तन-मनस्वास्थ्य

वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ और महामारी—एक

इस पूरे परिदृश्य से दो सवाल बनते हैं। एक तो यह कि क्या वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ महामारी जैसी स्थितियों को सँभाल पाने में बिलकुल अक्षम हैं; और कि क्या एलोपैथी ही किसी वायरस या बैक्टीरिया के हमले से लड़ने में सक्षम है? दूसरे, यह कि क्या यह सचमुच महामारी थी या एक आसानी से ठीक हो सकने वाली बीमारी के पास जाने या अनजाने इलाज के सही तरीक़ों को पहुँचने नहीं दिया गया और जिसका नतीजा हुआ कि  चारों तरफ बनते भयावह माहौल के चलते यह महामारी की शक्ल लेती गई?

बीते ढाई साल से पूरी दुनिया में हम हाहाकार की स्थिति देखते रहे हैं। हर चर्चा पर हर तरह से भारी रही महामारी। अस्पताल भर गए, बेड कम पड़ गए और हालत यहाँ तक आ पहुँची कि सड़कों पर कोविड मरीज़ों को तड़पते देखने को हम अभिशप्त हुए। इलाज के एक ही तरीक़े को मान्यता थी और वह थी एलोपैथी। आमतौर पर इसे मॉडर्न मेडिकल सिस्टम भी कहा जाता है। दुर्भाग्यपूर्ण विडम्बना यह थी कि इस मॉडर्न मेडिकल सिस्टम के पास घोषित तौर पर कोविड-19 के इलाज का कोई तरीक़ा मौजूद नहीं था। जो कुछ दवाएँ दी गईं, सब ट्रायल यानी प्रयोग के तौर पर थीं। जब-जब जो-जो दवाएँ फ़ायदेमन्द दिखती दिखाई दीं, छानबीन आगे बढ़ी तो वे भी अन्ततः नुक़सानदेह निकलीं। पैरासीटामाल, एजिथ्रोमाइसीन, रेमेडेसिवीर, भाँति-भाँति के एस्टेरॉयड से लेकर प्लाज्मा और कैंसर व एड्स की आज़माई गई तमाम दवाओं तक। कितने मरीज़ महामारी से मरे और कितने इलाज के इस ट्रायल वाले तरीक़े से, इस पर अभी तक कोई अध्ययन नहीं किया गया है। उल्टे ऐसे अध्ययन से बचने की कोशिश चल रही है। इससे यह सवाल भी दुनिया भर में उठ रहा है कि क्या वास्तव में लोग महामारी से ही मरे हैं या ग़लत दवाओं की वजह से मौत के मुँह में गए हैं? इलाज की ऐसी असमर्थता के बाजजूद इसे भी विडम्बना ही कहा जाएगा कि वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों को खुलेआम इलाज करने की छूट नहीं दी गई। इन्हें आज़माने के बजाय इन पर कहीं घोषित तो कहीं अघोषित तौर पर रोक लगा दी गई। होम्योपैथी, आयुर्वेद वग़ैरह के ज़रिये अगर कहीं इलाज किया जाना शुरू भी हुआ तो एलोपैथी वालों ने स्पष्ट रूप से इसका विरोध किया। इलाज के वैकल्पिक तरीक़ों को मुख्य धारा के मीडिया ने छोलाछाप और ‘फेक’ कहा। बाद के दिनों में वैकल्पिक पद्धतियों को तब जाकर कहीं कुछ सहूलियत मिली, जबकि इलाज न होते हुए भी इलाज के लिए सारा ध्यान एलोपैथी पर केन्द्रित कर दिया गया था।

इस पूरे परिदृश्य से दो सवाल बनते हैं। एक तो यह कि क्या वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ महामारी जैसी स्थितियों को सँभाल पाने में बिलकुल अक्षम हैं; और कि क्या एलोपैथी ही किसी वायरस या बैक्टीरिया के हमले से लड़ने में सक्षम है? दूसरे, यह कि क्या यह सचमुच महामारी थी या एक आसानी से ठीक हो सकने वाली बीमारी के पास जाने या अनजाने इलाज के सही तरीक़ों को पहुँचने नहीं दिया गया और जिसका नतीजा हुआ कि  चारों तरफ बनते भयावह माहौल के चलते यह महामारी की शक्ल लेती गई?

