उर्दू का नुक़्ता अपनाएँ या भूल जाएँ?
स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि उर्दू से जैसी हमारी नज़दीकी है, उसे देखते हुए इसकी शब्दावली का हिन्दीकरण कई तरह की मुश्किलें खड़ी करेगा। जहाँ तक नुक़्ते का प्रश्न है, तो इसका प्रयोग न करने से उच्चारणगत दोष तो पैदा होगा ही, कई शब्दों में अर्थभ्रम भी पैदा होगा।
उर्दू भाषा में नुक़्ते का महत्त्व निर्विवाद है, पर हिन्दी में इसे अपनाने या न अपनाने के सवाल पर काफ़ी विवाद हैं। कुछ विद्वान् नुक़्ते को हिन्दी में ग़ैरज़रूरी मानते हैं और इसे हिन्दी-वर्तनी से पूरी तरह बेदख़ल कर देना चाहते हैं, तो कुछ लोग हिन्दी के वर्तनी-विधान में इसे शामिल कर लिए जाने की पुरज़ोर वकालत करते हैं। वास्तव में इस मसले पर विचार करते हुए हिन्दी के साथ उर्दू के सम्बन्धों पर भी विचार कर लेना एक तरह से ज़रूरी है।
उर्दू का सच यही है कि यह भारत में ही जन्मी और पली-बढ़ी है। इसकी शब्द-सत्ता को प्राणतत्त्व भले ही अरबी-फ़ारसी से मिला हो, पर वाक्य-संरचना का समूचा व्याकरण-विधान हिन्दी का है। उर्दू में अरबी-फ़ारसी के शब्दों की सङ्ख्या कम कर दी जाए और इसी तरह हिन्दी में संस्कृत की तत्सम शब्दावली घटा दी जाए तो आम बोलचाल में हिन्दी-उर्दू में फ़र्क़ करना आसान नहीं रह जाएगा। सही कहा जाय में तो इन भाषाओं की अलग-अलग लिपियाँ ही इन्हें एक-दूसरे से अलग पहचान देती हैं। कहने का अर्थ यही है कि उर्दू दूर-देश की कोई अनजानी अपरिचित-सी भाषा नहीं है। यह हिन्दी की ही सङ्गिनी है। इसके जानकार, इसे बोलने वाले हमारे ही इर्द-गिर्द के लोग हैं या बड़ी सङ्ख्या में हिन्दीभाषी भी हैं। ऐसे में, उर्दू के ज़रिये आने वाले शब्दों के अरबी-फ़ारसी तत्सम उच्चारण रूपों को परिवर्तित करना अखरने वाला साबित होगा। हाँ, यदि उर्दू का व्यवहार करने वाले लोग हमारे इर्द-गिर्द न होते तो हिन्दी के हिसाब से कैसे भी रूप परिवर्तन पर टोका-टोकी की स्थिति न बनती। यह कुछ वैसे ही है जैसे कि एक ही व्यक्ति के लिए अँग्रेज़ी में ‘अलेक्जेण्डर’, हिन्दी में ‘अलेक्क्षेन्द्र’, ‘अलेक्क्षान्द्र’ और फ़ारसी में ‘सिकन्दर’ (अब हिन्दी में भी) जैसे अलग-अलग उच्चारण वाले शब्द-रूप उलझन पैदा करते हैं।
स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि उर्दू से जैसी हमारी नज़दीकी है, उसे देखते हुए इसकी शब्दावली का हिन्दीकरण कई तरह की मुश्किलें खड़ी करेगा। जहाँ तक नुक़्ते का प्रश्न है, तो इसका प्रयोग न करने से उच्चारणगत दोष तो पैदा होगा ही, कई शब्दों में अर्थभ्रम भी पैदा होगा। मसलन–क़मर (चन्द्रमा)/कमर (पेट और पीठ के नीचे शरीर), क़द (शरीर की लम्बाई)/कद (कोशिश, हठ), क़रार (चैन, धीरज)/करार (कगार), क़ालीन (गलीचा)/कालीन (काल सम्बम्धी), ख़सरा (पटवारी का काग़ज़)/खसरा (एक तरह की बीमारी), ख़ान (एक उपजाति)/खान (ख़ज़ाना), गज़ (सोलह गिरह या तीन फुट की नाप)/गज (हाथी), बाग़ (उपवन)/बाग (बागडोर), ज़िला (जनपद)/जिला (आभा, चमक), क़दर (आदेश, पराकाष्ठा, तक़दीर)/कदर (मैलापन, अँधेरा) जैसे सैकड़ों शब्द। इनमें से कुछ शब्द हिन्दी के हैं और कुछ अरबी-फ़ारसी के, पर आम बोलचाल में ख़ूब इस्तेमाल होते हैं।
