भ्रष्टाचार का अन्त!
हमारी एक परेशानी और है कि हम अपने-अपने कुछ देवी-देवता और कुछ भगवान निर्धारित कर लेते हैं और बड़े आराम से तर्क भी दे लेते हैं कि जब भगवान जी ने ही ऐसा किया था तो हम क्या कर सकते हैं। कई ऐसे भी लोगों को मैंने देखा है, जो अपने झूठ को जायज़ ठहराने के लिए के लिए राम-कृष्ण जैसों के नाम की दुहाई बड़े आराम से दे देते हैं।
मेरे फेसबुकिया मित्रों में एक अद्भुत समझ वाले व्यक्ति हैं एपीएन सिंह जी। उनका मानना है कि भ्रष्टाचार हमारे जीवन से कभी भी पूरी तरह ख़त्म नहीं हो सकता। हममें से शायद ज़्यादातर लोग यही मानते होंगे। गीता के श्रेयस् और प्रेयस् का दिलचस्प उदाहरण उन्होंने दिया है। उनकी एक टिप्पणी पर मैंने भी अपनी टिप्पणी दी थी। मुद्दे की प्रासङ्गिकता को देखते हुए उस टिप्पणी को यहाँ भी प्रस्तुत कर रहा हूँ—
मैं अच्छी तरह समझ सकता हूँ कि आप जैसा जागरूक व्यक्ति भ्रष्टाचार का समर्थक क़तई नहीं हो सकता। मैंने अपने किसी पोस्ट में आपको भ्रष्टाचार का समर्थक कहा भी नहीं है, यह आप समझ सकते हैं। आपके तेवर से लगता है कि जीवन के ढेर सारे झञ्झावातों से गुज़रने के बाद आपकी ऐसी अवधारणा बनी है। मेरी जो अवधारणा बनी है, वह मेरे अनुभवों का परिणाम है। जाने कितनी बार मौत के मुँह से जैसे-तैसे बाहर निकल पाया हूँ और जाने कितनी बार उन महान् क़िस्म के लोगों की तरफ़ से भी धोखा खा चुका हूँ, जिनका नाम ले दूँ तो शायद आप भी ताज्जुब करें। लेकिन, इसे मैं अपना सौभाग्य कहूँ या दुर्भाग्य कि जिन बुरे अनुभवों के बाद लोग ज़िन्दगी और समाज से नफ़रत करने लगते हैं, उन्हीं अनुभवों ने मुझे ज़िन्दगी और लोगों से प्यार करना सिखा दिया है। अब तो मेरे साथ जो लोग बुरा करना चाहते हैं, उन पर भी मुझे प्यार आता है। जैसा कि आपने कहा है कि हर रचना के दो पहलू होते हैं, तो यह बात बस जुमले के लिए ठीक है, सिक्के के दो पहलू की तरह; पर मैं सोचता हूँ कि हक़ीक़त में हर रचना के इतने पहलू होते हैं कि हम गिन भी नहीं सकते।
जहाँ तक गीता के श्रेयस् और प्रेयस् की बात है, तो यह दिलचस्प मामला है। मुक्ति के लिए श्रेयस् कितना भी ज़रूरी हो, पर प्रेयस् में फँसे होने का मतलब यह क़तई नहीं है कि व्यक्ति भ्रष्टाचारी भी हो ही। ऐसा सचमुच हो तो भारत की पूरी वर्णाश्रम व्यवस्था का तीन-चैथाई हिस्सा भ्रष्टाचार की ही भेंट चढ़ जाएगा। सन्न्यास सा सन्तई तक पहुँचने के लिए भ्रष्टाचार करना नहीं, बल्कि भ्रष्टाचार छोड़ना ज़रूरी होता है। दुनिया का दस्तूर देखकर एकबारग़ी ज़रूर लगता है कि भ्रष्टाचार कभी न ख़त्म होने वाली चीज़ है, पर मैं इसे सच नहीं मान पाता। आदमी के अलावा सृष्टि की लाखों अन्य प्रजातियों में कहीं कोई भ्रष्टाचार नहीं है। साँप, गोजर, बिच्छू वग़ैरह को हम बुरा मानते हैं तो यह हमारी समझ का फेर है। सच्चाई यह है कि वे इस सृष्टि में महज़ अपना धर्म निबाह रहे हैं। आदमी को विवेक की यह सहूलियत मिली है कि वह चाहे तो अच्छाई के रास्ते पर चले या बुराई के। विज्ञान के नियम आदमी की ज़िन्दगी पर भी हूबहू लागू होते हैं। क्रिया-प्रतिक्रया का साधारण-सा नियम है कि आप किसी चीज़ पर जितना बल लगाते हैं, वह चीज़ भी आपकी ओर उतना ही बल लगाती है। यह प्रकृति का नियम है, जो दिखाई देनेवाली चीज़ों में काम करता हुआ दिखाई देता है, पर जो चीज़ें नहीं दिखाई देतीं उनमें भी यह वैसे ही काम करता है। यहाँ तक कि मनुष्य की भावनाओं पर भी। जैसी भावनाएँ हम बाहर की ओर फेंकते हैं, वैसी ही भावनाएँ हमारी तरफ़ वापस आती हैं। इसीलिए हमारे धर्मशास्त्र कहते हैं कि जैसा हम सोचते हैं, वैसा ही बन जाते हैं। यह क्रिया-प्रतिक्रिया का नियम है। आप अपने मन-वचन से प्रेम की तरङ्गें दूसरों की तरफ़ प्रसारित कीजिए, देखेंगे कि बदले में तमाम दूसरे लोग आपसे भी प्रेम करने लगेंगे। आप यदि यह मानेंगे कि भ्रष्टाचार कभी नहीं ख़त्म होगा तो आपके इर्द-गिर्द भ्रष्टाचार बना ही रहेगा। बहुत गहरे तक भ्रष्टाचार की स्थिति स्वीकार करते रहेंगे तो अवसर सामने आते ही भ्रष्टाचार आपको भी अपने में समाहित करने की कोशिश करेगा।
