झुलसते स्वर्ग में उभरती उम्मीदें—तीन
अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् और क्रान्तिधर्मा लेखक क्षितीश वेदालङ्कार जी ने अपनी पुस्तक ‘कश्मीर : झुलसता स्वर्ग’ के रूप में धरती के इस स्वर्ग के नरक कुण्ड बनते जाने की व्यथा-कथा का बहुत हृदयस्पर्शी वर्णन किया था। हाल में इसके पुनःप्रकाशन का निश्चय हुआ तो आज के समय के हिसाब से इसकी जो भूमिका मैंने लिखी, उसी का तीसरा हिस्सा यहाँ प्रस्तुत है।
बहरहाल, शेख़ अब्दुल्ला की पार्टी की मदद से भारतीय सेना ने श्रीनगर से क़बीलाई सेना को खदेड़ना शुरू किया और युद्ध आगे बढ़ा। ज़ाहिर है, इससे जिन्ना के पेट में दर्द उठा। उन्होंने कल्पना भी नहीं की थी कि राजा हरि सिंह इस तरह से विलय पत्र पर हस्ताक्षर कर देंगे और कश्मीर में भारतीय सेना का दख़ल शुरू हो जाएगा। जिन्ना ने यह कहते हुए अपने सेनापति को भारत के साथ युद्ध करने का आदेश दिया कि पाकिस्तान ‘इंस्ट्रूमेण्ट ऑफ़ एक्सेशन’ पर राजा के हस्ताक्षर को मान्यता नहीं देता। लेकिन उस कमाण्ड के ब्रिटिश मुखिया ने जिन्ना के लिखित आदेश को यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि जब तक हमें अपने सुप्रीम कमाण्डर से आदेश नहीं मिलेगा, तब तक हम सेना को ऐसा करने का आदेश नहीं दे सकते। उस समय भारत और पाकिस्तान दोनों की सेनाओं के सुप्रीम कमाण्डर ब्रिटिश थे। जिन्ना ने सुप्रीम कमाण्डर ओकेनलेक से सीधे बात की कि वे युद्ध का आदेश दें, क्योंकि पाकिस्तान इस विलय को नहीं मानता, यह ज़ोर-ज़बरदस्ती से हुआ है। जिन्ना के दिमाग़ में जूनागढ़ चल रहा था कि जैसे जूनागढ़ में भारत ने जनमत सङ्ग्रह कराया, वैसे ही कश्मीर में भी होना चाहिए। जिन्ना की बात पर ओकेनलेक ने स्पष्ट कहा कि हमारी सूचना के मुताबिक हरि सिंह ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए हैं अब वह भारत का हिस्सा हो चुका है। ऐसे में यदि पाकिस्तान की सेना कश्मीर जाती है तो यह भारत पर हमला माना जाएगा और तब यह अन्तरराष्ट्रीय युद्ध हो जाएगा और हमारे देश की नीति है कि हम अन्तरराष्ट्रीय युद्ध नहीं कर सकते। भारत, पाकिस्तान दोनों देशों की सेनाओं के कमाण्डर चूँकि ब्रिटिश हैं, तो यह एक तरह से ब्रिटेन का ब्रिटेन से युद्ध हो जाएगा। आपके चक्कर में हम अपने संसाधन और अपने लोगों का नुक़सान क्यों करेंगे?
