धोखे से पत्रकार ऐसे बना
दिल्ली में रहते हुए ही मुझे रामेश्वरम से कुछ सूचनाएँ मिलीं तो 9 फरवरी, 2007 को मैंने एक लम्बा लेख लिखा—नष्ट होते इतिहास के मूकदर्शक। इसका एक अंश ‘अमर उजाला’ में छपा। यही वह लेख था, जिसने बाद के दिनों में रामसेतु को मुद्दा बना दिया।
मुझे कभी लगा ही नहीं कि मैं पत्रकार हूँ। पत्रकारिता सिखाई ज़रूर है। एक-दो को नहीं, सैकड़ों को। ख़ुद को पत्रकार कहने में उलझन शायद इसलिए होती रही हो कि आज की तारीख़ में पत्रकारिता के चेहरे पर दाग़-धब्बे कुछ ज़्यादा दिखाई देने लगे हैं। कोई पूछता है तो अक्सर कह देता हूँ कि मैं तो धोखे से पत्रकार हूँ। कहानी ऐसी है कि अतिसङ्क्षेप भी लम्बा हो सकता है।
बात उन दिनों की है, जब मैं इलाहाबाद विश्वविद्यालय में स्नातक का छात्र था। सन् 1989 का अन्त आते-आते मेरी ज़िन्दगी की एक नई ही कहानी शुरू हो गई। भीतर गान्धी और भगत सिंह कुलबुलाने लगे और मैं आन्दोलनकारी बन गया। राजीव दीक्षित, बंसीधर मिश्र, मनोज त्यागी, अभय प्रताप, केसर सिंह जैसे क़रीब दर्जन भर लोगों का हमारा अजब-ग़ज़ब कुनबा बन गया था। बनाना-खाना भी अक्सर साथ। इलाहाबाद के कोने-कोने में तो सैकड़ों लोग साथ थे ही। विश्वविद्यालय के गणित विभाग के तब के अध्यक्ष, साथ में अन्तरराष्ट्रीय गणित परिषद के भी अध्यक्ष गान्धीवादी प्रो. बनवारीलाल शर्मा, रामधीरज जी, अर्थशास्त्री डॉ. कृष्णस्वरूप आनन्दी जैसे लोग हमारे बड़े-बुज़ुर्ग थे। बहुराष्ट्रीय उपनिवेशवाद के विरोध में ‘लोक स्वराज्य अभियान’ के तौर पर स्वदेशी-स्वावलम्बन को समर्पित ‘आज़ादी बचाओ आन्दोलन’ की यह शुरुआत थी। इलाहाबाद विश्वविद्यालय का गान्धी भवन हमारा ठीया था। इस आन्दोलन के गर्भ से कई ऐसे मुद्दे निकले, जो बाद के दिनों में अन्तरराष्ट्रीय चर्चा का विषय बने, पर उनकी बात फिर कभी।
उन्हीं दिनों एक पत्रकार मिले, जो जीआईसी फ़ैज़ाबाद में हाईस्कूल-इण्टरमीडिएट की पढ़ाई में मेरे सीनियर थे। उनका नाम अभी नहीं ले रहा हूँ, क्योंकि उन्हें काफ़ी लोग जानते हैं और उन पर अलग से ही लिखा जाना उचित रहेगा। उन्हें जीआईसी के दौर की मेरी कुछ रचनात्मकताएँ याद थीं, तो उन्होंने लगभग डपटते हुए कहा कि आन्दोलन करते रहना, पर पहले चलो मेरे साथ पत्रकारिता करो। उसी दौरान फ़ैज़ाबाद का मशहूर और देश का पहला सहकारी अख़बार ‘जनमोर्चा’ इलाहाबाद से प्रकाशित होना शुरू हुआ था, तो उनके कहने पर मैंने यह अख़बार ज्वाइन कर लिया। अगले छह महीनों में मुहल्ले की रिपोर्टिङ्ग से शुरू करके अर्थ और सम्पादकीय पन्ना सँभालने तक के अनुभवों से गुज़रा। उस दौर में यह अजब था कि सम्पादकीय सम्पादक के अलावा अगर कोई और लिखता था तो लिखनेवाले के नाम का पहला अक्षर अन्त में दिया जाता था; यानी, अगर मैंने सम्पादकीय लिखा तो उसका श्रेय लेने में मुझे कोई परेशानी नहीं थी। यहाँ काम करते हुए मेरी क़लम से एक ऐसा मज़ेदार काण्ड हुआ कि