हिन्दी पत्रकारिता का अन्धकार युग
(उत्तर प्रदेश की पत्रकारिता—तीन)
मानना पड़ेगा कि अयोध्या से सटे फ़ैज़ाबाद से छपने वाले ‘जनमोर्चा’ ने इस मुद्दे पर काफ़ी सन्तुलित रिपोर्टिङ्ग की। विवाद के हर पहलू पर इस अख़बार ने सधी हुई जानकारियाँ दीं। शीतला सिंह के सम्पादन में एक सन्तुलित दृष्टि दिखाई देती है।
उत्तर प्रदेश की पत्रकारिता में अयोध्या की बाबरी मस्ज़िद गिराए जाने की घटना युगान्तकारी है, जबकि यहाँ के अख़बार पालों में बँटते नज़र आए। 6 दिसम्बर, 1992 को अयोध्या में बाबरी मस्ज़िद गिराए जाने की घटना ने पूरे देश को झकझोर दिया था। इस घटना का प्रभाव मात्र एक क्षेत्र, प्रदेश या देश तक ही सीमित नहीं रहा, बल्कि इसकी प्रतिध्वनि अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर भी काफ़ी दिनों तक सुनाई दी थी। अयोध्या उत्तर प्रदेश में है, तो ज़ाहिर तौर पर यहाँ के लोगों के साथ ही यहाँ के अख़बार भी इस घटना के प्रति ज़्यादा संवेदनशील रहे। अयोध्या काण्ड की ख़बरें उत्तर प्रदेश के समाचार पत्रों ने बढ़-चढ़कर दीं। घटना के बाद पूरे दिसम्बर भर और बाद में भी महीनों इससे जुड़ी ख़बरें किसी-न-किसी रूप में यहाँ के अख़बारों की सुर्खियाँ बनती रहीं। लेख, फीचर, फोटो फ़ीचर, विशेष रिपोर्ट के रूप में अख़बारों में अयोध्या काण्ड पर सामग्री की भरमार रही। मानना पड़ेगा कि अयोध्या से सटे फ़ैज़ाबाद से छपने वाले ‘जनमोर्चा’ ने इस मुद्दे पर काफ़ी सन्तुलित रिपोर्टिङ्ग की। विवाद के हर पहलू पर इस अख़बार ने सधी हुई जानकारियाँ दीं। शीतला सिंह के सम्पादन में एक सन्तुलित दृष्टि दिखाई देती है। इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले मुख्य रूप से दो दैनिक पत्र थे ‘अमृत प्रभात’ और ‘आज’। वैसे ‘आज’ का मुख्यालय बनारस था। ‘दैनिक जागरण’, ‘स्वतन्त्र भारत’ जैसे दैनिक पत्र पूरी बाहर के थे और उन्होंने सिर्फ़ स्थानीय समाचारों के लिए कुछ पृष्ठ सुरक्षित कर रखा था। अयोध्या काण्ड इतना संवेदनशील मुद्दा था कि इसकी रिपोर्टिङ्ग को लेकर ‘आज’ जैसे अख़बार पर साम्प्रदायिक विद्वेष फैलाने तक का आरोप लगा। ‘आज’ के कुछ अङ्क भी प्रशासन द्वारा ज़ब्त कर लिए गए थे। ‘अमृत प्रभात’ की रिपोर्टिङ्ग को सन्तुलित माना गया। वैसे इन दोनों ही समाचार पत्रों में इस घटना से जुड़ी हर चीज़ को कवर करने की जैसे होड़-सी लगी हुई थी। माहौल ऐसा बन गया था कि लोग हर सुबह बेसब्री से अख़बार का इन्तज़ार करते थे। बनारस और इलाहाबाद से प्रकाशित इन दोनों ही दैनिकों की उस दौरान ख़ूब माँग बढ़ी। अख़बारों की प्रतियाँ ब्लैक मार्केटिङ्ग के तहत बेची गईं। स्थिति यह थी कि अयोध्या काण्ड के तुरन्त बाद के कुछ दिनों में ब्लैक मार्केटिंग और साम्प्रदायिक माहौल के चलते नगर के विभिन्न कार्यालयों में भी समाचार पत्रों की प्रतियाँ नहीं पहुँच सकीं। इस दौरान के अङ्क अख़बारों के कार्यालयों तक में उपलब्ध नहीं हैं।
