राजीव दीक्षित का सही-ग़लत
राजीव जी की बीटेक की डिग्री में सवाल जैसी कोई बात नहीं बनती, इसकी जानकारी जेके इंस्टीट्यूट से आसानी से उपलब्ध हो जाएगी। यहाँ यह भी जान लें कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का यह संस्थान देश का सबसे पुराना और प्रतिष्ठित आईआईटी संस्थान है। सन् 1949 में पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने इसकी नींव रखी थी।
स्वर्गीय राजीव दीक्षित की मौत और उनके व्यक्तित्व पर अक्सर लोग सवाल पूछते ही रहते हैं। उनके चाहने-मानने वालों की सङ्ख्या बहुत बड़ी है, तो कुछ ऐसे भी लोग हैं, जो उनकी कही बातों के सच पर सवालिया निशान लगाते हैं। लोग मुझसे पूछते हैं कि आख़िर सच्चाई क्या है? इसी समर्थन-विरोध के बीच कुछ समय पहले वेबसाइट ‘फर्स्ट पोस्ट’ ने राजीव जी के जन्मदिन (पुण्यतिथि भी) पर आरटीआई वग़ैरह के आधार पर उनकी डिग्रियों, वैज्ञानिक के तौर पर उनके काम तथा उनके बोले गए तथ्यों पर सवाल उठाते हुए इण्डियन एक्सप्रेस में पूर्व में प्रकाशित एक ख़बर के आधार पर एक बड़ी ख़बर प्रकाशित की थी, जिस पर काफ़ी हङ्गामा हुआ था। ख़बर की दिक़्क़त यह थी कि वह ख़ुद ग़लतबयानी की शिकार थी। रिपोर्टर ने इस आधार पर राजीव दीक्षित की बीटेक की डिग्री को झूठा घोषित किया था कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय में बीटेक है ही नहीं। मैंने इस तथ्य पर ऐतराज जताया और वेबसाइट को लिखा कि राजीव जी ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जेके इंस्टीट्यूट से पढ़ाई की थी और वे गोल्ड मेडलिस्ट भी थे। आईआईटी कानपुर से एमटेक करने जैसी ज़रूर कोई बात नहीं थी, क्योंकि आन्दोलन के चलते इतना मौक़ा उनके पास था ही नहीं कि एमटेक वग़ैरह करते। उनके मुरीदों ने ऐसी बातें भोलेपन में फैला रखी हैं।
ख़ैर, फर्स्ट पोस्ट ने मेरी बात साइट से ग़ायब कर दी। उस पूरे दिन सोशल मीडिया में राजीव जी के पक्ष-विपक्ष में युद्ध-जैसी स्थिति बनी रही तो दूसरे दिन सवेरे फर्स्ट पोस्ट ने एकदम पलटी मार दी और राजीव दीक्षित का स्तुति-गान करते हुए एक नई ख़बर लगाई। इस पूरे काण्ड पर फर्स्ट पोस्ट की क़ायदे से सर्जरी ‘मीडिया विज़िल’ ने एक अलग तेवर से की तो मामला और सङ्गीन हो गया।
आए दिन सिर उठाते ऐसे विवादों को देखते हुए मुझे लगता है कि कुछ बातें स्पष्ट की जानी चाहिए।
आज की तारीख़ में दिल्लीवासी हो चुके मैं और अभय प्रताप जैसे लोग सन् 1989 से ही इलाहाबाद में राजीव जी के साथ थे। हमारा उठना-बैठना, खाना-पीना साथ-साथ रहा। राजीव जी की बीटेक की डिग्री में सवाल जैसी कोई बात नहीं बनती, इसकी जानकारी जेके इंस्टीट्यूट से आसानी से उपलब्ध हो जाएगी। यहाँ यह भी जान लें कि इलाहाबाद विश्वविद्यालय का यह संस्थान देश का सबसे पुराना और प्रतिष्ठित आईआईटी संस्थान है। सन् 1949 में पण्डित जवाहरलाल नेहरू ने इसकी नींव रखी थी।
