पत्रकारिताविमर्श

भाषा-संस्कार के अगुआ

(उत्तर प्रदेश की पत्रकारिता—एक)

कुछ समय पहले अपने एक भाषण में हमारे प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी जी ने सन् 1954 में हुए कुम्भ हादसे का ज़िक्र करते हुए पण्डित जवाहरलाल नेहरू पर जब आरोप लगाया था तो उसी समय मुझे भी याद आया था कि मैंने कुछ साल पहले ‘उत्तर प्रदेश की पत्रकारिता’ शीर्षक से एक लेख लिखा था, जिसमें कुम्भ हादसे की बात भी थी। वास्तव में आरोप नेहरू पर नहीं, बल्कि तब के उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री पण्डित गोविन्द बल्लभ पन्त पर बनता है। इस घटना को समझने के लिए मैंने पुस्तकालयों में जाकर तब के इलाहाबाद के अख़बारों के पन्ने पलटे थे, इसलिए इसे आप प्रामाणिक मान सकते हैं। वह दुर्लभ तसवीर भी लेख के दूसरे हिस्से में चस्पाँ कर रहा हूँ, जिसे मैंने ‘लीडर’ अख़बार के पन्नों से खींचा था। इस तसवीर में साफ़ दिखाई दे रहा है कि लोग जान बचाने के लिए बिजली के तारों तक से लटक कर भाग रहे थे। इस लेख से गुज़रते हुए आपको आपातकाल, बाबरी मस्ज़िद जैसे प्रकरणों की भी कुछ रोचक बातें मिल सकती हैं। इसे तीन क़िस्तों में आप पढ़ सकते हैं।

बात हिन्दी पत्रकारिता की चले तो उत्तर प्रदेश का नाम इतिहास की सबसे स्वर्णिम इबारत लिखने वालों में लिया जाएगा। उत्तराखण्ड की पत्रकारिता को भी इससे अलग करके नहीं देखा जा सकता। 190 साल पहले सन् 1826 में बङ्गाल के उदन्त मार्तण्ड ने हिन्दी पत्रकारिता की जो मशाल में जलाई, उसे उत्तर प्रदेश के काशी और प्रयाग की पत्रकारिता ने ही सही मायने में ज्वाला का रूप दिया। काशी से आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद कितने समाचार पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ, इसकी कोई प्रामाणिक सूची अभी तक नहीं बन पाई है, पर अनुमान है कि यह सङ्ख्या पाँच सौ से ज़्यादा ठहरेगी। प्रयाग की तमाम छोटी-बड़ी पत्र-पत्रिकाओं को इस लेखक ने स्वयं जब सूचीबद्ध किया तो इनकी सङ्ख्या सात सौ से ज़्यादा निकली। इसी तरह लखनऊ, कानपुर, मेरठ, गोरखपुर, आगरा, बरेली, मुरादाबाद, शाहजहाँपुर, बदायूँ, झाँसी, जालौन, नैनीताल आदि तमाम जगहों से समय-समय पर हज़ारों की सङ्ख्या में निकली पत्र-पत्रिकाओं के परोक्ष-अपरोक्ष योगदान ने हिन्दी पत्रकारिता के अतीत और वर्तमान का चेहरा गढ़ा। सही मायने में हिन्दी पत्रकारिता अपनी सम्पूर्णता में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की हिन्दी पत्रकारिता का एक तरह से समुच्चय है। बाक़ी जगहों, यहाँ तक कि दिल्ली की हिन्दी पत्रकारिता भी इन्हीं दो प्रदेशों की पत्रकारिता की छाया मात्र है।

आज़ादी के पहले से लेकर वर्तमान तक दैनिक, साप्ताहिक, पाक्षिक की समाचार-विचार की पत्रकारिता से लेकर साहित्यिक पत्रकारिता तक उत्तर प्रदेश की सैकड़ों पत्र-पत्रिकाएँ हैं, जिनका योगदान विशिष्ट रहा। हिन्दी पत्रकारिता के भाषा-संस्कार, शिल्प और सरोकार को राह दिखाने में इस प्रदेश की पत्र-पत्रिकाओं की भूमिका को कई रूपों में रेखाङ्कित किया जा सकता है। हिन्दी भाषा को मानक रूप देने में उत्तर प्रदेश की पत्र-पत्रिकाओं का योगदान तो सर्वाधिक ही कहा जाएगा।

सन् 1900 ई. में ‘सरस्वती’ पत्रिका का इलाहाबाद से प्रकाशन शुरू हुआ तो साहित्य का जैसे एक नया युग ही शुरू हो गया। हिन्दी भाषा में साफ़-सुथरे लेखन और शब्द सन्धान की जो परम्परा शुरू हुई तो उसने पूरी हिन्दी पत्रकारिता को ही गहरे तक प्रभावित किया। सरस्वती के सम्पादक महावीर प्रसाद द्विवेदी ने प्रयाग की साहित्यिक पत्रकारिता को नई ऊँचाई दी। द्विवेदी जी ने साहित्यकारों की एक बड़ी फ़ौज तैयार की, जिनमें से कई ने समाचार पत्रों की पत्रकारिता में भी बड़ा योगदान दिया। ‘सरस्वती’ की धमक पूरे देश के साहित्य और पत्रकारिता जगत् में ऐसी रही कि लगभग सारे दैनिक समाचार पत्रों में साहित्य के पृष्ठ लगभग अनिवार्य रूप से दिए जाने लगे।

इसके पूर्व 1877 ई. में यहाँ से ‘हिन्दी प्रदीप’ के प्रकाशन ने एक बड़ी भूमिका तैयार कर दी थी। हालाँकि इसके भी पहले सन् 1874 में यहाँ से ‘नाटक प्रकाश’ जैसे मासिक पत्र प्रकाशित हो चुके थे, पर पं. बालकृष्ण भट्ट ने जब ‘हिन्दी प्रदीप’ निकालना शुरू किया तो यह हिन्दी की साहित्यिक पत्रकारिता के क्षेत्र में युगान्तकारी पड़ाव साबित हुआ, जिसे ‘सरस्वती’ ने एक परिणति दी। भट्ट जी पत्रकारिता और साहित्य, दोनों साथ-साथ साध रहे थे। सरल-सहज, मुहावरेदार और धारदार हिन्दी लिखने की प्रेरणा देने वालों में भट्ट जी अग्रणी थे। हिन्दी पत्रकारों ने उनसे यह सीख ली कि कैसे गुलामी के उस दौर में भी अँग्रेज़ों के किसी भी अत्याचार का मुखर विरोध किया जाए। निस्सन्देह गम्भीर बातों को सहज शैली में प्रकट करने की कला के लिए हिन्दी पत्रकारिता बालकृष्ण भट्ट की ऋणी रहेगी।

दैनिक पत्रों में पराड़कर जी के सम्पादन में ‘आज’ अख़बार ने भाषा संस्कार की दृष्टि से अग्रणी भूमिका निभाई, तो यह अन्य राष्ट्रीय पत्रों के लिए भी उदाहरण बना। ‘आज’ की भूमिका वास्तव में हिन्दी पत्रकारिता की दिशा-दशा तय करने में मील के पत्थर जैसी है। 5 सितम्बर, 1920 को इसका प्रकाशन ही युगान्तकारी था। इस समाचार पत्र के शुरू होने से कुछ ही समय पहले इसके संस्थापक शिवप्रसाद गुप्त विदेश यात्रा पर गए थे। इस पूरी यात्रा में उन्होंने अनुभव किया कि विदेशी लोग अपनी ही भाषा में बात करना पसन्द करते हैं। ब्रिटेन के ‘लन्दन टाइम्स’ समाचार पत्र ने उन पर गहरा असर डाला। इस यात्रा से उनके मन में तीव्र भावना पैदा हुई कि हिन्दी भाषा में भी एक ऐसा समाचार पत्र निकालने की ज़रूरत है, जो अपनी भाषा और अपने लोगों के प्रति गहरा सरोकारी अनुराग पैदा करने का काम करे। लोकमान्य तिलक से सलाह माँगी गई और ‘आज’ के प्रकाशन की भूमिका तैयार हुई। राष्ट्ररत्न शिवप्रसाद गुप्त और इसके सम्पादक बाबू विष्णुराव पराड़कर ने कहा—‘‘हमारा उद्देश्य अपने देश के लिए पूर्ण रूप से स्वतन्त्रता का उपार्जन करना होगा। हम हर बात में स्वतन्त्र होना चाहते हैं और यही हमारा लक्ष्य है।’’ ‘आज’ नाम रखने के पीछे भी कितनी सुविचारित नीति और कितने स्पष्ट उद्देश्य थे, उन्हें इसकी शुरुआत करने वालों के इस बयान में देखा जा सकता है—‘‘हमारा पत्र दैनिक है। प्रत्येक दिन इसका प्रकाशन होगा। संसार भर के नए-नए समाचार इसमें रहेंगे। दिन-प्रतिदिन संसार की बदलती हुई दशा में नए-नए विचार उपस्थित करने की आवश्यकता होगी। हम इस बात का साहस नहीं कर सकते कि हम सर्वकाल, सर्वदेश, सर्वावस्था के लिए जो उचित, युक्त और सत्य होगा, वही सर्वदा कहेंगे। हमें रोज़-रोज़ अपना मत तत्काल स्थिर करके बड़ी-छोटी सब प्रकार की समस्याओं को समयानुसार हल करना होगा। जिस क्षण जैसी आवश्यकता पड़ेगी, उसी की पूर्ति का उपाय सोचना और प्रचार करना होगा। अतएव हम एक ही रोज़ की ज़िम्मेदारी प्रत्येक अङ्क में ले सकते हैं। वह ज़िम्मेदारी प्रत्येक अङ्क में ले सकते हैं। वह ज़िम्मेदारी प्रत्येक दिन केवल आज की होगी, इस कारण इस पत्र का नाम ‘आज’ है।’’ इसके सञ्चालकों ने अपना एक कर्तव्य सूचना-पत्र बनाया और उसमें लिखा—‘‘भारत के गौरव की वृद्धि और उसकी राजनीतिक उन्नति ‘आज’ का विशेष लक्ष्य होगा।…. हमारा मूल मन्त्र है कि हमारे देश का गौरव बढ़े। यही हमारा राष्ट्रीय सिद्धान्त है और यही हमारा राजनीतिक सिद्धान्त है।…. हमारी संस्कृति, सभ्यता और परम्परा सबसे पहले है। इनकी रक्षा के लिए ‘आज’ कुछ भी कर सकता है।’’

‘आज’ अख़बार की इन प्रवृत्तियों और सरोकारों में दरअसल उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश की पत्रकारिता का पैमाना देखा जा सकता है। ‘आज’ ने लम्बे समय तक अपने घोषित कर्तव्यों का पालन किया। हिन्दी के विकास में ‘आज’ का अवदान इस मायने में भी अविस्मरणीय रहेगा कि एक समय में नए-नए शब्दों के निर्माण में इसकी भूमिका टकसाल-जैसी ही बन गई थी। असहयोग, असहकारिता, नौकरशाही, प्रधानमन्त्री, मुद्रास्फीति, राष्ट्रपति, विधायक, सर्वश्री, साम्यवाद जैसे कई प्रचलित शब्द ‘आज’ के पृष्ठों से ही प्रचलित हुए। ‘आज’ की अगुआई में प्रदेश के अनेक पत्रों ने हिन्दी को सँवारने में कोई कोर-कसर नहीं रखी। ‘सचिवालय’ जैसे कई शब्द ‘अमृत पत्रिका’ के ज़रिये प्रचलन में आए, तो उस समय के दूसरे पत्रों ने भी हिन्दी जगत् को अनेक नए शब्द दिए। लोकतन्त्र, सुराज्य, वातावरण, संसद, काररवाई, अन्तरराष्ट्रीय मुद्राकोष, उच्चायुक्त, सत्र न्यायालय, मुद्राप्रसार जैसे अन्यान्य शब्दों को उत्तर प्रदेश के समाचार पत्रों ने ही प्रचलित किया। हिन्दी पत्रकारिता के शिल्प को माँजने में पं. गणेश शङ्कर विद्यार्थी, खाडिलकर, ईश्वरचन्द्र सिन्हा, मोहनलाल गुप्त, लक्ष्मीशङ्कर व्यास, जगदीश प्रसाद चतुर्वेदी, ज्ञानचन्द जेन, मुन्दर शर्मा, विद्याभास्कर, शङ्कर दयालु श्रीवास्तव, डॉ. धर्मवीर भारती, अज्ञेय, नरेश मेहता, कमलेश्वर, डॉ. लक्ष्मीकान्त वर्मा आदि के अवदान को भुलाया नहीं जा सकता।

हिन्दी पत्रकारिता की भाषा और प्रस्तुति में आज़ादी के लगभग तीन दशक बाद तक काफ़ी काम हुआ। उत्तर प्रदेश के प्रायः सभी समाचार पत्रों और पत्रिकाओं में एक सुनिश्चित स्टाइल शीट हुआ करती थी। अस्सी का दशक आते-आते भाषा-संस्कार की प्रवृत्ति क्षीण होने लगी। प्रभाष जोशी के सम्पादन में ‘जनसत्ता’ ने अवश्य समाचार पत्रों में शैली और भाषा की समृद्धि का एक अभियान-सा चलाया, पर यह दिल्ली का समाचार पत्र था। एक समय वह भी आया कि जिस ‘आज’ अख़बार को भाषा-संस्कार की अगुआई का श्रेय प्राप्त था, वही भाषा के मामले में सबसे ज़्यादा लापरवाही बरतने वाला अख़बार बन गया। दिल्ली में ‘हिन्दुस्तान’ जैसे क्रान्तिधर्मा अख़बार की अस्सी के दशक में जिस तरह से लाटरी वाले अख़बार छवि बनी, कुछ उसी तरह से ‘आज’ की चायवालों के अख़बार की छवि बनती गई। दिल्ली के कुछ अख़बारों ने हिन्दी-अँग्रेज़ी की खिचड़ी पकानी शुरू की तो इसका असर उत्तर प्रदेश के अख़बारों पर भी पड़ा। ‘स्ट्रेपटाप का स्टाइलिश लुक’, ‘ज़्यादा फ्री एनवायरमेंट बच्चों के लिए ठीक नहीं’, ‘समर में कूल लुक के कपड़े पहनें’…टाइप के वाक्य लिखे जाने की जैसे होड़-सी लग गई। हिन्दी के बजाय अँग्रेज़ी में स्तम्भों के नाम देने का अब फ़ैशन ही चल पड़ा है। लाइफ़ स्टाइल, क्राइम, टेक्नॉलोजी, हॉट सिटी जैसे शब्द तो जैसे हिन्दी के ही बना दिए गए हैं। वास्तव में उत्तर प्रदेश की पत्रकारिता ने आज की तारीख़ में लगभग पूरी तरह से व्यावसायिकता का चोला पहन लिया है। पत्रकारीय प्रवृत्तियों की निर्णायक भूमिका में बाज़ार आ गया है। अब विज्ञापन तय कर रहे हैं कि अख़बार की भाषा क्या होगी और समाचार का प्रस्तुतीकरण कैसा होगा। भाषाई सरोकारों की पहचान अब राष्ट्र और राष्ट्रभाषा के हित से ज़्यादा विज्ञापनदाता और सम्पादक से ज़्यादा प्रबन्धन के दिशा-निर्देश से ही की जा सकती है। हाल के दिनों में अँग्रेज़ी की अति के चलते कुछ विवाद खड़े हुए तो कुछ अख़बारों ने ज़रूर अँग्रेज़ी के बजाय हिन्दी के शब्दों के पुनः प्रयोग पर बल देना शुरू किया है। भाषा के मसले से ज़रा हटकर उत्तर प्रदेश के अख़बारों की प्रवृत्तियों और सरोकारों की पहचान करनी हो तो समय-समय पर देश के पटल पर घटने वाली घटनाओं की रिपोर्टिङ्ग पर भी निगाह दौड़ाने की ज़रूरत है। ज़्यादा विस्तार में न जाकर कुछ ख़ास घटनाओं पर भी निगाह डाल ली जाए तो चीज़ें काफ़ी स्पष्ट हो जाती हैं। एक घटना ले सकते हैं आज़ादी के ठीक बाद की, जो इलाहाबाद में घटित हुई और कुम्भ हादसे के रूप में जानी जाती है। इस घटना ने प्रदेश की पत्रकारिता में एक ख़ास तेवर पैदा किया, जिस पर आज कम लोगों की निगाह जाती है। दूसरी घटना है आपात काल की, जिसमें देश भर के अख़बारों को सेंसरशिप से गुज़रना पड़ा, और तीसरी घटना है बाबरी मस्ज़िद का ढाँचा ढहाए जाने की, जिसे अख़बारों ने अपने-अपने नज़रिये से खुलकर रिपोर्ट किया। (…जारी) (सन्त समीर)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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