12 दिसम्बर, 1992 को ‘अमृत प्रभात’ के पृष्ठ-5, जो समाचारों का पृष्ठ था, इस पर एक विशेष लेख सबसे ऊपर आठ कॉलम में ‘इमरजेंसी के भूखे लोग उसका स्वाद भूल गए शायद’ शीर्षक से प्रकाशित किया गया है। इसके लेखक थे—श्रीदीपेश। इस लेख के अनुसार—‘‘यह धार्मिक उन्माद अत्यन्त ख़तरनाक होता है, लेकिन दुर्भाग्य यह है कि इसके शिकार निचले तबके के लोग होते हैं, जिनको दो दिन काम न करने पर भूखों मरने की नौबत आ जाती है। दर्जी, चूड़ीहारा, साइकिल, स्कूटर मिस्त्री, ठेला लगाने वाला, रिक्शे-ताँगे का चालक, सब्ज़ी लगाने वाला, जो इस धर्मोन्माद के प्रभाव में कभी नहीं आना चाहते, वे ही इसके शिकार हो जाते हैं। यह उक्ति ऐसे समय चरितार्थ होती है—और करै अपराध कोऊ और पाव फल भोग, अति विचित्र भगवन्त गति को जग जानै जोग। इमरजेंसी में भी सबसे अधिक शिकार ऐसे ही लोग होते हैं। …अतः ईश्वर से प्रार्थना करनी चाहिए कि ‘इमरजेंसी’ जैसा दुर्दिन वह न लाए, वर्ना हज़ारों-लाखों मौतों की शिनाख़्त भी ढूँढ़े नहीं मिलेगी, क्योंकि सुरक्षा बल इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं रह जाते। रातों-रात लाशें ग़ायब हो जाती हैं और लोग बिलख कर रह जाते हैं।’’
दूसरी तरफ ‘आज’ अख़बार का दृष्टिकोण देखिए। ‘आज’ के 14 दिसम्बर, 1992 के अङ्क में एक महत्त्वपूर्ण समाचार विश्लेषण विविध समाचारों के पृष्ठ-5 पर प्रकाशित किया गया है। इसका शीर्षक है—‘आगे रास्ता पथरीला हो सकता है’। इस विश्लेषण के अनुसार—‘‘राष्ट्रीय स्वयंसेवक सङ्घ, विश्व हिन्दू परिषद और बजरङ्ग दल पर प्रतिबन्ध के दूरगामी परिणाम होंगे। हिन्दू जागरण के रूप में उदित सूर्य की तपन अङ्कुश की रस्सियों को झुलसाकर कमज़ोर कर सकती है और सदियों का स्वर्णिम इतिहास लिए विश्व में स्वाधीनता का मन्त्र फूँकने वाली काँग्रेस के लिए आगे का रास्ता पथरीला हो सकता है। देश के लिए बहुत कुछ करने का सङ्कल्प रखने वाली इन्दिरा गान्धी के आपातकाल के अङ्कुश को जनता ने बख़ूबी नकार दिया था, उन्हें गद्दी से हटना पड़ा था, क्योंकि भारतीय अवाम की नब्ज़ ही कुछ ऐसी है जो कि किसी दबाव को अधिक समय तक बर्दाश्त नहीं कर पाती। सङ्घ तो प्रतिबन्धों के आघात को पिछले सात दशक से झेल रहा है। लेकिन विश्व हिन्दू परिषद और बजरङ्ग दल अभी कच्ची उम्र में हैं। कच्ची उम्र की बन्दिश जवानी में विद्रोह बन जाती है। उस ज्वालामुखी का विस्फोट सत्ता के मजबूत खम्भों को कभी भी ढहा सकता है।…..
