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बुझती हुई राख की चमकती हुई चिनगारियाँ—एक

ऑपरेशन ब्लू स्टार के चन्द दिनों बाद ही प्रख्यात पत्रकार पं. क्षितीश कुमार वेदालङ्कार ने ‘तूफ़ान के दौर से पञ्जाब’ शीर्षक एक पुस्तक लिखी थी, जिसने उस समय काफ़ी हलचल मचाई। ऑपरेशन ब्लू स्टार और पञ्जाब को समझने के लिए आज भी यह एक ज़रूरी किताब है। तब इसकी भूमिका स्व. प्रभाष जोशी जी ने लिखी थी। हाल में इसके पुनःप्रकाशन की योजना बनी तो नए सिरे से भूमिका लिखने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गई। उसी भूमिका का पहला हिस्सा यहाँ प्रस्तुत है।

दृश्य एक

छह जून दो हज़ार इक्कीस। ऑपरेशन ब्लू स्टार की 37वीं बरसी। बाहर अमृतसर के आसमान में सूरज तप रहा है और स्वर्ण मन्दिर परिसर के भीतर सैकड़ों दिलों में ख़ालिस्तान की आग जल रही है। जरनैल सिंह भिण्डराँवाले के पोस्टर और ख़ालिस्तानी झण्डे भारत को तोड़कर अलग किए जा सकने वाले उस टुकड़े की तलाश में हैं, जहाँ कि वे शान से लहरा सकें। श्री हरमन्दिर साहिब तक जाने वाली हेरिटेज स्ट्रीट पर सेना ने फ्लैग मार्च किया है और आसपास के इलाक़ों का मञ्ज़र किसी सैनिक छावनी से कम नहीं। छह हज़ार सैनिक किसी अनहोनी से निपटने को मुस्तैद हैं। ठीक एक हफ़्ते पहले शिरोमणि गुरुद्वारा कमेटी की अध्यक्ष बीबी जागीर कौर ने भी यह बयान देकर आग में घी डालने का काम कर दिया है कि सिख समुदाय 1984 की घटनाओं को कभी भूल नहीं सकता।

दृश्य दो

एक साल और पीछे। ऑपरेशन ब्लू स्टार की 36वीं बरसी का ठीक यही दिन। अकाल तख़्त के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह ने इन्दिरा सरकार की इस कार्रवाई को ‘1984 का प्रलय’ करार दिया है और सिखों के लिए अलग राज्य ख़ालिस्तान का मुद्दा उठाते हुए कहा है कि दुनिया का हर सिख ख़ालिस्तान चाहता है और अगर भारत सरकार इसकी पेशकश करेगी तो हम इसे स्वीकार करेंगे। यह भी कि सेना की कार्रवाई दो देशों के बीच युद्ध के समान थी; यह किसी एक देश का दूसरे देश पर हमला करने जैसा था। शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति के अध्यक्ष गोबिन्द सिंह लोंगोवाल ने भी सुर में सुर मिलाया है। इस तरह, ऑपरेशन ब्लू स्टार के तीन दशक बीत जाने के बाद ऐसा पहली बार हुआ है, जब अकाल तख़्त और शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति के प्रमुखों ने सार्वजनिक रूप से एक साथ अलग ख़ालिस्तान की माँग का समर्थन किया है। नतीजतन, ख़ालिस्तान समर्थकों की गहमागहमी बढ़ गई है और हवाओं में ‘ख़ालिस्तान ज़िन्दाबाद’ के नारे कुछ और ऊँचाई तक गूँजने लगे हैं।

दृश्य तीन

ऑपरेशन ब्लू स्टार की 35वीं बरसी। श्री हरमन्दिर साहिब में ख़ालिस्तान समर्थकों ने तलवारें लहराईं और ‘ख़ालिस्तान ज़िन्दाबाद’ के नारे लगाए। चरमपन्थियों ने श्री अकाल तख़्त साहिब के भीतर दाख़िल होने की कोशिश की, लेकिन टास्क फोर्स व सादे कपड़े में ड्यूटी कर रहे पुलिस के जवानों ने उन्हें रोका। इस दौरान कुछ युवक उग्र हो गए और उन्होंने एसजीपीसी द्वारा श्री अकाल तख़्त साहिब की तरफ़ के रास्ते में लगाई गई बाड़ तोड़ दी। बाड़ तोड़ने के बाद माहौल ऐसा तनावपूर्ण हुआ कि दोनों पक्ष आपस में भिड़ने को तैयार हो गए। बाहर का दृश्य हर साल की तरह किसी सैनिक छावनी जैसा ही था।

ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद से साल-दर-साल इस दिन का क़रीब-क़रीब यही मञ्ज़र हम देखते आ रहे हैं। मतलब कि बुझती राख में दबी हुई चिनगारियाँ चमकने को आज भी बेताब हैं। ख़ालिस्तान समर्थकों को शह देने वाली ताक़तें एक हद तक हताश भले हों, पर समाप्त नहीं हैं। पड़ोसी पाकिस्तान के नापाक इरादे चरमपन्थियों के जख़्म कुरेदने के मौक़े तलाशते रहते हैं। ख़ालिस्तान समर्थक सङ्गठन ‘सिख फॉर जस्टिस’ प्रतिबन्धों के बावजूद अपनी सक्रियता बनाए हुए है। बीते साल उसकी एक-दो नहीं, चालीस वेबसाइटें ब्लॉक की गई हैं। कुछ साल और पीछे जाएँ तो सन् 2013 में ऑपरेशन ब्लू स्टार का नेतृत्व करने वाले सेवानिवृत्त लेफ़्टिनेण्ट जनरल कुलदीप सिंह बरार पर लन्दन में हुए जानलेवा हमले को भी नहीं भुलाया जा सकता।

बहरहाल, सैंतीस साल बाद आज भी जब अतीत के पन्ने पलटे जाते हैं तो कई प्रश्न सही उत्तरों की तलाश करते नज़र आते हैं। क्या ऑपरेशन ब्लू स्टार परिस्थितिजन्य अनिवार्य परिघटना थी या इसे टाला जा सकता था? क्या श्रीमती इन्दिरा गान्धी के जीवन की यह सबसे बड़ी ग़लती थी या यह उनकी दूरदर्शिता और सूझबूझ का नतीजा था? क्या उनके पास और कोई रास्ता नहीं बचा था? ऑपरेशन ब्लू स्टार क्या सचमुच सिख धर्म की देह पर ऐसा घाव है, जो हमेशा रिसता रहेगा? स्थिति को इतना ख़राब क्यों होने दिया गया कि ऐसी कार्रवाई करने की ज़रूरत पड़ी? ऑपरेशन ब्लू स्टार न होता तो क्या होता?

इन या इन जैसे अन्यान्य प्रश्नों को खँगाल कर धारदार भाषा में सटीक उत्तर देने की बात जब भी आती है तो पं. क्षितीश कुमार वेदालङ्कार का स्मरण बरबस हो आता है। वे उस दौर के अजब विद्वान्, अद्भुत वक्ता और कालजयी लेखक थे। उनके तार्किक और तथ्यात्मक लेखन का सहज प्रवाह हृदय तल को छू लेने वाला था। ऑपरेशन ब्लू स्टार के चन्द दिनों बाद ही उन्होंने ‘तूफ़ान के दौर से पञ्जाब’ शीर्षक यह पुस्तक लिखी तो हलचल-सी मच गई। इस पुस्तक में क्षितीश जी की विद्वत्ता ने सिख इतिहास को गहरे उतर कर देखा है तो उनके भीतर के पत्रकार ने समूचे घटनाक्रम के तथ्यों की महीन पड़ताल की है। ऑपरेशन ब्लू स्टार को परत-दर-परत देखना हो तो आज भी यह पुस्तक उतनी ही प्रासङ्गिक है, जितनी तब थी। समझने की बात बस इतनी है कि तब का पञ्जाब लगभग चार दशक बाद आज कहाँ खड़ा है और सिख समुदाय ख़ालिस्तान के मुद्दे को अब किस नज़रिये से देखता है।

