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रूढ़ छवियों के पार महाभारत के स्त्री पात्र

कभी-कभी कुछ किताबें ऐसी भी निगाह में आ जाती हैं, जिन्हें पढ़ने के बाद लगता है कि तारीफ़ ही नहीं, इनका प्रचार भी किया जाना चाहिए। ऐसी ही किताब है—अपने अपने कुरुक्षेत्र। मीनाक्षी नटराजन का यह पहला उपन्यास है। मीनाक्षी नटराजन, यानी अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी की सचिव। नेता और साहित्य के बीच का यह रिश्ता कुछ अजीब लगेगा, पर मीनाक्षी जी ने ख़ुद को कई मायनों में अपवाद साबित किया है। उनका यह उपन्यास एक तरह से गम्भीर स्त्री-विमर्श है, पर वैसा स्त्री-विमर्श क़तई नहीं, जैसा आजकल की बुद्धिजीवी गोष्ठियों में अक्सर दिखाई देता है।

क़रीब छह साल पहले अखिल भारतीय काँग्रेस कमेटी की सचिव मीनाक्षी नटराजन की किताब ‘1857 : भारतीय परिप्रेक्ष्य’ दो खण्डों में छपकर आई थी तो इतिहास के अध्येता, एक राजनेता की इस तरह की शोधवृत्ति और अध्ययनशीलता पर, चौंके थे। इस बार मीनाक्षी जी ने कुछ और चौंकाया है। उनका नया क़दम साहित्य की ओर है ‘अपने अपने कुरुक्षेत्र’ के रूप में। दौ सौ से कुछ ज़्यादा पृष्ठों का यह एक भरा-पूरा उपन्यास है। वर्णन-शैली और भाषा में परम्परा और आधुनिकता के बीच सेतु बनाता है तो पात्रों के चरित्र-चित्रण के स्तर पर विगत में वर्तमान को रूपायित करता हुआ दिखाई देता है।

कथावस्तु महाभारत की है। भीष्म पितामह केन्द्र में हैं। युद्ध समाप्ति पर है और युद्ध की विभीषिका से गुज़रे महाभारत के पाँच प्रश्नाकुल स्त्री पात्र एक-एक कर पितामह के सम्मुख उपस्थित होते हैं। सत्यवती, गान्धारी, कुन्ती और द्रौपदी के अलावा शिखण्डी भी है। शिखण्डी जन्मना स्त्री है, कालान्तर में स्त्री-पुरुष के बीच का एक क्लीव चेहरा बनकर उभरती है और इस तरह समाज के मनोमस्तिष्क की कुछ अलग विडम्बनाओं को सामने रखती है। यहाँ कृष्ण एक अलग आभा के साथ मौजूद हैं। ऐसे मरहम के रूप में, जिसका स्पर्श हर घाव को भर देने का सामर्थ्य रखता है। चर्चित स्त्री चेहरों के सहारे महाभारत के कम चर्चित या उपेक्षित स्त्री चेहरे भी कहीं पार्श्व में उभरते हैं और अपने व्यक्तित्व को स्थापित करते हुए याद रह जाते हैं। अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका, गङ्गा, हिडिम्बा, सुभद्रा, उत्तरा, सत्यभामा, भानुमति जैसे अन्यान्य स्त्री पात्रों का मानस और उनके व्यक्तित्व पर लेखिका की दृष्टि सोचने पर बाध्य करती है, प्रभावित करती है।

केन्द्र में स्त्री-विमर्श है, पर उपन्यास एकपक्षीय नहीं है। पुरुष मानसिकता और उसकी विवशता पर लेखिका की दृष्टि आधुनिक स्त्रीवाद की तरह किसी दुराग्रह के वशीभूत नहीं है। उपन्यास किसी चरित्र को खलनायक घोषित करने के बजाय उसके मन की परतों को टटोलते हुए उसके व्यक्तित्व की तह में उतरने का उपक्रम करता है और सत्य के अनुसन्धान और जहाँ भी सम्भावना हो, वहाँ सहानुभूति के तत्त्वों को स्पष्टता के साथ सामने लाने का जतन करता है। धृतराष्ट्र की कुण्ठा किसकी देन थी; दुर्योधन इतना स्वार्थी और अहङ्कारी कैसे हो गया; कर्ण झूठे कुलनाम की मरीचिका के पीछे दौड़ने की नियति से ग्रस्त होकर हीन भावना का शिकार आखिर क्योंकर हुआ; कंस में क्रूरता कहाँ से आई; शकुनि के शातिरपने का उत्स कहाँ था—इन सबके पीछे की कथाएँ पढ़ना रोचक है। लेखिका की कामयाबी यह भी है कि पुरुष मानसिकता पर मर्मभेदी प्रहार करने के बावजूद काल और परिस्थितिजन्य सहानुभूति का कोई कोना उन्होंने आँखों से ओझल नहीं होने दिया है।

