अपनी हिन्दीगान्धी-विमर्श

महात्मा गान्धी और राष्ट्रभाषा

राष्ट्रभाषा एक और लिपियाँ दो, गान्धीजी के भाषा विषयक विचार में यह अजब उलटबाँसी दिखती है, पर सच्चाई यह है कि वे बहुत दूर की सोच रहे थे। उनकी दृष्टि में प्रश्न महज़ भाषा तक सीमित नहीं था, बल्कि भाषा के ज़रिये साम्प्रदायिक सौहार्द्र का वातावरण भी वे देश में बनाना चाहते थे। वास्तव में वे चाहते तो यह थे कि सारी ही भारतीय भाषाओं के लिए एक सर्वमान्य लिपि प्रचलित हो जाय, पर सौहार्द्र क़ायम रखने के लिए उन्हें देवनागरी के साथ उर्दू की लिपि भी आवश्यक लगी।

‘‘जापान आज अमेरिका और इङ्ग्लैण्ड से लोहा ले रहा है। लोग इसके लिए उसकी तारीफ़ करते हैं। मैं नहीं करता। फिर भी जापान की कुछ बातें सचमुच हमारे लिए अनुकरणीय हैं। जापान के लड़के और लड़कियों ने युरोपवालों से जो कुछ पाया है, सो अपनी मातृभाषा जापानी के ज़रिये ही पाया है, अँग्रेज़ी के ज़रिये नहीं। जापानी लिपि बहुत कठिन है, फिर भी जापानियों ने रोमन लिपि को कभी नहीं अपनाया।’’

आज भी हम समझ सकते हैं कि महात्मा गान्धी सन् 1942 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में जब यह बोल रहे थे तो वास्तव में वे क्या कहना चाहते थे। मातृभाषा की अहमियत और एक राष्ट्रीय भाषा व सर्वमान्य लिपि की ज़रूरत को गान्धी ने जिस गहराई और स्पष्टता के साथ उस दौर में महसूस किया था, वह आज के लिए भी कम आश्चर्यजनक नहीं है। गान्धी ने तमाम भारतीय भाषाओं के बीच से एक राष्ट्र के लिए एक राष्ट्रीय भाषा का चेहरा उभारने की कोशिश करते हुए हिन्दी या हिन्दुस्तानी की सम्पर्क-सामर्थ्य की शिनाख़्त की थी और इसी में वे आज़ाद भारत की विकास-गाथा रचना चाहते थे।

सामाजिक जीवन में सक्रिय होने के साथ ही महात्मा गान्धी को इस बात का अन्दाज़ा हो गया था कि किसी भी सम्प्रभु राष्ट्र के लिए सम्पर्क की एक राष्ट्रीय भाषा भी चाहिए ही। उन्होंने साफ़ शब्दों में कहा–‘‘बिना राष्ट्रभाषा के कोई भी राष्ट्र गूँगा हो जाता है।’’ इससे भी एक क़दम आगे जाकर उन्होंने यहाँ तक कह दिया कि राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्रसेवा सम्भव नहीं। 11 नवम्बर, 1917 को बिहार के मुजफ्फरपुर शहर में आयोजित एक सभा में उन्होंने कहा–‘‘मैं कहता आया हूँ कि राष्ट्रीय भाषा एक होनी चाहिए और वह हिन्दी होनी चाहिए। हमारा कर्तव्य यह है कि हम अपना राष्ट्रीय कार्य हिन्दी भाषा में करें। हमारे बीच हमें अपने कानों में हिन्दी के ही शब्द सुनाई दें, अँग्रेज़ी के नहीं। इतना ही नहीं, हमारी धारा सभाओं में जो वाद-विवाद होता है, वह भी हिन्दी में होना चाहिए। ऐसी स्थिति लाने के लिए मैं जीवन-भर प्रयत्न करूँगा।’’ वास्तव में दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए ही उन्हें यह आभास हो गया था कि भारत जैसे देश की राष्ट्रभाषा बनने की क़ाबिलियत अगर किसी भाषा में है तो वह हिन्दी है। यह देख उन्हें दिलचस्प लगा था कि वहाँ रहने वाले भारतीय, चाहे वे किसी भी हिस्से के हों, हिन्दीभाषी हों या गैरहिन्दीभाषी, आपसी व्यवहार में हिन्दी का ही इस्तेमाल करते हैं।

