अनायासराजनीति

दिल्ली दङ्गों के समय की एक फेसबुक पोस्ट

रामराज्य का सपना देखने से रामराज्य नहीं आ जाएगा। रामराज्य लाना है तो वह करना पड़ेगा, जो रामराज्य में होता था। प्रेम बाँटिए, हर तरफ़। दुश्मनों में भी। दुबारा पढ़ लीजिए कि रामराज्य में राम ने लक्ष्मण को राज्य के लिए क्या ज़िम्मेदारियाँ दे रखी थीं और कि उनके दरबार में समाज के आख़िरी आदमी का भी उतना ही महत्त्व था, जितना कि बड़े-से-बड़े व्यक्ति का। गान्धी के रामराज्य की कल्पना ऐसी ही थी।

दङ्गे-फ़साद की मानसिकता बनाता कौन है?

मैं टीवी आमतौर पर नहीं देखता। परसों कई दिनों बाद देखा। दिल्ली के दङ्गों पर सवेरे एनडीटीवी पर रवीश कुमार की एक रिपोर्ट और शाम को जी-न्यूज़ पर सुधीर चौधरी की एक दूसरी रिपोर्ट। ‘आजतक’ भी खोला, पर वहाँ कुछ दूसरी चीज़ चल रही थी, जिसके ज़िक्र का यहाँ सन्दर्भ नहीं बनता। रवीश कुमार की रिपोर्टिङ्ग आमतौर पर मैं पसन्द करता हूँ, उनका समर्थन भी करता रहा हूँ, पर कल निराशा हाथ लगी। मैं सवेरे नौ बजे के बाद वाली रवीश जी की सिर्फ़ एक रिपोर्ट की बात कर रहा हूँ, इसलिए मेरी बात को सिर्फ़ वहीं तक सीमित करके देखें, क्योंकि हो सकता है कि उन्होंने दूसरी और तरह की कुछ बढ़िया रिपोर्टिङ्ग भी की हो। फिलहाल, रवीश की इस रिपोर्ट को शातिराना ढङ्ग की बेहूदा रिपोर्टिङ्ग कहूँगा। बॉडी लैङ्ग्वेज तक ईमानदार नहीं लग रही थी। ठीक इसके उलट, सुधीर चौधरी की रिपोर्टिङ्ग बढ़िया थी और यह सच को सच की तरह दिखा रही थी। इन दोनों को देखने के बाद यह समझने की कोशिश कर रहा हूँ कि कैसे एक तरफ़ एक साफ़-सुथरा आदमी धीरे-धीरे किसी विचारधारा या निहित स्वार्थों की दलाली करता नज़र आने लगता है, जबकि दूसरी ओर एक दूसरा दलाल की छवि वाला आदमी सचबयानी करता दिखाई देने लगता है।

रवीश कुमार ने दङ्गे की तीन घटनाओं का ज़िक्र किया। अच्छी बात कि इन तीनों ही घटनाओं में जिन लोगों ने एक-दूसरे की मदद की, उनमें हिन्दू-मुसलमान दोनों ही क़ौमों के लोग थे, पर अजीब बात कि इस पूरी रिपोर्टिङ्ग से कुछ ऐसे सङ्केत उभर रहे थे, जैसे कि दङ्गा करने वाले सिर्फ़ एक ही क़ौम के लोग रहे हों; जबकि सच्चाई कुछ और है। यह सच को ग़लत दिशा में मोड़ने की मंशा से बनाई गई रिपोर्ट लगती है। पत्रकारिता की यह ग़लीज़ मानसिकता कही जाएगी। पीत पत्रकारिता का यह एक और चेहरा है। ऊपर से सन्तुलन का भ्रम पैदा करना और भीतर से शातिरपना। सोचिए कि यह नेतागीरी है या पत्रकारिता? रवीश जी को कहीं इस बात का गुमान तो नहीं हो गया है कि मैग्सेसे ने उन पर शक करने की गुञ्जाइश ख़त्म कर दी है!

