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झुलसते स्वर्ग में उभरती उम्मीदें—दो

अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् और क्रान्तिधर्मा लेखक क्षितीश वेदालङ्कार जी ने अपनी पुस्तक ‘कश्मीर : झुलसता स्वर्ग’ के रूप में धरती के इस स्वर्ग के नरक कुण्ड बनते जाने की व्यथा-कथा का बहुत हृदयस्पर्शी वर्णन किया था। हाल में इसके पुनःप्रकाशन का निश्चय हुआ तो आज के समय के हिसाब से इसकी जो भूमिका मैंने लिखी, उसी का दूसरा हिस्सा यहाँ प्रस्तुत है।

वास्तव में वर्तमान समस्या की सबसे बड़ी जड़ भारत के एकीकरण की प्रक्रिया में है। 1947 में जब भारत आज़ाद हुआ तो इण्डियन इण्डिपेण्डेंस एक्ट ब्रिटेन की संसद में पारित हुआ, क्योंकि यह तय हो चुका था कि इसी एक्ट के तहत 15 अगस्त को भारत को आज़ादी दी जानी है और इसी के साथ पाकिस्तान को भी भारत से आज़ादी मिलने वाली थी। इण्डियन इण्डिपेण्डेंस एक्ट लागू होते ही देशी रियासतें भारत या पाकिस्तान के साथ मिलने के लिए स्वतन्त्र हो गईं। पाकिस्तान में कश्मीर के विलयन के लिए जिन्ना ने दाँव-पेंच चलाना शुरू किया, पर उन्हें कामयाबी नहीं मिली। कश्मीर के महाराजा हरि सिंह भारत या पाकिस्तान में अपने राज्य का विलय नहीं करना चाहते थे। वे स्वतन्त्र रहना चाहते थे। उनका सपना था कि वे कश्मीर को एशिया का स्विट्जरलैण्ड बनाएँगे। इस दौरान कश्मीर के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता शेख़ अब्दुल्ला के नेतृत्व में नेशनल कानफ्रेंस पार्टी जम्मू-कश्मीर में लोकतन्त्र के लिए अभियान चला रही थी। शेख़ अब्दुल्ला चाहते थे कि कश्मीर में राजा नहीं, बल्कि जनता का राज हो। शेख़ अब्दुल्ला एक दूसरे ढङ्ग से कश्मीर पर अपना वर्चस्व स्थापित करना चाहते थे। उनकी पार्टी सन् 1931 से ही सक्रिय थी और राजा के ख़िलाफ़ उसने काफ़ी प्रदर्शन किए थे। राजा उनसे बुरी तरह नाराज़ थे। शेख़ अब्दुल्ला को इण्डियन नेशनल काँग्रेस का भी समर्थन मिल रहा था, क्योंकि काँग्रेस भी आज़ादी के साथ प्रजातन्त्र चाहती थी। पं. नेहरू से मित्रता की उनकी एक अलग कहानी है।

हम जानते हैं कि इस दौरान जिन्ना द्विराष्ट्रवाद का सिद्धान्त चला रहे थे और चाहते थे कि भारत का विभाजन हिन्दू और मुसलमान के आधार पर हो। धर्म के नाम पर बँटवारे की स्थिति में जिन्ना का कहना था कि 77 प्रतिशत मुसलमान आबादी वाले कश्मीर का विलय पाकिस्तान में हो, लेकिन महाराजा हरि सिंह ने इसे स्वीकार नहीं किया और उन्होंने पाकिस्तान के साथ एक स्टैण्डस्टिल एग्रीमेण्ट पर हस्ताक्षर किया कि दोनों देशों के व्यापार आदि जारी रहेंगे, पर कश्मीर का विलय पाकिस्तान में नहीं होगा। इसी तरह का समझौता वे भारत के साथ भी करना चाहते थे। महाराजा हरि सिंह को चिन्ता इस बात की थी कि यदि वे पाकिस्तान के साथ मिले तो कश्मीर में हिन्दू राजा चल नहीं पाएगा और यदि भारत में विलय की सोचेंगे तो प्रजातन्त्र आकर रहेगा और उनकी राजशाही समाप्त हो जाएगी। इसी वजह से उन्होंने प्रजातन्त्र के लिए सङ्घर्ष कर रहे शेख़ अब्दुल्ला को गिरफ़्तार करवा कर जेल भेज दिया था।

