झुलसते स्वर्ग में उभरती उम्मीदें—एक
अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् और क्रान्तिधर्मा लेखक क्षितीश वेदालङ्कार जी ने अपनी पुस्तक ‘कश्मीर : झुलसता स्वर्ग’ के रूप में धरती के इस स्वर्ग के नरक कुण्ड बनते जाने की व्यथा-कथा का बहुत हृदयस्पर्शी वर्णन किया था। हाल में इसके पुनःप्रकाशन का निश्चय हुआ तो आज के समय के हिसाब से इसकी जो भूमिका मैंने लिखी, उसी का पहला हिस्सा यहाँ प्रस्तुत है।
‘धरती का स्वर्ग’ कहते ही कश्मीर की हरी-भरी वादियों की नयनाभिराम दृश्यावलियाँ आँखों में तैरने लगती हैं। आँखों को ही नहीं, विरासत गवाह है कि मन को भी बौद्धिक तोष प्रदान करने वाला अद्भुत वातावरण कश्मीर ने सृजित किया है। कश्मीर की हवाओं में गूँजते धर्म-अध्यात्म, साहित्य, कला, सङ्गीत के सन्देशों की अनुगूँज को देश ही नहीं दुनिया भर में सुना गया है। आश्चर्य नहीं है कि भारतीय मेधा के चरम उत्कर्ष के चिह्न यहाँ के खण्डहर हो चुके अवशेषों में आज भी देखे और महसूस किए जा सकते हैं। ढाई हज़ार साल पहले आदि शङ्कराचार्य अगर दक्षिण से चलकर उत्तर के इस भूखण्ड तक पहुँचना ज़रूरी समझ रहे थे, तो मतलब यही है कि कश्मीर की हस्ती कुछ ख़ास रही है।
कश्मीर सिर्फ़ भौगोलिक वजहों से ही भारत का ताज नहीं है, यह अपनी समृद्ध और विविधतापूर्ण परम्पराओं की दृष्टि से भी भारत के इतिहास का गौरवशाली अध्याय है। ज्ञान की ऐसी परम्परा का उदाहरण शायद ही संसार के इतिहास में किसी और प्रदेश में मिलता हो। कल्हण को महाकवि कहें या इतिहासकार, उन्होंने इसी प्रदेश में बैठकर यहाँ की समृद्ध परम्परा को सिलसिलेवार ढङ्ग से उस ‘राजतरङ्गिणी’ के रूप में लिखा, जिसे आज संस्कृत साहित्य ही नहीं, विश्व साहित्य में भी उच्चकोटि का इतिहास ग्रन्थ माना जाता है। साहित्यशास्त्र के मूर्धन्य आचार्य, कश्मीरी शैव और तन्त्र के पण्डित तथा दार्शनिक अभिनव गुप्त के बिना कश्मीर की चर्चा अधूरी है। महाकवि कालिदास सहित पतञ्जलि महाभाष्य के कैयट, मैयट और जैयट जैसे टीकाकार कश्मीर की ही देन हैं। बिल्हण, जल्हण, क्षेमेन्द्र, वसुगुप्त, मम्मट, भीमभट्ट, दामोदर गुप्त, रत्नाकर, वल्लभ देव, सोमदेव, जयद्रथ जैसे विद्वानों की कर्मस्थली कश्मीर ही है। कहते हैं कि कनिष्क ने जब श्रीनगर के कुण्डल वन विहार में बौद्ध विद्वान् वसुमित्र की अध्यक्षता में सर्वस्तिवाद की चौथी परम्परा में महासङ्गीति का आयोजन किया तो ‘महाविभास शास्त्र’ को संस्कृत सूत्रों में लिखने के लिए अश्वघोष को आमन्त्रित किया। अश्वघोष बारह वर्ष कश्मीर में रहे और दस लाख श्लोकों में ‘अभिधर्म महावतभाषाशास्त्र’ लिखा। बौद्ध विद्वान् नागार्जुन भी कश्मीर आने के मोह से नहीं बचे। ललितादित्य जैसे प्रतापी राजाओं की एक लम्बी परम्परा रही है कश्मीर में, जिन्होंने दूर-दूर से विद्वानों को आमन्त्रित करके अन्यान्य विधाओं की ज्ञान परम्परा को समृद्ध किया और इसे सरस्वती की उपासना का केन्द्र बना दिया। यही एक ऐसा प्रदेश है, जहाँ के लिखित प्रमाण उपलब्ध हैं कि संस्कृत लगभग दो सौ वर्षों तक यहाँ की राजभाषा रही। वर्तमान में इस्लाम की धार्मिक पहचान तक सिमट चुका कश्मीर पहले सनातन, शैव, बौद्ध की महान् साझा संस्कृति का साक्षी रहा है।