पत्रकारिता के बहाने दूसरे और सन्दर्भों को याद कीजिए और सोचिए कि दङ्गे-फ़साद की मानसिकता बनाता कौन है?

उस दृश्य की कल्पना करके मैं सिहर जाता हूँ, जब दङ्गाई तोड़फोड़ के साथ स्कूली बच्चियों के कपड़े तक फाड़ देते हैं और उनकी देह नोचना चाहते हैं। यह भी सोचिए कि तेरह साल की एक बच्ची के अन्तःवस्त्र दङ्गा प्रायोजित करने के आरोपी एक पार्षद के घर मिलते हैं और नङ्गी लाश बगल के एक नाले से निकाली जाती है। क्या सिर्फ़ इस वजह से यह कम निन्दनीय हो जाता है कि इस शर्मनाक हरकत को अञ्जाम देने वाला आपकी पसन्द वाली धारा का है?

जो लोग दनाक से कह दे रहे हैं कि कपिल मिश्रा के ग़ैरज़िम्मेदाराना बयान की वजह से दङ्गा शुरू हुआ, वे समस्या का सरलीकरण कर रहे हैं। विचारधारा के बीमारों को तो ख़ैर बहाना चाहिए कि कैसे दूसरी विचारधारा वालों को ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाए। अगर ऐसा है कि कपिल मिश्रा के बयान के चलते दङ्गे शुरू हुए, तो और पहले आए कहीं और ज़्यादा गए-गुज़रे बयानों पर दङ्गे क्यों नहीं शुरू हुए? क्या किसी ख़ास पक्ष के बयान ही दङ्गे के लिए ज़िम्मेदार होते हैं और दूसरे पक्ष के भड़काऊ बयानों से गुलाब के फूल झड़ते हैं? ये जनाब ओवैसी अपने सीने पर गोली खाने की हिम्मत दिखाकर काग़ज़ न दिखाने की कौन-सी धमकियाँ दे रहे थे? सोनिया गान्धी को सुना आपने? बुढ़ा गईं, पर राजनीति करनी नहीं आई। अब, इनका लूगा धोने में ही जिनको अपनी क़ाबिलियत नज़र आती है, उनसे भला क्या उम्मीद कर सकते हैं? राहुल गान्धी, प्रियङ्का गान्धी और काँग्रेस के दूसरे नेताओं के पहले भड़काऊ और बाद के नपुंसक बयान भी क्या आपने नहीं सुने? ओवैसी की पार्टी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल मुस्लिमीन के पूर्व विधायक वारिस पठान का वह बयान क्या आपने नहीं सुना, जिसमें उसने कहा था कि हम पन्द्रह करोड़ सौ करोड़ पर भारी पड़ेंगे? दिल्ली के मुख्यमन्त्री को महात्मा गान्धी की समाधि पर माथा रगड़ कर शान्ति फैलाते हुए क्या आपने नहीं देखा? अरे भाई, गान्धी की समाधि पर जाते हुए एक बार यह भी तो सोच लेते कि ऐसे समय पर ख़ुद गान्धी होते तो क्या करते! यह ठीक है कि आपके पार्षद के घर में दङ्गे-फ़साद के समान मिले तो आपने उसे पार्टी से निकाल दिया, पर अपने विधायक अमानतुल्लाह ख़ान को क्या कहेंगे जो ताहिर हुसैन को क्लीन चिट देता फिर रहा है? यह भी सोचिए कि आनन-फानन में ताहिर हुसैन को फ़रार होने की ज़रूरत क्यों पड़ी? हालाँकि जो लोग इस एक पार्षद की वजह से आम आदमी पार्टी पर दङ्गे भड़काने का आरोप लगा रहे हैं, मैं उन्हें भी सही नहीं मानता। ऐसा कहने वालों को समझना चाहिए कि ऐसे अराजक तत्त्वों और अपराधियों की सङ्ख्या दूसरी पार्टियों में और ज़्यादा है। एक-दो नेताओं की वजह से पूरी पार्टी को अपराधी मान लेना ठीक नहीं।