इसी बीच पाकिस्तान ने एक शातिराना हरकत की, जो उसकी सबसे बड़ी ग़लती सिद्ध हुई। पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला करने की योजना बनाई, पर उसे लगा कि अगर वह कश्मीर में अपनी सेना भेजेगा तो यह सन्देश जाएगा कि पाकिस्तान ने आक्रमण किया है और उसका पक्ष कमज़ोर हो जाएगा। जिन्ना को विश्वास था कि कश्मीर की जनता पाकिस्तान के पक्ष में है। इसके पहले वे जूनागढ़ में जनविद्रोह की स्थिति से अवगत हो ही चुके थे, तो ऐसे में उन्होंने योजना बनाई कि पाकिस्तान सीधे हमला न करके टेढ़ा रास्ता अपनाएगा। पाकिस्तान ने अपनी सेना के एक बड़े अफ़सर अकबर ख़ान को कश्मीर हड़पने के मिशन पर लगाया। अकबर ख़ान ने वज़ीरिस्तान की क़बीलाई मुस्लिम फ़ौज को लालच देकर कश्मीर पर धावा बोलने के लिए तैयार किया। लालच कुछ ऐसा कि धन-सम्पत्ति तो मिलेगी ही, सुन्दर कश्मीरी स्त्रियाँ भी मिलेंगी। पाकिस्तान के सैनिक भी असैन्य वेशभूषा में क़बीलाई फ़ौज में शामिल हुए। इस तैयारी के बाद 20 अक्टूबर, 1947 को लगभग दस हज़ार लोगों की सेना ट्रकों में भरकर वज़ीरिस्तान से श्रीनगर की ओर चल पड़ी। इसकी सूचना जब महाराजा हरि सिंह को मिली, तब भी उन्हें लग रहा था कि उनकी अपनी सेना जब तक है, तब तक ये क़बीलाई लोग उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाएँगे। हरि सिंह की इस धारणा पर उनके ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह ने चेताया—“हुज़ूर, एक बात का ध्यान रखिए कि आपकी सेना में पचास-साठ प्रतिशत सिपाही मुसलमान हैं। वे आपके प्रति निष्ठा रखते हैं, लेकिन अगर उस सेना ने इन्हें प्रलोभन दिया कि हम इस्लामी राज्य बनाएँगे, तो तुम्हारा ओहदा बढ़ेगा, सुविधाएँ बढ़ेंगी, तो यह बड़ा ख़तरा है कि ये उनके पक्ष में जा सकते हैं, क्योंकि सैनिक बहुत ग़रीब होता है और ऐसे लालच आराम से नहीं छोड़ सकता।”

राजेन्द्र सिंह के चेताने पर भी महाराजा को लग रहा था कि ख़तरा बड़ा नहीं है। उन्होंने कहा कि जो भी हो, हम युद्ध करेंगे और मैं ख़ुद चलता हूँ। राजेन्द्र सिंह ने उन्हें रोका और ख़ुद ज़िम्मेदारी ली। उधर हथियारबन्द क़बीलाई दो दिन में मुज़फ़्फ़राबाद पहुँच गए। श्रीनगर वहाँ से सिर्फ़ डेढ़ सौ किलोमीटर दूर रह गया था। अब राजा की पेशानी पर बल पड़ने लगे कि स्थिति कैसे सँभाली जाए। चुनौती बड़ी इसलिए भी थी कि राजा बिलकुल नहीं चाहते थे कि कश्मीर का विलय भारत या पाकिस्तान के साथ हो। सूचना मिल रही थी कि अगले दिन आक्रमणकारी उरी पहुँचने वाले हैं, यानी श्रीनगर से बस सौ किलोमीटर दूर। अब राजा को लगने लगा कि बात आसानी से नहीं सँभलेगी। उन्हें सबसे बड़ा धक्का यह जानकर लगा कि ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह की चिन्ता सही निकली और उरी तक आते-आते उनकी सेना में से मुसलमान सिपाहियों का एक बड़ा हिस्सा विरोधी सेना के साथ मिल गया।

