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न्यायपीठ पर हिन्दू-मुसलमान

यह नूपुर शर्मा प्रकरण पर फेसबुक पर 2 जुलाई, 2022 को लिखी गई एक पोस्ट है, जिसे देश की कई पत्रिकाओं और वेबसाइटों ने भी प्रकाशित किया था।

माननीय न्यायाधीश महोदय (जस्टिस सूर्यकान्त, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला वग़ैरह-वग़ैरह)! जैसा कि मैं समाचारों में पढ़ रहा हूँ, उसके हिसाब से आपने कहा है—“जिस तरह से उन्होंने (नूपुर शर्मा) देशभर में भावनाएँ भड़काई हैं….जो कुछ हो रहा है उसके लिए सिर्फ़ यह महिला ज़िम्मेदार है।” यह भी कि ‘उनकी टिप्पणी ने पूरे देश को आग में झोंक दिया है’

न्याय के तराजू पर आपकी यह टिप्पणी भी एक दूसरे पहलू से नूपुर शर्मा से क्या कम ख़तरनाक है?

वैसे, नूपुर शर्मा ने जो बयान दिया था, उसके सच होने का प्रमाण क़ुरान की उन्हीं व्याख्याओं में मौजूद है, जिन्हें मुस्लिम समुदाय के लोग ही मान्यता देते हैं; बावजूद इसके, उनके बयान की निन्दा इस बिना पर ज़रूर की जा सकती है कि उसमें प्रतिक्रिया और नफ़रत का भाव साफ़ झलक रहा था। मेरे हिसाब से हिन्दुत्व के मूल स्वभाव में नफ़रत के लिए ज़्यादा जगह नहीं है। बताने की ज़रूरत नहीं है कि हिन्दू समुदाय के आदर्श राम ने अन्याय के विरुद्ध पूरी शक्ति से युद्ध किया, पर अपने दुश्मन से कभी नफ़रत या द्वेष नहीं रखा। कथाएँ तो यहाँ तक हैं कि आततायी रावण जब ज़िन्दगी की आख़िरी साँसें गिन रहा था तो राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को उस महाज्ञानी रावण के पास श्रद्धावनत होकर जीवन का ज्ञान लेने के लिए भेजा। कुरुक्षेत्र के मैदान में पाण्डवों के पक्ष में खड़े होकर श्रीकृष्ण ने धर्मयुद्ध का आह्वान किया, पर अन्यायी कौरवों से कभी नफ़रत का भाव नहीं रखा। हिन्दुत्व का मूल स्वभाव यह है कि अगर दुश्मन भी दरवाज़े पर आ जाए तो उस समय वह भी देवतास्वरूप हो जाता है। हिन्दुत्व की मान्यता में द्वेष का स्थान साधारण जीवन में भी बहुत नीचे है। तो, इस हिसाब से नुपुर शर्मा की टिप्पणी भले ही सच रही हो, पर उस समय इतनी त्वरा से पैदा हुए अधैर्य भरे द्वेष भाव के लिए ज़रूर उनकी निन्दा की जा सकती है।

लेकिन, न्यायाधीश महोदय, मूल बात कुछ और है। क्या आपको इस बात पर ज़रा भी ध्यान नहीं देना चाहिए था कि टीवी की पूरी बहस क्या थी और नूपुर शर्मा ने आवेश में आकर वैसा बयान आख़िर दिया क्यों? क्या आपको यह नहीं सुनना चाहिए था कि दूसरी तरफ़ से हिन्दू आस्था को भी चोट पहुँचाई जा रही थी। मेरी समझ में तो यही आता है कि अगर कोई समुदाय किसी दूसरे समुदाय की आस्था पर सवाल उठाता है तो उसे भी अपने समुदाय की आस्था पर सवाल सुनने की हिम्मत रखनी चाहिए। क्या हिन्दू इसलिए पैदा हुए हैं कि उनके देवी-देवताओं को कोई गालियाँ देता रहे और वे उसका फूल-माला लेकर स्वागत करते रहें; और क्या, मुसलमान इसलिए पैदा किए गए हैं कि कोई उनके अल्लाह या रसूल पर सवाल उठा दे तो वे उसका गला रेत दें? न्यायमूर्ति महोदय, क्या आप बता सकते हैं कि हिन्दू देवी-देवताओं के अपमानों पर हिन्दुओं ने अब तक कितने लोगों के गले रेते हैं? वहीं पर शायद यह बताने-गिनाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी कि अल्लाह या रसूल पर सवाल उठाने पर दुनिया भर में अनगिनत लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया है।