कुछ घरों में मिले फ़साद के सामानों से अन्दाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि तैयारी आनन-फानन में नहीं हो गई थी। यह बहुत दिनों से की जा रही थी। इसे भी महज़ संयोग मानना मुश्किल है कि अमरीकी राष्ट्रपति के आते ही दिल्ली दङ्गों की भेंट चढ़ गई। पहले भी कह चुका हूँ, फिर कह रहा हूँ कि इस शाहीन बाग के अहिंसक प्रदर्शन में ईमानदारी बस बीस फ़ीसद है और शातिराना बेईमानी अस्सी फ़ीसद। शाहीन बाग के जिन भी समर्थकों से मैंने एनआरसी और सीएए के ख़तरे पूछे, एक ने भी सही ढङ्ग से सन्तुष्टिदायक जवाब नहीं दिया। भविष्य के उन काल्पनिक ख़तरों की बात करते लोग दिखे, जिनका कोई सिर-पैर नहीं है। इनमें से ज़्यादातर बेचारे मोदी-विरोध की बीमारी से ग्रस्त हैं। अलबत्ता, शङ्काएँ सही या ग़लत जैसी भी रही हों, जो महिलाएँ सचमुच ईमानदारी के साथ वहाँ डटी हुई थीं और तकलीफ़ उठा रही थीं, उनको मैं नमन करता हूँ।

मेरे मस्तिष्क में फिर गूँज रहा है कि दङ्गे-फ़साद की मानसिकता बनाता कौन है?

दङ्गा भड़कने के तीसरे दिन मैं दफ़्तर में था तो पत्नी का फ़ोन आया—‘‘शाम को सँभल कर आना, पड़ोस के चौराहे पर अफ़रा-तफ़री मची है। कट्टे, पिस्तौल निकले हैं और लोग दुकानें बन्द करके घरों में क़ैद हो गए हैं।’’ समर्थन-विरोध, पुलिस-कचहरी के बीच से ज़िन्दगी गुज़री है, तो ख़ुद के लिए भले कभी डरने की नौबत न आई हो, पर घर में बीवी-बच्चे हैं ही, तो मन भी आशङ्काओं-कुशङ्काओं से घिरता ही है। रात क़रीब साढ़े नौ बजे, घर से डेढ़ किलोमीटर पहले चौराहे पर जब दफ़्तर की बस से उतरा तो मन में यही था कि ई-रिक्शा करके आज किसी दूसरे रास्ते से घर जाऊँगा। नज़दीक आते ई-रिक्शे को हाथ देने की सोच ही रहा था कि मन अचानक बदल गया। पच्चीस-तीस बरस पहले के इलाहाबाद के दिनों के कुछ दृश्य याद आने लगे। यह वह दौर था जब विश्वविद्यालय की पढ़ाई के साथ-साथ सामाजिक काम भी ज़िन्दगी का हिस्सा बन गया था। एक समय वह आया कि शहर में साम्प्रदायिक सद्भाव बिगड़ने का अन्देशा हुआ तो लोगों ने एक सङ्गठन बना लिया—इनसानी बिरादरी। मेरे जैसे तमाम नौजवान इससे जुड़कर ज़रूरत पड़ने पर सामाजिक समरसता क़ायम करने का काम करते। वैसे, मैं तब जुड़ा जब ‘इनसानी बिरादरी’ समाप्त होकर लोक स्वराज्य अभियान का रूप लेने लगा था। प्रो. बनवारीलाल शर्मा हमारे अगुआ थे। वरिष्ठ लोगों में रामधीरज, राजीव दीक्षित, डॉ. कृष्णस्वरूप आनन्दी, डॉ. ए. ए. फ़ातमी, असरार गान्धी, सिविल लाइंस चर्च के फादर, प्रो. रघुवंश, प्रो. ब्रजेश्वर वर्मा, डॉ. सुचेत गोइन्दी जैसे इलाहाबाद के तमाम बड़े नाम हमारे साथ जुड़े थे। कालान्तर में यही ‘लोक स्वराज्य अभियान’ ‘आज़ादी बचाओ आन्दोलन’ बना, जिसके प्रखर वक्ता स्वर्गीय राजीव दीक्षित को तमाम लोग यूट्यूब पर आज भी बड़े मनोयोग से सुनते हैं।

