मनुस्मृति में क्या है?
(‘नभाटा गोल्ड’ से साभार)
मनु के अनुसार चारों वर्णों का निर्धारण गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार है, न कि जन्म के आधार पर। वर्तमान के हिसाब से देखें तो ब्राह्मण, समाज का ज्ञानी वर्ग है, क्षत्रिय सैनिक वर्ग, वैश्य व्यापारी वर्ग तो शूद्र सेवक वर्ग। मनु शूद्रों को अछूत नहीं मानते, बल्कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के कुल में पैदा हुआ व्यक्ति भी यदि शिक्षा प्राप्त करके ज्ञान की तरफ़ नहीं बढ़ पाता तो वह शूद्र होता है।
मनुस्मृति। 12 अध्यायों में बँटा हुआ 2685 श्लोकों का प्राचीन विशाल ग्रन्थ। इसे भारतीय समाज का प्राचीनतम संविधान भी कहा जाता है। इसके विभिन्न संस्करणों में श्लोकों की सङ्ख्या समान नहीं है; कुछ संस्करणों में 2964 श्लोक पाए जाते हैं; इसलिए विद्वान् मानते हैं कि कालान्तर में अलग-अलग व्यक्तियों द्वारा भी श्लोक बनाकर इसमें मिलाए जाते रहे हैं। मनुस्मृति के प्रथम पाश्चात्य समीक्षक सर विलियम जोंस से लेकर महर्षि दयानन्द सरस्वती, महात्मा गान्धी, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, रवीन्द्रनाथ टैगोर तक मानते हैं कि मनुस्मृति में बाद के दिनों में मिलावट की गई है। विभिन्न मानदण्डों की कसौटी पर कसने के बाद शोधकर्ता इसमें से 1214 श्लोक मनु के कहे हुए मौलिक मानते हैं। एक मान्यता यह भी है कि मनुस्मृति के मूल श्लोकों की सङ्ख्या बस 680 है।
बहरहाल, मनुस्मृति में सृष्टि उत्पत्ति से लेकर समाज, धर्म, वर्ण-व्यवस्था, आश्रम-व्यवस्था, राजा के कर्तव्य, दण्ड-विधान, स्त्री-पुरुष कर्तव्य, कर्मफल विधान, पूर्वजन्म आदि से सम्बन्धित अन्यान्य विषयों का सविस्तार रोचक वर्णन किया गया है। आइए, मनुस्मृति के पन्ने पलटते हैं और देखते हैं कि मानव समाज के आदि पुरुष माने जाने वाले मनु संसार को किस दृष्टि से देखते हैं।
मनुस्मृति के पहले अध्याय में सृष्टि और धर्म की उत्पत्ति की बात की गई है। शुरुआत कुछ इस तरह से होती है कि उस समय के महर्षि गण मनु के पास समाज सञ्चालन के लिए ज़रूरी कुछ जिज्ञासाएँ लेकर पहुँचते हैं और उनसे वर्णाश्रम धर्मों के विषय में प्रश्न करते हैं। मनु के दिए उत्तर के साथ मनुस्मृति की विषयवस्तु का विस्तार होता है। मनु संसार के बनने से पूर्व की स्थिति और फिर संसार के बनने की प्रक्रिया का वर्णन करते हैं। वे कहते हैं—
आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातलक्षणम्।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः।।
अर्थात् यह सब संसार सृष्टि से पहले प्रलय में अन्धकार से आच्छादित था। उस समय इन्द्रियों या किसी और माध्यम से कुछ भी जानने योग्य नहीं था। सब कुछ प्रसुप्त या सोया हुआ पड़ा था।
