मुफ़्त की रेवड़ी’ का स्वाद
यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि जो लोग सबसे ज़्यादा टैक्स जमा करते हैं, अलग-अलग चीज़ों पर वे ही सबसे ज़्यादा सब्सिडी का लाभ लेते हैं; यानी मुफ़्तखोरी के दायरे से वे भी अलग नहीं हैं, बल्कि आम आदमी से ज़्यादा बड़े मुफ़्तखोर वे ही साबित होंगे। मुफ़्त की जो सुविधा सीधे नहीं दिखाई देती, उसके बारे में हम कम जान पाते हैं, पर पानी, बिजली पर यह साफ़-साफ़ दिखाई देती है तो यह मुफ़्तखोरी लगती है।
चुनावी समर ने भारतीय राजनीति में ‘मुफ़्तखोर बनाम मेहनतकश’ की एक नई बहस को जन्म दे दिया है। ‘मुफ़्त की रेवड़ी’ राजनीति की नई व्याख्याएँ गढ़ रही है। बिजली, पानी, स्वास्थ्य के मसले पर तमाम लोगों ने दिल्ली की जनता को मुफ़्तखोर कहा और इस शब्द को क़रीब-क़रीब गाली-जैसा इस्तेमाल किया। वैसे मज़ेदार यह है कि मुफ़्त की सुविधाओं के विरोधियों में ज़्यादा सङ्ख्या उन लोगों की है, जो मुफ़्तखोरी का कोई मौक़ा मिले तो सबसे आगे बढ़कर लपकने की फ़िराक़ में रहते हैं। यहाँ मैं ऐसे लोगों पर कोई बात नहीं करूँगा, क्योंकि ऐसे लोग हर समाज में होते हैं और नैतिकता की बड़ी-बड़ी बातों के पीछे अपनी ख़ुद की अनैतिकताओं को ढँकने की जुगत भिड़ाते रहते हैं। बात उन लोगों की है, जो अपनी चिन्ता के प्रति वास्तव में पूरी तरह से गम्भीर, ईमानदार और ज़िम्मेदार हैं। उनकी नाराज़गी एक अर्थ में जायज़ दिखती है कि किसी सरकार को आख़िर क्यों उनके दिए टैक्स के पैसे से मुफ़्त की सुविधाएँ बाँटनी चाहिए? सवाल जायज़ है कि जो व्यक्ति अपनी ख़ून-पसीने की कमाई से सरकारी ख़ज़ाने में सही समय पर सही तरीक़े से साल-दर-साल टैक्स जमा कर रहा है, उसे मुफ़्त की ऐसी घोषणाओं से तकलीफ़ क्यों नहीं होगी?
अब ज़रा मुफ़्तखोरी को दूसरे पहलू से देखने की कोशिश करें, जिस पर आमतौर पर किसी की निगाह नहीं जाती। जब बड़ी-बड़ी कम्पनियों, बैङ्कों वग़ैरह को घाटे से उबारने के लिए करोड़ों-अरबों के रियायतों के पैकेज घोषित किए जाते हैं, तो सोचिए कि यह मुफ़्त में सुविधा बाँटना है या नहीं! सरकारी कम्पनियों को थोड़ी देर के लिए बख़्श भी दें तो निजी कम्पनियों के लिए रियायतें देना क्या जनता के टैक्स के पैसे से मुफ़्त में सुविधा देना नहीं है? मुहावरे में रेवड़ी चलती है, वरना इसे ‘मुफ़्त का रेवड़ा’ क्यों न कहा जाए? क्या जनता इस बात के लिए टैक्स जमा करती है कि चार-छह लोग साज़िश करके किसी कम्पनी को कङ्गाल कर दें और उसके पैसे से सरकार कम्पनी को रियायतें बाँटे? कहने के लिए कई बार बाद में वसूली के नाम पर रियायतें दी जाती हैं, पर अन्त में होता क्या है, यह हम सब जानते हैं। जनता के पैसे से ही सड़क बनती है, पर क्या उस पर चलने के लिए सभी से पैसे लिए जाते हैं? मान लिया जाय कि चारपहिया वाहनों से टोल टैक्स लिया जाता है, पर सड़क पर तो साइकिल, मोटर साइकिल सवार भी चलते हैं। पैदल और साइकिल-मोटर साइकिल सवार क्या मुफ़्त में सड़क का इस्तेमाल नहीं करते? मान लीजिए कि घरेलू गैस के एक सिलिण्डर का दाम आठ सौ या इससे कुछ ऊपर है। अब इस पर सरकार अगर तीन-चार सौ रुपये की सब्सिडी देती है, तो क्या इसका अर्थ यह नहीं हुआ कि आप तीन या चार सौ रुपये की गैस मुफ़्त में ले रहे हैं? अगर गिनती करना चाहें कि कितनी चीज़ों पर सब्सिडी दी जाती है, तो आप गिनते-गिनते थक जाएँगे। सब्सिडी महज़ शब्द नहीं है, इसका सीधा मतलब है मुफ़्त में सुविधा देना।