राजीव दीक्षित की एक ही बड़ी गड़बड़ी थी, वह यह कि उनके बारे में श्रद्धावान लोग कोई ग़लत बात फैलाने लगते थे तो वे उसका प्रतिवाद नहीं करते थे। इस वजह से एक अतिशयोक्ति के साथ दूसरी जुड़कर पूरे देश में फैलती रहती थी और अन्धभक्ति में इसे लोग सच मानने लगते थे। राजीव जी ख़ुद अपने भाषणों में ऐन वक़्त पर जोड़-घटाव करके नए-नए आँकड़े हज़ारों लोगों के सामने सुना देते थे। उनकी सुनाई बातें कई बार एकदम सटीक उतरती थीं, पर कई बार थोड़ी-सी चूक में कुछ-की-कुछ हो जाती थीं। हम लोग कई बार टोकते भी थे, पर बातें निकल गईं तो चलती ही रहती थीं। उनकी अतिशयोक्तियों और देश-दुनिया के बारे में अद्भुत सच्चाइयों, दोनों को उनकी कैसेटों में सुना जा सकता है। पं. नेहरू, जिन्ना वग़ैरह के बारे में उनकी बातें काफ़ी अतिशयोक्ति की शिकार हैं, हालाँकि कुछ लेखक उन्हें सही भी ठहराते रहे हैं।
बहरहाल, जल्दबाज़ी में कुछ तथ्यात्मक ग़लतियों को थोड़ा परे करके देखें तो आज़ादी के बाद राजीव दीक्षित जैसा ऐसा कोई वक्ता दूर-दूर तक दिखाई नहीं देता, जो बेहद कठिन मुद्दों को भी असरदार ढङ्ग से आम आदमी के गले के नीचे उतार ले जाय। बाद के दिनों में राजीव जी के छोटे भाई की वजह से उनके साथ मेरे काफ़ी मतभेद रहे, यहाँ तक कि हमारी बातचीत भी बन्द हो चुकी थी। स्वामी रामदेव ने सुलह-समझौते की कोशिश की थी, पर बात नहीं बनी। मैं सच को ज़्यादा महत्त्वपूर्ण मानता हूँ, व्यक्ति चाहे जो हो। बाद के दिनों में कुछ समय के लिए मैंने शान्ति धारण कर ली और तमाम चीज़ों को किनारे करके एक छोटी-सी नौकरी करने लगा।
इन सबके बावजूद, स्पष्ट कहूँगा कि राजीव जी बेहद सादा जीवन जीते थे। कार्यक्रम ख़त्म होने के बाद वे ख़ुद दरी-चादर उठाने में मदद करने लगते थे। देश के लिए उनकी त्याग भावना पर सवाल उठाना अल्प-ज्ञान है। उनकी प्रतिभा जैसी थी, उसके सामने बीटेक, एमटेक जैसी चीज़ें बहुत छोटी हैं। वे जीवित होते तो स्वामी रामदेव के सामने रामलीला काण्ड की शायद नौबत न आती। अन्ना आन्दोलन की दिशा भी कुछ और होती, क्योंकि राजीव जी के मञ्च पर आने के बाद अरविन्द केजरीवाल को आम आदमी पार्टी बनाने की बात सोचने की ज़रूरत ही न पड़ती। निष्कर्ष के तौर पर यही कहूँगा कि राजीव जी का जितना सच है, हमें उसे स्वीकार करना चाहिए और जितनी बातें सही नहीं हैं, उन्हें सहज भाव से अस्वीकार भी कर देनी चाहिए। उनके काम की मूल धारा में दम है, इसलिए उसे आगे बढ़ाना भी अच्छी बात है। दुर्भाग्य कि राजीव जी के भाई प्रदीप दीक्षित यानी दीपू की कुछ गड़बड़ियाँ उन पर भारी पड़ीं और जब देश के लोगों ने उन्हें बस सुनना ही शुरू किया था तो उनका देहावसान हो गया।