इसका अर्थ यह नहीं है कि जिन्हें उर्दू ध्वनि-प्रणाली की जानकारी नहीं है या जो लोग विदेशी शब्दों का उच्चारण हिन्दी की ध्वनि-प्रणाली के अनुसार ही करते हैं, उन्हें नुक़्ते के प्रयोग के लिए बाध्य किया जाए। उन्हें अपनी सुविधा से चलने की छूट रहनी चाहिए, परन्तु भविष्य की भाषा की गति पहचानते हुए नुक़्ते के प्रचलन को भी बहुत अनुचित नहीं कहा जा सकता। अरबी-फ़ारसी के प्रचलित शब्दों को लेकर अब निरन्तर नफ़ासत बढ़ती ही दिखाई दे रही है। सैकड़ों टी.वी. और रेडियो चैनल इस दिशा में लगातार सचेत दिखाई दे रहे हैं और तत्सम उच्चारण में पारङ्गत लोगों के लिए उनके दरवाज़े ज़्यादा आसानी से खुल रहे हैं। यदि बोलने में तत्समता के प्रति आग्रह बढ़ता हुआ दिख रहा है, तो फिर ज़ाहिर है कि लेखन में भी यह प्रवृत्ति दिखेगी ही।
असल में समाज में शिक्षा का स्तर बढ़ता है तो हर क्षेत्र में शुद्धता, वैज्ञानिकता का आग्रह भी बढ़ने लगता है। यह प्रवृत्ति हमारे समाज में भी अब दिखाई दे रही है। उदाहरण के लिए पुराने प्रचलित–अस्नान, इन्द्री, पाथर, अलमुनिया–आदि शब्दों की तुलना में इनके तत्सम रूप–स्नान, इन्द्रिय, पत्थर, एल्युमिनियम–आदि वर्तमान में ज़्यादा प्रचलित हो चुके हैं। अर्थ यह है कि समाज के जागरूक और शिक्षित लोग जैसी भाषा को मानक बनाएँगे और व्यवहार में लाएँगे, वही भावी पीढ़ियों के लिए आधार बनेगी और उन्हें भाषाई अराजकता में भटकने से बचाएगी। इसके अलावा उर्दू साहित्य, ख़ासतौर से उर्दू का काव्य वर्तमान में बड़ी मात्रा में देवनागरी में प्रकाशित होने लगा है तो उर्दू साहित्य की लोकप्रियता भी बढ़ी है। इस दृष्टि से देखा जाए तो भी उर्दू के उच्चारण का लहज़ा सुरक्षित रखने के लिए नुक़्ते का प्रयोग यथास्थान किया जाए तो अनुचित नहीं मानना चाहिए। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि उर्दू में बहुप्रयुक्त नुक़्तायुक्त क़, ख़, ग़, ज़, फ़ ध्वनियों में से ज़, फ़ का प्रयोग अँग्रेज़ी भाषा में भी होता है। और जब, अँग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग हिन्दी में निरन्तर बढ़ ही रहा है तो नुक़्ते का प्रयोग भी हिन्दी की सामर्थ्य बढ़ाएगा ही। इन सभी तर्कों के बावजूद मैं यह ज़रूर कहूँगा कि नुक़्ते का प्रयोग अगर किया जाए तो पूरे आलेख में दुरुस्त ढङ्ग से किया जाय, अन्यथा न ही किया जाय तो बेहतर है, क्योंकि नुक़्ते के हेरफेर से उर्दू में अर्थ का अनर्थ बड़ी आसानी से हो सकता है। नुक़्ते के ठीक इस्तेमाल के लिए एक प्रश्न यह भी है कि आख़िर कितने लोग उर्दू के सारे शब्द रटने की ज़हमत उठाएँगे? क्या इससे एक और भाषा को सीखने की विवशता नहीं पैदा हो जाएगी? जिन्हें नुक़्ता प्रयोग करना हो, करें और जिन्हें नहीं करना हो, वे न करें, इसमें कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। सन्दर्भ के साथ अर्थ समझ में आ ही जाता है। हाँ, व्यवहार उर्दू के लहज़े में हो या हिन्दी के, साफ़-सुथरा होना चाहिए। वक़्त के साथ भाषा की गति का भी निर्धारण हो ही जाएगा।