मतलब यह कि तमाम कोशिशों के बावजूद जिन्ना युद्ध नहीं करवा पाए और मन मसोस कर रह गए। अब जिन्ना ने दूसरा पैंतरा आज़माया और माउण्टबेटेन से कहा कि आप, मैं और नेहरू लाहैर में मिलें और बात करें। माउण्टबेटेन और नेहरू लाहैर जाना चाहते थे, पर पटेल ने आपत्ति की कि हमला उन्होंने किया और बुला भी वही रहे हैं, तो बात करने लाहौर हम क्यों जाएँ। यहाँ यह बात भी ध्यान देने लायक़ है कि माउण्टबेटेन ने जब विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए थे तो ज़बानी तौर पर यह भी कहा था कि जब स्थिति शान्तिपूर्ण हो जाए तो कश्मीर में जनता की राय भी जान लेनी चाहिए कि वह किस देश के साथ जाना चाहती है। ख़ैर, पटेल के मना करने पर नेहरू जी उस समय चुप हो गए। अन्ततः 1 नवम्बर, 1947 को माउण्टबेटेन लाहौर पहुँचे और जिन्ना से बात की। इधर 2 नवम्बर, 1947 को नेहरू ने एक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि जैसे ही शान्ति कायम होगी, वैसे ही हम जम्मू-कश्मीर में जनता की राय लेंगे और जनता की राय से ही फ़ैसला करेंगे। कश्मीर समस्या को जटिल बनाने में नेहरू का यह भाषण सबसे दुर्भाग्यपूर्ण पहलू रहा है, जिसका सन्दर्भ लेकर पाकिस्तान अक्सर तलवार भाँजने की कोशिश करता रहता है और कश्मीर के अलगाववादी जनमत सङ्ग्रह की बात उठाते रहते हैं। ऐसा लगता है कि पं. नेहरू गुटनिरपेक्ष नेता की अपनी वैश्विक पहचान बनाए रखने, सदाशयी, विनम्र बने रहने तथा साम्राज्यवादी दिखने से ख़ुद को बचाने की आदर्शवादी उलझन में यह चूक कर बैठे थे।
युद्ध 27 अक्टूबर, 1947 से 31 दिसम्बर, 1948 तक क़रीब सवा साल चला। नेहरू जी में सहज विश्वास कर लेने का एक स्वभाव था तो उन्होंने संयुक्त राष्ट्र पर भरोसा कर लिया कि सम्भवतः वह समस्या सुलझाने में सबसे बड़ा मददगार होगा। यह सोचकर 31 दिसम्बर, 1947 को भारत सरकार संयुक्त राष्ट्र पहुँची और चैप्टर-6 के तहत एक शिकायत दर्ज की गई। गनीमत यह रही कि नेहरू जी ने शिकायत चैप्टर-7 के बजाय चैप्टर-6 के तहत दर्ज कराई, अन्यथा संयुक्त राष्ट्र का जो भी फ़ैसला होता, उसको मानने की भारत की बाध्यता हो जाती। संयुक्त राष्ट्र में सुरक्षा परिषद की जब बैठक हुई तो अमेरिका और इङ्ग्लैंड का भी असली चेहरा स्पष्ट होने लगा। इन दोनों देशों ने स्पष्ट रूप से भारत के ख़िलाफ़ अपनी राय रखी। इससे नेहरू काफ़ी दुखी हुए कि जिन पर उन्होंने विश्वास किया, उन्होंने ही उनके साथ धोखा किया। अन्ततः 31 दिसम्बर, 1948 को संयुक्त राष्ट्र प्रस्तावित सीज़फायर को अन्तिम रूप दिया गया और 1 जनवरी, 1949 से युद्ध विराम लागू हो गया। जिस स्थिति में युद्ध रुका, उस स्थिति के हिसाब से कश्मीर का लगभग 35 प्रतिशत हिस्सा पाकिस्तान के क़ब्ज़े में और बाक़ी का 65 प्रतिशत हिस्सा भारत के क़ब्ज़े में रहा। यह बात ज़रूर है कि अगर नेहरू थोड़ी