हमारा तरीक़ा यह था कि दङ्गे-फ़साद की आशङ्का पैदा होते ही हम पढ़ाई-लिखाई छोड़कर संवेदनशील मुहल्लों में दौड़ पड़ते थे। ऐसे इलाक़ों के बुज़ुर्गों-नौजवानों की बैठकें बुलाई जातीं; साम्प्रदायिक सद्भाव बनाए रखने के लिए अलग-अलग मुहल्लों के लिए अलग-अलग समूहों को ज़िम्मेदारियाँ बाँटी जातीं; शान्ति जुलूस निकाले जाते। ठीया हमारा गान्धी भवन हुआ करता था। ऐसे भी समय आए, जब अराजक तत्त्वों ने सद्भाव बिगाड़ने की भरपूर कोशिशें कीं और तनाव इतना बढ़ा कि लोग घरों में क़ैद हो गए। इनसानी बिरादरी के लोग जान जोख़िम में डालकर ऐसे इलाक़ों में जाते थे, लोगों से संवाद स्थापित करते थे और ज़रूरत के सामान घरों तक पहुँचाते थे। इलाहाबाद के लोगों ने इनसानी बिरादरी को इतना मान तो दिया ही कि देश के दूसरे कोनों में भले ही दङ्गे भड़के हों, पर इस शहर में उस दौर में कभी दङ्गे नहीं भड़के। उसी दौर की तपस्या है कि आज इतने बरस बाद भी कभी इलाहाबाद जाता हूँ और किसी भी इलाक़े के किसी भी मुहल्ले से गुज़रता हूँ तो अचानक कोई व्यक्ति रास्ता रोककर हालचाल पूछने लगता है या किसी छज्जे से स्वागत में कोई हाथ हिलता हुआ दिखाई पड़ जाता है। वे दिन भला कैसे भूल सकता हूँ, जब ईद पर सेवइयाँ खाने के इतने न्योते होते कि हम देर रात को ही घर लौट पाते। इस बात से मैं इतना ही समझ पाता हूँ कि जो लोग ख़ुद को समझदार समझते हैं, अगर वे विचारधाराओं की ज़िद से बाहर निकल सकें तो अपने आसपास को थोड़ा और बेहतर बना सकते हैं।

यह सवाल फिर कौंध रहा है कि दङ्गे-फ़साद की मानसिकता बनाता कौन है?

ख़ैर, इस उधेड़बुन में मैंने तय किया कि डेढ़ किलोमीटर का घर तक का सफ़र मैं पैदल ही तय करूँगा और मुहल्ले के बीच से होकर ही। मानता हूँ कि ऐसा फ़ैसला ख़तरनाक हो सकता है। आपकी ज़रा-सी लापरवाही आपकी जान ले सकती है, पर मन में यह बात तेज़ी से गूँज रही थी कि चलो चल के देखा भी जाए कि इस बीस-तीस साल के कालखण्ड में हम पूरे ही अराजक हो गए हैं या हममें सामने वाले को सुनने का कोई धैर्य बचा भी है। सन्नाटे और छिटपुट की आवाजाही के बीच आख़िर घर मैं सही-सलामत पहुँचा। कोई अनहोनी नहीं हुई। लेकिन सावधान! यह कोई बहादुरी का काम नहीं है। पर्याप्त मूर्खतापूर्ण है। ऐसे ख़तरे उठाने की सलाह किसी को नहीं दे सकता, पर मेरी मानसिकता ऐसी ही है, तो मैं यही कर सकता था। घर के दरवाज़े तक पहुँचते-पहुँचते उन समझदार लोगों की रोज़-रोज़ की आपसी बहसें याद आ रही थीं, जो पूरे जोश में इस या उस व्यक्ति अथवा इस या उस पार्टी को ऐसी परिस्थितियों के लिए दोषी ठहरा देने में अपनी समझदारी की जीत महसूस कर रहे थे।