एक दार्शनिक और वैज्ञानिक की तरह मनु पञ्चमहाभूतों यानी आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी की उत्पत्ति का वर्णन करते हैं। सूक्ष्म से स्थूल क्रम में सृष्टि के विस्तार का वर्णन करते हैं और बताते हैं कि कैसे सूक्ष्म शरीर से आत्मा या जीव का संयोग स्थापित होता है और एक हलचल भरी दुनिया दिखाई देने लगती है। वे धर्म-अधर्म, सुख-दुःख आदि का वर्गीकरण करते हुए प्राणियों की उत्पत्ति की अपनी मान्यता स्पष्ट करते हैं। कीड़े-मकोड़ों से लेकर वनस्पतियों और मनुष्य तक की उत्पत्ति का सूक्ष्मता के साथ बयान करते हैं। समय का छोटे-से-छोटा विभाग भी मनु की दृष्टि से ओझल नहीं है। मनुस्मृति के पहले अध्याय में ही चारों वर्णों यानी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के कर्मों का निर्धारण किया गया है। यहाँ ध्यान देने की बात है कि मनु के अनुसार चारों वर्णों का निर्धारण गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार है, न कि जन्म के आधार पर। वर्तमान के हिसाब से देखें तो ब्राह्मण, समाज का ज्ञानी वर्ग है, क्षत्रिय सैनिक वर्ग, वैश्य व्यापारी वर्ग तो शूद्र सेवक वर्ग। मनु शूद्रों को अछूत नहीं मानते, बल्कि ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के कुल में पैदा हुआ व्यक्ति भी यदि शिक्षा प्राप्त करके ज्ञान की तरफ़ नहीं बढ़ पाता तो वह शूद्र होता है। शूद्र भले विद्या न प्राप्त कर सके, पर वह चरित्रवान् और धर्मात्मा हो सकता है।
इसी अध्याय में सदाचार को परम धर्म और धर्म का मूल कहा गया है। धर्म के चार आधार रूप लक्षणों को स्पष्ट करते हुए मनु कहते हैं—
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षात्धर्मस्य लक्षणम्।।
अर्थात् ज्ञान संहिता वेद, स्मृति, सज्जनों का आचरण आत्मा के ज्ञान के अनुकूल अच्छा आचरण ये चार धर्म के लक्षण हैं। इन्हीं से धर्म लक्षित होता है।
मुनस्मृति के अध्याय-दो में संस्कारों और ब्रह्मचर्य आश्रम के विषय में उपदेश किया गया है। मनु ने जिन संस्कारों का वर्णन किया है, वे सङ्ख्या में कुल सोलह हैं। गर्भाधान संस्कार, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, मुण्डन या चूडाकर्म, उपनयन, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह एवं गृहस्थाश्रम, वानप्रस्थ, सन्न्यास और अन्त्येष्टि। मनु इन सभी संस्कारों का विस्तृत विधान करते हुए ब्रह्मचर्य आश्रम के कर्तव्यों का इस अध्याय में विशेष वर्णन करते हैं। भोजन करने के तौर-तरीक़े से लेकर अध्ययन की विधि और स्वाध्याय के लाभों की भी वे स्पष्ट व्याख्या करते हैं। अभिवादन जैसी साधारण दिखने वाली क्रिया तक का स्पष्ट विधान करते हैं। मनु के अनुसार विद्या, पद और आयु में अपने से बड़े का आदरपूर्वक अभिवादन करने से आयु, विद्या, यश और बल की वृद्धि होती है। यहाँ अध्ययन हेतु उपस्थित विद्यार्थी की विशेषताएँ तो बताई ही गई हैं, पढ़ाने वाले गुरु के लक्षणों और विशेषताओं की भी चर्चा की गई है। आचार्य, उपाध्याय के साथ गुरु के रूप में पिता और माता की तुलनात्मक महत्ता बताई गई है। दूसरे अध्याय के 125वें श्लोक में मनु कहते हैं कि अगर बालक विद्वान् है, तो उसका स्थान वयोवृद्ध से ऊँचा माना जाना चाहिए। 137वें से लेकर 139वें श्लोक तक मनु ने कहा है कि ब्राह्मण कर्म अर्थात् ज्ञानकर्म में लगे व्यक्ति को मान-अपमान के प्रति निरपेक्ष रहना चाहिए और घोर से घोर अपमान को भी सहने की शक्ति धारण करनी चाहिए।
