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बुझती हुई राख की चमकती हुई चिनगारियाँ—दो

ऑपरेशन ब्लू स्टार के चन्द दिनों बाद ही प्रख्यात पत्रकार पं. क्षितीश कुमार वेदालङ्कार ने ‘तूफ़ान के दौर से पञ्जाब’ शीर्षक एक पुस्तक लिखी थी, जिसने उस समय काफ़ी हलचल मचाई। ऑपरेशन ब्लू स्टार और पञ्जाब को समझने के लिए आज भी यह एक ज़रूरी किताब है। तब इसकी भूमिका स्व. प्रभाष जोशी जी ने लिखी थी। हाल में इसके पुनःप्रकाशन की योजना बनी तो नए सिरे से भूमिका लिखने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गई। उसी भूमिका का दूसरा हिस्सा यहाँ प्रस्तुत है।

विडम्बना ही है कि हरित क्रान्ति ने पञ्जाब में ख़ुशहाली बिखेरने के बजाय अलगाववाद की पहले से विद्यमान मानसिकता को और बल दिया। धनी और निर्धन के बीच की खाई कुछ और बढ़ी और अक्सर सङ्घर्ष की स्थितियाँ भी पैदा होने लगीं। हरित क्रान्ति ने पञ्जाब की अर्थव्यवस्था के साथ-साथ वहाँ की सामाजिक और सांस्कृतिक सोच में भी विक्षोभ पैदा किए। नशे के साथ नैतिक समस्याओं की तो कथा ही अलग है। वास्तव में हरित क्रान्ति से आई समृद्धि ने हथियारों तक पहुँच आसान बना दिया और इस वजह से भिण्डराँवाले के लिए अपने जोशीले भाषणों के ज़रिये सिख युवकों को भड़काना भी आसान बन गया कि वे हथियारों के बल पर ख़ालिस्तान हासिल करने में कामयाब हो सकते हैं। हरित क्रान्ति की समृद्धि ने सिख युवकों के लिए यह सोचना भी आसान बनाया कि वे खेती-किसानी की तुलना में कहीं बेहतर जीवनशैली हासिल करने लिए विदेशों में आसानी से अपनी जगह बना सकते हैं। ख़ुशहाल ज़िन्दगी की चाह में कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, अमेरिका वग़ैरह में धीरे-धीरे सिखों की अच्छी-ख़ासी आबादी पहुँचने लगी। पञ्जाब में उग्रवाद ने ज़ोर पकड़ा तो विदेशों में रह रहे इस सिख समुदाय ने उग्रवादियों को भरपूर चन्दा दिया। इसी के साथ हरित क्रान्ति ने जो सामाजिक-आर्थिक बदलाव पैदा किए, उनके चलते पञ्जाब में राजनीतिक गुटबाज़ियों को हवा मिलनी शुरू हुई और सिख समुदाय के एक हिस्से के बीच देश के सत्ता प्रतिष्ठान या कहें सङ्घ के साथ तनाव बढ़ा। पाकिस्तान ने भी माहौल अनुकूल देखकर ख़ालिस्तान आन्दोलन को परोक्ष समर्थन देने में भरपूर ताक़त लगानी शुरू कर दी। ज़ाहिर है, ख़ालिस्तानी हवा के बवण्डर बनने के सारे कारण सामने थे, उग्रवादियों की उम्मीदें आसमान में बारूद के गोले उछाल रही थीं और आग ऐसी लगी कि ऑपरेशन ब्लू स्टार के रूप में उससे पैदा हुई झुलसन और तपन पञ्जाब की धरती आज भी महसूस करती है।

सिख नेताओं के राजनीतिक मानस की ठीक-ठीक पहचान करने की कोशिश करें तो कहना कुछ आसान हो जाता है कि इतिहास की इस धारा को किन मोड़ों से गुज़रना था। ऐसे में, ऑपरेशन ब्लू स्टार इन्दिरा गान्धी की दूरदर्शिता थी या भूल, सिखों के साथ अन्याय हुआ या यह परिस्थितिजन्य परिणाम था, यह सब समझने के लिए उस समय पञ्जाब में जो चल रहा था, उसे मन के तल पर रूपायित करके महसूस करने की ज़रूरत है, महज़ ऊपरी तर्क-वितर्क से काम नहीं चलेगा। उस स्थिति को ठीक-ठीक समझने की ज़रूरत है, जबकि स्वर्ण मन्दिर का दृश्य किसी अभेद्य किले के मानिन्द दिखाई देने लगा था। उस दौर का हर क़िस्म का अत्याधुनिक हथियार स्वर्ण मन्दिर में मौजूद था। लाइट मशीनगनों से लेकर स्टेन गन, सेल्फ लोडिङ्ग राइफ़ल, हर तरह के रिवाल्वर, मोर्टार, एण्टी टैङ्क हथियार और रॉकेट लाञ्चर तक। किसी बाहरी आक्रमण से निपटने के लिए जमीन से लेकर मन्दिर के बुर्ज़ तक हथियारबन्द आतङ्की तैनात थे। स्वर्ण मन्दिर के साथ-साथ कुछ और गुरुद्वारों को युद्ध का क़िला बनाने की तैयारी सन् 1979 से जारी थी। जनवरी, 1984 तक तैंतालीस हज़ार युवकों को हथियार चलाने, आतङ्क फैलाने का प्रशिक्षण दिया जा चुका था। सिख समुदाय का पवित्रतम पूजास्थल अगर मारकाट मचाने और आतङ्क फैलाने का केन्द्र बन जाए, तो इसकी अन्तिम परिणति आख़िर और क्या हो सकती है? सोचने की बात है कि भिण्डराँवाले को अकाल तख़्त में डेरा जमाने की इजाज़त क्यों दी गई? क्या ऐसा नहीं लगता कि मन्दिर की सञ्चालक मण्डली इस तथाकथित सन्त की बन्धक बन चुकी थी?

इन्दिरा गान्धी के रवैये पर विमर्श का एक बिन्दु उस स्थिति में ज़रूर खड़ा होता है, जबकि आपातकाल गुज़र जाने, इन्दिरा गान्धी के सत्ता खोने और सन् 1980 के चुनाव में फिर से सत्ता में वापसी के बाद हम उनकी मानसिकता में आए बदलावों पर निगाह डालते हैं। इन्दिरा गान्धी की सर्वाधिक प्रामाणिक जीवनीकार पुपुल जयकर हों या दूसरे और कई विश्लेषक, उनका सङ्केत इस बात की ओर है कि सन् 1980 के बाद इन्दिरा गान्धी का झुकाव हिन्दुत्व की ओर होता हुआ दिखाई देता है। पञ्जाब में सैनिक कार्रवाई के बाद उन्होंने कहा था—“पञ्जाब में हिन्दू धर्म पर हमला हो रहा है।” हिन्दू संस्कृति की रक्षा की अपील वाले उनके और बयानों को भी हम देख सकते हैं। हिन्दुत्व की ओर उनके बढ़ते झुकाव को इस रूप में भी देखा जा सकता है कि उन्होंने कश्मीर में फ़ारुख़ अब्दुल्ला की सरकार को बर्ख़ास्त कर दिया था और शेख़ अब्दुल्ला को फिर से जेल में डाल दिया था। पञ्जाब में तो वे अकालियों से भिड़ीं ही। इसके अलावा सवाल इस बात पर भी उठते हैं कि इन्दिरा गान्धी को पढ़ने-लिखने से ज़्यादा मतलब था नहीं तो उन्हें पञ्जाब और सिखों के इतिहास की भी गहरी समझ नहीं थी, अन्यथा वे ऑपरेशन ब्लू स्टार के बजाय कोई और रास्ता सोचतीं। ज़ाहिर-सी बात है कि हिन्दुत्व की ओर झुकाव और आपात काल लागू करने जैसा फ़ैसला लेने वाली इन्दिरा के लिए ऑपरेशन ब्लू स्टार जैसा क़दम उठाना ज़्यादा मुश्किल नहीं था। ऐसे में ऑपेरशन ब्लू स्टार को इन्दिरा गान्धी की एक ज़िद के रूप में भी देखा जाना स्वाभाविक ही है, लेकिन असली सवाल है कि पञ्जाब का माहौल जैसा बना दिया गया था, उसमें ऑपरेशन ब्लू स्टार जैसा कुछ न होता तो शान्तिपूर्ण रास्ता और क्या हो सकता था? शान्तिपूर्ण विकल्प के सवाल पर समझदारों की बिरादरी में आज तक सन्नाटा क्यों है?

इसी तरह बार-बार कहा जाता है कि यह सेना के अपने ही लोगों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोलने की घटना है, पर यह कहते हुए इस बात पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि जब कुछ लोग अपने ही देश को तोड़ने की साज़िश रच रहे हों और इसके लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार हों तो क्या उन्हें ‘अपने ही लोग’ कहा जा सकता है? यह बात ज़रूर है कि ऐसे लोगों की शिनाख़्त कर पाना आमजन के लिए प्रायः कठिन होता है और वे बहकावे में आकर उनके इर्दगिर्द सुरक्षा कवच के रूप में खड़े हो जाते हैं और अन्ततः उन्हें ही जान-माल का सबसे ज़्यादा नुक़सान उठाना पड़ता है। हम जानते ही हैं कि ऑपरेशन ब्लू स्टार में चरमपन्थियों के अलावा बड़ी सङ्ख्या में भोले-भाले श्रद्धालुओं को भी अपने प्राण गँवाने पड़े।

ऑपरेशन ब्लू स्टार को आज के बुद्धिजीवी अगर इन्दिरा गान्धी के जीवन की सबसे बड़ी चूक के रूप में देखने लगे हैं तो इसकी बड़ी वजह यह है कि हमारे बुद्धिजीवी इस पूरे मुद्दे का विश्लेषण करते हुए सेना की कार्रवाई के दौरान हताहत लोगों की सङ्ख्या, मन्दिर को हुए नुक़सान, मन्दिर की पवित्रता और सिखों की आहत भावना पर तो ध्यान देते हैं, पर इस ओर ठीक से ध्यान नहीं दे पाते कि चरमपन्थी क्रूरता की किस हद तक जा पहुँचे थे और किसी देवता की तरह पूजा जा रहा भिण्डराँवाले किस तरह से राक्षसी वृत्ति में संलग्न था। ऐसा नहीं था कि इन्दिरा गान्धी समस्या सुलझाने की कोशिश नहीं कर रही थीं। सच तो यह है कि भिण्डराँवाले ने समझौते का प्रस्ताव ठुकरा दिया था। शान्तिपूर्ण समाधान की तलाश में कई बार सैनिक कार्रवाई को खारिज किया जा चुका था, पर इन्दिरा गान्धी ने आखिरी फैसला ठीक समय पर लिया, क्योंकि अगर वे कुछ दिन और रुक जातीं और जून, 1984 के शुरू होते ही सेना ने हलचल न शुरू की होती तो देश के एक और बँटवारे की साज़िश ज़्यादा भयावह रूप में सामने आने वाली थी। ऑपरेशन ब्लू स्टार से कुछ ही समय पहले ‘ख़ालिस्तान पासपोर्ट’, ‘डाक टिकट’ और ‘ख़ालिस्तान डॉलर’ की कहानी जगजीत सिंह चौहान के नेतृत्व में ब्रिटेन में बैठकर लिखी जा चुकी थी। न्यूयॉर्क टाइम्स में ‘स्वतन्त्र सिख राज्य’ का विज्ञापन छपवाया जा चुका था। कुछ ही दिनों बाद स्वतन्त्र ख़ालिस्तान देश की घोषणा की जाने वाली थी।

भिण्डराँवाले की योजना जानकर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति थर्रा उठेगा। सेना की कार्रवाई में एक दिन की भी देरी होती तो भिण्डराँवाले की योजना स्पष्ट थी कि 5 जून को अमृतसर में चार हज़ार हिन्दू बुद्धिजावियों, जिनकी ब्लू लिस्ट तैयार हो चुकी थी, का क़त्ल कर दिया जाएगा और इसके बाद बाक़ी के हिन्दू अपने आप ही पञ्जाब से पलायन करने लगेंगे। इसके लिए पञ्जाब भर के प्रमुख गुरुद्वारों में हथियार और प्रशिक्षित उग्रपन्थी भेजे जा चुके थे। सोचिए कि भिण्डराँवाले इस काम में सफल हो जाता तो क्या होता। अलबत्ता, एक चूक सेना से ज़रूर हुई। सेना अन्दाज़ा नहीं लगा सकी कि स्वर्ण मन्दिर में हथियारों का ज़ख़ीरा कोई मामूली नहीं, बल्कि यहाँ एण्टी टैङ्क हथियारों से लेकर रॉकेट लाञ्चर तक मौजूद थे। सेना का ख़ुफ़िया तन्त्र यह सब पता करने में सक्षम था, पर उसको इस बात का गुमान ही नहीं था कि अपने ही देश में देश के विरुद्ध युद्ध की इतनी बड़ी तैयारी भी की जा सकती है। सेना को चीज़ें ठीक से पता होतीं तो उसकी कार्रवाई की रणनीति भी कुछ अलग होती और इतने बड़े पैमाने पर जान-माल के नुक़सान की सम्भवतः नौबत न आती। 6 जून, 1984 की सुबह सैनिक कार्रवाई की कामयाबी की सूचना आर. के. धवन ने श्रीमती इन्दिरा गान्धी को जब दी तो उनके मुँह से बेसाख़्ता यही निकला—“हे भगवान्, उन लोगों ने मुझे यही बताया था कि कोई हताहत नहीं होगा।” स्पष्ट है कि इन्दिरा गान्धी बिलकुल नहीं चाहती थीं कि जन-धन की कोई हानि हो। जन-धन के नुक़सान की आशङ्का के चलते इसके दो महीने पहले ही ‘ऑपरेशन सनडाउन’ चलाने के सेना के प्रस्ताव को उन्होंने सिर्फ इसलिए ख़ारिज कर दिया था, क्योंकि रॉ के अधिकारी ठीक से यह नहीं बता पाए कि इस ऑपरेशन में कितने आम नागरिक मारे जाएँगे।

वैसे, एक दूसरे अर्थ में सेना को भी दोष देना बहुत उचित नहीं है, क्योंकि उसने स्वर्ण मन्दिर परिसर में क़दम रखा तो उग्रपन्थियों के साथ दुश्मनों जैसा व्यवहार नहीं किया। सेना की पूरी कोशिश थी कि मन्दिर की पवित्रता को कोई नुक़सान न हो। भिण्डराँवाले के लोगों ने क्रूरता की हदें पार कर दीं और कमाण्डो एक-एक कर मारे जाने लगे तो विवश होकर सेना को अपना तरीका बदलना पड़ा और अन्ततः टैङ्क बुलाने पड़े। 

6 जून, 1984 को रोज़ की तरह सुबह तो हुई, पर हरमन्दिर साहिब की दरकी हुई दीवारें ख़ून के छीटों से लाल थीं। (…जारी)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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