फिर वही बात कि दङ्गे-फ़साद की मानसिकता बनाता कौन है?

जड़ें नहीं तलाशेंगे तो टहनियाँ और फुनगियाँ कब तक छिनगाते रहेंगे? आज़ादी मिली तो उस समय भी बँटवारे के मुद्दे पर मारकाट मची ही थी, फिर भी कुछ बात थी कि मुसलमानों की एक बड़ी आबादी ने पाकिस्तान जाने से इनकार कर दिया कि वह हिन्दुस्तान में अपने हिन्दू भाइयों के साथ रहकर ही प्रेम की दुनिया बनाएगी। जज़्बा था और हिन्दू-मुसलमान दोनों राष्ट्र-निर्माण के लिए तैयार थे। गान्धी ने कहा कि आज़ादी मिल गई, काँग्रेस की भूमिका ख़त्म हुई और अगर किसी को राजनीति करनी हो तो अलग नाम से अपनी पार्टी बनाए। दिक़्क़त यहीं से शुरू हो गई। गान्धी को दरकिनार कर काँग्रेस का नाम ज़िन्दा रखा गया और इसके नाम पर राजनीति की जाने लगी। जिस जनता को लोकतन्त्र के लिए शिक्षित किया जाना था, उसकी दिशा मोड़ दी गई या उसे असंस्कारित रखा गया। जो लोग समझते हैं कि काँग्रेस ने इस देश पर सबसे लम्बे समय तक इसलिए शासन किया कि उसने काम अच्छे किए थे, तो इसे मैं उनकी भूल ही कहूँगा। सच्चाई यह है कि इस देश का मानस आज़ादी की लड़ाई की वजह से काँग्रेस के साथ शुरू से ही जुड़ा हुआ था और वह तमाम किन्तु-परन्तु करके भी उसे जिताती आ रही थी। जनता के दिमाग़ में बहुत दिनों तक यह बात चस्पाँ रही कि यह वही काँग्रेस है, जिसने देश को आज़ादी दिलाई। इलाहाबाद में मेरे मकान मालिक रहे बेहद नेक क़िस्म के इनसान शुक्ला जी महज़ इसीलिए काँग्रेस को वोट देते आए थे कि वे शुरू से उससे जुड़े थे और देश की आज़ादी में उसके योगदान के लिए उसे ही जिताना अपना कर्तव्य मानते थे। सोचिए कि काँग्रेस भङ्ग कर दी गई होती और राजनीतिक पार्टी का नाम कुछ और होता तो क्या नेहरू के बाद इन्दिरा गान्धी के प्रधानमन्त्री बनने की कोई नौबत कभी आ भी पाती? परिदृश्य से लगातार ग़ायब होते गए लोहिया, कृपलानी, डॉ. नरेन्द्रदेव वग़ैरह को क्या आप उसी रूप में देख रहे होते, जिस रूप में आज देख रहे हैं?