आपको यह जानकर आश्चर्य हो सकता है कि जो लोग सबसे ज़्यादा टैक्स जमा करते हैं, अलग-अलग चीज़ों पर वे ही सबसे ज़्यादा सब्सिडी का लाभ लेते हैं; यानी मुफ़्तखोरी के दायरे से वे भी अलग नहीं हैं, बल्कि आम आदमी से ज़्यादा बड़े मुफ़्तखोर वे ही साबित होंगे। मुफ़्त की जो सुविधा सीधे नहीं दिखाई देती, उसके बारे में हम कम जान पाते हैं, पर पानी, बिजली पर यह साफ़-साफ़ दिखाई देती है तो यह मुफ़्तखोरी लगती है। मुफ़्तखोरी का सवाल जो लोग उठाते हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि जो पेट्रोल वे इस्तेमाल करते हैं, उसमें से पेट्रोलियम सब्सिडी के रूप में सैंतीस हज़ार पाँच सौ करोड़ रुपये का पेट्रोल उन्हें मुफ़्त में दिया जाता है। कोई जब नया घर घरीदता है, तो उसमें भी कुछ रियायत दी जाती है; होम लोन में छूट दी जाती है। इस रियायती हिस्से को मुफ़्त ही कहा जाएगा। खाने-पीने की चीज़ों में लगभग दो लाख करोड़ रुपये सब्सिडी के तौर पर मालेमुफ़्त होता है। सबसे ज़्यादा टैक्स जमा करने वाला एक अरबपति जब कोई कारख़ाना लगाता है तो उसे कई चीज़ों में रियायत दी जाती है या कई चीज़ें मुफ़्त मुहैया कराई जाती हैं। देश में सब्सिडी के नाम पर दी जाने वाली रियायतों में ख़र्च की जाने वाली रक़म लगभग साढ़े तीन लाख करोड़ रुपये है।
मैंने अनुमान लगाया था कि यदि दिल्ली के लोगों को बिजली पूरी तरह मुफ़्त दी जाए तो लगभग चार हज़ार करोड़ रुपये का ख़र्च आना चाहिए, लेकिन जब आँकड़े देखे तो पता चला कि बिजली पर रियायत की वजह से सरकार को लगभग दो हज़ार करोड़ रुपये अतिरिक्त ख़र्च करने पड़ेंगे। इसका मतलब है कि बिजली पूरी तरह मुफ़्त नहीं है, बल्कि कुछ स्लैब बनाए गए हैं। यह ठीक ही है। मज़ेदार है कि जनता को जितनी छूट मिलनी शुरू हुई है, उससे तीन गुना से ज़्यादा छूट बिजली कम्पनियों को पहले से ही दी जा रही है। बहरहाल, इस हिसाब से समझें तो यह भी समझ सकते हैं कि पूरे देश में बिजली, पानी की सुविधा पूरी तरह मुफ़्त मुहैया कराई जा सकती है और सबके लिए। मुनाफ़े के लिए किए जाने वाले कामों को इससे अलग रख सकते हैं। एक उदाहरण लीजिए उत्तर प्रदेश का। यहाँ का बजट है पाँच लाख बारह हज़ार आठ सौ साठ करोड़ रुपये का। इस प्रदेश में भी दिल्ली की तरह बिजली मुफ़्त कर दी जाय तो यहाँ की खपत के हिसाब से सरकार पर अतिरिक्त भार चार-पाँच हज़ार करोड़ रुपये से ज़्यादा का नहीं बैठेगा। बिना सोचे-विचारे जो लोग कह देते हैं कि इससे सरकार का भट्ठा बैठ जाएगा, उन्हें थोड़ा और गहरे उतरना चाहिए। यह बात तब और समझ में आएगी, जब बड़े घरानों, संस्थानों के लिए घोषित किए जाने वाले रियायती पैकेजों की रक़म पर ध्यान दिया जाएगा। सिर्फ़ टेलीकॉम सेक्टर की हालिया ख़बरों पर नज़र दौड़ाइए। पिछले दिनों टेलीकॉम कम्पनियों पर लगभग बानवे हज़ार करोड़ रुपयों की अतिरिक्त वैधानिक देनदारी सामने आई थी। कम्पनियाँ कह रही थीं कि सरकार राहत पैकेज दे। सोचिए कि यह राहत कितने हज़ार करोड़ का होगा।