यह भी समझ लेने वाली बात है कि भ्रष्टाचार को समूल नष्ट कर देने जैसी बात का बहुत मतलब नहीं है। भ्रष्टाचार ईंट-पत्थर का बना हुआ कोई महल नहीं है कि इस पर आप बुलडोजर चलाएँ और ज़मींदोज कर दें। भ्रष्टाचार या सदाचार आदमी के चरित्र, उसके व्यवहार में ज़िन्दा रहने वाली चीज़ें हैं। अगर सीरत बदलनी सम्भव है तो मैं मानता हूँ कि आचरण की सूरत भी बदलनी सम्भव है। यों, हम दूसरों के दिल से भ्रष्टाचार दूर कर देने की ठेकेदारी नहीं ले सकते। हमारी ठेकेदारी तो ख़ुद अपने तक ही हो सकती है। दूसरों को कुछ प्रेरणाएँ दे देने भर की हमारी हैसियत हो सकती है, बस। हाँ, यदि सत्ता हमारे पास हो तो हम कुछ व्यवस्थाएँ ऐसी ज़रूर बना सकते हैं कि लोग भ्रष्ट आचरण से दूर रहने को प्रेरित हो सकें। वैसे, हम ख़ुद को भ्रष्ट आचरण से दूर कर लें और दूसरों को अपनी सामर्थ्य भर प्रेरणा देने की ज़िम्मेदारी निभा दें तो इतने भर से दुनिया एक दिन ख़ूबसूरत बन जाएगी। हमारी दिक़्क़त यह है कि हम आज का माहौल देखकर निष्कर्ष निकाल लेते हैं कि दुनिया अपने जन्मकाल से ही बदसूरत रही है, जबकि इसका कोई प्रमाण नहीं है।
हमारी एक परेशानी और है कि हम अपने-अपने कुछ देवी-देवता और कुछ भगवान निर्धारित कर लेते हैं और बड़े आराम से तर्क भी दे लेते हैं कि जब भगवान जी ने ही ऐसा किया था तो हम क्या कर सकते हैं। कई ऐसे भी लोगों को मैंने देखा है, जो अपने झूठ को जायज़ ठहराने के लिए के लिए राम-कृष्ण जैसों के नाम की दुहाई बड़े आराम से दे देते हैं। राम-कृष्ण जैसों को मैं आदर्श पुरुष के रूप में तो देख पाता हूँ, पर ईश्वर के रूप में क़तई नहीं। अगर राम-कृष्ण-बुद्ध वग़ैरह को भगवान मानूँ तो मैं भी यक़ीनन यह आराम से मान सकता हूँ कि भ्रष्टाचार या तमाम दूसरी बुराइयाँ भी बनी ही रहेंगी, पर इन्हें इनसान समझूँ तो मेरी ईश्वरत्व की समझ थोड़ी आगे बढ़ जाती है और तब मैं आदमी के लिए भरपूर सच्चाई की राह पर चलने की सम्भावना भी देखने लगता हूँ। वैसे भी लोक-लोकान्तरों की असीम सृष्टि में महज़ एक अदना-से देश के किसी अदना-से कोने में धरती-सूरज-चाँद से करोड़ों-करोड़ गुना बड़े-बड़े अरबों-खरबों सितारों भरी विराट् सृष्टि के नियन्ता के मनुष्य रूप में अवतार लेने की बात मेरे भेजे में नहीं घुसती। यह भी क्या कमाल कि सबका कर्ता-धर्ता, सब कुछ बनाने-बिगाड़ने वाला स्वयं भगवान ही आदमी को सुधारने के लिए, अधर्म के विनाश के लिए धरती पर आकर लीला दिखाए और उसकी इतनी कसरत के बावजूद आदमी आज तक न सुधरे। क्या इससे बड़ा आश्चर्य दुनिया में और कुछ हो सकता है? यह भी कम मज़ेदार नहीं है कि जिस ईश्वर ने हमें बनाया, उसे भी अन्ततः हमें ही बचाना पड़ता है और धर्मयुद्ध तक छेड़ना पड़ता है। पूरी दुनिया मिलकर ईश्वर की निन्दा करे, तो भी ईश्वर की सेहत पर तो फ़र्क़ पड़ने से रहा, पर ईश्वर-अल्लाह के चेलों को डर लगता है कि कहीं ईशनिन्दा से ईश्वर की मौत न हो जाए और वे उसे बचाने के लिए दौड़ पड़ते हैं। ऐसे असहाय ईश्वर पर तो सिर्फ़ लानत ही भेजा जा सकता है। मेरे अनुभव मुझे साफ़ बताते हैं कि जीवन को बस सहज बनाने की कोशिश कर लीजिए तो ईश्वर की सही समझ पैदा होने लगती है और दुनिया में किसी को भी दुश्मन बनाने की ज़रूरत ख़त्म हो जाती है। और तब, आराम से भ्रष्ट आचरण जैसी चीज़ों के भी आप पार निकल जाते हैं। (15 फरवरी, 2015)