धर्मनिरपेक्षता के नाम पर सभी राजनैतिक दल हिन्दुओं के हितों को हमेशा नज़रअन्दाज़ करते रहे। वोट बैङ्क की खातिर अल्पसङ्ख्यकों की सभी माँगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष पूरा करते रहे। सङ्घ ने इसे तुष्टीकरण का नाम देकर हिन्दुओं को एक मञ्च पर लाने का एक मज़बूत काम किया।… इतिहास गवाह है कि हर प्रतिबन्ध के बाद सङ्घ हिन्दुत्व की नई ताक़त बनकर उभरा।…
….सङ्घ ने अपनी बेमिसाल ताक़त का अहसास छह दिसम्बर को कराया, भले ही उसके परिणाम अनिष्टकारी रहे हों। …..जब भाजपा ने जन्मभूमि आन्दोलन की कमान सँभाली तो विश्व हिन्दू परिषद और बजरङ्ग दल उसकी पहचान और पर्याय बन गए थे। इस पहचान की शिनाख़्त का अङ्कुश शायद नई क्रान्ति को जन्म देगा और गैर भाजपाई दलों के मन में पनप रही भ्रान्तियाँ ढेर हो जाएँगी।’’
स्पष्ट रूप से राम मन्दिर विवाद में ‘आज’ की भूमिका विवादास्पद रही और उस पर पक्षपात के कई आरोप लगे। ‘अमृत प्रभात’ की भूमिका इस मामले में काफ़ी सन्तुलित रही।
इस पूरे परिप्रेक्ष्य में उत्तराखण्ड की पत्रकारिता को भी अलग करके नहीं देखा जा सकता। यह ज़रूर है कि पहाड़ के इलाक़ों की समस्याएँ वहाँ के अख़बारों में ज़्यादा मुखर होती रही हैं। 1939 से आज़ादी के बाद तक प्रकाशित ‘कर्मभूमि’ पत्र ने ब्रिटिश गढ़वाल तथा टिहरी रियासत दोनों में राजनैतिक, सामाजिक, साहित्यिक चेतना फैलाने का कार्य किया। 1976 में उत्तर उजाला दैनिक पत्र हल्द्वानी से प्रारम्भ हुआ, जो कुछ अलग तेवर का अख़बार है और शुरू से ही सीमित साधनों में मौजूदा दौर के साथ क़दमताल कर रहा है। उत्तराखण्ड की पत्रकारिता का कोई अलग चेहरा न होते हुए भी अलग उत्तराखण्ड राज्य की माँग के आन्दोलन के दौर में यहाँ की पत्रकारिता का कुछ अलग रूप ज़रूर देखा जा सकता है। उस दौर में पहाड़ी इलाक़ों में ज़्यादातर साप्ताहिक, पाक्षिक और मासिक पत्र-पत्रिकाएँ ही निकलती थीं। देहरादून से निकलने वाले अख़बारों की पहुँच मुख्य शहर तक ही थी। दिल्ली के अख़बार यहाँ की समस्याओं से अनजान थे या जानबूझकर ध्यान नहीं देना चाहते थे। दिलचस्प है कि चिपको आन्दोलन का समाचार भी सबसे पहले एक छोटे साप्ताहिक ‘युगवाणी’ में छपा। इसके बाद ही देश के अन्य अख़बारों ने इसे नोटिस किया।