आपके हिसाब से जो ‘कुछ हो रहा है, उसके लिए सिर्फ़ यह महिला ज़िम्मेदार है’। कमाल की न्यायिक समझदारी है यह! क्या इससे ऐसा कुछ आशय नहीं निकलता कि बयान देने वाली महिला तो सब कुछ के लिए अकेली ज़िम्मेदार है, पर बयान मात्र सुनकर उस महिला का बलात्कार कर देने और गला काटकर लाने का अभियान चलाने वाले दूध के धुले हैं और धर्मयुद्ध कर रहे हैं! इसके अलावा, न्यायाधीश महोदय, मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि नूपुर शर्मा के बयान ने हत्या की, या उस बयान से आवेश में आए किसी व्यक्ति ने? अगर व्यक्ति ने हत्या की तो क्या हत्या के पीछे उसका धर्मान्ध स्वभाव कारण नहीं है? आपके हिसाब से तो बस बयान देने वाला ही दोषी हुआ। न्यायालय की टिप्पणी का मतलब मैं यही लगा पा रहा हूँ कि ऐसे बयानों पर किसी का गला रेत देना स्वाभाविक बात है। मतलब यह भी निकलता है कि बयान देने वालों को ज़बान पर ताला लगाना चाहिए, पर धर्मान्ध लोगों को सुधरने की कोई ज़रूरत नहीं है। आपने यह भी कहा है कि ‘नूपुर शर्मा से माफी माँगने और बयान वापस लेने में काफ़ी देर हो गई’। मेरी जानकारी के हिसाब से नूपुर शर्मा को माफ़ी माँगे दो हफ़्ते से ज़्यादा गुज़र गए और उदयपुर में गला रेतने की घटना हुई है बहुत बाद में जाकर अब। क्या हत्यारे के कान तक माफ़ी की आवाज़ पहुँचने के लिए समय पर्याप्त नहीं था? बात यह भी है कि जब लोग विरोध करते हैं तो ही माफ़ी माँगने या न माँगने की बात आती है। शोर मचा तो माफ़ी माँग ली गई। कृपया आप बताएँ कि नूपुर शर्मा को कब माफ़ी माँगनी चाहिए थी? सनद रहे कि ऐसे वाक़यों की भरमार है, जबकि माफ़ी माँगने के बावजूद इस्लामी सत्ताएँ ईशनिन्दा के जुर्म में दिल दहलाने वाली सज़ाएँ देती रही हैं।

स्पष्ट कहूँ तो मुझे न्यायालय की टिप्पणी में न्याय कम और तुष्टीकरण की बू ज़्यादा आ रही है। एक तरह से यह हत्या को जायज़ ठहराने जैसा लगता है। तुष्टीकरण न हिन्दू के लिए अच्छा है, न मुसलमान के लिए। इसके अलावा आपने जो यह कहा कि ‘उनकी टिप्पणी ने पूरे देश को आग में झोंक दिया है’, तो इसमें भी मुझे अतिरञ्जना ही दिखाई दे रही है। क्या सचमुच पूरा देश साम्प्रदायिकता की आग में जल रहा है, या आप मीडिया के होहल्ले से कुछ ज़्यादा ही प्रभावित हो गए हैं? यह भी किसी भड़कीले बयान से कम भला कैसे है!