इस गौरवशाली अतीत के विपरीत कश्मीर रक्तरञ्जित विडम्बनाओं की भी धरती है और वास्तव में यही धरती के इस स्वर्ग का सबसे बड़ा दुर्भाग्य है। दुर्दिन शुरू हुए तो सन् 1339 में हिन्दू-आधिपत्य की समाप्ति के साथ कश्मीर मुसलमान शासकों के क़ब्ज़े में चला गया। तलवार के बल पर धर्म परिवर्तन का भयावह अभियान चलाया जाने लगा। जैनुल-आब्दीन (1417-69) शासक बना तो कश्मीर की जनता ने ज़रूर सुकून की साँस ली और हिन्दू धर्म पर अत्याचार बन्द हुए। उसने कुछ तोड़े गए मन्दिरों का पुनर्निर्माण भी कराया। कुछ समय तक कश्मीर पर मुगलों का भी आधिपत्य रहा और जब इनका पतन हुआ तो 1752 में पठानों ने धावा बोल दिया। पठानों का शासन-काल सबसे बर्बर कहा जाता है। पठानों के समय में अनिगिनत कश्मीरी पण्डितों को बोरों में भर-भरकर डल झील में डुबो दिया गया। उन पर जजिया कर भी लगा दिया गया। सन् 1819 में रणजीत सिंह की सेना ने कश्मीर पर क़ब्ज़ा जमाया और कुछ समय बाद यह डोगरा शासन के अधीन हो गया। इसी शासन के अन्तिम शासक थे राजा हरि सिंह।
आक्रान्ताओं के शासन काल का अधिकांश समय कश्मीरी हिन्दुओं, ख़ासतौर से कश्मीरी पण्डितों के लिए पीड़ादायी रहा। यहीं पर कश्मीरी पण्डितों के बारे में यह जान लेना उचित है कि यह पण्डित शब्द महज जातीय पहचान तक सीमित नहीं है। कश्मीर में पण्डित का अर्थ विद्वत्ता की समृद्ध परम्परा से है। कश्मीर में विद्वत् समाज का वैसे ही जमावड़ा रहा है, जैसे कि कालान्तर में काशी में। इस्लाम के अनुयायी ज्यादातर आक्रान्ताओं को हिन्दू ज्ञान परम्परा से चिढ़ थी, तो उन्होंने हिन्दू ज्ञान परम्परा के स्रोतों और पूजा स्थलों को बुरी तरह से नष्ट किया। कश्मीरी पण्डितों को कई बार पलायन का दंश झेलना पड़ा। सुल्तान सिकन्दर के समय (14वीं सदी के अन्त) में पहला बड़ा पलायन हुआ। सिकन्दर ‘बुतशिकन’ के रूप में मशहूर था। उसने बड़े पैमाने पर हिन्दुओं का क़त्लेआम कराया। बर्बरता इस हद तक की गई थी कि उस समय कश्मीर में हिन्दुओं के सिर्फ़ ग्यारह परिवार ही जैसे-तैसे बच पाए थे। शेष सबको मार दिया गया था या वे वहाँ से पलायन कर गए थे। जबरन धर्म परिवर्तन तो ख़ैर बड़े पैमाने पर कराया ही गया था। सुल्तान जैनुल आब्दीन, इसी सिकन्दर बुतशिकन का पुत्र था, जिसने अपने पिता की ग़लतियों को माना और एक तरह से प्रायश्चित किया। कहते हैं कि एक बार जैनुल आब्दीन के शरीर में फोड़ा हुआ, जो तमाम उपायों के बावजूद ठीक नहीं हो रहा था। ऐसे में श्रीभट्ट ने सुल्तान का उपचार किया। सुल्तान ने प्रसन्न होकर श्रीभट्ट से कहा कि जो चाहो माँग लो। श्रीभट्ट ने माँग की कि जिन कश्मीरी पण्डितों को भगा दिया गया है, उन्हें वापस कश्मीर में लाकर फिर से बसाया जाए। माना जाता है कि सुल्तान ने इस पर अमल किया और कश्मीरी पण्डितों की फिर से घर वापसी कराई।
पठानों के शासन काल में दूसरा बड़ा पलायन हुआ। 17वीं सदी में औरङ्गज़ेब ने सभी कश्मीरी पण्डितों को इस्लाम क़बूल कराने का आदेश दिया। उस समय कश्मीरी पण्डितों के प्रतिनिधि थे कृपाराम। वे सिखों के गुरु तेग बहादुर के आनन्दपुर साहिब स्थित दरबार में पहुँचे और उनसे इस मुसीबत से बाहर निकालने का निवेदन किया। गुरु तेगबहादुर अपने साथ पाँच सङ्गियों को साथ लेकर दिल्ली पहुँचे। जब गुरुजी ने मुगल सम्राट औरङ्गज़ेब के आदेश पर इस्लाम स्वीकार करने से इनकार कर दिया तो 11 नवम्बर, 1675 को उन्हें मौत की सज़ा दे दी गई। हालाँकि इसके बाद कश्मीरी पण्डितों का पलायन भी रोक दिया गया। तीसरा बड़ा पलायन हुआ 1947 में, जब पाकिस्तान की ओर से क़बायलियों ने कश्मीर पर धावा बोला। इसके बाद सबसे बड़ा और भयावह पलायन हुआ जनवरी, 1990 में, जब लाखों कश्मीरी पण्डितों को रातोंरात अपना घर-परिवार छोड़कर भागना पड़ा। इस तरह से धरती का यह स्वर्ग धीरे-धीरे नरक कुण्ड में तब्दील होता गया।
अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् और क्रान्तिधर्मा लेखक क्षितीश वेदालङ्कार जी ने ‘कश्मीर : झुलसता स्वर्ग’ के रूप में धरती के इस स्वर्ग के नरक कुण्ड बनते जाने की व्यथा-कथा का कभी बहुत हृदयस्पर्शी वर्णन किया था। यों, यह पुस्तक सुनियोजित ढङ्ग में पुस्तक के रूप में नहीं लिखी गई थी। यह वेदालङ्कार जी के समय-समय पर कश्मीर पर लिखे गए लेखों का सङ्ग्रह थी, लेकिन सन् 1990 में जब यह प्रकाशित हुई तो इसने बुद्धिजीवी समाज को कश्मीर समस्या पर ख़ूब उद्वेलित किया। आज जब इस पुस्तक को पुनःप्रस्तुत किया जा रहा है, तो इसके पुनःपाठ की प्रासङगिकता और बढ़ती हुई दिखाई दे रही है, क्योंकि इस पुस्तक से गुज़रते हुए कश्मीर समस्या की बुनियाद पकड़ में आती है। देश में जब तक आतङ्कवाद की मौजूदगी रहेगी, तब तक कश्मीर समस्या के मर्म को भी समझने की ज़रूरत बनी रहेगी। यह बात ज़रूर है कि बदली हुई परिस्थितियों के हिसाब से कुछ और चीज़ें जुड़ेंगी तो कुछ चीज़ें हटेंगी भी। बहरहाल, मूल बातें आज भी वही हैं, पाकिस्तान की चालबाज़ियाँ वही हैं, आतङ्कवादियों के सपने वही हैं। अलबत्ता, जो बदल गया है, वह है कश्मीर का संवैधानिक ढाँचा। 5 अगस्त, 2019 की तारीख़ भारत के लिए गौरव-दिवस से कम नहीं है, जबकि कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा देने वाली संविधान की अनपेक्षित धारा-370 को हमेशा-हमेशा के लिए मिटा दिया गया। कश्मीर भी अब देश के अन्य राज्यों जैसा ही हो गया है। इसका नतीजा है कि वहाँ आए दिन होने वाली पत्थरबाज़ी की घटनाएँ समाप्तप्राय हैं। आतङ्कवादियों की घुसपैठ में भी कमी आई है। आम कश्मीरी अब ख़ुद को देश के ज़्यादा क़रीब महसूस कर रहे हैं। इस बात की भी आज़ादी मिल गई है कि कश्मीर में अब देश के दूसरे हिस्सों के लोग भी ज़मीनें ख़रीद सकते हैं। नागरिकों को वोट डालने का सम्पूर्ण अधिकार मिला है, तो चुनाव प्रक्रियाएँ वैसे ही सञ्चालित की जाएँगी, जैसे देश के बाक़ी हिस्सों में। विकास के काम भी अब वहाँ तेज़ी से आगे बढ़ते दिखाई दे रहे हैं।
बहरहाल, धारा-370 की समाप्ति को कश्मीर समस्या का सम्पूर्ण हल मान लेना एक़दम सही नहीं होगा। पाकिस्तान किसी भी हाल में भारत के इस संवैधानिक बदलाव को स्वीकार करने को तैयार नहीं है। उसका राग वही है कि हम कश्मीर को लेकर रहेंगे। ज़ाहिर है वह आतङ्कवाद के नए-नए चेहरे तैयार करने की कोशिश करेगा। धारा-370 की समाप्ति हमारी बड़ी उपलब्धि है, पर समाधान के ताने-बाने में कुछ धागे पिरोने अभी बाक़ी हैं। समाधान पर आगे की बात करने से पहले बेहतर है कि हम समस्या के ज़रूरी पहलुओं पर एक सरसरी निगाह तो डाल ही लें।
कश्मीर की व्यथा-कथा को समझने के लिए हमें जानना होगा कि दो सौ साल की गुलामी के बाद जब देश सन् 1947 में आज़ाद हो रहा था, तो उस समय क्या हुआ था। 1947-48 की पाकिस्तान से लड़ाई की तह तलाशनी होगी। देखना होगा कि सन् 1948 में यूनाइटेड नेशंस में यह मामला कैसे पहुँचा; 1949 में धारा 370 का प्रवेश भारत के संविधान में कैसे हुआ; 1950 में क्या हुआ; 1952 में जो दिल्ली समझौता हुआ, उसका जुगराफ़िया क्या था; 1954 में आदेश क्या आया था; 1956 में जम्मू-कश्मीर का जो संविधान बना, उसमें कौन-सी विशेषताएँ थीं; 1963 में किस तरह के परिवर्तन हुए। क्षितीश वेदालङ्कार जी की यह पुस्तक पढ़ते हुए इनमें से तमाम चीज़ें स्पष्ट होती जाएँगी, इसलिए यहाँ सिर्फ़ कुछ बातों का सङ्केत उचित लग रहा है। (…जारी)