राजेन्द्र सिंह स्थिति सँभालने में और मुस्तैदी से लगे और राजा की जान बचाने के लिए उन्हें आनन-फानन में श्रीनगर से जम्मू भगाया गया। राजा ने दिल्ली फ़ोन किया कि भारत उन्हें बचाए। तब दिल्ली से श्रीनगर को जोड़ने का एकमात्र तरीका था हवाई मार्ग। महाराजा की गुहार पर रियासतों के एकीकरण में विशिष्ट भूमिका निभाने वाले वीपी मेनन दिल्ली से आनन-फानन में श्रीनगर पहुँचे। महाराजा से बात करके वीपी मेनन वापस दिल्ली लौटे और पं. नेहरू, सरदार पटेल और वायसराय माउण्टबेटेन को बताया कि राजा हरि सिंह ने कश्मीर को बचाने की गुहार लगाई है। नेहरू और पटेल मदद की मुद्रा में थे, पर माउण्टबेटेन ने सवाल उठाया कि अभी कश्मीर भारत का हिस्सा बना ही नहीं है तो वहाँ सेना कैसे भेजी जा सकती है। जाहिर है, सेना भेजने पर इसे अन्तरराष्ट्रीय युद्ध माना जाएगा। तब और बड़ी मुश्किल थी, जबकि दो ही साल पहले 1945 में अस्तित्व में आए संयुक्त राष्ट्र से उम्मीद लगाई जा रही थी कि अब अन्तरराष्ट्रीय युद्धों की समस्या पर लगाम लगेगी। निष्कर्ष यह निकला कि भारत के लिए सेना भेजना उचित नहीं है। वीपी मेनन फिर जम्मू पहुँचे और राजा को वस्तुस्थिति से अवगत कराया। इस बार कश्मीर के प्रधानमन्त्री मेहरचन्द महाजन (जो बाद में भारत के सुप्रीम कोर्ट के जज बने) ने भी वीपी मेनन के साथ राजा से बात की और उन्हें समझाया गया कि स्थिति गम्भीर है और ऐसे ही बात नहीं बनेगी। इसके बाद राजा ‘इंस्ट्रूमेण्ट ऑफ़ एक्सेशन’ के लिए तैयार हुए।

स्थिति की गम्भीरता का अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि दुश्मन की सेना उरी पहुँच चुकी थी और ब्रिगेडियर राजेन्द्र सिंह के पास एक ही रास्ता बचा था कि वे उरी और श्रीनगर के बीच की नदी पर बने एकमात्र पुल को ध्वस्त कर दें। उन्होंने दुश्मन की सेना के पहुँचने से कुछ ही घण्टे पहले इसे अञ्जाम दे दिया। इस प्रक्रिया में राजेन्द्र सिंह शहीद हो गए, पर उनकी इस गहरी सूझबूझ ने दुश्मन की सेना को दो दिन तक उस पार ही रोके रखा, अन्यथा राजा हरि सिंह के भारत के साथ विलय का समझौता करने से पहले ही कश्मीर पाकिस्तान का हिस्सा बन चुका होता।

बहरहाल, दो दिन बाद 25 अक्टूबर को क़बीलाई सेना उरी पार करके बारामूला पहुँच गई और वह क़त्लेआम मचाया, जिसकी मिसाल दुनिया के इतिहास में नहीं मिलेगी। बारामूला की दो-तिहाई आबादी को क़त्ल कर दिया गया। हज़ारों स्त्रियों के साथ बलात्कार किया गया। हिन्दू मुख्य निशाने पर थे, पर जो ईसाई और मुसलमान स्त्रियाँ मिलीं, उन्होंने उनको भी नहीं छोड़ा, क्योंकि आक्रान्ताओं के हिसाब से ये लोग दुश्मन के पक्ष के थे, इसलिए काफ़िर थे, इनके साथ काफ़िरों जैसा बरताव ही करना चाहिए।