मुझे यह भी शक हो रहा है कि आप सचमुच पञ्चपरमेश्वर वाली पीठ पर बैठने के बाद वाली मनोभावना से ही टिप्पणी कर रहे थे या किसी निजी विचारधारा के वशीभूत होकर कुछ उसी तरह आवेश में आ गए थे, जैसे कि नूपुर शर्मा आ गई थीं। आप एक बार बस सोचकर देखिए कि यदि चौराहे पर खड़े होकर कुछ लोग भगवान महावीर को दस-बीस गालियाँ दे दें, तो क्या जैन समुदाय के लोगों का स्वभाव ऐसा है कि वे क़त्लेआम मचाना शुरू कर देंगे! ठीक इसी तरह कल्पना कीजिए कि चौराहे पर खड़े होकर कुछ लोग अल्लाह या रसूल को गालियाँ देने लगें तब क्या होगा। इस मामले में ज़्यादा कुछ बताने की शायद ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी, क्योंकि दुनिया भर के उदाहरण हमारे सामने हैं। दुर्भाग्य से समस्या की जड़ को हम पहचानने की कोशिश नहीं करते और नक़ली समाधान तलाशते हैं। आदमी आदमी के रूप में पैदा होता है, पर हम उसे आदमी के बजाय हिन्दू, मुसलमान और जाने क्या-क्या बनाने में लग जाते हैं। यह देश शास्त्रार्थ की परम्परा का है। सत्य की शिनाख़्त तर्क-वितर्क, खोजबीन, वाद-संवाद के रास्ते ही सम्भव है। काल का प्रवाह चलता रहेगा। यहाँ कुछ ठहरा हुआ नहीं हो सकता। सामान्य तर्क की बात हो या विज्ञान की, इस असीम ब्रह्माण्ड, क्षणभङ्गुर संसार में किसी पैगम्बर, किसी किताब को अन्तिम मानना मूर्खता के अलावा और कुछ नहीं हो सकता। निरन्तर बदलती दुनिया में कोई इलहाम भी अन्तिम भला कैसे हो सकता है? पहचान सकें तो पहचान सकते हैं कि हम सबके भीतर छोटा-मोटा कोई-न-कोई पैगम्बर होता ही है और हम सब आए दिन किसी-न-किसी इलहाम से गुज़रते ही हैं। जिसने हमें बनाया, वह हमें हर पल सङ्केत भी देता ही रहता है कि हमें जीवन कैसे गुज़ारना चाहिए। आख़िर इलहाम और क्या है? हम इन सङ्केतों को न पहचानें तो हमारी ग़लती। बहरहाल, ईश्वर या अल्लाह की सन्तानें जब तक इस धरती पर पैदा होती रहेंगी, तब तक उनके अपने नए-नए पैगम्बर, नए-नए इलहाम भी आते रहेंगे। बच्चों को सही शिक्षा की ज़रूरत है कि वे ठहरे हुए कुढ़मग़ज़ लोगों के जाल में फँसने से बचें। सहज आदमी को न किसी को गाली देने की ज़रूरत होती है और न किसी की गाली सहने की।

ख़ैर, न्यायाधीश महोदयों को उनकी समझदारी पर छोड़ कुछ बात हिन्दू-मुसलमान मित्रों से।

कुछ अच्छाइयाँ, कुछ बुराइयाँ किसी भी धर्म या मज़हब में हो सकती हैं। इस्लाम में भी रत्न भरे पड़े हैं। ज़रूरत उन्हें सामने लाने और तराशने की है। अरब के जड़ता भरे माहौल में और महा ज़ाहिल लोगों के बीच रहते हुए मुहम्मद साहब ने अपने समय के हिसाब से जितना बड़ा काम कर दिखाया था, अगर मुल्ले-मौलवी भीतर की आँखें खोलकर उस सच को महसूस कर लें तो इस्लाम को एक प्यारा-सा सात्त्विक क्रान्तिकारिता से परिपूर्ण मज़हब बनाया जा सकता है, पर दुर्भाग्य से इन जड़बुद्धि लोगों ने ‘काफ़िर’, ‘जेहाद’ जैसे शब्दों के उथले अर्थों को पकड़कर इसे दुनिया का एक ऐसा सबसे ज़ाहिल सम्प्रदाय बना दिया है, जिसमें विज्ञान और दर्शन की ऊँचाइयों पर किसी का जाना ही सम्भव नहीं है। यहाँ वैज्ञानिक और दार्शनिक वही बन सकता है, जो डॉ. अब्दुल कलाम की तरह इस्लाम की मान्यताओं से ख़ुद को आज़ाद कर ले।

जिन मुसलमान मित्रों को मेरी बात अटपटी लग रही हो, उनसे यही निवेदन करूँगा कि वे कुछ देर के लिए मान्यताओं के दायरे से ख़ुद को बाहर खड़ा करके सिर्फ़ सच को समझने और महसूस करने की कोशिश करें।