ठीक क्रिसमस के दिन इलाहाबादी ईसाइयों ने सम्पादक का घर घेर लिया। इससे समझ में आया कि क़लम में दम होता तो है। छह महीने बीते कि ‘राष्ट्रीय सहारा’ लखनऊ से ज़ोर-शोर से शुरू हुआ। लोग वहाँ जाने लगे। ऑफ़र मिला कि मैं भी ‘सहारा’ ज्वाइन कर लूँ, पर मैंने इरादा बदल दिया। मेरा मन सामाजिक कामों में ज़्यादा लग रहा था, तो मैं पत्रकारिता की तरफ़ जाने के बजाय पूरी तरह से ही आन्दोलन को समर्पित हो गया। यह धोखे से पत्रकार बनने का पहला वाक़या है।
पत्रकारिता के इस अनुभव से मेरे मन में आन्दोलन के विचारों के प्रचार के लिए एक नया उपाय सूझा और मैंने एक फ़ीचर सर्विस शुरू की—स्वदेशी संवाद सेवा। गैट, डब्ल्यूटीओ, ग्लोबलाइजेशन, डङ्कल जैसे आर्थिक-सामाजिक विषयों पर देश के अख़बारों में नब्बे के दशक में जो लेख छपे, उनमें से ज़्यादातर इसी फ़ीचर सर्विस से जारी किए गए थे। बहुत जल्द यह ऐसे विषयों के लिए देश की सबसे सम्मानित फ़ीचर सर्विस बन गई। हिन्दी के अलावा तीन और भाषाओं—गुजराती, मराठी और अँग्रेज़ी—में भी इसे निकाला गया।
इसी दौरान छोटी उम्र में छोटी-मोटी सेलीब्रिटी बनने वाली एक घटना हो गई। यह 17 सितम्बर, 1994 का दिन था। एमए की परीक्षा ख़त्म होने को थी। मैं साक्षात्कार (वाइवा) देने गया था। परीक्षा देकर शाम को गान्धी भवन लौटा तो राजीव दीक्षित ने देखते ही कहा—‘‘समीर, तुम्हें कुछ अता-पता है?’’ मैंने कहा—‘‘क्या हुआ भइया!’’ उन्होंने कहा—‘‘जाकर टीवी देखो, तुम्हारे लेख पर संसद में आज हङ्गामा हुआ है।’’ असल में स्वदेशी संवाद सेवा से जारी किया गया मेरा एक लेख ‘साहित्यकारों के तीर्थ में साहित्य का चकलाघर’ नवभारत टाइम्स ने लीड बनाकर छापा था, जिसे जार्ज फर्नाण्डीज़ ने संसद में लहराते हुए कुछ सवाल उठाए थे। इस लेख को जेएनयू वाले ‘इण्डियन इंस्टीट्यूट ऑफ़ मास कम्युनिकेशन’ ने मॉडल लेख के तौर पर काफ़ी दिनों तक अपने यहाँ टाँगे रखा। इसके कुछ दिनों बाद मेरे एक लेख ‘तोड़ना ही होगा सरकारी जुए का तिलिस्म’ पर उत्तर प्रदेश की विधानसभा में हङ्गामा हुआ और नतीजा हुआ कि लॉटरी पर रोक लगा दी गई। तब मायावती की सरकार थी। इन सबकी वजह से दिक़्क़त बस यह हुई कि इलाहाबादी छात्रों के बीच मैं कुछ अलग ही व्यक्तित्व बनने लगा था। इक्का-दुक्का बड़े लेखकों ने भी हालचाल लेना शुरू कर दिया था। मेरे जैसे अकेलापन पसन्द करने वाले और शान्त प्रकृति के जीव के लिए यह मुश्किल वाली स्थिति थी। मेरा स्वभाव कार्यकर्ता वाला था। नेता बनने में नहीं, नेता बनाने में मेरी दिलचस्पी थी। यह वह समय था, जब मेरा लिखा हुआ कुछ भी कहीं भी छप सकता था, पर मैंने काफ़ी दिनों के लिए लिखना बन्द कर दिया, ताकि लोग भूल जाएँ। झण्डा-बैनर उठाने में व्यस्त हो गया।
इस हल्की-फुल्की अर्जित की हुई प्रतिष्ठा के सहारे एक और काम करने की मैंने सोची। सोचा कि जो युवा पत्रकारिता में प्रवेश करना चाहते हैं, क्यों न उनके भीतर समाज के प्रति सरोकार की एक भावना जगाने की कोशिश की जाए। इस सोच-विचार के साथ मैंने पत्रकारिता और लेखन पर केन्द्रित कार्यशालाओं की एक शृङ्खला शुरू की। यह सन् 1996 से सन् 2000 तक चली। मेरे संयोजकत्व में इलाहाबाद में कुल चार कार्यशालाएँ हुईं, जो आज भी देश की इस तरह की सबसे बड़ी कार्यशालाएँ मानी जाती हैं। प्रभाष जोशी, अच्युतानन्द मिश्र, नरेश मेहता, प्रो. रघुवंश, मुद्राराक्षस, मन्नू भण्डारी, ममता कालिया, प्रियदर्शन, सैन्नी अशेष, वीरेन डङ्गवाल, डॉ. सत्यप्रकाश मिश्र, आलोक श्रीवास्तव, दूधनाथ सिंह, अरविन्द मोहन जैसे देश के तमाम प्रतिष्ठित पत्रकार और साहित्यकार इसमें शामिल हुए। अच्छी बात है कि मेरे निवेदन पर दक्षिणपन्थी और वामपन्थी, दोनों तरह के लोग एक मञ्च पर खड़े हो सकते थे। जिन तक मेरी पहुँच बनी, लखनऊ से दिल्ली तक जाकर उन्हें मैंने आमन्त्रण दिया और बाक़ी लोगों तक प्रो. बनवारीलाल शर्मा, राजीव दीक्षित और रामधीरज जी के मार्फ़त मेरी चिट्ठी पहुँची। मेरी इच्छा देश के अन्य कई और चर्चित-प्रतिष्ठित लोगों को बुलाने की थी, पर तब तक ज़्यादा लोगों तक मेरी पहुँच नहीं बन पाई थी। उसी समय सुरेन्द्र प्रताप सिंह का देहावसान हो गया, तो उनको बुलाते-बुलाते रह गया। बहरहाल, इलाहाबाद के सारे अख़बारों की इसमें अच्छी भूमिका रही।
इसी दौरान मध्य प्रदेश की न्यूज एजेंसी ईएमएस (एक्सप्रेस मीडिया सर्विस) ने अपने विस्तार की योजना बनाई, तो वरिष्ठ पत्रकार विनोद मिश्र ने मुझसे सम्पर्क किया। आन्दोलन से दूर होने जैसी कोई बात नहीं थी तो उनके ज़ोर देने पर मैंने इलाहाबाद सम्भाग की ज़िम्मेदारी सँभाल ली। गान्धी भवन को ही मैंने दफ़्तर के रूप में इस्तेमाल किया। तब टाइप वग़ैरह की व्यवस्था बन नहीं पाई थी तो मैं और मेरे सहयोगी हाथ से ही सब कुछ लिखकर लखनऊ भेजते थे। हौसले की बात बस यह रही कि इन दिनों ‘आजतक’ चैनल में काम कर रहे मेरे मित्र विकास मिश्र ने एक दिन कहा कि यार समीर, तुम इलाहाबाद से अकेले जितना कर देते हो, वह कई बार हमारे लखनऊ के पूरे दफ़्तर पर भारी पड़ता है। मेरी लिखी कुछ ख़बरों की ठीक-ठाक चर्चा हुई। ख़ैर, इसे भी धोखे की ही पत्रकारिता कह सकते हैं।
सन्-2002 के बाद से इलाहाबाद में रहना कम होने लगा था। इस दौरान एक ठीया सेवाग्राम आश्रम (वर्धा) बन गया था। नई तालीम परिसर में प्रसिद्ध इतिहासकार धर्मपाल जी की कुटिया के बग़ल वाली कुटिया मेरा आवास बन गई थी। और फिर, आन्दोलन का एक केन्द्र बनाने के मक़सद से सन् 2004 में मैं पहुँचा भीलवाड़ा-राजस्थान। केन्द्र तो आज भी सञ्चालित हो रहा है, पर साल भर वहाँ रहने के बाद एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि अचानक मैंने ऐलान कर दिया कि अब कुछ समय मैं दिल्ली जाकर रहूँगा। इस फ़ैसले की वजह का ज़िक्र मैं इस समय नहीं करूँगा, क्योंकि इसके तार राजीव दीक्षित की रहस्यमयी मौत से भी जुड़ते हैं और लम्बी जिरह की माँग करते हैं। सम्पत्ति के नाम पर मेरे पास क़रीब पाँच-छह हज़ार किताबें थीं। ट्रेन में एक बोगी बुक कराई, जेब में महज़ किराया भर था और दिल्ली के लिए चल पड़ा। 