पहले हम थोड़ी बात महामारी बनाम साधारण बीमारी पर करते हैं और फिर इसके इलाज में वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों की भूमिका पर चर्चा को आगे बढ़ाते हैं। 

सबसे पहले यह सोचिए कि कोरोना से अब तक कितने लोग मौत के शिकार हुए हैं? सङ्क्रमण के शिकार कितने हैं? रोज़-रोज़ की रिपोर्टों और ख़बरों में जैसा दिख रहा है, उसके हिसाब से इस पूरे कोरोना परिदृश्य को देखने का एक दूसरा नज़रिया भी हो सकता है। वह यह कि कुछ दूसरी बीमारियों के फैलने की रफ़्तार भी क़रीब-क़रीब कोरोना-जैसी ही है। साधारण फ्लू की ही बात कर लें। जिस अमेरिका में सबसे ज़्यादा मौतें हो रही थीं, पहले वहाँ के आँकड़ों पर निगाह डालिए। सेण्टर फॉर डिजीज़ कण्ट्रोल एण्ड प्रिवेंशन (CDC) की वेबसाइट पर 1 अक्टूबर, 2019 से 4 अप्रैल, 2020 तक की फ्लू की रिपोर्ट है। इस रिपोर्ट के अनुसार अनुमान है कि इस दौरान अमेरिका में तीन करोड़ नब्बे लाख से पाँच करोड़ साठ लाख तक लोग फ्लू के शिकार हुए। एक करोड़ अस्सी लाख से दो करोड़ साठ लाख लोगों ने इसके लिए मेडिकल सलाह ली। चार लाख दस हज़ार से सात लाख चालीस हज़ार तक लोग अस्पतालों में भर्ती हुए। मरने वालों के बारे में अनुमान है कि इनकी सङ्ख्या चौबीस हज़ार से बासठ हज़ार के बीच होगी। सीडीसी ने ही 2018 की रिपोर्ट दी है कि उस साल साधारण फ्लू से अमेरिका में अस्सी हज़ार से ज़्यादा लोग मौत के शिकार हुए, जो चार दशकों में सबसे बड़ी सङ्ख्या है। सामान्य निष्कर्ष यह है कि अमेरिका जैसे देश में फ्लू से हर साल चालीस-पचास हज़ार या इससे कुछ ज़्यादा लोग मरते ही हैं। इसी के साथ पिछले साल यानी सन् 2020 के मई महीने की दिलचस्प रिपोर्ट यह है कि उस समय जब अमेरिका में कोरोना बेतहाशा फैल रहा था तो उन कुछ हफ़्तों में वहाँ के अस्पतालों में फ्लू के मरीज़ न के बराबर आए। सवाल है कि जिस देश में करोड़ों लोग हर साल फ्लू से सङ्क्रमित होते हैं और लाखों अस्पताल पहुँचते हैं, वहाँ इस बार ऐसा कैसे हो गया? क्या फ्लू के मरीज़ धरती में समा गए? निष्कर्ष साफ़ है कि पहले कोरोना वायरस की पहचान नहीं थी तो फ्लू का मरीज़ बस फ्लू का माना जाता था, अब कोरोना की पहचान के बाद फ्लू वाले मरीज़ भी कोरोना में रूपान्तरित हो गए, क्योंकि कोरोना भी अनन्तः फ्लू वायरस ही है। अमेरिका में कोरोना से हुई मौतों में से फ्लू, हृदय रोग, उच्च रक्तचाप, अस्थमा, मधुमेह वग़ैरह की वजह से हुई मौतों की छँटाई की जाय तो अनुमान है कि कोरोना से मरने वाले लोग सिर्फ़ कुछ हज़ार तक सिमट कर रह जाएँगे। यहाँ यह भी समझ लेना ठीक रहेगा कि भारत में फ्लू से हमेशा से ही बहुत कम मौतें होती रही हैं। कारण कि यहाँ के खानपान में जानवरों के मांस से मिलने वाले प्रोटीन की मात्रा बहुत कम होती है, इसके अलावा यहाँ के बच्चे आमतौर पर धूल-मिट्टी में खेल-खेलकर बड़े होते हैं और उन्हें साल में चार-छह बार सर्दी-ज़ुकाम-फ्लू होता ही है, तो उनकी रोगप्रतिरोधक क्षमता ऐसे वायरस के ख़िलाफ़ ज़्यादा मज़बूत होती है। सङ्क्रमण यहाँ भी होगा ही, पर केवल फ्लू से कोई मर जाय, ऐसा बहुत कम होगा। दूसरी लहर के बेक़ाबू होने के साथ भारत में मौतों की बढ़ती सङ्ख्या से यह ज़रूर कहा जाने लगा कि यहाँ भी स्थिति अमेरिका से कोई बहुत अच्छी तो नहीं है। भय यह भी था कि कहीं ऐसा न हो कि एक दिन भारत मौतों के मामले में अमेरिका को मात दे दे! ख़ैर, अब उस स्थिति से हम बहुत दूर निकल आए हैं।