निष्कर्ष बस इतना है कि काँग्रेस ने राष्ट्र-निर्माण की पहली ज़िम्मेदारी ली, पर वह जनता को राष्ट्र-निर्माण के संस्कार देने में बुरी तरह विफल रही। किसी बच्चे को चार-छह बार अभ्यास करा दीजिए कि बेटा, जब भी कुछ खाना तो अपने पास बैठे बच्चे से भी एक बार ज़रूर पूछ लेना कि उसे भी भूख तो नहीं लगी है….तो ज़िन्दगी भर के लिए पड़ोसी का ख़याल करके चलने की उसकी आदत बन जाती है। सोचिए कि सद्भाव के साथ रहने की शिक्षा क्या सचमुच इतनी मुश्किल थी? लेकिन क्या कर सकते हैं, जब सत्ता में बने रहने के लिए समाज को जातियों-वर्गों में बाँटे रहना और सद्भाव के नाम पर तुष्टीकरण करते रहना ज़रूरी लगता हो! इतना भी समझ में नहीं आया कि मैकाले वाली जिस शिक्षा से अँग्रेज़ों ने देश तोड़ने का काम किया, उसी को अपना कर आख़िर कैसे हम देश को सही रास्ते पर ले जा पाएँगे! हमारे शिक्षा संस्थानों से जो बुद्धिजीवी निकल रहे हैं, उनकी दिशा और दशा कैसी है, ज़रा गम्भीरता से सोचने की ज़रूरत है। असली काम तो शिक्षा-व्यवस्था या कहें कि संस्कार-व्यवस्था पर करने की ज़रूरत थी, जिस पर ध्यान ही नहीं दिया गाय। काँग्रेस ने एक ऐसी रेखा बनाई, जिस पर ही बाद की सभी पार्टियाँ चलती रहीं। राम मन्दिर-बाबरी मस्ज़िद हो, धारा 370 हो, खालिस्तान हो, असम-विवाद हो, नक्सलवाद हो…सोचिए कि ये सब किसके पाले-पोसे हुए मुद्दे हैं और क्यों?

बात यह कि अब काँग्रेस को भी दोष देते रहने का क्या फ़ायदा? बहुत दिनों बाद ही सही, जनता ने उसे सबक़ सिखा दिया है। मौक़ा तो अब मोदी जी को मिला है कि वे राष्ट्र निर्माण का काम करें। वे उस पार्टी का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो भारत की महान् सांस्कृतिक विरासत का वारिस बनने की जुगत में लगी रहती है। यह बुरा भी नहीं है, पर उस महान् विरासत को समझिए तो सही। रामराज्य का सपना देखने से रामराज्य नहीं आ जाएगा। रामराज्य लाना है तो वह करना पड़ेगा, जो रामराज्य में होता था। प्रेम बाँटिए, हर तरफ़। दुश्मनों में भी। दुबारा पढ़ लीजिए कि रामराज्य में राम ने लक्ष्मण को राज्य के लिए क्या ज़िम्मेदारियाँ दे रखी थीं और कि उनके दरबार में समाज के आख़िरी आदमी का भी उतना ही महत्त्व था, जितना कि बड़े-से-बड़े व्यक्ति का। गान्धी के रामराज्य की कल्पना ऐसी ही थी। बजरङ्गदलिया बचकानी हरकतों से देश नहीं बनता, बल्कि ओवैसी जैसों को राजनीति चमकाने का मौक़ा मिलता है। मुझे बचपन के वे दृश्य याद आते हैं, जब गाँव में ग़रीब मुसलमानों के समूह आते थे और हम हिन्दुओं के परिवार उन्हें इस बात के लिए दान-चन्दा देते थे कि वे अच्छे से हज की यात्रा पर जा सकें। साम्प्रदायिक सद्भाव के सूत्र क्या आपको यहाँ नहीं दिखाई देते? अगर कुछ मुसलमान गुट यह सोचते हैं कि वे एक दिन इस देश को इस्लाम के रङ्ग में रँग देंगे, तो उन्हें भी अपनी सोच बदल लेने की ज़रूरत है। आँखें खोलिए और देखिए कि जिन भी देशों को आपने इस्लामी राष्ट्र बनाया, वे सब लगातार नर्क बनते गए हैं। अरब के कुछ देश थोड़े रहने के क़ाबिल हैं, तो इस्लाम नहीं, बल्कि तेल से मिली समृद्धि की वजह से। क्या आपको इतना भी नहीं समझ में आ रहा है कि स्वर्ग या जन्नत का रास्ता मारकाट और नफ़रत के बजाय हमेशा प्रेम या मोहब्बत से होकर ही गुज़रता है। क़ुरान की उन व्याख्याओं को सामने लाने की ज़रूरत है, जिनको अमल में लाकर हर तरह के धर्म-मज़हब के साथ सद्भाव से रहने की सम्भावना बेहतर बनती है। आत्मविश्लेषण का मुद्दा है कि भारत के गाँव-गिराँव, नगर-क़स्बों में जहाँ हिन्दुओं की आबादी बहुत ज़्यादा है और मुसलमानों की बहुत कम, वहाँ मुसलमानों की सुरक्षा को आमतौर पर कोई ख़तरा नहीं पैदा होता, पर जहाँ मुसलमान आबादी बहुत ज़्यादा है और हिन्दू आबादी कम, वहाँ ज़रा भी तनाव पैदा होने पर हिन्दू ख़ुद को सुरक्षित महसूस नहीं कर पाते। ज़रा सोचिए कि आख़िर क्यों अफ़ग़ानिस्तान जैसे देशों से हिन्दू पूरी तरह से भगा ही दिए गए। इसी देश में कश्मीर को भी देख सकते हैं।