दो दृश्यों की कल्पना कीजिए। मान लीजिए कि इस देश को एक दिन इस्लामी राष्ट्र घोषित कर दिया जाए, तो क्या होगा? बात अनुमान की है, पर अनुमान आप वही लगा सकते हैं, जैसा दुनिया का वर्तमान रङ्ग-ढङ्ग दिखाई दे रहा है। इस्लामी राष्ट्र घोषित होते ही शरीअत की वर्तमान व्याख्याएँ लागू हो जाएँगी। दूसरे धर्म वालों पर इस्लाम स्वीकार करने का दबाव बनाया जाएगा, अन्यथा उन्हें मार-पीटकर भगाने का अभियान चलाया जाएगा। अन्तरराष्ट्रीय दबाव होंगे तो यह सब अचानक नहीं, बल्कि धीरे-धीरे होगा। याद रखिए कि बाङ्ग्ला देश जैसे लोकशाही वाले देश तक में मुसलमानों की बहुलता के चलते तीन दशकों के भीतर लाखों ही नहीं, करोड़ों हिन्दुओं को पलायन पर मजबूर होना पड़ा है। जहाँ कभी 13.5 प्रतिशत हिन्दू थे, वहाँ अब पाँच प्रतिशत बचे हैं। अनुमान है कि सन् 2050 तक बाङ्ग्ला देश में एक भी हिन्दू परिवार नहीं बचेगा। पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान में दूसरे धर्म वालों की क्या स्थिति है, बताने की ज़रूरत नहीं है। भारत में भी यही होगा। जिन्हें हम अच्छे और सर्वधर्म समभाव वाले मुसलमान कहते हैं, वे पहले मारे जाएँगे। इसके बाद दूसरे धर्म वालों पर कहर बरपेगा। और जब, हर तरफ़ मुसलमान ही मुसलमान होंगे, तो ‘सच्चे’ और ‘कच्चे’ मुसलमानों की शिनाख़्त का अभियान चलेगा और मुसलमान ही मुसलमानों को मारने-काटने का अभियान चलाएँगे। यह सब जन्नत लाने के नाम पर होगा। एक सपना है, जो कठमुल्लों ने भोले लोगों के मनो-मस्तिष्क में धर्म के नाम पर भर दिया है कि सारे संसार का इस्लामीकरण हो जाए तभी असली अमन-चैन क़ायम होगा। इन मूर्खों को प्रकृति का साधारण सच भी नहीं पता है कि विज्ञान के नियम भौतिक चीज़ों पर जिस तरह से काम करते दिखाई देते हैं, अभौतिक चीज़ों पर भी वे उसी तरह लागू होते हैं। हमारे विचार और भावनाएँ तक प्रकृति के नियमों से बाहर नहीं हैं। मार-काट को किन्हीं परिस्थितियों में आपद्धर्म भले मान लें, पर मार-काट से ही आप दुनिया बदलना चाहेंगे तो हो सकता है कि दुनिया तो बदल जाय, पर जो दुनिया बनेगी, वह शान्त नहीं होगी। सुकून का संसार मार-काट के सहारे नहीं रचा जा सकता। यही वजह है कि जहाँ भी इस्लामी नियम-कानून सख़्ती से लागू हैं, वे देश आमतौर पर रहने के लायक़ नहीं हैं। अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान जैसे देश तो लगभग पूरी तरह जहन्नुम ही बन चुके हैं। कुछ इस्लामी देश अगर थोड़े सम्पन्न दिखाई भी देते हैं तो हम जानते हैं कि उनकी अपनी निर्मितियाँ ज़्यादा कुछ नहीं हैं, बल्कि घलुए में मिल गई कुछ प्राकृतिक सम्पदाओं के भरोसे वे वहाँ नख़लिस्तान बनाने की कोशिश कर रहे हैं। एक दिन उन सम्पदाओं का दोहन बन्द करना ही पड़ेगा और तब ये नख़लिस्तान फिर से रेगिस्तान में बदलते नज़र आएँगे।