अब हम कुछ राहत के साथ निष्कर्ष निकाल सकते हैं, पर कोई भी निष्कर्ष निकालने से पहले दोनों देशों की चिकित्सा सुविधा की स्थितियों और उनकी जनसङ्ख्या पर निगाह डालनी पड़ेगी। ध्यान देने की बात है कि अमेरिका में संसार की सबसे अत्याधुनिक चिकित्सा सुविधाएँ मौजूद हैं और तब पर वहाँ कोरोना से हुई मौतों की सङ्ख्या दस लाख से अधिक है, जबकि भारत में चिकित्सा सुविधाएँ बहुत सीमित है और यहाँ मौतें हुई हैं पाँच लाख के आसपास। अमेरिका के नक़्शेक़दम पर चलते हुए हमारे सत्ताधीश भारत के लोगों को ज़बरदस्ती अस्पतालों की ओर न धकेलते तो भारत में मौतें और कम होतीं। बहरहाल, भारत में हुई मौतों की सङ्ख्या को अमेरिका की तुलना में एक तरह से लगभग आधी और दूसरी तरह से लगभग सातवाँ हिस्सा यानी डेढ़ लाख से भी कम मानना पड़ेगा। कारण कि अमेरिका की जनसङ्ख्या भारत की चौथाई से भी कम है। भारत जितनी जनसङ्ख्या अमेरिका की होती तो निश्चित रूप से वर्ल्डोमीटर पर आज वहाँ मौतों की सख्ङ्या पैंतीस-चालीस लाख के आसपास दिखाई देती। अमेरिका में चिकित्सा सुविधाएँ भारत जैसी होतीं, तब सोचिए कि वहाँ का हाल क्या होता! ब्राजील, फ्रांस, इटली, इङ्ग्लैण्ड वग़ैरह से भी भारत की तुलना बेमानी है। उदाहरण के तौर सिर्फ़ इङ्ग्लैण्ड को देखिए। यदि वहाँ की जनसङ्ख्या को भारत जितना मान लिया जाए तो वहाँ हुई मौतों को भी एक लाख सत्तासी हज़ार के बजाय तैंतीस-चौंतीस लाख यानी लगभग अमेरिका जितना ही मानना पड़ेगा। जनसङ्ख्या के हिसाब से तुलना करें तो वास्तविकता यही है कि भारत की स्थिति तमाम अन्य देशों से बहुत बेहतर रही है। अगर मीडिया के शोर ने माहौल को भयावह न बनाया होता और लोग अफ़रा-तफ़री में बग़ैर ज़रूरत के अनाप-शनाप इलाज की तरफ़ न भागे होते तो यहाँ की स्थिति और बेहतर ही न होती, बल्कि यह देश दुनिया के लिए नज़ीर बन जाता।