एक और पहलू पर ग़ौर कीजिए। एक किसान को एक लीटर दूध के उत्पादन पर कितनी लागत लगानी पड़ती है? सच्चाई यह है कि आप जितने दाम में एक लीटर दूध ख़रीदते हैं, लगभग उतना ही किसान की लागत होती है। दूसरे अर्थ में, मुनाफ़ा उसे मिलता ही नहीं। उसकी मेहनत का पैसा उसे नहीं मिलता। अगर सबसे सस्ते बिस्कुट पारले-जी पर लिए जाने वाले मुनाफ़े के हिसाब से बात करें तो भी किसान का एक लीटर दूध लगभग सौ रुपये में बिकना चाहिए। अन्य फैक्ट्री उत्पादों की तुलना करके चलें तो यह दाम डेढ़ सौ रुपये से कम नहीं बनेगा। मतलब यह कि पूरा देश किसानों से सब्सिडी ले रहा है। किसान को सरकार जितना मुफ़्त दे रही है, किसान उससे ज़्यादा सरकार को मुफ़्त दे रहा है। महर्षि दयानन्द, स्वामी विवेकानन्द जैसे लोगों ने किसान को सबसे बड़ा सम्मान देते हुए अगर ‘राजाओं का राजा’ कहा था, तो उन्होंने दरअसल उसके योगदान को महसूस किया था। बहुत बड़ी विडम्बना है कि खेती-किसानी में किसान की मेहनत आमतौर पर जोड़ी ही नहीं जाती या बहुत कम जोड़ी जाती है। बातें तमाम हो सकती हैं, पर मेरा स्पष्ट मानना है कि पूरे देश में पानी, बिजली, और शिक्षा की सुविधाएँ पूरी तरह मुफ़्त होनी चाहिए। ठीक से ज़िन्दगी बसर करने की ये बुनियादी सुविधाएँ हैं। किसी के पास कोई रोज़गार न हो, नौकरी छूट गई हो या बहुत कोशिश करने के बाद भी न मिल रही हो तो क्या सिर्फ़ मुफ़लिसी की वजह से ही उसे साफ़ पानी पीने और रोशनी में रहने से वञ्चित कर दिया जाना चाहिए? मेरा मानना है कि शिक्षा किसी भी हाल में शुरू से अन्त तक मुफ़्त ही होनी चाहिए। आख़िर मनुष्य को अन्य जीव-जन्तुओं से अलग और विशेष इसी मायने में तो हम मानते हैं न कि मनुष्य नाम के इस प्राणी को शिक्षा देकर सोचने-समझने और अपने मन के मुताबिक सही फ़ैसला लेने के क़ाबिल बनाया जा सकता है! क्या किसी बच्चे के दिमाग़ को संस्कारित, शिक्षित करने से सिर्फ़ इसीलिए रोक दिया जाना चाहिए कि उसके पास हज़ारों-लाखों की फ़ीस चुकाने के पैसे नहीं हैं? अमेरिका जैसा देश यदि समृद्धि के शीर्ष पर पहुँचा है, तो ध्यान देने वाली बात है कि उसने अपने नागरिकों को मुफ़्त शिक्षा की सुविधा मुहैया कराई है। सोचने की बात है कि किसी राज्य का आख़िर कर्तव्य क्या है? अगर राज्य के दायित्व में यह आता है कि वह ऐसी सुविधाएँ दे, ताकि एक बच्चा बड़ा होकर बेहतर नागरिक बन सके, तो उसका यह भी अनिवार्य कर्तव्य हो जाता है कि वह बेहतर नागरिक निर्माण की शैक्षिक सहूलियतें भी मुहैया कराए। यह भी सोचिए कि सरकारी-ग़ैरसरकारी की खाई पाट दी जाय तो सरकारी स्कूलों की दशा सुधरने में कितनी देर लगेगी? स्वास्थ्य का भी कुछ हिस्सा मुफ़्त हो सकता है, पर स्कूलों में स्वास्थ्य की बुनियादी शिक्षा देना और भी ज़्यादा ज़रूरी है। ऐसा हो तो अस्सी फ़ीसद बीमारियाँ तो यों ही क़ाबू में रहेंगी।