इस अध्याय में कुछ विवादास्पद श्लोक भी हैं। जैसे कि 110वें श्लोक में कहा गया है कि दस वर्ष के ब्राह्मण को और सौ वर्ष के क्षत्रिय को क्रमशः पिता-पुत्र समझना चाहिए। यानी ब्राह्मण ही पिता है। शोधकर्ताओं ने ऐसे श्लोकों को विषय-विरोध, अन्तर्विरोध और शैलीगत आधार पर बाद का मिलाया हुआ प्रक्षिप्त माना है। ध्यान देने लायक़ है कि इसी के बाद 112वें श्लोक में मनु ने स्पष्ट रूप से वयोवृद्ध शूद्र को सबके द्वारा सम्मान योग्य माना है। 198वें श्लोक में ब्रह्मचारी बालक के लिए कहा गया है कि उसे स्त्री और शूद्र के श्रेष्ठ कार्यों से शिक्षा लेकर उस पर आचरण करना चाहिए।
तीसरा अध्याय समावर्तन, विवाह और पञ्चयज्ञ के विधान का है। समावर्तन का अर्थ है, शिक्षा प्राप्त करने के बाद स्नातक बनकर गुरुकुल से विदा लेकर घर में वापस आना। समावर्तन के बाद विवाह करके गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करने का विधान है। मनु ने आठ प्रकार के विवाहों का वर्णन किया है। ये आठ विवाह हैं—ब्राह्म अर्थात् स्वयंवर विवाह, दैव विवाह, आर्ष विवाह, प्राजापत्य विवाह, आसुर विवाह, गान्धर्व विवाह, राक्षस विवाह और पैशाच विवाह। ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापात्य विवाह का मनु ने समर्थन किया है, परन्तु आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच विवाहों को उन्होंने हानिकारक बताया है। मनु स्त्रियों के साथ किसी भी तरह की ज़ोर-जबरदस्ती को परिवार और समाज के लिए विनाशक बताते हैं। वे नारियों को विशेष सम्मान देने की बात करते हैं और इस अध्याय के 56वें श्लोक में कहते हैं—
यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः।
यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।
अर्थात् जिस कुल में नारियों का सम्मान होता है, उस कुल में दिव्यता का, देवत्व का निवास होता है, परन्तु जिस कुल में स्त्रियों का आदर-सत्कार नहीं होता, वहाँ समझिए कि सारी क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं।
इस अध्याय में मनु रोज़ किए जाने योग्य पाँच तरह के यज्ञों अर्थात् पञ्चमहायज्ञ का विशेष विधान करते हैं। पहला महायज्ञ है ब्रह्मयज्ञ, जिसमें स्वाध्याय और सन्ध्या-वन्दन जैसी चीज़ें शामिल हैं। दूसरा है, देवयज्ञ, जिसके तहत पर्यावरण शुद्धि के उद्देश्य से किया जाने वाला अग्निहोत्र मुख्य है। तीसरा महायज्ञ है, मनुष्येतर प्राणियों के लिए आहार उपलब्ध करने के लिए भूतयज्ञ अथवा बलिवैश्वदेव यज्ञ। चौथा है, अतिथि यज्ञ, जिसका मुख्य उद्देश्य विद्वानों का सत्कार करना है। पाँचवाँ है पितृयज्ञ, जिसके तहत माता-पिता और बड़े-बुज़ुर्गों को सम्मान देने की बात मनु करते हैं। यहाँ यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि वर्तमान में जहाँ माता-पिता के मरने के बाद पितृयज्ञ के तहत तर्पण और श्राद्ध जैसी क्रियाएँ सम्पन्न की जाती हुई हम देखते हैं, वहीं पर मनु जीवित माता-पिता के तर्पण की बात करते हैं। तर्पण, अर्थात् आदर-सत्कार आदि के द्वारा तृप्त करना।