मैं फिर सोच रहा हूँ कि विचारधाराओं (सम्प्रदाय भी विचारधारा है) के प्रति यह कैसी प्रतिबद्धता, जो जीवन को नर्क बनाती है? आप हिन्दू हों, मुसलमान हों, ईसाई हों, समाजवादी हों, साम्यवादी हों या कोई और वादी हों…क्या ऐसा नहीं लगता कि विचारधाराओं के प्रति जितनी ही प्रतिबद्धता होगी, फ़साद की मानसिकता को उतना ही बल मिलेगा। जिनकी विचारधारा में हिंसा जायज़ है, वे मौक़ा देखते ही मारकाट की ओर बढ़ेंगे, तो दूसरी धारा वाले दूसरी तरह से फ़साद को जन्म देंगे। याद रखने की बात है कि यह देश अपने अतीत में विचारधाराओं के प्रति प्रतिबद्धता वाला देश नहीं रहा है। यह सच की खोज वाला देश रहा है। सच की तलाश के लिए लोग सन्न्यास तक ले लिया करते थे। जो सच पकड़ में आता था, उसे जनता के सामने रखते थे। बात समझ से परे हो, तो ‘नेति नेति’ कहकर आगे बढ़ जाते थे। संवाद की परम्परा थी। शास्त्रार्थ पूरे जोश में हो सकता था, पर ज़ोर-ज़बरदस्ती अपनी बात मनवाने की कोई ज़िद नहीं। ‘वादे वादे जायते तत्त्वबोधः’ की बात हो, तो लड़ने-भिड़ने की कोई गुञ्जाइश भला हो भी कैसे सकती थी? लक्ष्य सच की तलाश हो तो अपनी मान्यता थोपने की ज़िद का अहङ्कार अपने-आप तिरोहित होने लगता है। जिस विज्ञान की आज हम जय-जयकार कर रहे हैं, वह और कुछ नहीं, बस सच की तलाश की मनुष्य की एक यात्रा है। जो चीज़ जैसी है, उसे उसी रूप में जान लेना ही तो विज्ञान है! ज़रूरत विज्ञानमय होने की है। विवाद इसलिए नहीं होते कि दो और दो चार होते हैं, विवाद इसलिए होते हैं कि हम दो और दो को कुछ और साबित करने की कोशिश करते हैं। सोचिए कि आज की बुद्धिजीविता कहाँ खड़ी है!

