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‘मूसलधार’ और ‘मूसलाधार’

मूसला का यह अर्थ एकदम दुरुस्त है। यह अर्थ ज़्यादातर लोगों ने हाईस्कूल-इण्टरमीडिएट की वनस्पति विज्ञान की किताबों में भी पढ़ा ही होगा, लेकिन याद रखिए, झमाझम बारिश के मामले में ‘मूसला’ की घुसपैठ महज़ दूर की कौड़ी है। मूसला जड़ होती है, ज़मीन में आहिस्ता-आहिस्ता अपनी जगह बनाती हुई धँसती है। यह ऊपर से गिरती नहीं है, न ही चोट करती है। चोट तो मूसल करता है।

अच्छा लगा कि ‘मूसलधार’ और ‘मूसलाधार’ के मसले पर परसों की मेरी पोस्ट पर अच्छी बहस चली। इस बहाने कई लोगों ने कई बढ़िया जानकारियाँ निकाल कर सामने रखीं। फेसबुक मित्र गोपाल राय जी सुलझे हुए व्यक्ति हैं। उन्होंने नागरी प्रचारिणी सभा के हिन्दी शब्द सागर से जानकारी निकाली है कि ‘मूसलधार’ के अलावा जब हम ‘मूसलाधार’ लिखते हैं तो उसमें मूसला का अर्थ होता है मोटी और सीधी जड़, जिसमें इधर-उधर सूत या शाखाएँ न फूटी हों।

मूसला का यह अर्थ एकदम दुरुस्त है। यह अर्थ ज़्यादातर लोगों ने हाईस्कूल-इण्टरमीडिएट की वनस्पति विज्ञान की किताबों में भी पढ़ा ही होगा, लेकिन याद रखिए, झमाझम बारिश के मामले में ‘मूसला’ की घुसपैठ महज़ दूर की कौड़ी है। मूसला जड़ होती है, ज़मीन में आहिस्ता-आहिस्ता अपनी जगह बनाती हुई धँसती है। यह ऊपर से गिरती नहीं है, न ही चोट करती है। चोट तो मूसल करता है। ओखली में सिर दिया तो मूसल का क्या डर…सबने सुना ही होगा। आसमान से पानी की धार पड़ती है तो मूसला जड़ की तरह नहीं, मूसल की तरह। मैं अवध क्षेत्र का रहने वाला हूँ, तो बचपन में बड़ों के मुँह से अकसर सुनता रहा हूँ—आज बड़ा मूसलधार बरसि गै हो मर्देसामी..। अवधी इलाक़े में ‘ल’ को ‘र’ और दीर्घ को ह्रस्व बनाकर मुसरधार भी कहते रहे हैं, पर मूसलाधार का मामला अनपढ़ों में भी पहले नहीं रहा है। यह अज्ञानवश अब प्रचलित होने लगा है, जबकि हम अपने घरों के कभी के एक ज़रूरी सामान मूसल को भूलने लगे हैं। शब्द अपने सामाजिक, सांस्कृतिक और भौगोलिक परिवेश की अनुकूलता के हिसाब से ज़ुबान पर जगह बनाते हैं। इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो भी धार के साथ मूसल है मूसला नहीं। ख़ैर, आज की पोस्ट में कुछ और शब्दों का ज़िक्र करता हूँ, शायद आपको अच्छा लगे।…