एक दूसरी कल्पना कीजिए कि यदि भारत को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाए तो क्या होगा! आपको अजीब लग सकता है, पर सच्चाई यही है कि तब इस देश में मुसलमान आज से भी ज़्यादा सुरक्षित होंगे। उन्हें किसी बात से डरने की ज़रूरत नहीं होगी। आज जो आप हिन्दुओं की तरफ़ से मुसलमानों के लिए जब-तब कुछ प्रतिक्रियाएँ देखते हैं या नूपुर शर्मा जैसे लोगों के भड़काऊ बयान सुनते हैं, वे सिर्फ़ इस वजह से हैं कि हिन्दुओं को आशङ्का होने लगी है कि यदि किसी दिन इस्लाम की मान्यता वाले लोग इस देश में प्रभावी हो गए तो हिन्दुओं का हाल अपने ही देश में अफ़ग़ानिस्तान-जैसे देशों के हिन्दुओं-जैसा हो जाएगा। अपने ही देश में एकदम शान्तिप्रिय कश्मीरी पण्डितों का हाल देखते हुए समझाने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए कि इस आशङ्का में वास्तव में दम है। हिन्दू अगर हिन्दुस्तान में ही नहीं रह पाएँगे तो इस दुनिया-जहान में और कहाँ रहेंगे? यक़ीन मानिए, जिस दिन इस देश को हिन्दू राष्ट्र घोषित कर दिया जाएगा तो उसी दिन से हिन्दुओं के भीतर से असुरक्षा की भावना भी निकल जाएगी। हिन्दू स्वयं राष्ट्रीय स्वयं सेवक सङ्घ जैसे तमाम सङ्गठनों को ग़ैरज़रूरी बना देंगे। इतिहास गवाह है कि अगर हिन्दू ख़ुद को सुरक्षित महसूस करेंगे तो किसी दूसरे धर्म-मज़हब वाले को नुक़सान पहुँचाने का काम वे क़तई नहीं करेंगे। हिन्दुत्व की संस्कृति में मान्यताएँ और सम्प्रदाय बनाने की कहीं कोई रोक नहीं है। यह संस्कृति मानती है कि परम सत्य तक पहुँचने के असङ्ख्य मार्ग हो सकते हैं, इसलिए महात्मा बुद्ध को सत्य का कोई नया मार्ग समझ में आता है तो वे उस पर चल सकते हैं। लोगों को वे समझा पाएँ तो दूसरे मार्ग वाले भी उनका मार्ग अपना सकते हैं। भगवान महावीर को इससे इतर मार्ग समझ में आए तो वे उस पर चल सकते हैं और अपने अनुयायी बना सकते हैं। धारा से एकदम अलग चलने वाले चार्वाक भी ऋषि बन जाते हैं। यहाँ तो तर्क भी ऋषि है—तर्काणाम् ऋषिः। तर्क-वितर्क, शास्त्रार्थ के बिना मनुष्य ज्ञान के ऊँचे सोपानों तक भला कैसे जा सकता है? जिस ईश्वर या अल्लाह ने मनुष्य देह दी है, उसी ने उसमें दिमाग़ भी दिया है। भारतीय संस्कृति मानती है कि यदि मनुष्य के मस्तिष्क की मूल विशेषता, यानी उसकी विचारशक्ति पर कहीं से रोक लगा दी जाएगी तो वह सही मायने में मनुष्य बन ही नहीं सकता। हिन्दू अपने मूल स्वभाव में ऐसी क़ौम है, जो किसी भी अच्छे व्यक्ति को सहजता से देवता या अवतार मान लेती है। मुसलमान अगर सदाशयता का सन्देश देने लगें, तो आप वह दिन भी देख सकते हैं, जबकि हिन्दू देवताओं की पङ्क्ति में मुहम्मद साहब भी खड़े दिखाई देंगे। आज भी आप देख सकते हैं कि हिन्दुओं को मज़ारों पर सिर नवाने में कोई परेशानी नहीं होती, भले ही मुसलमान मन्दिरों के पास से गुज़रना भी पसन्द न करें। खुली आँखों से आप देखें तो यह बहुत बड़ा सच साफ़ दिखाई देता है कि भारत में बहुसङ्ख्यक भले हिन्दू हों, पर यहाँ मुसलमान समुदाय के लोग दुनिया के अन्य देशों की तुलना में ज़्यादा आज़ादी से रहते हैं।

बात क्रिया-प्रतिक्रिया की नहीं, बल्कि सच को सच की तरह समझने की है। भारतीय मुसलमानों में एक बड़ा वर्ग है, जो इस्लाम की समरसता क़ायम करने वाली व्याख्याएँ दुनिया को दे सकता है। मुझे लगता है कि यदि ऐसी पहल मुसलमानों की तरफ़ से हो, तो हिन्दू नाम का प्राणी तो उनके लिए कभी कोई समस्या हो ही नहीं सकता।

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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