महात्मा गान्धी हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के प्रति कितने गम्भीर थे, इसका अन्दाज़ा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि वे स्वराज्य के आन्दोलन में शामिल होने से पहले ही राष्ट्रभाषा के मसले को हल कर लेना चाहते थे। 21 जून, 1918 को इस बाबत उन्होंने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर को एक चिट्ठी लिखी थी। इस चिट्ठी के अनुसार वे मार्च माह में इन्दौर में होने वाले हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में अपने भाषण के लिए कुछ प्रश्नों पर विचारवान नेताओं के मत एकत्र करना चाहते थे। वे प्रश्न थे–(1) क्या हिन्दी अन्तःप्रान्तीय व्यवहार तथा अन्य राष्ट्रीय कार्रवाई के लिए उपयुक्त एकमात्र सम्भव राष्ट्रीय भाषा नहीं है? (2) क्या हिन्दी काँग्रेस के आगामी अधिवेशन में मुख्यतः उपयोग में लाई जाने वाली भाषा नहीं होनी चाहिए? (3) क्या हमारे विद्यालयों और महाविद्यालयों में ऊँची शिक्षा देशी भाषाओं के माध्यम से देना वाञ्छनीय और सम्भव नहीं है? और क्या हमें प्रारम्भिक शिक्षा के बाद अपने विद्यालयों में हिन्दी को अनिवार्य द्वितीय भाषा नहीं बना देना चाहिए? गान्धीजी ने इस चिट्ठी में लिखा था–‘‘मैं महसूस करता हूँ कि यदि हमें जनसाधारण तक पहुँचना है और यदि राष्ट्रीय सेवकों को सारे भारतवर्ष के जन-साधारण से सम्पर्क करना है, तो उपर्युक्त प्रश्न तुरन्त हल किए जाने चाहिए।’’ दरअसल, गान्धी पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने काँग्रेस के अँग्रेज़ी में चले आ रहे कामकाज को राष्ट्रभाषा में किए जाने की पहल की।

हिन्दी के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए गान्धीजी ने हिन्दी को हिन्दुस्तानी कहा। असल में वे ऐसी हिन्दी चाहते थे जो आमजन के रोज़मर्रा के व्यवहार में प्रयोग की जाती हो। ऐसी हिन्दी, जिसमें न संस्कृत शब्दों का एकतरफ़ा आधिक्य हो और न ही अरबी-फ़ारसी का। उनकी हिन्दी या हिन्दुस्तानी में संस्कृत के शब्द थे तो उर्दू के भी। अँग्रेज़ी या दूसरी अन्य भाषाओं के जो शब्द आम व्यवहार में रच-बस गए हों, उनके भी इस्तेमाल से उन्हें परहेज़ नहीं था। अलबत्ता, वे किसी भी तरह के ज़बरदस्ती ठूँस दिए गए शब्दों के विरोधी थे। कई लोग गान्धीजी की हिन्दुस्तानी को हिन्दी से कुछ इतर समझ लेते हैं, लेकिन वास्तव में यह वही हिन्दी है, जो आज भी आम बोलचाल में प्रयोग की जा रही है। ध्यान देने पर पता चलेगा कि संस्कृतनिष्ठ हिन्दी के समर्थक भी व्यवहार के स्तर पर गान्धीजी की हिन्दुस्तानी में ही अपना काम चलाते हैं। हिन्दी या हिन्दुस्तानी की व्याख्या करते हुए गान्धीजी ने 9 मई और 18 मई, 1936 के हरिजन में लिखा–‘‘जिस प्रकार कार्नवाल, लङ्काशायर और मिडिलसैक्स एक ही भाषा के विभिन्न नाम हैं, उसी प्रकार हिन्दी, हिन्दुस्तानी और उर्दू एक ही भाषा के अलग-अलग नाम हैं। आज एक नई भाषा बनाने का नहीं, बल्कि जिस भाषा को तीनों नामों से जाना जाता है, उसे अन्तःप्रान्तीय भाषा बनाने का हमारा उद्देश्य है।…इसलिए मैंने हिन्दी या हिन्दुस्तानी की यह व्याख्या की है। चाहे वह ‘देवनागरी या उर्दू’ में लिखी जाए।’’