1973 का विश्वविद्यालय आन्दोलन बड़ी घटना थी, जिसके बाद गढ़वाल और कुमायूँ विश्वविद्यालयों का निर्माण हुआ। 1980 के आसपास तक अलग राज्य की माँग ज़ोर पकड़ने लगी तो तब तक पहाड़ के पर्यावरणीय और सामाजिक आन्दोलनों के मुद्दे भी लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचने लगे थे। ख़बरों की भूख में मेरठ और बरेली के अख़बारों ने सबसे पहले पहाड़ों का रुख़ किया। ‘अमर उजाला’ और ‘दैनिक जागरण’ के संस्करण निकलने शुरू हो गए। बहरहाल, अलग राज्य की माँग के आन्दोलन में बाहर के ज़्यादातर अख़बारों ने लोगों का हित कम, अपना व्यावसायिक हित ज़्यादा देखा। जैसे-जैसे उत्तराखण्ड आन्दोलन ज़ोर पकड़ने लगा, छात्रों के साथ महिलाएँ भी आन्दोलन में शामिल होने लगीं तो अख़बारों ने भी मिर्च-मसाला लगाकर बढ़ा-चढ़ाकर सनसनीखेज़ ख़बरें देने में अपना फ़ायदा देखा। मौक़ा देखकर कई अख़बारों ने अपने पाले भी बदले। कभी आन्दोलन के पक्ष में तो कभी यथास्थिति बनाए रखने के पक्ष में। एक समय बाद आरक्षण आन्दोलन पूरी तरह से उत्तराखण्ड राज्य की माँग के आन्दोलन में बदल गया और अन्ततः अलग राज्य बन भी गया, पर इस पूरे मुद्दे पर राज्य की पत्रकारिता बँटी हुई दिखाई दी और उसकी भूमिका निष्पक्ष नहीं कही जा सकती।
उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड की पत्रकारिता की वर्तमान समय की प्रवृत्तियों और सरोकारों की बात करें तो इसे बाक़ी देश की पत्रकारिता से ज़्यादा अलग करके नहीं देखा जा सकता। केवल ख़बरों की स्थानीयता का अन्तर देखा जा सकता है, बाक़ी अधिकतर चीज़ें एक जैसी हैं। सबसे बड़ी वजह यह है कि अब पूरे प्रदेश में कुछ ख़ास अख़बारों का वर्चस्व है। छोटे अख़बारों का अस्तित्व समाप्तप्राय है। इने-गिने अख़बारों के तमाम शहरों से स्थानीय संस्करण छपने लगे हैं। बग़ैर करोड़ों की पूँजी के अब कोई अख़बार निकालने की कल्पना भी नहीं कर सकता। इन वजहों से छोटी-बड़ी सभी जगहों में अब पत्रकारिता का एक-सा ही चेहरा दिखाई दे रहा है। अन्तर है तो सिर्फ़ स्थानीय स्तर पर कुछ ख़बरों के चयन का। प्रादेशिक अख़बारों के तौर पर ‘दैनिक जागरण’ और ‘अमर उजाला’ का विशेष उल्लेख किया जा सकता है, पर ये भी अब बड़े घराने हैं। समाचारों में प्रादेशिकता ज़रूर दिखाई देती है, पर बाक़ी चीज़ों में ये भी देश के दूसरे अख़बारों से अलग नहीं हैं। इन अख़बारों ने गाँव-गिराँव की सूचनाएँ आमजन को आसानी से उपलब्ध तो कराई हैं, पर प्रदेश की सांस्कृतिक विविधताओं और पहचान को देश के बड़े शहरों के चश्मे से ही देखने का काम ज़्यादा किया है। जिस उत्तर प्रदेश की पत्र-पत्रिकाओं ने कभी हिन्दी भाषा की समृद्धि में सर्वाधिक योगदान दिया था, उसी प्रदेश की आज की पत्रकारिता का हाल यह है कि भाँति-भाँति स्तम्भों के नाम अँग्रेज़ी में रखे जा रहे हैं। टीवी चैनलों ने भेड़चाल की पत्रकारिता का माहौल और पुख़्ता किया है।