29 अक्टूबर, 2005 का यह वही भयावह दिन था, जब दिल्ली में सीरियल बम ब्लास्ट हुए थे। यह भी अजब संयोग है कि भीलवाड़ा से सामान पैक कराने के तीन दिन पहले कुछ दिनों से मैं दिल्ली में ही था और रोज़ टहलते हुए पहाड़गञ्ज में उसी जगह से गुज़रते हुए सरदार भगत सिंह की मूर्ति के पास जाकर बैठता था, जहाँ ब्लास्ट हुआ था।
दिल्ली आया तो शून्य पर था। माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय (भोपाल) के कुलपति अच्युतानन्द मिश्र से बात हुई। वे और विजयदत्त श्रीधर जी आज़ादी के बाद की भारतीय पत्रकारिता के इतिहास लेखन की एक बड़ी योजना बनाने में लगे थे। मैं भी इससे जुड़ गया। अच्युतानन्द जी ने शुरू में कोऑर्डिनेशन की कुछ ज़िम्मेदारी लेने की मुझसे बात कही थी, पर मैंने मैदान में रहकर काम करना पसन्द किया। यहाँ के लिए तीन शोधपूर्ण काम किए, जो विश्वविद्यालय के बेहतरीन काम माने गए। एक सार्थक उपलब्धि यह रही कि प्रोजेक्ट सँभाल रहे सप्रे सङ्ग्रहालय के संस्थापक श्रीधर जी से आत्मीय परिचय हुआ।
दिल्ली में रहते हुए ही मुझे रामेश्वरम से कुछ सूचनाएँ मिलीं तो 9 फरवरी, 2007 को मैंने एक लम्बा लेख लिखा—नष्ट होते इतिहास के मूकदर्शक। इसका एक अंश ‘अमर उजाला’ में छपा। यही वह लेख था, जिसने बाद के दिनों में रामसेतु को मुद्दा बना दिया। कभी-कभार ही लिखता था, पर उस समय ‘राष्ट्रीय सहारा’ का जलवा था; वह हमारे आन्दोलन का समर्थक रहा था, तो उसके लिए मैंने सबसे ज़्यादा लिखा। दिलीप चौबे, सञ्जय कुन्दन जैसे बेहतरीन लोगों से मुलाक़ात तो मेरी आज तक नहीं हुई है, पर ये लोग बिना कॉमा, फुलस्टॉप बदले भी मुझे छापते रहते थे। इन्हीं दिनों मन में आया कि क्यों न कुछ दिनों तक दफ़्तर में बैठकर पत्रकारिता की जाय! बात चली और राष्ट्रीय सहारा में क़रीब-क़रीब पक्की भी हो गई। उस समय के सम्पादक रणविजय सिंह ने मुझे सीधा-सादा गान्धीवादी मानकर कम में निबटाने की कोशिश की। तब लखनऊ में रह रहे विभांशु दिव्याल ने फ़ोन पर कहा कि आप ज्वाइन कीजिए, बाक़ी बात मैं कर लूँगा। ठीक इसी समय रामबहादुर राय जी को पता चला कि मैं दिल्ली में हूँ तो उन्होंने सन्देश भिजवाया कि मुलाक़ात करनी है। इसके दस साल पहले सिर्फ़ एक बार राय साहब से मेरी मुलाक़ात हुई थी, पर जाने क्यों उनके ज़ेहन में मेरी याद बनी रह गई थी। राय साहब को अन्दाज़ा हुआ कि मैं पत्रकारिता करना चाहता हूँ तो उन्होंने कहा कि अगर सहारा ज्वाइन नहीं किए हैं, तो हमारे यहाँ आ जाइए, कुछ नया करते हैं। और इस तरह मैं क्रॉनिकल ग्रुप में राय साहब के साथ काम करने लगा। हिन्दुस्तान टाइम्स से जुड़ने की कहानी पढ़िए अगले हिस्से में….(4 सितम्बर, 2021, फेसबुक)