27 अगस्त, 1925 के ‘यङ्ग इण्डिया’ में उन्होंने कुछ यों लिखा–‘‘अगर हमें एक राष्ट्र होने का अपना दावा सिद्ध करना हो, तो हमारी अनेक बातें एक सी होनी चाहिए। भिन्न-भिन्न धर्म और सम्प्रदायों को एक सूत्र में बाँधने वाली हमारी एक सामान्य संस्कृति है। हमारी त्रुटियाँ और बाधाएँ भी एक सी हैं। मैं यह बताने की कोशिश कर रहा हूँ कि हमारी पोशाक के लिए एक ही तरह का कपड़ा न केवल वाञ्छनीय है, बल्कि आवश्यक भी है। हमें एक सामान्य भाषा की भी ज़रूरत है–देशी भाषाओं की जगह पर नहीं, परन्तु उनके सिवा। इस बात में साधारण सहमति है कि यह माध्यम हिन्दुस्तानी ही होना चाहिए, जो हिन्दी और उर्दू के मेल से बने और जिसमें न तो संस्कृत की, न फ़ारसी या अरबी की ही भरमार हो।’’…तो कुछ ऐसी ही हिन्दी को गान्धीजी राष्ट्रभाषा के रूप में देखना चाहते थे।

देखा जाय तो हिन्दी को उसका हक़ दिलाने के लिए गान्धीजी का योगदान अविस्मरणीय है। भारत आने से पहले ही सन् 1906 में अपनी एक प्रार्थना तक में उन्होंने कहा था–‘‘भारत की जनता को एक रूप होने की शक्ति और उत्कण्ठा दे। हमें त्याग, भक्ति और नम्रता की मूर्ति बना, जिससे हम भारत देश को ज़्यादा समझें, ज़्यादा चाहें। …हिन्दी एक ही है। उसका कोई हिस्सा नहीं है। हिन्दी के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी मुझे इस दुनिया में प्यारा नहीं है।’’ इसके बाद जब गान्धीजी ने ‘हिन्द स्वराज’ लिखा तो उसमें भाषा के विषय में अपना मन्तव्य कुछ यों व्यक्त किया–‘‘सारे हिन्दुस्तान के लिए जो भाषा चाहिए, वह तो हिन्दी ही होनी चाहिए। उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट होनी चाहिए। हिन्दू-मुसलमानों के सम्बन्ध ठीक रहें, इसलिए हिन्दुस्तानियों को इन दोनों लिपियों को जान लेना ज़रूरी है। ऐसा होने से हम आपस के व्यवहार में अँग्रेज़ी को निकाल सकेंगे।’’

राष्ट्रभाषा एक और लिपियाँ दो, गान्धीजी के भाषा विषयक विचार में यह अजब उलटबाँसी दिखती है, पर सच्चाई यह है कि वे बहुत दूर की सोच रहे थे। उनकी दृष्टि में प्रश्न महज़ भाषा तक सीमित नहीं था, बल्कि भाषा के ज़रिये साम्प्रदायिक सौहार्द्र का वातावरण भी वे देश में बनाना चाहते थे। वास्तव में वे चाहते तो यह थे कि सारी ही भारतीय भाषाओं के लिए एक सर्वमान्य लिपि प्रचलित हो जाय, पर सौहार्द्र क़ायम रखने के लिए उन्हें देवनागरी के साथ उर्दू की लिपि भी आवश्यक लगी। इस बात को स्पष्ट करते हुए 1947 में उन्होंने कहा–‘‘जब तक उर्दू लिपि का सम्बन्ध मुसलमानों से माना जाता है तब तक हमारा फ़र्ज़ है कि हम हिन्दुस्तानी के नाम पर और दोनों लिपियों पर क़ायम रहें। यह बात सबको साफ़ समझ में आने जैसी है।’’ अन्ततः गान्धीजी की मंशा थी कि धीरे-धीरे पूरा देश एक भाषा और एक लिपि के व्यवहार पर आ जाय। 1948 में उन्होंने कहा–‘‘दो लिपि को रखते हुए जो आख़िर में आसान होगी वही चलेगी। यहाँ बात इतनी ही है कि उर्दू का बहिष्कार न हो। इस बहिष्कार में द्वेष है। इस झगड़े की जड़ में द्वेष था, आज वह बढ़ गया है। ऐसे मौक़े पर हम, जो एक हिन्दुस्तान चाहते हैं, और वह हथियारों की लड़ाई से नहीं, उनका फ़र्ज़ होता है कि दोनों लिपि को जगह दें।…एक ही लिपि को सब ख़ुशी से अपनावें तो अच्छा ही है। ऐसा होने के लिए भी दो लिपियों का चलना आज ज़रूरी है।’’ यह जानना महत्त्वपूर्ण है कि उर्दू लिपि को साथ रखने की बात करते हुए भी गान्धीजी स्पष्ट रूप से मानते थे कि देवनागरी सर्वश्रेष्ठ लिपि है। अपनी मृत्यु से पाँच दिन पहले ही भाषा के विषय में अपना मन्तव्य जाहिर करते हुए उन्होंने कहा था कि नागरी और उर्दू लिपि के बीच अन्त में विजय नागरी लिपि की ही होगी।