26 अक्टूबर को यह सेना श्रीनगर पहुँची और शाम होते-होते पूरे श्रीनगर को घेर लिया। अभी तक जम्मू-कश्मीर भारत का हिस्सा नहीं बन पाया था और वीपी मेनन स्थिति का जायज़ा लेने के लिए श्रीनगर में रुक गए थे। 25 अक्टूबर को उन्हें समझ में आ गया कि अगले दिन श्रीनगर में हालत बेक़ाबू हो जाएगी। अन्ततः उन्हें भी मेहरचन्द महाजन के साथ श्रीनगर से भागना पड़ा। यह भी रोचक है कि श्रीनगर से सारी कारें राजा अपने साथ जम्मू ले गए थे और वहाँ के लिए बस एक खटारा जीप रख छोड़ी थी। इसी जीप में ये दोनों लोग जैसे-तैसे अपनी जान बचाकर भागे और हवाई अड्डे पहुँचे।

मेहरचन्द महाजन और वीपी मेनन ने दिल्ली पहुँचकर ‘इंस्ट्रूमेण्ट ऑफ़ एक्सेशन’ का दस्तावेज़ तैयार किया और फिर वापस जम्मू के लिए रवाना हुए। यह अभी 26 अक्टूबर का ही दिन था। इन दोनों ने राजा को समझाया कि अब कश्मीर को बचाने का एक ही उपाय है कि आप ‘इंस्ट्रूमेण्ट ऑफ़ एक्सेशन’ पर हस्ताक्षर कर दें, क्योंकि आज की यह आख़िरी रात है…कल सुबह श्रीनगर में तबाही मचने वाली है…बारामूला बरबाद हो चुका है, दुश्मन की सेना श्रीनगर पहुँच रही है। स्थिति की नज़ाकत भाँपने के बाद राजा ने तुरन्त हस्ताक्षर कर दिए। रोचक प्रसङ्ग है कि राजा ने जब हस्ताक्षर कर दिए, तो रात में सोने के लिए जाते समय अपने एडीसी को अपनी पिस्तौल थमाई और बोले कि अगर सुबह यह ख़बर न मिले कि भारतीय हवाई जहाज़ श्रीनगर पहुँच गए हैं, तो मुझे उठाना मत, मुझे गोली मार देना, मैं उठना नहीं चाहता हूँ।

ख़ैर, 26 अक्टूबर की रात को मेहरचन्द महाजन और वीपी मेनन दिल्ली पहुँच गए तो पटेल, नेहरू और माउण्टबेटेन की मीटिङ्ग हुई। माउण्टबेटेन ने अँग्रेज़ी शातिरपना दिखाने की कोशिश की और संसाधन वग़ैरह की कमी का हवाला देकर सलाह दी कि अभी सेना भेजना उचित नहीं रहेगा। पटेल अड़ गए तो अन्त में माउण्टबेटेन तैयार हुए और 26 अक्टूबर की आधी रात के बाद यानी 27 अक्टूबर की सुबह माउण्टबेटेन ने भी ‘इंस्ट्रूमेण्ट ऑफ़ एक्सेशन’ पर अपने हस्ताक्षर किए। यह होते ही कमान पटेल के हाथ में आ गई और आनन-फानन में 27 अक्टूबर की सुबह ही दिल्ली के पालम और सफ़दरजङ्ग हवाई अड्डे से हवाई जहाज़ श्रीनगर के लिए उड़े।

भारत की तत्परता के उन रोमाञ्चक क्षणों की कल्पना भी रोंगटे खड़े कर देती है। सोचिए कि क्या हालत रही होगी जबकि उस क़बीलाई सेना ने श्रीनगर को चारों ओर से घेर रखा हो, जो बारामूला में तबाही मचाकर आई थी। श्रीनगर के लोग बुरी तरह से भयभीत थे कि अब शायद कोई बच पाए और ठीक उसी समय भारत की सेना ने वहाँ अपने क़दम रखे और मोर्चा सँभाला। इसी दौरान नेहरू के दबाव में राजा हरि सिंह ने शेख़ अब्दुल्ला को जेल से रिहा कर दिया था। यह भी दिलचस्प है कि भारतीय सेना के कश्मीर में स्वागत का काम शेख़ अब्दुल्ला और उनके साथियों ने किया, क्योंकि उस समय शेख़ किसी भी तरह से पाकिस्तान के समर्थन में नहीं थे। शेख़ के मन में स्पष्ट था कि उन्हें मिलना है तो भारत में ही मिलना है, परन्तु यहाँ भी शर्त लोकतन्त्र की थी। उन्हें किसी भी हाल में राजशाही नहीं चाहिए थी। (…जारी)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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