कोरोना से हो रही मौतों में एक और बड़ा पेंच है। किस आधार पर कहा जाए कि ये सब मौतें सचमुच कोरोना से ही हुई हैं? सामान्य नियम यह बना दिया गया है कि कोई व्यक्ति किसी भी बीमारी से मरे, पर अगर उसकी जाँच में कोरोना वायरस की पुष्टि हो गई (भले ही कोरोना के कोई लक्षण न हों या वायरस ने ज़रा भी प्रभाव न दिखाया हो) तो उसकी मौत कोरोना से मानी जाएगी। हाल यह है कि दुर्घटना के शिकार व्यक्ति में कोरोना मिल जाए तो डॉक्टर उसकी मौत को कोरोना से हुई मौत लिख सकता है। न्यूमोनिया और साधारण फ्लू से होने वाली तमाम मौतें आँख मूँदकर कोरोना से हुई मौतों के रूप में दर्ज की जा रही हैं। भारत में फिर भी ग़नीमत है, पर अमेरिका की ख़बरें हैं कि वहाँ दूसरी बीमारियों की तमाम मौतें बिना पूछे ही कोरोना में दर्ज होती रही हैं। इटली के बारे में तो कुछ अध्ययन ऐसे आए हैं कि वहाँ की मौतों में से केवल दस प्रतिशत मौतों को ही कोरोना से हुई मौतें माना जा सकता है। इसका सीधा अर्थ यह निकलता है कि कोरोना की मौतों में दूसरी बीमारियों से होने वाली तमाम मौतें भी निश्चित रूप से जुड़ी हुई हैं। इसे यों भी कह सकते हैं कि हर सौ में पञ्चानवे या अट्ठानवे मौतें महज़ कोरोना की वजह से नहीं हैं। एक उदाहरण से इसे और आसानी से समझ सकते हैं। कोरोना-काल से पहले की स्थिति यह थी कि अगर किसी अस्थमा के रोगी को फ्लू हो जाय, धीरे-धीरे तबीयत ज़्यादा ख़राब हो जाय और अस्पताल में भर्ती होने के बाद उसकी मौत हो जाय तो डॉक्टर उस मौत को अस्थमा से हुई मौत लिखता था। मरीज़ का रिश्तेदार अगर कहे कि डॉक्टर साहब, जब से इन्हें सर्दी-ज़ुकाम हुआ, तब से तबीयत ज़्यादा ख़राब हो गई तो डॉक्टर डपटकर कह देता था कि रोगी की मुख्य बीमारी अस्थमा थी, इसलिए इसकी मौत अस्थमा से हुई। अगर कोरोना पर रोज़-रोज़ शोर न मचाया जा रहा होता, तो वही वाली स्थिति आज भी दिखाई देती।

कोरोना से हो रही मौतों की सही स्थिति सामने लाने का एक तरीक़ा यह था कि अन्य बीमारियों के आँकड़े भी कोरोना के ही समानान्तर प्रतिदिन जारी किए जाने चाहिए थे। ऐसा होता तो सोचिए क्या तसवीर बनती! पहली लहर में ही सारा डर काफ़ूर हो चुका होता। पहली लहर तक कोरोना के समानान्तर न्यूमोनिया-जैसी बीमारी में मौतों की सङ्ख्या कई गुना ज़्यादा थी। हम सिर्फ़ एक बीमारी के सही या ग़लत आँकड़े हर दिन सामने देख रहे थे तो इसका ही भय हमारे सिर पर सवार हो रहा था। इस भय ने दूसरी लहर की ख़बर चलते ही भयावह माहौल बनाया और जिन्हें अस्पताल भागने की ज़रूरत नहीं थी, उन्होंने भी वहाँ भीड़ लगाई और स्वास्थ्य व्यस्थाएँ चरमरा गईं। ऐसे में ऑक्सीजन सिलेण्डर की कमी और ऐन वक़्त पर दवा न मिलने के नाते भी हज़ारों लोगों की जानें गईं और मौतों का आँकड़ा बढ़ा।

