देना चाहिए, वरना इतिहास से सबक़ लेने की बात का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। (सन्त समीर)