यदि उपयुक्त शब्दों के चयन में चूक हो जाए तो कई बार अर्थ का अनर्थ होते हम देखते हैं। एक सामान्य-सा उदाहरण है ‘अनुकरण’ और ‘अनुसरण’ के प्रयोग का। प्रायः इन दोनों ही शब्दों का प्रयोग करते समय लोग भ्रम का शिकार रहते हैं। वास्तव में जब हम किसी के व्यवहार की नक़ल करते हैं, किसी की तरह वेश-भूषा, चाल-ढाल, रहन-सहन वग़ैरह अपनाते हैं तो इसे ‘अनुकरण’ कहा जाएगा। लेकिन, जब हम किसी महापुरुष, व्यक्ति, संस्था-सङ्गठन आदि के विचारों, सिद्धान्तों, मान्यताओं को अपने जीवन-व्यवहार में रचाते-बसाते, उतारते हैं तो यह ‘अनुसरण’ की स्थिति होगी। ‘दादागीरी’ और ‘दादागिरी’ जैसे शब्द में वर्तनी की छोटी-सी भूल अनर्थ पैदा कर देती है। ‘गीरी’ उर्दू भाषा का प्रत्यय है, जिसका अर्थ है–धन्धा, पेशा; जिस अर्थ में ‘नेतागीरी’, ‘जुलाहागीरी’ जैसे शब्द हम प्रयोग करते हैं…जबकि, ‘गिरी’ का अर्थ है- गुठली या बीज; जैसे कि बादाम की गिरी। स्पष्ट है कि ‘दादागिरी’, ‘गान्धीगिरी’ आदि न होकर सही शब्द होंगे- ‘दादागीरी’, ‘गान्धीगीरी’ आदि।

‘हलन्त’ शब्द का भी ख़ूब दुरुपयोग होता हुआ देखा जा सकता है। भारत सरकार के प्रकाशन विभाग (सूचना एवं प्रसारण मन्त्रालय) ने ‘अपनी हिन्दी सुधारें’ नामक एक पुस्तक प्रकाशित की है। इस पुस्तक (प्रथम संस्करण) के ‘स्वर एवं व्यञ्जन सम्बन्धी ग़लतियाँ’ शीर्षक अध्याय में ‘हलन्त’ उपशीर्षक के अन्तर्गत एक स्थान पर लिखा है–‘‘हिन्दी में अनेक शब्द ऐसे हैं, जिनके मध्य में हलन्त लगाया जाना चाहिए।’’

अब थोड़ा ध्यान दें कि ‘हलन्त’ का मतलब होता है–जिसके अन्त में हल् हो। फिर भला किसी शब्द के मध्य में हलन्त कैसे? वास्तव में ‘हल्’ और ‘हलन्त’ शब्दों में अन्तर न जानने के कारण यह ग़लती साधारण हिन्दी जानने वाले तो कर ही रहे हैं, कई विद्वान् भी कर रहे हैं। ‘हल्’ वास्तव में संस्कृत के पाणिनीय व्याकरण में प्रयुक्त एक प्रत्याहार है। ‘हल्’ का अर्थ है–‘ह’ से ‘ल्’ के मध्य जो भी वर्ण हों वे। और चूँकि, पाणिनीय सूत्रों में ‘ह’ से ‘ल्’ के मध्य सारे व्यञ्जन आते हैं, इसलिए ‘हल्’ का अर्थ हुआ–व्यञ्जन वर्ण। उसी तरह से, जिस तरह से कि ‘अच्’ का अर्थ है पाणिनीय सूत्रों में ‘अ’ से लेकर ‘च्’ के मध्य आने वाले वर्ण (अ, इ, उ, ऋ, लृ, ए, ओ, ऐ, औ); अर्थात् स्वर।

इस प्रकार ‘हलन्त’ तो कोई शब्द ही हो सकता है, जिसके अन्त में स्वररहित व्यञ्जन हो; जैसे- अकस्मात्, परिषद्, महान्, विराट्, सम्राट्, विद्युत्, सन् आदि। उद्घाटन, वाङ्मय, सद्बुद्धि, बुड्ढा, गड्ढा, मट्ठा जैसे शब्दों में मध्य में आए द्, ङ्, ड्, ट् को ‘हलन्त लगे हुए’ कहने के बजाय ‘हल् चिह्न/निशान लगे हुए’ कहना सही होगा। हल् को व्यक्त करने का चिह्न है ‘ ् ’। यह किसी शब्द के अन्तिम वर्ण के नीचे लगे तो उस पूरे शब्द के लिए प्रयुक्त होगा, हलन्त। यानी, हल् का मतलब है विशुद्ध व्यञ्जन और विशुद्ध व्यञ्जन शब्दान्त में हो तो वह शब्द कहा जाएगा–हलन्त या व्यञ्जनान्त।