मीडिया द्वारा बनाए गए डर के माहौल ने सिर्फ़ अफ़रा-तफ़री ही नहीं फैलाई, बल्कि इसने तमाम लोगों की जान बिना बीमारी के ही ले ली या लोगों को बीमार कर दिया। डर एक ऐसी चीज़ है, जो रोगप्रतिरोधक क्षमता को सबसे ज़्यादा कमज़ोर करती है। यह रिसर्च तो अब बहुतों को रट गया है कि सामान्यतः अस्सी और कई बार नब्बे प्रतिशत बीमारियाँ मानसिक तनाव की वजह से पैदा होती हैं। सोचिए कि डर की वजह से भयङ्कर मानसिक तनाव में जा चुके एक व्यक्ति की हालत क्या होगी! कोरोना-काल में डर इतना व्याप्त रहा कि हिम्मती से हिम्मती व्यक्ति को भी बताया गया कि वह कोरोना पॉजिटिव है, तो ऊपर से भले वह कहता रहा कि वह डरता नहीं है, पर कई अध्ययनों ने स्पष्ट कर दिया चौबीसों घण्टे ज़्यादातर लोगों के मन में इस बात का डर बना ही रहा कि कहीं वे मर न जाएँ। कमाल है कि मरने वाले कम, पर मरने का डर बहुत ज़्यादा। मरने वालों की सङ्ख्या सचमुच कोरोड़ों में हो जाए, तब सोचिए कि डर का हाल क्या होगा? अगर शोध किया जाय तो पता चलेगा कि कुल मौतों में महामारी के भय से मरने वालों की तादाद बहुत बड़ी है। डर का हाल यह है कि कोरोना पॉजिटिव की ख़बर मिलते ही कुछ लोगों ने आत्महत्या तक कर ली। कोरोना के डर से अस्पताल की सातवीं मञ्ज़िल से कूदकर आत्महत्या कर लेने की घटना बहुतों के ज़ेहन में अभी ताज़ा होगी। जो भी हो, एक तरफ़ एक निष्कर्ष यह निकलता है कि कोरोना में हुई सभी मौतों को सिर्फ़ कोरोना से हुई मौतें नहीं कहा जा सकता और दूसरी तरफ़ दूसरा निष्कर्ष यह है कि कोरोना की वजह से चार-छह लाख मौतें भी भारत में हो जाएँ तो भी इसे महामारी किसी भी दृष्टिकोण से नहीं कहा जा सकता, क्योंकि इससे ज़्यादा मौतें टीबी, मधुमेह जैसी दूसरी कई बीमारियों की वजह से होती ही रही हैं। पिछले साल की ही विश्व स्वास्थ्य सङ्गठन की रिपोर्ट है कि हर साल दुनिया में रिपोर्ट होने वाले ट्यूबरक्यूलोसिस के कुल मामलों में से एक-तिहाई भारत में होते हैं और देश में इस बीमारी से सालाना 480,000 मौतें होती हैं। अन्य कुछ शोधों के अनुसार टीबी से भारत में इससे भी ज़्यादा मौतें होती हैं। न्यूमोनिया जैसी बीमारी से भारत में डेढ़ लाख से ज़्यादा लोग तब के हाल में मरते हैं, जबकि ग़रीब से ग़रीब व्यक्ति भी हालत बिगड़ने पर डॉक्टर के पास जाकर इसका इलाज कराता है। अगर न्यूमोनिया में इलाज का अभाव हो तो सोचिए कि कितने लोग मौत के मुँह में जाएँगे! यह सङ्ख्या क़रीब आठ-दस लाख होगी। ठीक इसके विपरीत, कोरोना का सच यह है कि अभी तक इसका इलाज खोजा ही नहीं जा सका है। अब कहीं रोकथाम का एकमात्र रास्ता टीकाकरण में तलाशा जा रहा है। मतलब कि कोरोना का इलाज हो ही नहीं रहा है और जो हो रहा है, वह बस बुख़ार कम बनाए रखने की जुगत है। किसी दिन इस रहस्य से पर्दा उठ ही सकता है कि कोरोना से लोगों की मौतें घरों के बजाय अस्पतालों में ग़लत इलाज के कारण ज़्यादा हुई हैं। (…जारी)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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