इसी अध्याय में कुछ श्लोक ऐसे भी हैं, जिनमें मृतक श्राद्ध का वर्णन है, परन्तु शोधकर्ताओं ने इन श्लोकों को विभिन्न मानदण्डों पर परखने के बाद प्रक्षिप्त घोषित किया है, क्योंकि मनु की शैली और विषय-सन्दर्भ में जो श्लोक मौलिक विशेषता वाले हैं, उनमें स्पष्ट रूप से जीवित व्यक्तियों के श्रद्धापूर्वक आदर-सत्कार और तृप्त करने, यानी श्राद्ध और तर्पण का विधान किया गया है।
मनुस्मृति के चौथे और पाँचवें अध्याय में गृहस्थ आश्रम के कर्तव्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है। आजीविका कमाने की व्यवस्था करते हुए मनु पहले और दूसरे श्लोक में ही कहते हैं कि धन-सङ्ग्रह जीवन यात्रा चलाने मात्र के लिए हो। यह लोक-सङ्ग्रह के उद्देश्य से नहीं होना चाहिए और न ही किसी को कष्ट पहुँचा कर धन जुटाना चाहिए। मनु सन्तोष को सुख का मूल बताते हैं—
सन्तोषं परमास्थाय सुखार्थी संयतो भवेत्।
सन्तोषमूलं हि सुखं दुःखमूलं विपर्ययः।।
अर्थात् सुख चाहने वाले व्यक्ति को सन्तोष धारण करना चाहिए और उसे अधिक धन की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। सन्तोष सुख का आधार है, इससे उल्टा अर्थात् असन्तोष दुःख का आधार है।
पाँचवें अध्याय में खाद्य-अखाद्य का विशेष वर्णन किया गया है। मांस भक्षण प्रसङ्ग में आठ प्रकार के पापियों की गणना की गई है। मांसाहार को मनु हिंसामूलक होने से त्याज्य और पाप मानते हैं। दिलचस्प है कि पाँचवें अध्याय के 26वें से 44वें श्लोक तक मांस भक्षण की वकालत भी गई है। ये सभी श्लोक मनु की मान्यता और वर्णन-शैली से मेल नहीं खाते, इसलिए शोधकर्ता इन्हें भी बाद में मिलाए हुए श्लोक मानते हैं। इसी अध्याय में पत्नीधर्म के कर्तव्यों का भी मिलता है।
छठा अध्याय वानप्रस्थ और सन्न्यास धर्म के बारे में है। वानप्रस्थ का उद्देश्य है कि जब सन्तानें स्वावलम्बी हो जाएँ, तो धन-सम्पत्ति, घर-गृहस्थी का मोह छोड़कर वन का आश्रय लेना चाहिए और अपने अनुभवों का लाभ समाज को देना चाहिए। वानप्रस्थी के लिए पञ्चमहायज्ञों का विधान करते हुए मनु कहते हैं कि उसे गाँव में उत्पन्न खाद्य सामग्री तक का सेवन नहीं करना चाहिए, ताकि गृहस्थ आश्रम की सुख-सुविधा की इच्छा पैदा होने की आशङ्का न रहे। वानप्रस्थ के बाद सन्न्यास आश्रम का विधान करते हुए मनु चरित्र के उदात्त रूप की चर्चा करते हैं। मनु कहते हैं कि वैराग्य या कहें कि मोह-माया से पूरी तरह निर्लिप्तता का भाव मन में प्रबल रूप से जाग जाए तो गृहस्थ या ब्रह्मचर्य से सीधा सन्न्यास ग्रहण किया जा सकता है। मनु कहते हैं कि सन्न्यासी निर्लिप्त भाव से भिक्षा ग्रहण करके अपना भोजन प्राप्त करे। सन्न्यासी को जीवन-मरण के प्रति समदृष्टि रखनी चाहिए। कहीं से भिक्षा न मिले तो भी उसे दुखी नहीं होना चाहिए। प्राणायाम और ध्यान का विशेष विधान करते हुए मनु कहते हैं कि यथार्थ ज्ञान ध्यान से ही सम्भव है। छठे अध्याय का अन्त करते हुए मनु गृहस्थ को समुद्रवत् महान् बताते हैं और गृहस्थ आश्रम की श्रेष्ठता साबित करते हैं, क्योंकि यही सबसे दायित्वपूर्ण आश्रम है और बाक़ी तीनों आश्रमों का भरण-पोषण इसी आश्रम के ज़रिये सम्भव होता है। इसी के साथ 92 वें श्लोक में मनु धर्म के वे दस विशेष लक्षण गिनाते हैं, जो आज भी मानव जीवन के मूल आधार माने जाते हैं—
धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणं।।
अर्थात् धैर्य रखना, क्षमाशीलता, मन को कर्तव्यबोध में प्रवृत्त रखना, किसी भी प्रकार की चौर्यवृत्ति से दूर रहना, भीतर-बाहर की पवित्रता बनाए रखना, इन्द्रियों का निग्रह रखना, सत्यविद्या-सत्सङ्ग में रत रहना, यथार्थ ज्ञान की दिशा में बढ़ते रहना, सत्य को जानना और मानना तथा क्रोधादि दोषों से दूर रहना—ये धर्म के दस लक्षण हैं।
मनुस्मृति का सातवाँ अध्याय राजधर्म का है। एक राजा को कैसा होना चाहिए, उसके मन्त्री, पुरोहित और कर्मचारी, यहाँ तक कि गुप्तचर कैसे होने चाहिए, इन सब बातों का काफ़ी विस्तार से वर्णन किया गया है। राजकाज चलाने से लेकर शत्रुओं से पार पाने तक की बातों का बयान सूक्ष्म ढङ्ग से किया गया है। राजा के सोने-जागने तक के नियम-क़ायदों का निर्देश यहाँ मौजूद है। दण्ड-व्यवस्था और कर-विधान का निर्देश करते हुए मनु कहते हैं कि दोषी को दण्ड देने में किसी भी तरह का पक्षपात नहीं करना चाहिए और प्रजा से कर या टैक्स इस तरह से थोड़ा-थोड़ा लेना चाहिए कि प्रजा को कोई तकलीफ़ न हो, कुछ उसी तरह से जैसे कि भँवरा, जोंक और बछड़ा अल्प मात्रा में भोज्य ग्रहण करते हैं।
आठवें और नौवें अध्याय में मनु ने राजधर्म के अन्तर्गत लोकव्यवहार का निर्णय करते हुए भाँति-भाँति के वाद-विवाद के निपटारे का विधान किया है। मनु की दण्ड-व्यवस्था दिलचस्प है। आरोप ज़रूर लगाया जाता है कि मनु ने शूद्रों के साथ अन्याय किया है, जबकि वास्तव में मनुस्मृति के कई श्लोकों में शूद्रों को सबसे कम दण्ड का भागी घोषित किया गया है। मनुस्मृति के अनुसार जो वर्ग समाज की व्यवस्था बनाए रखने के लिए सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदार है, किसी अपराध की स्थिति में दण्ड का भागी भी वही सबसे ज़्यादा माना जाएगा। मनुस्मृति के अनुसार चूँकि विद्याध्ययन न होने के नाते चीज़ों के प्रति शूद्रों में समझदारी कम होती है, इसलिए एक ही प्रकृति के अपराध के लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की तुलना में शूद्र को कम दण्ड दिया जाना चाहिए। आठवें अध्याय के 337 वें और 338वें श्लोक में मनु कहते हैं—किसी चोरी के अपराध में यदि शूद्र को आठ गुना दण्ड दिया जाता है तो वैश्य को सोलह गुना, क्षत्रिय को बत्तीस गुना और ब्राह्मण को चौंसठ गुना, बल्कि उसे सौ गुना अथवा एक सौ अट्टाइस गुना दण्ड देना चाहिए, क्योंकि उसके किए अपराध का प्रभाव समाज पर ज़्यादा बुरा होगा। राजा के लिए मनु का दण्ड-विधान और भी ज़्यादा कड़ा है, क्योंकि राजा पर पूरे समाज की ज़िम्मेदारी होती है। वास्तव में मनु की यह दण्ड व्यवस्था कहीं ज़्यादा मनोवैज्ञानिक और न्यायपूर्ण है। स्त्रियों के प्रति किए गए अपराधों के दण्ड-विधान में मनु काफ़ी कठोर दिखाई देते हैं। आठवें अध्याय के 323वें और 352 वें तथा नौवें अध्याय के 232वें श्लोक में उन्होंने स्त्रियों की हत्या और उनका अपहरण या शीलभङ्ग करने वालों के लिए मृत्युदण्ड और कठोर दण्ड देने के बाद देशनिकाला देने तक का विधान किया है। नौवें अध्याय के 90वें और 91वें श्लोक में वे कन्या को अपना वर स्वयं चुनने का निर्देश देते हैं। नौवें अध्याय के 176वें श्लोक में विधवा के पुनर्विवाह का विधान है, तो तीसरे अध्याय के 51वें और 54वें श्लोक में विवाह में किसी प्रकार के लेन-देन को अनुचित बताया है। इन दोनों अध्यायों में अपराधों, विवादों की एक लम्बी सूची है, जिसके लिए अलग-अलग तरह का दण्ड-विधान किया गया है।