आमतौर पर ऐसा माना जाता है कि किसी घटना के तुरन्त बाद उसका सही विश्लेषण पूरी तरह से सम्भव नहीं हो पाता। घटना के सभी पहलुओं को ठीक-ठीक और निष्पक्ष भाव से देख पाने के लिए कुछ समय का इन्तज़ार ज़रूरी हो सकता है। लेकिन, ऑपरेशन ब्लू स्टार और पञ्जाब समस्या के बारे में यह स्थिति कहीं-कहीं उल्टी नज़र आती है। कभी इस क़दम के लिए श्रीमती इन्दिरा गान्धी की प्रशंसा की जाती थी, पर आज की तारीख़ में अधिकतर बुद्धिजीवी मानते हैं कि ऑपरेशन ब्लू स्टार और भिण्डराँवाले, दोनों श्रीमती गान्धी की गलत नीतियों का नतीजा थे। विश्लेषक मानते हैं कि भिण्डराँवाले को आगे बढ़ाने में इन्दिरा गान्धी के विश्वस्त ज्ञानी जैल सिंह जैसे कुछ काँग्रेसियों का हाथ था। उनके बेटे सञ्जय गान्धी ने भिण्डराँवाले को शह देकर उसे पञ्जाब का ‘अघोषित मुखिया’ बना दिया। इसकी वजह यह थी कि काँग्रेस को पञ्जाब में अकालियों के बढ़ते प्रभामण्डल को ध्वस्त करना था और तेज़तर्रार भिण्डराँवाले इसके लिए उपयुक्त लग रहा था। प्रसिद्ध पत्रकार स्व. कुलदीप नैयर ने अपनी पुस्तक ‘बियाण्ड द लाइंस एन ऑटोबायोग्राफी’ में लिखा है—“सञ्जय गान्धी को लगता था कि अकाली दल के तत्कालीन मुखिया सन्त हरचरण सिंह लोंगोवाल की काट के रूप में एक और सन्त को खड़ा किया जा सकता है। यह सन्त उन्हें दमदमी टकसाल के सन्त भिण्डराँवाले के रूप में मिला।”