समझदारी दिखाते, संयुक्त राष्ट्र पर अन्धा विश्वास न करते और सेना को कुछ और समय दे देते तो एक-दो महीने के बाद शायद पूरा कश्मीर भारत का होता। ख़ैर, कुछ समय बाद 21 अप्रैल, 1948 को संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव आया, जिसके तीन मुख्य बिन्दु थे। पहला यह था कि पाकिस्तान ने चूँकि माना है कि उसकी सेना युद्ध में शामिल थी, तो सबसे पहले वह अपनी सेना को वापस बुलाएगा। दूसरा बिन्दु यह था कि पाकिस्तान ने यह भी माना है कि उसके देश के जनजातीय लोग, जो जम्मू-कश्मीर के नागरिक नहीं है, पर वे जम्मू-कश्मीर के सङ्घर्ष में शामिल हैं, उनके लिए पाकिस्तान व्यवस्था करेगा कि वे भी जम्मू-कश्मीर छोड़कर पाकिस्तान वापस चले जाएँ। तीसरा बिन्दु था कि जब संयुक्त राष्ट्र आयोग भारत सरकार को सूचना देगा कि पाकिस्तान ने पहले दोनों क़दम उठा लिए हैं, तब भारत सरकार अपनी सेना को पीछे हटाना शुरू करेगी और कुछ समय के बाद श्रीनगर के बाहर ले जाएगी। तीसरे बिन्दु में यह था कि दोनों देश इस बात पर सहमत हैं कि जम्मू-कश्मीर का अन्तिम फ़ैसला जम्मू-कश्मीर की जनता की इच्छा से होगा। इस हिसाब से जब पहले की दोनों बातें पूरी हो जाएँगी तो स्थानीय प्रशासन के तहत जनमत सङ्ग्रह कराया जाएगा और उससे तय होगा कि जम्मू-कश्मीर किस देश का हिस्सा बनना चाहेगा।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि संयुक्त राष्ट्र के इस सङ्कल्प की तीनों बातों में से पहली दो पूरी तरह से भारत के पक्ष में हैं। ये दोनों बातें पाकिस्तान की ओर से आज तक पूरी नहीं की गई हैं, तो आख़िरी जनमत सङ्ग्रह की बात भी बेमानी है। कश्मीर विवाद के और भी तमाम महत्त्वपूर्ण पहलू हैं। एलओसी, एलएसी, आज़ाद कश्मीर वग़ैरह के मुद्दे हैं, जिनके बारे में ‘कश्मीर : झुलसता स्वर्ग’ के पन्ने पलटते हुए पाठकों की दृष्टि साफ होती जाएगी।
आज की तारीख़ में सबसे बड़ी बात यह है कि कश्मीर समस्या के अन्त की सबसे बड़ी शुरुआत हो चुकी है। कोढ़ में खाज जैसी धारा-370 को भारतीय संविधान के दायरे में रहकर ही समाप्त कर दिया गया है। मोदी सरकार का यह समझदारी भरा क़दम भारत के इतिहास का स्वर्णिम अध्याय बनेगा। धारा-370 को हटाने के लिए जिस तरह से धारा-371डी से शुरुआत की गई और 373 का इस्तेमाल करके इसे हटाया गया, उससे स्पष्ट दिखाई देता है कि सरकार कम-से-कम साल-दो साल से इस पर काम कर रही थी और संविधान के गहन अध्ययन के बाद यह क़दम उठाया गया। इसलिए यह भी विश्वास किया जा सकता है कि सर्वोच्च अदालत में मुद्दा जाने के बाद भी इसे अब पूर्ववत् नहीं किया जा सकता।
धारा-370 की समाप्ति के बाद वर्तमान की असली चुनौती यह है कि कैसे कश्मीर के लोगों में भारत के प्रति विश्वास पैदा किया जाए, ताकि उनके दिमाग़ में पाकिस्तान द्वारा भरा गया ज़हर समाप्त हो। शान्त, ख़ुशहाल और हरा-भरा कश्मीर बनेगा तभी इसे फिर से धरती के स्वर्ग के रूप में महसूस किया जा सकेगा। इससे भी पहले इस राह का सबसे बड़ा क़दम यह होना चाहिए कि कैसे बार-बार पलायन के शिकार होने को अभिशप्त रहे कश्मीरी पण्डित अपनी स्थायी घर वापसी कर सकें। 1990 में लाखों कश्मीरी पण्डितों को जिस तरह से घाटी छोड़ने पर विवश किया गया, वह इतिहास का हृदय विदारक अध्याय है। प्रगतिशील इतिहासकारों और साम्प्रदायिक सद्भाव के छद्म पैरोकारों ने तथ्यों को लगातार छिपाने की कोशिश की है और समस्या की असली जड़ों की शिनाख़्त में बाधा पहुँचाई है। इस सन्दर्भ में मार्च, 2022 में आई फ़िल्म ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ ने कश्मीरी पण्डितों के नरसंहार का कड़वा यथार्थ दिखाकर एक बार फिर इस बहस को तेज़ कर दिया है कि कश्मीर के आतङ्कवाद की जड़ों की तलाश करनी है तो आतङ्कवादियों के दिमाग़ों में भरे गए मज़हबी ज़हर की भी शिनाख़्त करनी होगी।
इस फ़िल्म में सच का दस-पन्द्रह फ़ीसद ही दिखाया गया है, फ़िल्म देखते हुए स्पष्ट होता जाता है कि उस पूरी क्रूरता और एक पूरी कौम को अपनी ज़मीन से पलायन करने पर मजबूर कर देने की घटना में मानवीयता-अमानवीयता का कोई मामला ही नहीं था, बल्कि इस्लाम और क़ुरान की व्याख्याएँ काम कर रही थीं। अगर काफ़िर का गला काट देने से अल्लाह का काम होता हो, या कि यह जन्नत में प्रवेश करने और 72 हूरे मिलने की गारण्टी हो, तो ज़ाहिर है कि मौक़ा मिलते ही दूसरी क़ौम का सफ़ाया करने में कैसा अपराध बोध? आक्रान्ताओं द्वारा हिन्दू स्त्रियों को उठा ले जाने और उनकी मण्डी लगाने की अनेक घटनाएँ अगर इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं तो इनके पीछे भी दूसरे ग़ैर मज़हब के लोगों को काफ़िर मानने और उनके साथ ज़्यादती की छूट की यही परिभाषाएँ काम कर रही थीं।
कड़वी सच्चाई यही है कि इस आतङ्कवाद की शिनाख़्त बिना धर्म के सम्भव ही नहीं है। धर्म को अनुपस्थित कर दीजिए, पूरा इस्लामी आतङ्कवाद समाप्त हो जाएगा। पाकिस्तान कश्मीर में आतङ्कवाद को पोषित कर पाया तो उसकी सबसे बड़ी वजह इस्लामीकरण और गजवा-ए-हिंद जैसी क़ुरान की व्याख्याएँ हैं। 31 जुलाई, 1986 को भारत के एक न्यायाधीश जेड. एस. लोहाट ने एक फ़ैसले में वादी-प्रतिवादी के प्रस्तुत तथ्यों के क़ुरान से मिलान के दौरान पाया था कि क़ुरान में 24 आयतें ऐसी हैं, जो बुत पूजने वालों को, दूसरे मज़हब वालों को, काफ़िरों को क़त्ल करने की वकालत करती हैं और जब तक इन्हें नहीं हटाया जाएगा, तब तक साम्प्रदायिक दङ्गे रोकना मुश्किल है। ज़ाहिर है, अगर दूसरे धर्मों की अपेक्षा मुसलमान युवक आतङ्कवाद की ओर आसानी से क़दम बढ़ाते दिखाई देते रहे हैं, तो इसकी सबसे बड़ी वजह यही है कि क़ुरान को आतङ्कवाद के पक्षधर के रूप में उनके सामने पेश किया जाता रहा है। वास्तव में ऐसी आयतों की सद्भावपरक व्याख्याएँ करके समस्या को काफ़ी हद तक समाधान की तरफ़ ले जाया जा सकता है। अजब है कि जो लोग धर्म को अफ़ीम कहते थकते नहीं, वे पाकिस्तान पोषित कश्मीर के आतङ्कवाद में धर्म को शामिल करने से गुरेज़ करते हैं।
