बुझती हुई राख की चमकती हुई चिनगारियाँ—तीन
ऑपरेशन ब्लू स्टार के चन्द दिनों बाद ही प्रख्यात पत्रकार पं. क्षितीश कुमार वेदालङ्कार ने ‘तूफ़ान के दौर से पञ्जाब’ शीर्षक एक पुस्तक लिखी थी, जिसने उस समय काफ़ी हलचल मचाई। ऑपरेशन ब्लू स्टार और पञ्जाब को समझने के लिए आज भी यह एक ज़रूरी किताब है। तब इसकी भूमिका स्व. प्रभाष जोशी जी ने लिखी थी। हाल में इसके पुनःप्रकाशन की योजना बनी तो नए सिरे से भूमिका लिखने की ज़िम्मेदारी मुझे सौंपी गई। उसी भूमिका का तीसरा हिस्सा यहाँ प्रस्तुत है।
ऑपरेशन ब्लू स्टार की रक्तरञ्जित कामयाबी के साथ ख़ालिस्तान आन्दोलन ख़त्म हो गया, पर पाकिस्तान को अब भी विश्वास है कि इसे दुबारा हवा दी जा सकती है। अलगाववादी नेताओं को बुलाकर उनका स्वागत-सत्कार वह आज भी जब-तब करता ही रहता है। विदेशों में बसे सिखों के कुछ समूह भी ख़ालिस्तान आन्दोलन को ज़िन्दा करने की कोशिश करते रहते हैं। ऑपरेशन ब्लू स्टार के 31 साल बाद अगर भिण्डराँवाले को सिखों का एक समूह सन्त का दर्जा देता है और शेष सिख समुदाय कोई किंतु-परन्तु नहीं करता, तो ज़ाहिर-सी बात है कि भिण्डराँवाले के ख़ालिस्तान के सपने को वह आज भी जायज मानता है।
असल सवाल है कि आज का पञ्जाब कहाँ खड़ा है? क्या ख़ालिस्तान की चिनगारी के फिर से भड़क सकने की कोई सम्भावना बची हुई है?
जवाब ज़्यादा मुश्किल नहीं है। ऑपरेशन ब्लू स्टार की जितनी भी निन्दा की जाय, पर इसने चरमपन्थियों के देश बाँटने के सपने को दिवास्वप्न से ज़्यादा महत्त्व का अब नहीं रहने दिया है। इस घाव की टीस ज़रूर बची हुई है, पर देश को जो घाव देने की तैयारी चल रही थी, उसके बरक्स ऑपरेशन ब्लू स्टार नासूर बन चुके एक फोड़े पर नश्तर लगाने से ज़्यादा और कुछ नहीं था। इसका फलितार्थ आज इस रूप में है कि तमाम किन्तु-परन्तुओं के बावजूद ख़ालिस्तान की माँग ऑपरेशन ब्लू स्टार की साल-दर-साल मनाई जाने वाली बरसी पर रस्म अदायगी भर रह गई है। इन्दिरा गान्धी की हत्या की जो प्रतिक्रिया पूरे देश में हुई, उससे भी चरमपन्थियों को समझ में आ गया है कि वे जो चाहेंगे, वही नहीं होगा, उससे उल्टा भी हो सकता है। ख़ालिस्तान की माँग उठाने वाली किसी भी आवाज़ में अब वह अपील नहीं बची है कि आज का आम सिख नौजवान जान हथेली पर रखकर आतङ्की बनने को तैयार हो जाए। इसे हम हाल में हुए किसान आन्दोलन की घटना से कुछ और बेहतर ढङ्ग से समझ सकते हैं।