ऊपर से एकबारगी यह बात सही लगती है और श्रीमती इन्दिरा गान्धी कठघरे में खड़ी नज़र आती हैं, लेकिन जरा गहरे उतरें तो पता चलेगा कि यह समस्या का सरलीकरण है। वास्तव में पञ्जाब में उग्रवाद की समस्या की जड़ में सिख समुदाय के मन में घर कर चुका अलगाववाद है और अलगाववाद की यह मानसिकता इन्दिरा गान्धी की पैदा की हुई नहीं थी। सनद रहे कि सन् 1947 में जब अँग्रेज़ भारत को दो देशों में बाँटने की योजना बना रहे थे तो उसी दौरान कुछ सिख नेताओं ने सिख समुदाय के लिए एक अलग देश ‘ख़ालिस्तान’ की माँग ज़ोर-शोर से उठाई। अलगाववाद के बीज इसके भी पहले तभी पड़ चुके थे, जबकि जून, 1926 में शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के चुनाव में मास्टर तारा सिंह गुट का वर्चस्व क़ायम हुआ। दिलचस्प है कि पञ्जाब में पाकिस्तान की माँग का विरोध हिन्दू व सिखों ने मिलकर किया था, परन्तु लुधियाना के डॉ. वीर सिंह भट्टी के सिखों के लिए अलग ‘ख़ालिस्तान’ के समर्थन में पर्चा छापने के बाद यह धीरे-धीरे अभियान की शक्ल लेता गया और आज़ादी के बाद पञ्जाब में चल रही राजनीतिक पैंतरेबाज़ियों और पाकिस्तान की हरकतों ने इसे नासूर बनाकर ऑपरेशन ब्लू स्टार की परिणति तक पहुँचा दिया। सिख इतिहास के कुछ और पीछे के पन्ने पलटें तो पता चलता है कि अलग राज्य की कामना के बीज शुरुआती दौर से ही पड़ चुके थे, भले ही उनका रूप कुछ उदात्त और हिन्दू धर्म के रक्षक का रहा हो। ख़ुशवन्त सिंह अपनी पुस्तक ‘सिखों का इतिहास’ में लिखते हैं—“सिखों में ‘अलग राज्य’ की कल्पना हमेशा से ही थी। रोज़ की अरदास के बाद गुरु गोविन्द सिंह का ‘राज करेगा ख़ालसा’ नारा लगाया जाता है। इस नारे ने अलग राज्य के ख़्वाब को हमेशा ज़िन्दा रखा।….सिख नेताओं ने कहना शुरू कर दिया था कि अँग्रेजों के बाद पञ्जाब पर सिखों का हक है।” खैर, सिखों के इस इतिहास को क्षितीश कुमार वेदालङ्कार जी ने इस पुस्तक में बड़ी गहराई से खँगाला है। यहीं पर किञ्चित ठहरें, तो वर्षों से चलते आ रहे अलगाववाद के पूरे परिदृश्य में साठ के दशक में पञ्जाब की अर्थव्यवस्था में अचानक से आए बदलावों की भूमिका की भी शिनाख़्त की जा सकती है। ठीक है कि ‘राज करेगा ख़ालसा’ की मनोभावना सिख समुदाय में देश के बँटवारे के समय से ही रही, पर आज़ाद भारत में ख़ालिस्तान आन्दोलन के लिए अगर अत्याधुनिक हथियारों वाला हिंसक रूप अख़्तियार करना आसान होता गया तो इसके पीछे का एक ज़रूरी पहलू आमतौर पर निगाहों से ओझल रह जाता है। यह पहलू पञ्जाब की अर्थव्यवस्था और हरित क्रान्ति से जुड़ा है। अमेरिकी कृषि वैज्ञानिक नार्मन बोरलॉग की कृषि-क्रान्ति के प्रयोगों ने एम. एस. स्वामीनाथन की अगुआई में खाद्यान्न सङ्कट से गुज़रते इस देश में सन् 1960 के दशक में जब दस्तक दिया तो पञ्जाबियों की मेहनत ने इसे सबसे तेज़ी से फलीभूत किया। हरित क्रान्ति के नुक़सानदेह पार्श्वप्रभावों की बात अलग है, पर इसने पञ्जाब को समृद्ध किया। इसका कुछ अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि साठ के दशक के उत्तरार्ध में पञ्जाब में धान की खेती क़रीब 3.9 लाख हेक्टेयर में ही होती थी, पर हरित क्रान्ति के बाद बढ़ते-बढ़ते अब यह आठ गुना ज़्यादा तक पहुँच चुकी है। गेहूँ की खेती भी 22.99 लाख हेक्टेयर से बढ़कर आज डेढ़ गुना ज़्यादा दिखाई देती है। हरित क्रान्ति मूलतः धान-गेहूँ क्रान्ति थी, पर इसने पञ्जाब को कृषि के मामले में देश के अन्य राज्यों से अलग खड़ा कर दिया। पञ्जाब अन्नदाता की भूमिका ग्रहण करने लगा और कई राज्यों से लोग खेती मज़दूर बनकर वहाँ पहुँचने लगे। पञ्जाब समृद्ध होता गया। वर्चस्व में सिख समुदाय था, तो समृद्धि भी अधिकांश में उसी के पास आई और इस तरह बहुसङ्ख्य सिख समुदाय एक विशिष्ट विशिष्टताबोध से भर उठा। यह भी याद रखना चाहिए कि आनन्दपुर साहिब प्रस्ताव (सन् 1973) जब आया तो पृष्ठभूमि में पञ्जाब में हरित क्रान्ति जनित समृद्धि दिखाई देने लगी थी। इस प्रस्ताव को इस रूप में प्रस्तुत किया गया था जैसे कि यह विकेन्द्रीकरण और राज्यों की स्वायत्तता का राजनैतिक दस्तावेज़ हो, पर सच्चाई यह नहीं थी। इसका निहित उद्देश्य दिनोंदिन बढ़ रही पञ्जाब की सम्पन्नता को देश के अन्य भूभागों में किसी भी रूप में बँटने से बचाना और अकाली वर्चस्व को क़ायम करना था। पञ्जाब के किसान यह तो देख रहे थे कि उनकी मेहनत रङ्ग लाई है और समृद्धि बढ़ रही है, पर वे यह नहीं देखना चाहते थे कि हरित क्रान्ति के उनके पुरुषार्थ में साधन पूरे देश के लगे हैं। (…जारी)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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