गान्धीजी की बात पर हमारे रहनुमाओं और हिन्दी के विद्वानों ने ध्यान से सोचा होता तो देश की सभी भाषाओं को उनकी सही जगह मिल गई होती और उनके बीच के आपसी झगड़े फन फैलाए सामने न खड़े होते। एक अदद उर्दू लिपि के प्रति सदाशयता दिखाने का मतलब होता, व्यापक स्तर पर साम्प्रदायिक सौहार्द्र का वातावरण। न उर्दूवालों को हिन्दी से नफ़रत होती और न हिन्दीवालों को उर्दू से। दोनों भाषाओं के शब्द भण्डार मिलकर हिन्दी को अब तक काफ़ी समृद्ध बना चुके होते। देवनागरी की सामर्थ्य से आज पूरा देश परिचित हो चुका होता और समूचा उर्दू अदब इस लिपि में भी अपनी चमक बिखेर रहा होता। यहाँ फिर से याद दिलाने की ज़रूरत है कि गान्धी यदि हिन्दी को हिन्दुस्तानी के रूप में देख रहे थे तो उसकी सबसे बड़ी वजह यही थी कि हिन्दी और उर्दू का व्याकरण एक है। अन्तर महज़ अरबी-फ़ारसी और संस्कृत के शब्दों के इस्तेमाल का है। जिन लोगों के मन में यह भ्रम जड़ जमाए हुए है कि गान्धी हिन्दी पर अरबी-फ़ारसी की शब्दावली लादने की कोशिश कर रहे थे, उन्हें सन् 1945 में वर्धा में हुए ‘हिन्दुस्तानी कान्फ्रेंस’ के उस भाषण को ज़रूर पढ़ना चाहिए, जिसमें गान्धीजी ने कहा था—‘‘कुछ उर्दू बोलनेवाले बड़ी-बड़ी बातें करते वक़्त जिन लफ़्ज़ों का इस्तेमाल करते हैं, उन्हें सुनकर मैं घबरा उठता हूँ, हालाँकि उनके साथ मैं काफ़ी बैठता हूँ।’’

गान्धीजी मूलतः गुजरातीभाषी थे और अंग्रेज़ी की जानकारी उनकी आला दर्जे की थी, परन्तु राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर वे बिलकुल नहीं चाहते थे कि देश में किसी भी स्तर पर अँग्रेज़ी में कामकाज चलाया जाय। अँग्रेज़ी या किसी भी अन्य भाषा को सीखने-सिखाने के वे विरोधी नहीं थे। उनका साफ़ मानना था कि ज्ञान किसी भी तरफ़ से आए, स्वागत करना चाहिए और इसके लिए अपने दिमाग़ के खिड़की-दरवाज़े खुले रखने चाहिए। मूल बात यह थी कि देश की एकता का सूत्र उन्हें हिन्दी या हिन्दुस्तानी में दिखाई दिया तो उन्होंने अपने स्तर पर हर तरह से इसे प्रचारित करने का प्रयत्न किया। कई बार उन्होंने राष्ट्रभाषा के मसले को आन्दोलन के अपने दूसरे मसलों से भी ऊपर रखा। उनकी कोशिशों का ही नतीजा था कि जब उन्होंने लोकमान्य तिलक से हिन्दी सीखने का निवेदन किया तो तिलक ने हिन्दी सीखना शुरू कर दिया। गान्धीजी के कहने पर रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी हिन्दी सीखने का अभ्यास शुरू किया। गान्धीजी की कोशिशों का असर था कि राधिकारमण सिंह, आचार्य शिवपूजन सहाय, फणीश्वरनाथ रेणु, रामवृक्ष बेनीपुरी, नागार्जुन जैसे अनेक रचनाकार अपनी क्षेत्रीय बोलियों के मोह से ऊपर उठे और हिन्दी के विकास में बढ़-चढ़कर योगदान देने लगे। जयशङ्कर प्रसाद, हजारीप्रसाद द्विवेदी, मुंशी प्रेमचन्द, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, आचार्य रामचन्द्र शुक्ल जैसे तमाम साहित्यकारों ने हिन्दी में काम करने को राष्ट्रीय धर्म जैसा माना।