महत्त्वपूर्ण बात है कि मूल कथा की डोर पकड़े रहते हुए भी लेखिका ने कई मायनों में सोच के पारम्परिक ढाँचे को तोड़ा है। वे महाभारत के स्त्री पात्रों के मानस में उस गहराई तक उतरी हैं, जिस गहराई तक हिन्दी साहित्य में अभी तक कोई और उतरता हुआ दिखाई नहीं दिया है। लेखिका अतीत के सन्दर्भों में वर्तमान का विमर्श पैदा करती हैं। सत्यवती के इस कथन में स्पष्ट सत्य, उसकी विडम्बना और वर्तमान का परिप्रेक्ष्य एक साथ देखे जा सकते हैं—‘‘वैसे सत्य तो केवल मातृत्व ही होता है भीष्म! अकाट्य सत्य। अपने शिशु के पिता का नाम केवल उसकी माँ ही बता सकती है। प्रकृति ने स्त्री को यह शक्ति देकर स्त्री-पुरुष के अन्तर्सम्बन्धों में स्त्री का पलड़ा भारी कर दिया। माँ शिशु को जन्म देती है। अतः संसार में मातृत्व का प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं। पिता कौन है, यह रहस्य केवल माँ के पास सुरक्षित है, किन्तु पुरुष प्रधान समाज ने इसका प्रयोग स्त्री को लाञ्छित करने के लिए किया।…कभी-कभी लगता है भीष्म कि क्या कभी ऐसा समय आएगा, जब स्त्री उन्मुक्त होकर सम्मान के साथ अपनी अविवाहित सन्तान का अकेले भरण-पोषण कर सकेगी?’’

अतीत के इस स्त्री-विमर्श से गुज़रते हुए लेखिका आधुनिक रचना-प्रवृत्तियों के किसी आतङ्क के वशीभूत नहीं होतीं और न ही पाठकों को अधर में छोड़ने वाला कोई अव्यक्त पटाक्षेप करके इतिश्री करती हैं। उपन्यास का अन्त आते-आते पाठक को महसूस होता है कि वह सत्य-असत्य, धर्म-अधर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य, लाभ-हानि, सङ्कल्प-विकल्प के तमाम झञ्झावातों में उलझने के बजाय इनसे पार पाने की राह पर है। उपन्यास के पात्रों की प्रश्नाकुलता अचानक उलझनों को चरम पर पहुँचाती दिखाई देती है तो कुछ ही पल बाद प्रश्नों-प्रतिप्रश्नों के बीच से ही समाधान की रोशनी भी फूटती नज़र आती है।

आए दिन युद्ध के मुहाने पर जा खड़ी होती आज की दुनिया के सामने उपन्यास का यह विमर्श और प्रासङ्गिक हो जाता है कि युद्ध की अन्तिम परिणति आखिर होती क्या है। यहाँ सत्य और धर्म की स्थापना का आग्रह किसी रूढ़िवादी सोच के बजाय तार्किक परिणति के साथ वर्तमान परिदृश्य की प्रासङ्गिकता में है। समूचे अवतारवाद को तार्किक विनम्रता के साथ यह उपन्यास सहज मानवी व्यवहार के धरातल पर ला खड़ा करता है। भीष्म जिज्ञासा प्रकट करते हुए कहते हैं—‘‘वासुदेव! तुम जानते होगे कि लोक समाज के मध्य तुम्हें लेकर अनेक जिज्ञासाएँ हैं। तुम्हारे व्यक्तित्व को चमत्कारी माना गया है। बहुत से लोग तुम्हें नारायण का अंश या अवतार मानते हैं। क्या सत्य ही ईश्वर नर रूप में अवतरित होते होंगे?’’ कृष्ण इसका जवाब देते हैं—‘‘ईश्वर को किसी नर या प्राणी रूप में पृथक् होकर जन्म लेने की आवश्यकता ही क्या है? हर जीव के भीतर उस परमात्मा का सदैव निवास रहता है।….नर-नारी के अन्तर्मन में स्थित नारायण के अवतरण के लिए किसी चमत्कार की आवश्यकता नहीं। बस हमें नैसर्गिक स्थिति में स्वयं को रख छोड़ना है। हमारे भीतर का नारायण जाग्रत हो उठेगा और उसका यही अवतरण लोकावतार कहलाने लगेगा, बाकी सब तो केवल दृष्टि भ्रम है।’’

बात संवादों के सहारे आगे बढ़ती है और किस संवाद में जीवन के किस मर्म-गह्वर का कौन-सा रहस्य उद्घाटित हो जाय, इसका अनुमान पहले से नहीं लगाया जा सकता। और इस नाते, यह उपन्यास शुरू से अन्त तक पाठक का पूरा ध्यान चाहता है। एक विशिष्टता यह भी है कि इसे कोई चाहे तो उपन्यास के बजाय महज धार्मिक, आध्यात्मिक, दार्शनिक अथवा वैचारिक संवाद की तरह भी पढ़ सकता है। यह बाहर के कुरुक्षेत्र में चल रहे भौतिक युद्ध के साथ-साथ मानस जगत् के कुरुक्षेत्र में चल रहे अन्तर्द्वन्द्वों की कुछ इस तरह से शिनाख़्त करता है कि पाठक भी अपने ख़ुद के भीतर के कुरुक्षेत्र का साक्षात् करने की ज़रूरत महसूस करने लगता है। कह सकते हैं कि मीनाक्षी नटराजन के इस पहले ही साहित्यिक हस्तक्षेप ने कुछ बड़ी सम्भावनाएँ जगाई हैं। छपाई की कुछ ग़लतियों से ज़रूर बचा जाना चाहिए था।

उपन्यास—अपने अपने कुरुक्षेत्र

प्रकाशक—सामयिक प्रकाशन, 3320-21, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागञ्ज, नई दिल्ली

मूल्य—400 रुपये

(‘कादम्बिनी’ से साभार)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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