प्रदेश की वर्तमान पत्रकारिता का हाल यह है कि अख़बार के पन्नों पर सामाजिक सरोकार भी अगर दिखाई देते हैं तो व्यावसायिक हितों के साथ। ‘एक्सक्लूसिव’ ख़बरों का दौर जैसे ख़त्म-सा हो गया है। पत्रकार मैदान में कम उतर रहे हैं और टीवी चैनलों को देखकर ख़बरें ज़्यादा बनाई जा रही हैं। एक समय था जबकि टीवी चैनल अख़बारों की ख़बरें पढ़कर अपने फालोअप कार्यक्रम बनाते थे, पर अब उलटा है। तकनीकी साधनों ने सहूलियतें तो बढ़ाई हैं, पर अख़बार जनोन्मुखी कम और विज्ञापनोन्मुखी ज़्यादा हो चले हैं। ऐसा नहीं है कि अच्छे पत्रकारों की कमी है। असल में मालिकान प्रभावी भूमिका ख़ुद ले चुके हैं और इक्का-दुक्का सम्पादकों को छोड़ दिया जाय तो ज़्यादातर सम्पादक मैनेजर का किरदार ज़्यादा निभाने लगे हैं। इस मामले में वह बात पूरे देश की ही पत्रकारिता के लिए आज भी दुरुस्त है, जो स्टेट्समैन के अन्तिम सम्पादक चार्लटन ने अपने विदाई भाषण में कही थी—‘भारत में अच्छे संवाददाताओं की कमी नहीं है। कमी है तो सिर्फ़ सम्पादकों की।’ इस लेख को ख़त्म करते-करते एक और बात पर ज़रूर ध्यान जा रहा है कि उत्तर प्रदेश की पत्रकारिता का हाल दयनीय करने में मालिकों के व्यावसायिक स्वार्थों के अलावा पत्रकारों के ख़ुद के हाल का भी काफ़ी योगदान है। उत्तर प्रदेश में पत्रकारों की वर्तमान स्थिति किन्हीं अर्थों में गुलामों से ज़्यादा बेहतर नहीं रह गई है। ऊपरी स्तर के केवल कुछ पत्रकारों को ठीक-ठाक वेतन मिल पाता है, बाक़ी ज़्यादातर की हालत यह है कि वे पत्रकारिता के भरोसे अपनी गृहस्थी चलाने की स्थित में नहीं हैं। व्यावसायिक पत्रकारिता का लाभ सिर्फ़ मालिकों तक सीमित रह गया है। एक भी मीडिया घराने ने एक भी अनुशंसित वेतनमान को ईमानदारी से लागू नहीं किया है। ऐसे में, जब रोटी के लाले हों तो किसी पत्रकार से कितनी ईमानदार पत्रकारिता की उम्मीद की जा सकती है? ऊपर से मुसीबत यह कि किसी पत्रकार के लिए अपनी मर्ज़ी से सूचनाएँ निकालने की आज़ादी भी अब न के बराबर रह गई है। सही कहा जाए तो वर्तमान में शोषण के जितने शिकार पत्रकार हैं, उतने शायद ही किसी और क्षेत्र के कर्मचारी होंगे। अन्य क्षेत्रों की ज़रा-सी बात भी चैनलों और पत्र-पत्रिकाओं में ज़ोर-शोर से उठाई जाने लगती है, पर पत्रकारों के शोषण की बातें किसी चैनल या अख़बार में नहीं छप सकतीं। अजब विडम्बना है कि दूसरों के शोषण की आवाज़ बुलन्द करने वाला पत्रकार अपने ही शोषण की आवाज़ नहीं उठा सकता। पत्रकारों के युनियन समाप्तप्राय हैं, तो जो भी इक्का-दुक्का पत्रकार विरोध का कोई स्वर उठाते हैं, उनकी नौकरी पर ख़तरा मँडराने लगता है। वास्तव में इसे हिन्दी पत्रकारिता का अन्धकार-युग कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। (समाप्त)