आज़ादी के आन्दोलन में सक्रिय होने के साथ ही राष्ट्रभाषा के लिए गान्धीजी की कोशिशों का जो रूप दिखाई देता है, वह अपने आप में एक मिसाल है। उनके काम को सिलसिलेवार देखें तो राष्ट्रभाषा के प्रति उनका आग्रह कई दूसरी बातों से बहुत ज़्यादा है। 1909 में लिखे गए ‘हिन्द स्वराज’ में उन्होंने भाषा पर अपना मूल मन्तव्य ज़ाहिर किया तो 1917 में आयोजित द्वितीय गुजराती शिक्षा परिषद् के सभापति के पद से उन्होंने राष्ट्रीय भाषा के पञ्चसूत्री लक्षण गिनाए और उनकी तार्किक व्याख्या की। इन्दौर में आयोजित आठवें हिन्दी साहित्य सम्मेलन में 29 मार्च, 1918 को हिन्दी की एक तार्किक परिभाषा दी। उन्होंने कहा–‘‘हिन्दी भाषा वह भाषा है जिसको उत्तर में हिन्दू व मुसलमान बोलते हैं और जो नागरी अथवा फ़ारसी लिपि में लिखी जाती है। यह हिन्दी एकदम संस्कृतमयी नहीं है न वह एकदम फ़ारसी शब्दों से लदी हुई है।…भाषा वही श्रेष्ठ है जिसको जन-समूह सहज में समझ ले।’’ 1918 में ही दक्षिण भारतीय जनता से उन्होंने हिन्दी सीखने की मार्मिक अपील की। 21 जनवरी, 1920 के ‘यङ्ग इण्डिया’ में हिन्दुस्तानी को विचार-विनिमय का राष्ट्रीय माध्यम बनाने की बात की तो इसी समय 1920 में उन्होंने पहली बार स्पष्ट रूप से हिन्दुस्तानी को परिभाषित किया।

जैसे-जैसे आज़ादी का आन्दोलन परवान चढ़ा, वैसे-वैसे गान्धीजी का राष्ट्रभाषा के प्रति प्रेम भी घनीभूत होता गया। 1924 में उन्होंने स्वराज्य की प्राथमिकताओं में भाषा के प्रश्न को विशेष रूप से शामिल किया। 1935 में हुए हिन्दी साहित्य सम्मेलन के 24वें अधिवेशन में उनकी वेदना समझी जा सकती है, जब उन्होंने कहा–‘‘मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ कि आप हिन्दी को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का गौरव प्रदान करें।’’ 2 मई, 1942 को गान्धीजी के मार्गदर्शन में ‘हिन्दुस्तानी प्रचार सभा’ की स्थापना हुई, जिसका उद्देश्य था–‘‘हिन्दुस्तान की राष्ट्रभाषा अँग्रेज़ी नहीं, बल्कि हिन्दुस्तानी यानी हिन्दी उर्दू है।’’ सन् 1946 में उन्होंने स्पष्ट किया कि कैसे हिन्दुस्तानी का प्रचार हिन्दी को आगे बढ़ाने वाला है। सन् 1947 में आज़ादी मिलने के कुछ ही दिन बाद उन्होंने इस बात को और स्पष्ट किया।

भारत विभाजन महात्मा गान्धी के लिए किसी सदमे से कम नहीं था और एक तरह से उनकी नीतियों की विफलता दिखाई दे रही थी, फिर भी सौहार्द्र और राष्ट्रीय एकता के लिए अपनी राष्ट्रभाषा की अवधारणा पर वे क़ायम रहे। इस सन्दर्भ में 12 अक्टूबर, 1947, 9 नवम्बर, 1947 और 11 जनवरी, 1948 के ‘हरिजन सेवक’ के अङ्क पढ़े जाने लायक़ हैं। बहरहाल, गान्धीजी ने राष्ट्रभाषा का अपना अभियान आख़िरी दम तक अविराम चलाए रखा। मृत्यु से पाँच दिन पूर्व यानी 25 जनवरी, 1948 को राष्ट्रभाषा के सवाल पर उनका वह अन्तिम बयान था, जिसमें उन्होंने हिन्दी-हिन्दुस्तानी की बात करते हुए नागरी को आला दर्जे की लिपि घोषित किया था। (सन्त समीर)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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