शुभ सङ्केत है कि ‘द कश्मीर फ़ाइल्स’ के बहाने ही सही, उस समय के चश्मदीद रहे कुछ कश्मीरी मुसलमानों ने सामने आने की हिम्मत दिखाई है। उन्होंने उस समय की घटनाओं का वर्णन किया है, जबकि उनके अपने गाँव में कश्मीरी पण्डितों को आतङ्कवादियों ने एक तरफ़ से मौत के घाट उतार दिया था। कुछ मुसलमान महिलाओं ने हिम्मत दिखाते हुए मौलवियों से अपील की है कि हम मुसलमानों को कश्मीरी हिन्दुओं के दर्द को महसूस करना चाहिए और उनसे माफ़ी माँगनी चाहिए कि हमारे ही परिवारों में से कुछ लोगों ने पाकिस्तानी आतङ्कियों का साथ दिया, कश्मीरी हिन्दुओं का बेरहमी से क़त्ल किया और उनकी बहू-बेटियों की इज़्ज़त को तार-तार किया। वास्तव में धर्म का नाम लेकर पनपते इस्लामी आतङ्कवाद को समाप्त करने में भारतीय मुसलमानों की बड़ी भूमिका हो सकती है। वे क़ुरान और इस्लाम की सकारात्मक और भाईचारा बढ़ाने वाली व्याख्याएँ दुनिया को दे सकते हैं, क्योंकि भारत के मुसलमानों में एक बड़ी सङ्ख्या है, जो सदियों से भाईचारा में जीती रही है।
भविष्य में धर्म की अफ़ीम पिलाकर कश्मीर के मुसलमान युवकों को बरगलाया न जा सके, इसके लिए बड़े पैमाने पर सुधार कार्यक्रम चलाने की ज़रूरत है। धारा-370 की समाप्ति के बाद कश्मीर में काम करना अब आसान हो ही सकता है, तो भारत सरकार को अपनी सक्रियता तेज़ करनी चाहिए, अन्यथा पाकिस्तान नई चालबाज़ियाँ तलाश ही रहा है। कश्मीर में चुनाव सुधार के बाद आम जनता की भागीदारी सकारात्मक वातावरण बनाने में मदद करेगी। ढाँचागत विकास के काम तेज़ होने चाहिए, ताकि कश्मीर के लोगों को लगे कि भारत सरकार उनके साथ उपेक्षा का भाव नहीं रखती। शैक्षिक वातावरण को जितना बेहतर किया जाएगा, आतङ्कवाद की कमर तोड़ने में उतनी ही मदद मिलेगी। कश्मीर में कश्मीरी पण्डितों को तो दुबारा बसाया ही जाए, इसके अलावा अन्य समुदायों के लोगों को भी वहाँ ज़मीन-जायदाद बनाने को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, ताकि कश्मीर के किसी एक समुदाय को यह न लगे कि कश्मीर पर सिर्फ़ उसकी बपौती है। सन्तुलन बनाने के लिए यह ज़रूरी है। उम्मीद जगी है कि कश्मीर की स्थिति अब फिर से सुधर सकती है तो इस उम्मीद को कमज़ोर नहीं होने देना चाहिए। सारा दारोमदार भारतीय नेतृत्व पर है। उसे अपनी दृष्टि को यथार्थपरक बनाना होगा और कश्मीर की डेमोग्राफ़ी बदलने पर शिद्दत से काम करना होगा। यह हो पाएगा तो हिन्दू, मुसलमान सभी सुकून की साँस ले पाएँगे और कश्मीर के लिए फिर से धरती का स्वर्ग बनना ज़्यादा दूर नहीं रह जाएगा। (समाप्त)