जानकारी के अभाव में बोलचाल और लेखन में ‘अपराध’ और ‘पाप’ को प्रायः एक ही अर्थ में प्रयोग होता हुआ हम देख सकते हैं। परन्तु, स्मरण रखना चाहिए कि जब कोई काम कानून के ख़िलाफ़ किया जाता है या कहें कि कानून के उल्लङ्घन की स्थिति बनती है, तो वहाँ ‘अपराध’ होता है और जब धार्मिक या नैतिक नियमों का उल्लङ्घन होता है तो उसे ‘पाप’ कहते हैं।

अपने से बड़ा या ऊँचे ओहदे वाला व्यक्ति कुछ करने का निर्देश दे तो वह ‘आज्ञा’ है, पर अपने से छोटे या कनिष्ठ व्यक्ति को जैसा वह चाहे वैसा करने की छूट दी जाए तो वहाँ ‘अनुमति’ होगी। अर्थात् ‘आज्ञा’ और ‘अनुमति’ को एक-सा नहीं समझ लेना चाहिए। ‘गन्दा’ और ‘भद्दा’ अलग-अलग अर्थ वाले शब्द हैं। ‘गन्दा’ आवश्यक नहीं कि ‘भद्दा’ भी हो और ‘भद्दा’ आवश्यक नहीं कि ‘गन्दा’ भी हो। ‘गन्दा’ यानी मैला या जो स्वच्छ न हो। ‘भद्दा’ यानी कुरूप या जो सुन्दर न हो। किसी प्रतिस्पर्धा या खेल आदि में बढ़िया कर दिखाने पर आप ‘पारितोषिक’ के हक़दार होते हैं, पर आपकी उपलब्धियों और सेवाओं के लिए आपको सम्मानित किया जाए तो यह ‘पुरस्कार’ है। यानी ‘पारितोषिक’ और ‘पुरस्कार’ में महीन-सा अन्तर है। ‘अस्त्र’ और ‘शस्त्र’ एक ही नहीं हैं। दूर से चलाया जाए तो ‘अस्त्र’, हाथ में लेकर चलाया जाए तो ‘शस्त्र’। ‘उपरोक्त’ शब्द प्रायः लिखा मिल जाता है, पर होना चाहिए ‘उपर्युक्त’। ‘उपरि’ (ऊपर) और ‘उक्त’ (कहा हुआ) शब्दों में सन्धि होगी तो बनेगा–‘उपर्युक्त’।

हिन्दी में फारसी का ‘दरअसल’ ख़ूब चलने लगा है। प्रायः कुछ इस तरह के प्रयोग दिखते हैं–‘दरअसल में आपका काम हो नहीं पाया।’, ‘दरअसल में मैं बहुत व्यस्त था।’ आदि। सही बात तो यह है कि ‘दरअसल’ का अर्थ ही है–असल में, वास्तव में… ऐसे में ‘में’ का प्रयोग अनावश्यक है। ‘अन्त’ प्रयोग होता है ‘समाप्ति’ के अर्थ में। जैसे–इस महीने के अन्त में मेरा जाना तय है। ‘अन्त्य’ का अर्थ है–अन्तिम। जैसे–कलियुग को अन्त्ययुग कहा जा सकता है।

स्मरण रखना चाहिए कि शब्द प्रायः संस्कृति के वाहक भी होते हैं। हर शब्द के पीछे एक पूरी परम्परा हो सकती है। ऐसे में उपयुक्त शब्द चयन की दृष्टि से एक जैसे अर्थ वाले प्रतीत हो रहे शब्दों में सूक्ष्म अन्तर पर ध्यान देना मेरे ख़याल से अच्छी बात है। (19 जुलाई, 2016 फेसबुक)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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