दसवें अध्याय में चारों वर्णों के विशिष्ट कर्मों की बात की गई है। इस अध्याय के 335वें श्लोक में मनु ने शूद्रों के लिए कर्म की श्रेष्ठता के आधार पर उत्कृष्ट वर्ण यानी ब्रह्मण, क्षत्रिय और वैश्य बनने का विधान किया है। एक तरफ़ जब मनुस्मृति पर यह आरोप लगाया जाता है कि इस धर्मग्रन्थ ने जन्म आधारित जाति-व्यवस्था बनाई, तो दूसरी तरफ़ दसवें अध्याय का 65वाँ श्लोक जन्म आधारित व्यवस्था को पूरी तरह ख़ारिज करता दिखाई देता है—
शूद्रो ब्राह्मणताम् एति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।
क्षत्रियात् जातमेवं तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च।।
अर्थात्—गुण, कर्म, योग्यता के आधार पर ब्राह्मण, शूद्र बन जाता है और शूद्र ब्राह्मण। इसी प्रकार क्षत्रियों और वैश्यों में भी वर्ण परिवर्तन हो जाता है। यह भी ध्यान देने वाली बात है कि मनुस्मृति में आजकल की प्रचलित जातियों के बारे में कहीं कोई उल्लेख नहीं है।
मनुस्मृति का ग्यारहवाँ अध्याय प्रायश्चित्त विषय को समर्पित है। दान और यज्ञ सम्बन्धी विधान किया गया है। प्रायश्चित्त का अर्थ और उसका उद्देश्य बताते हुए मनु कहते हैं कि किसी भी पापकर्म के लिए प्रायश्चित्त अवश्य किया जाना चाहिए, ताकि संस्कारों की शुद्धि होती रहे। इसी के साथ व्रत ग्रहण करने और तप करने का महत्त्व भी बताया गया है। मनु कहते हैं कि तपपूर्वक पुनः पाप न करने के निश्चय और कर्मफल का चिन्तन करने से पाप भावना से मुक्ति मिलती है।
बारहवाँ अध्याय मनुष्य जीवन का उपसंहार है। इसमें कर्मफल-विधान और निःश्रेयस कर्मों का वर्णन किया गया है। आत्मा के तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण की पहचान का विशेष वर्णन है। मनु मन को कर्मों का प्रवर्तक कहते हैं और उसके ज़रिये होने वाले अधर्मों की चर्चा करते हुए वाचिक और शारीरिक बुरे कर्मों से सचेत करते हैं। सत, रज और तम से सम्बन्धित गतियों के फलस्वरूप जन्म अवस्थाओं के फल का वर्णन करते हुए आत्मज्ञान की परम साधना और ज्ञान की चर्चा करते हैं। धर्म की बात करते हुए मनु घोषित करते हैं कि परमेश्वर ही सबका निर्माता, फलदाता है, इसलिए वही सबका उपास्य है। मनु परमात्मा को जानने का आह्वान करते हैं और परमात्मा के अनेक नामों की सार्थकता बयान करते हुए अन्त में समाधि के ज़रिये ईश्वर और मोक्ष की प्राप्ति के साथ अपनी ‘स्मृति’ को विराम देते हैं। इतना जानने के बाद क्या इस महाग्रन्थ के पन्ने पलटने की जिज्ञासा पैदा होती है? अगर होती है तो यह भी समझना चाहिए कि मनुस्मृति को समझने के लिए पूरा मन लगाने की ज़रूरत है, क्योंकि केवल कुछ श्लोकों के आधार पर मनु के बारे में एकदम सही निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता।