कामयाबी के अद्भुत सूत्र देती पुस्तक ‘चाणक्य नीति’
(‘नभाटा गोल्ड’ से साभार)
एक-दो नहीं, आचार्य चाणक्य ने सैकड़ों ऐसे सूत्र दिए हैं, जो राज-काज से लेकर आम जनजीवन की रोज़मर्रा की समस्याओं तक का अद्भुत समाधान प्रस्तुत करते हैं। ‘अर्थशास्त्र’ उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है, जिसका अँग्रेज़ी अनुवाद जब सन् 1915 में पहली बार प्रकाशित हुआ तो संसार भर के विद्वानों में हलचल मच गई। बावजूद इसके, ‘अर्थशास्त्र’ से भी ज़्यादा आचार्य चाणक्य का जो ग्रन्थ भारतीय जनमानस में गहरे तक सदियों से अपनी पैठ बनाए हुए है, वह ‘चाणक्य नीति’ है, जिसकी आज हम बात कर रहे हैं।
दो हज़ार साल पुरानी एक अद्भुत और लोकप्रिय संस्कृत पुस्तक ‘चाणक्य नीति’। इसके रचनाकार हैं, भारतीय इतिहास के महान् गौरव आचार्य चाणक्य। महान् गौरव!…जी हाँ, इसी रूप सें उन्हें याद किया जाता है। शास्त्रों के आदर्श को व्यवहार में उतार कर दिखाने वाला एक अद्भुत व्यक्तित्व। कूटनीतिज्ञ, अर्थशास्त्री और शिक्षक की विशिष्टताओं का मिलाजुला एक ऐसा चेहरा, जिसने सङ्कल्प लिया तो नन्द वंश का ख़ात्मा करके ही दम लिया और एक युवक को ऐसी सीख दी कि वह एक दिन समूचे भारत को एक सूत्र में जोड़ने वाला सम्राट् चन्द्रगुप्त बना।
वास्तव में आचार्य चाणक्य की इस विशिष्टता ने उन्हें सार्वकालिक महत्त्व दे दिया है कि दो हज़ार साल पहले उन्होंने जो कुछ कहा, जीवन-सङ्ग्राम की आज की पहेलियाँ भी उनके सहारे सुलझाई जा सकती हैं। मसलन, ‘चाणक्य-नीति’ ग्रन्थ में जब वे कहते हैं—‘मनसा चिन्तितं कार्यं वाचा नैव प्रकाशयेत्। मन्त्रेण रक्षयेद् गूढं कार्ये चापि नियोजयेत्॥ — यानी, मन में सोचे हुए किसी कार्य या लक्ष्य को यों ही हर किसी के आगे सुनाते नहीं फिरना चाहिए। मन्त्र के समान अपना मन्तव्य गुप्त रखकर उसे दूसरों पर ज़ाहिर होने से बचाना चाहिए और लक्ष्य हासिल होने तक पूरी शक्ति से डटे रहना चाहिए।’—तो इसका अर्थ यही है कि आचार्य चाणक्य को पता था कि हम अपने लक्ष्यों, अपने कार्यों को पूरा होने से पहले ही अगर हर किसी को बताते फिरते हैं तो लोग भाँति-भाँति की सलाहें देना शुरू करते हैं, कुछ लोग जानबूझकर काम बिगाड़ने की कोशिश करते हैं और हमारा सङ्कल्प कमज़ोर होने लगता है। हम समझ सकते हैं कि आजकल के प्रेरक वक्ताओं का भी यह बुनियादी सूत्र है।
एक-दो नहीं, आचार्य चाणक्य ने सैकड़ों ऐसे सूत्र दिए हैं, जो राज-काज से लेकर आम जनजीवन की रोज़मर्रा की समस्याओं तक का अद्भुत समाधान प्रस्तुत करते हैं। ‘अर्थशास्त्र’ उनका प्रसिद्ध ग्रन्थ है, जिसका अँग्रेज़ी अनुवाद जब सन् 1915 में पहली बार प्रकाशित हुआ तो संसार भर के विद्वानों में हलचल मच गई। बावजूद इसके, ‘अर्थशास्त्र’ से भी ज़्यादा आचार्य चाणक्य का जो ग्रन्थ भारतीय जनमानस में गहरे तक सदियों से अपनी पैठ बनाए हुए है, वह ‘चाणक्य नीति’ है, जिसकी आज हम बात कर रहे हैं।
‘चाणक्य नीति’ को लोक-व्यवहार के लिए अनुपम उपहार कहा जाता है। इसके श्लोक पढ़ते हुए मन में बार-बार आश्चर्य के भाव उठते हैं कि आख़िर कैसे इनमें व्यक्त किए गए विचार युगों का दायरा तोड़ आज भी अपनी प्रासङ्गिकता सिद्ध करते दिखाई देते हैं।
‘चाणक्य नीति’ को नीति काव्य का पहला सङ्ग्रह माना जाता है। इसमें नीतिसार का निचोड़ है, जिसका सङ्केत शुरू के कुछ श्लोकों में ही कर दिया गया है, लेकिन नीति वह, जिसमें जीवन-व्यवहार से लेकर राजनीति तक समाई हुई है। चूँकि आचार्य का उद्देश्य समाज को एक व्यवस्था देना है, इसलिए ग्रन्थ की शुरुआत करते हुए वे संसार के व्यवस्थापक या पालनकर्ता के प्रतीक भगवान् विष्णु का स्मरण करते हैं और कहते हैं कि जो व्यक्ति इस शास्त्र के सूत्रों का विधिवत् अभ्यास करके ज्ञान ग्रहण करेगा, उसे ठीक-ठीक पता चलेगा कि सांसारिक जीवन में रहते हुए किस काम को करना चाहिए और किस काम को नहीं करना चाहिए। उसे पता चलेगा कि उसके लिए भला क्या है और बुरा क्या है।
‘चाणक्य नीति’ के सत्रह अध्यायों में जीवन-व्यवहार के हर पक्ष के समाधानकारी सूत्र हम देक सकते हैं। कुछ ऐसे श्लोक भी इसमें हैं, जिन पर आज के समय के हिसाब से कुछ सवाल उठाए जा सकते हैं, पर ध्यान देने की बात है कि चाणक्य जिस युग में थे, उस युग के अनुभवों के आधार पर अपनी बात कह रहे थे। अगर कुछ बातें आज के बदलते परिवेश से मेल नहीं खातीं, तो उन्हें छोड़कर आगे बढ़ा जा सकता है।
तो आइए, पहले अध्याय से इस कालजयी ग्रन्थ की दुनियादारी का सीख को समझने की कोशिश करते हैं।
आचार्य सबसे पहले सङ्ग-साथ के महत्त्व पर बात करते हैं। पहले अध्याय के चौथे श्लोक में वे कहते हैं कि मूर्ख व्यक्ति को ज्ञान देने से बुद्धिमान लोगों को कोई लाभ नहीं होता, बल्कि ऐसे काम से उन्हें अन्ततः नुक़सान उठाना पड़ता है। इसी तरह से स्त्री दुष्ट हो, व्यभिचारिणी हो तो उसका भी पालन-पोषण करने से सज्जन व्यक्तियों को दुःख उठाना पड़ता है। आचार्य चाणक्य दुखी लोगों से दूरी बनाकर रहने की बात करते हैं। दुःख में पड़े किसी व्यक्ति की मदद करना उचित है, पर विषाद जिनका मानसिक और शारीरिक स्थायी भाव बन गया हो, उनसे दूरी बनाए रखने में ही लाभ है, अन्यथा दुःखदायी परिस्थितियाँ सुखी व्यक्ति से भी चिपकने लगेंगी। चाणक्य सङ्कट के समय के लिए किसी भी हाल में धन की बचत को ज़रूरी बताते हैं। आठवें श्लोक में आचार्य कहते हैं कि ऐसे स्थान पर निवास नहीं बनाना चाहिए, जहाँ नाते-रिश्ते न हों, मान-सम्मान न हो, आजीविका का इन्तज़ाम मुश्किल हो, या कि शिक्षा प्राप्ति के साधन न हों।
चाणक्य की नीति कहती है कि ज़्यादा लालच ले डूबने वाली हो सकती है और काम वही करना चाहिए, जिसके बारे में ठीक से जानकारी हो। वे कहते हैं, कन्या कितने भी नीच कुल में पैदा हुई हो, अगर अच्छे गुणों से युक्त हो, तो उससे विवाह करने में कोई हानि नहीं। आचार्य कुलभेद को ख़ारिज करते हैं।
‘चाणक्य नीति’ के दूसरे अध्याय के प्रारम्भ में स्त्रियों की ओर ध्यान दिलाते हुए बात आगे बढ़ाई गई है। पहले श्लोक में कहा गया है कि झूठ बोलना, बिना सोचे-समझे किसी कार्य को प्रारम्भ कर देना, दुस्साहस करना, छलकपट करना, मूर्खतापूर्ण कार्य करना, लोभ करना, अपवित्र रहना और निर्दयता—ये स्त्रियों के स्वाभाविक दोष हैं। इस वक्तव्य से स्त्री-विरोधी होने के आरोप लगाए जा सकते हैं, पर ध्यान रखना चाहिए कि शैक्षिक माहौल से दूर चहारदीवारी में क़ैद स्त्रियों के स्वभाव के हिसाब से चाणक्य अपनी बात कह रहे थे, जो अशिक्षा के माहौल में रह रही स्त्रियों में आज भी कमोबेश देखा जा सकता है। चाणक्य वास्तव में स्त्री-पुरुष दोनों के गुण-दोष पर बराबर निगाह रखते दिखाई देते हैं। वे कहते हैं, यह संसार अजब है। यहाँ ऐसे लोग मिलते हैं, जो सामने तो मीठी बोली बोलते हैं, पर पीठ पीछे बुराई करने से बाज नहीं आते। ऐसे लोगों से जितना हो सके, बचकर रहना चाहिए। वे कहते हैं कि हर माता-पिता को चाहिए कि वे अपनी सन्तान को गुणवान बनाने पर ध्यान दें।
तीसरे अध्याय के पहले श्लोक में आचार्य चाणक्य यथार्थ दिखाते हुए कहते हैं कि संसार में ऐसा कोई कुल अथवा वंश न होगा, जिसमें कोई-न-कोई दोष अथवा अवगुण न हो, हर किसी को किसी-न-किसी रोग का सामना करना ही पड़ता है, ऐसा मनुष्य दुर्लभ है, जो व्यसनों में न पड़ा हो या जो सदा ही सुखी रहता हो, हर किसी के जीवन में संकट तो आते ही हैं। आचार्य आचार और चरित्र की शिक्षा देते हैं। वे शिक्षा के महत्त्व को रेखाङ्कित करते हुए कहते हैं कि शिक्षा ही जीने की कला सिखाती है। रूप हो, यौवन हो, अच्छे कुल में जन्म हुआ हो, पर विद्या नहीं ग्रहण किया तो समझो सब बेकार। वैसे ही जैसे बिना सुगन्ध के सुन्दर फूल। वे कहते हैं कि मधुर बोलने का अभ्यास जीवन में कामयाबी के लिए ज़रूरी है। तीसरे अध्याय के 18वें श्लोक में चाणक्य कहते हैं कि पाँच वर्ष की आयु तक पुत्र से लाड़-दुलार करना चाहिए, अगले दस वर्ष तक उसकी सावधानी से देखभाल करनी चाहिए और ज़रूरत पड़ने पर दंड भी देना चाहिए, परन्तु जब पुत्र सोलह वर्ष की आयु में पहुँच जाए, तो उससे मित्र के समान व्यवहार करना चाहिए।
आचार्य चाणक्य की दृष्टि मनोवैज्ञानिक रूप से बहुत सूक्ष्म है। चौथे अध्याय के तीसरे श्लोक में वे कहते हैं–जैसे मछली अपने बच्चों को देखकर, मादा कछुआ ध्यान देकर और मादा पक्षी स्पर्श से अपने बच्चों का लालन-पालन करती हैं, उसी तरह से सज्जन व्यक्ति की संगति भी अपने संसर्ग में आए व्यक्ति का पालन करती है। चाणक्य नीति कहती है कि व्यक्ति को तपस्या अकेले करनी चाहिए; विद्यार्थियों को मिलकर एक-दूसरे से सहयोग करके पढ़ना चाहिए, इससे उन्हें लाभ होगा। इसी तरह से सङ्गीत, खेती जैसे काम सहायकों की अपेक्षा रखते हैं। युद्ध के लिए जितने ही सहायक हों, उतना ही अच्छा है।
पाँचवें अध्याय का प्रारम्भ आचार्य गुरु की महिमा से करते हैं, पर वे स्पष्ट रूप से बताते हैं कि कौन किसका गुरु हो सकता है। तीसरे श्लोक में वे सङ्कट से पार पाने का गुर बताते हुए कहते हैं—इस जीवन-यात्रा में सङ्कट तो आते ही रहते हैं, बुद्धिमान व्यक्ति को सङ्कट से तभी तक डरना चाहिए, जब तक कि वह सिर पर न जाए, परन्तु यदि सङ्कट सामने आ ही खड़ा हो तो डरकर पलायन करने के बजाय पूरी शक्ति से उसका मुक़ाबला करना चाहिए। इस अध्याय में भी एक श्लोक ऐसा है, जिस पर जाति भेद का आरोप लगाया जाता है, जबकि सही परिप्रेक्ष्य में देखें तो इसका अद्भुत अर्थ निकलता है। आचार्य कहते हैं—‘मनुष्य में नाई सबसे अधिक चालाक और होशियार होता है। पक्षियों में कौआ, चार पैरों वाले जानवरों में सियार और स्त्रियों में मालिन बहुत चतुर होती है।’ वास्तव में आचार्य चाणक्य के समय में जातियाँ अपने पेशे का प्रतिनिधित्व करती थीं, आज की तरह केवल नाम की नहीं थीं। उनके कहने का अर्थ यह है कि जिन लोगों में सामाजिकता जितनी ज़्यादा होती है, उनका व्यावहारिक ज्ञान भी उतना ज़्यादा होता है। आज भी हमारे गाँवों में शादी-ब्याह जैसे महत्त्वपूर्ण कार्यों में नाई की मध्यस्थता को विश्वसनीय माना जाता है।
छठे अध्याय के 15वें श्लोक में आचार्य कहते हैं कि काम छोटा हो या बड़ा, अगर करने का फ़ैसला लिया हो तो शुरू से ही उसमें पूरी शक्ति लगा देनी चाहिए, उसी तरह जैसे कि सिंह करता है। वे कहते हैं कि समझदार व्यक्ति को अपनी इन्द्रियों को क़ाबू में रखना चाहिए और बगुले की तरह धैर्य के साथ अपने काम में तब तक लगे रहना चाहिए, जब तक कि लक्ष्य चलकर पास न आ जाय।
सातवें अध्याय में आचार्य चारित्रिक गुणों व व्यवहारिकता के विकास को आगे बढ़ाते हैं और कहते हैं—‘जो मनुष्य धन-धान्य के लेन-देन में, भाँति-भाँति की विद्याएँ सीखने में, आहार और व्यवहार में शर्म-सङ्कोच नहीं करता है, यानी ऐसे कामों में स्पष्टता रखता है, वह सुखी रहता है। आठवें अध्याय में आचार्य ने गुणों और स्वभाव के अनुसार मनुष्यों का वर्गीकरण किया है। वे कहते हैं–जो लोग केवल धन एकत्रित करने के चक्कर में रहते हैं, वे अधम कोटि के होते हैं। मध्यम कोटि के व्यक्ति धन और सम्मान दोनों कमाने की कामना करते हैं, जबकि उत्तम श्रेणी वाले व्यक्ति केवल मान-सम्मान की इच्छा करते हैं।
नौवें अध्याय में रोचक ढङ्ग से जीवन का लक्ष्य बताते हुए सीख दी गई है कि मोक्षकामी को बुरी आदतों को विष समझकर त्याग देना चाहिए और क्षमा, सरलता, दया, पवित्रता और सत्य को अमृत के समान समझकर धारण करना चाहिए। इस अध्याय के दूसरे श्लोक में सचेत किया गया है कि जो लोग एक-दूसरे के भेद को खोलने में लगे रहते हैं, वे उसी तरह से नष्ट हो जाते हैं, जैसे बाँबी में फँसकर साँप नष्ट हो जाता है। दसवें अध्याय में चाणक्य विद्या को सब धनों से ऊँचा स्थान देते हैं। वे विद्यार्थियों को सचेत करते हैं कि यदि सुख की कामना हो तो विद्या अध्ययन का विचार दिमाग़ से निकाल देना चाहिए और यदि विद्यार्थी विद्या सीखने की रुचि रखे तो उसे कुछ समय के लिए आरामतलबी की मानसिकता से बाहर निकल आना चाहिए। इसी के साथ वे निर्धनता को अभिशाप जैसा मानते हैं और मेहनत-मशक़्क़त करके किसी भी तरह उससे बाहर निकलने का उपदेश देते हैं।
ग्यारहवें अध्याय में चाणक्य अपने स्वभाव में स्थिर रहकर काम करने का उपदेश देते हैं, तो बारहवें अध्याय में सुखी गृहस्थ जीवन का राज़ बताते हैं। ‘चाणक्य नीति’ के तेरहवें अध्याय में कर्म के महत्त्व को स्थापित करते हुए कहा गया है कि जैसे हज़ारों गायों के बीच में रहता हुआ बछड़ा केवल अपनी माँ के पास ही आता है, उसी प्रकार किया गया कर्म कर्ता के पीछे-पीछे लगा रहता है। इस अध्याय के पहले ही श्लोक में हिदायत दी गई है कि यदि एक मूहर्त का भी जीवन मिले तो भी अच्छे काम को ही करने में व्यस्त रहना चाहिए।
चौदहवें अध्याय में समाज के साधारण जनों के लिए आचार्य ने कुछ विशिष्ट बातें की हैं। पहले ही श्लोक में वे कहते हैं कि इस धरती पर तीन ही रत्न हैं—अन्न, जल और नीति वचन—परन्तु मूर्ख लोग पत्थर के टुकड़े को रत्न समझते हैं। पन्द्रहवें अध्याय में आचार्य सामाजिक जीवन में दया के महत्त्व को रेखाङ्कित करते हुए कहते हैं कि जिस व्यक्ति में प्राणिमात्र के प्रति दया का भाव जीवित है, उसे मोक्ष के लिए अलग से जटा-जूट धारण करने की ज़रूरत नहीं है। पन्द्रहवाँ अध्याय धर्म, अर्थ और काम के महत्त्व को बताते हुए कहता है कि इस संसार में आकर जिस व्यक्ति ने न तो सांसारिक सुखों का उपभोग किया और न ही प्रभु भक्ति की, उसका जीवन व्यर्थ है। ऐसे लोगों को आचार्य चाणक्य सबसे दयनीय मानते हैं, जो हर कहीं याचक की मुद्रा में दिखाई देते हैं। सत्रहवें यानी अन्तिम अध्याय में आचार्य कूटनीति की दृष्टि से ‘दुष्टे दुष्टं समाचरेत्’ यानी ‘जो जैसा करे, उसके साथ वैसा ही बरताव करें’ का उपदेश देते हैं। स्थित-प्रज्ञ सन्त-महात्माओं की दृष्टि हो सकती है कि वे हिंसा का प्रत्युत्तर भी अहिंसा से दें, पर लोक-व्यवहार और राष्ट्र के सन्दर्भ में ‘जैसे को तैसा’ के साथ ही पेश आना उचित है। अन्त में वे सद्गुणों के विकास पर ज़ोर देते हुए कहते हैं कि केतकी में भले साँप लिपटे रहते हैं, पर उसमें जो सुगन्ध है, वह सबका मन मोह लेती है, इसलिए हमें भी लोक कल्याणकारी कोई-न-कोई गुण अपने भीतर अवश्य विकसित करना चाहिए।
इस तरह से हम देख सकते हैं कि चाणक्य नीति के हर अध्याय में लोक व्यवहार, मित्रता, कर्तव्य, प्रकृति, परिवार, पत्नी, बच्चों, धन-सम्पत्ति, व्यवसाय और जीवन जीने के लिए ज़रूरी अन्यान्य चीज़ों के बारे में बड़े रोचक ढङ्ग से वे बातें की बताई गई हैं, जो हमारा जीवन सरल-सहज और सफल बनाने में हमारी मदद करती हैं। (सन्त समीर)