जो दङ्गाई हत्याएँ करते हैं, वे तो अपराधी हैं ही, लेकिन क्या उनकी शिनाख़्त नहीं करेंगे, जो ऐसी हत्याओं का मानस बनाते हैं? उन्हें भी अपनी बीमारी को पहचानने की ज़रूरत है, जो दूसरी विचारधारा के लोगों द्वारा की गई इक्का-दुक्का अराजक घटनाओं पर ही आसमान सिर पर उठा लेते हैं और देश-समाज के लिए सबसे बुरे समय की घोषणा करने लगते हैं, पर अपनी विचारधारा के लोगों द्वारा की गई कई गुना ज़्यादा अराजकताओं पर भी पहले आवरण चढ़ाने की कोशिश करते हैं और जब कोई रास्ता नज़र नहीं आता तो बस यह कहकर बचने की जुगत करते हैं कि वे किसी भी तरह की अराजकता का समर्थन नहीं करते।

और, बात फिर वही कि दङ्गे-फ़साद की मानसिकता बनाता कौन है?

सात दशक पहले देश को आज़ादी मिली तो उस जश्न को मन की आँखों से देखने की कोशिश कर रहा हूँ और उस सबके बीच उस अधनङ्गे फ़क़ीर की छाया को महसूस कर रहा हूँ, जो इस जश्न में शामिल होने के बजाय नोआखाली के दङ्गों को शान्त करने की चिन्ता में तेज़ क़दम हड़बड़ाते हुए भागा जा रहा है। यह सब सोचते हुए मेरा मन कर रहा है कि आज के सन्त-महात्माओं से भी यह सवाल पूछूँ कि जब देश में दङ्गे-फ़साद का माहौल बनता दिखाई देता है तो आप कहाँ होते हैं? स्वामी रामदेव, रविशङ्कर जी, मोरारी बापू, सद्गुरु जग्गी वासुदेव वग़ैरह-वग़ैरह। इस देश में पन्द्रह लाख से ज़्यादा तो सिर्फ़ हिन्दू-बौद्ध-जैन साधु-सन्त हैं। इस्लाम का झण्डा थामे हुए भी हज़ारों पीर-फ़क़ीर हैं। दङ्गे-फ़साद की आशङ्का पैदा होते ही अगर दस-बीस साधु-सन्त भी पहुँच जाएँ तो मुझे नहीं लगता कि लोगों के दिल नहीं पसीजेंगे। रविशङ्कर जी पहुँचे भी तो तब, जब हर तरह का ख़तरा ख़त्म हो चुका था। क्या उन्हें भी मरने से कुछ ज़्यादा ही डर लगता है? माना कि स्वामी रामदेव विदेश में योग सिखाने में लगे थे और आनन-फानन में नहीं आ सकते थे, पर पहले भी क्या कभी ऐसे समयों पर वे आगे आए हैं? बाक़ी के लाखों सन्तों ने किस मक़सद से सन्तई की राह पर क़दम बढ़ाया है? रोज़ी-रोटी के जञ्जाल से ऊपर उठ चुके हे सन्त-महात्माओ! परमात्मा ने आपको क्या सिर्फ़ प्रवचन देने के लिए आसमान से टपकाया है…और वह भी क्या सिर्फ़ उस समय के लिए, जब सब कुछ अच्छा-अच्छा चल रहा हो? आख़िर असली सङ्कट के समय सद्भावना जगाने का काम कौन करेगा?

हे साधु-सन्तो! मैं नहीं कह रहा कि दङ्गों की ज़मीन बनाने में आपकी कोई भूमिका होती है, पर आप भी अपने दिल से ज़रा गहराई से पूछिए और सोचिए कि दङ्गे-फ़साद की मानसिकता आख़िर बनाता कौन है? (2 मार्च, 2020)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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