9 अगस्त, 2020 को संसद द्वारा पारित कृषि सुधार से सम्बन्धित तीन अधिनियमों को रद्द कराने के लिए किसानों का आन्दोलन शुरू हुआ। इसमें पञ्जाब के किसान प्रमुख रूप से शामिल हुए। भीड़ बढ़ती गई और डेढ़-दो महीने बीतते-बीतते आन्दोलन के जमावड़े में कुछ ऐसे चेहरे दिखने शुरू हुए, जिन पर ख़ालिस्तान समर्थक होने का आरोप रहा है। एक सङ्गठन ने सिन्धु बॉर्डर पर मुफ़्त पगड़ी वितरण का कार्यक्रम रखा तो उसमें भिण्डराँवाले और पञ्जाब में अलगाववाद का समर्थन करने वाले उसके साथियों का महिमामण्डन करने वाली पुस्तक ‘शहीद-ए-ख़ालिस्तान’ भी बाँटी गई। किसान आन्दोलन पर ख़ालिस्तानी मदद के आरोप लगने लगे। कनाडा, ब्रिटेन, अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया में प्रवासी भारतीयों को किसानों के समर्थन में रैलियाँ निकालते हुए देखा गया। असर यह हुआ कि कैलिफोर्निया के फ्रेस्नो काउण्टी में 7 फरवरी, 2021 को नेशनल फुटबाल लीग शुरू होने से पहले भारतीय किसानों के विरोध प्रदर्शन का तीस सेकेण्ड का एक विज्ञापन दिखाया गया। इन चीज़ों में कुछ-कुछ वैसी ही छायाएँ देखी जानी स्वाभाविक थीं, जैसी कि ख़ालिस्तान आन्दोलन के दौरान बाहर से मिल रहे सहयोगों के फलस्वरूप दिखाई दे रही थीं। कुछ दिनों बाद केन्द्र सरकार की दो खुफिया एजेंसियों, रॉ और आईबी, ने रिपोर्ट दी कि ख़ालिस्तान कमाण्डो फोर्स के बेल्जियम और ब्रिटेन में बैठे साज़िशकर्ताओं ने दिल्ली बॉर्डर पर किसान आन्दोलन के नेताओं को टारगेट करते हुए एक किसान नेता की हत्या करने की योजना बनाई है और इसका ठीकरा वे सरकारी एजेंसियों या एक राजनीतिक पार्टी पर फोड़कर देश में हिंसा फैलाने की फ़िराक़ में हैं। सत्ताधारी दल को मौक़ा मिला तो उसने भी आन्दोलन को कमज़ोर करने के लिए इसे ख़ालिस्तान समर्थक बताना शुरू कर दिया। ख़ालिस्तानियों की सक्रियता को 26 जनवरी की उस घटना से भी जोड़ा गया, जब किसान रैली के दौरान कुछ लोगों ने लाल किले पर निशान साहिब और किसानों का झण्डा लहराया। बाद के दिनों में एक घटना यह हुई कि संयुक्त किसान मोर्चा ने किसान सङ्घ के नेता रुल्डू सिंह मानसा को 15 दिनों के लिए इसलिए निलम्बित कर दिया कि उन्होंने अपने भाषण में जरनैल सिंह भिण्डराँवाले का नाम लिए बिना उसके ख़िलाफ़ कुछ बातें कही थीं। दिलचस्प है कि उसी भाषण में प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी के ख़िलाफ़ उन्होंने जो बोला, उस पर सिख नेताओं ने कोई आपत्ति नहीं जताई।
बात साफ़ समझ में आती है कि किसान आन्दोलन में ख़ालिस्तान समर्थक कुछ तत्त्व भी शामिल रहे हैं, उन्होंने अपने ढङ्ग की कुछ हरकतें भी करने की कोशिश की, पर कामयाब नहीं हो सकते थे, क्योंकि ‘वे दिन हवा हुए जब ख़ालिस्तानी पसीना गुलाब था’। मतलब कि ऐसा क़तई नहीं माना जा सकता कि पूरा किसान आन्दोलन ख़ालिस्तान समर्थक था। देश के तमाम हिस्सों के लाखों किसान इसमें शामिल थे और ऐसे में भीड़ में हर तरह के लोग दिखाई दे ही सकते हैं। इससे बस इतना ही कहा जा सकता है कि सिख समुदाय के एक हिस्से में आज भी भिण्डराँवाले और ख़ालिस्तान की चाह ज़िन्दा है, पर उसमें स्पष्ट मुखरता और तेज़ हरकत का बल नहीं है। भीड़ देखकर थोड़ी देर के लिए उभरने वाला जोश भर इसे कहा जा सकता है। कुल निष्कर्ष यही है कि सपने और हक़ीक़त का फ़र्क़ वृहत्तर सिख समुदाय को धीरे-धीरे ही सही, समझ में आने लगा है। अपवाद अब भी मौजूद हैं, पर अपवादों से समाज की धारा नहीं बदलती।
ऑपरेशन ब्लू स्टार से सबक सेना ने भी लिया है कि अपने लोग कितने ही देश विरोधी हो जाएँ, पर सम्बन्धों के ताने-बाने में अन्ततः ऐसी सैनिक कार्रवाइयों का नुक़सान अपने देश के तमाम निर्दोष लोगों को भी भुगतना पड़ता है। मनमोहन सिंह की सरकार में गृहमन्त्री पी. चिदम्बरम ने नक्सली समस्या से निपटने के लिए फ़ौजी कार्रवाई का सुझाव दिया था। उस समय जनरल वीके सिंह ने यह कहकर इसे ख़ारिज कर दिया था—“फ़ौज अपने लोगों के ख़िलाफ़ नहीं लड़ती। एक बार ग़लती कर चुके हैं, अब नहीं होगी।”
किसी घटना-परिघटना के हर पहलू को ठहर कर देखना ज़रूरी होता है, तभी वास्तविक निहितार्थ और फलितार्थ का अन्दाज़ा मिल पाना भी सम्भव हो पाता है। यह सही है कि ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोध में चरमपन्थी प्रतिक्रियाएँ एक दशक बाद तक कुछ तेज़ और बाद में छिटपुट मिलती रही हैं, पर समय के साथ अधिसङ्ख्य सिखों को यह बात भी समझ में आने लगी है कि स्वर्ण मन्दिर पर सैनिक कार्रवाई को सिख धर्म पर हमले की सञ्ज्ञा देना उचित नहीं है। इसी कारण से गहरी टीस छोड़ने के बावजूद और तमाम कोशिशों के बाद भी ऑपरेशन ब्लू स्टार समाज को तोड़ने, किसी धर्म के प्रभुत्व या धर्म के आधार पर सिख राष्ट्र का प्रतीक नहीं बन सका। इस कार्रवाई से जो नुक़सान हुआ उसे नकारा नहीं जा सकता, पर उन परिस्थितियों में वैसी कार्रवाई न की जाती तो उसका विकल्प और क्या हो सकता था, इस पर ऑपरेशन ब्लू स्टार के विरोधी हमारे बुद्धिजीवी भी आज तक दो-टूक बात नहीं कर सके हैं। बातचीत और संवाद के समाधान सुझाने वालों को समझना चाहिए कि ऐसे समाधान बार-बार निष्फल हुए थे, तभी सेना को कमान थमाने की नौबत आई थी।
पं. क्षितीश कुमार वेदालङ्कार ने समस्या के हर ज़रूरी पहलू पर अपनी उँगली रखी है। उनके लिखे से गुज़रना उस समय के दृश्यों को आँखों के सामने तैरते हुए देखने जैसा है। उनका विश्लेषण अप्रतिम है। आज भी उनसे असहमति का कोई कारण नहीं दिखाई देता। तार्किकता, बेबाक़ी और पूरी तथ्यात्मकता के साथ रखी गई उनकी वे बातें इतने वर्षों बाद अब भी उतनी ही गम्भीरता से पढ़ी जाने लायक़ हैं। ज़ाहिर है, वर्षों बाद ‘तूफ़ान के दौर से पञ्जाब’ की पुनःप्रस्तुति निश्चित रूप से एक आवश्यक पहल है। (समाप्त)