तन-मनस्वास्थ्य

वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ और महामारी—दो

मौतों का दो करोड़ या छह-सात करोड़ का आँकड़ा जब दूर-दूर तक दिखाई नहीं दिया तो इसे पूरा करने के लिए जुगत-जुगत भिड़ाए गए हैं। इसी क्रम में डब्ल्यूएचओ का वह बयान याद कर सकते हैं कि सङ्क्रमण का दूसरा दौर ज़्यादा ख़तरनाक हो सकता है। सवाल जायज़ है कि डरा-डराकर लोगों को मारने का कहीं अभियान तो नहीं चलाया गया? ज़्यादा लोग मरेंगे नहीं तो इसे महामारी कैसे कहा जा सकेगा?

कोरोना वायरस की अनुपस्थिति से इनकार नहीं किया जा सकता, पर यह भी सच है कि हममें से किसी ने इसे देखा नहीं है, बल्कि प्रयोगशालाओं के अभाव में बड़े-बड़े डॉक्टरों और वैज्ञानिकों की बिरादरी में से भी 99 प्रतिशत ने कोरोना वायरस नहीं देखा है। ऐसे में, विश्व स्वास्थ्य सङ्गठन (डब्ल्यूएचओ) जो कहे, उसी को आँख मूँदकर हम मान रहे हैं। इस संस्था पर आरोप लगते रहे हैं कि यह अमेरिका के इशारे पर काम करती रही है, पर अब अमेरिका इससे नाराज़ है। डब्ल्यूएचओ पर इस बात के आरोप हैं कि उसने अमेरिका को सही समय पर जानकारी नहीं दी। आरोप यह भी है कि डब्ल्यूएचओ की चीन के साथ मिलीभगत है। चीन की बात आई है तो इस बात पर ध्यान दीजिए कि आख़िर चीन के सिर्फ़ एक ही शहर तक वायरस क्यों सिमट कर रह गया, बाक़ी शहरों तक क्यों नहीं फैला? क्या कोरोना की चीन से कोई रिश्तेदारी थी, जो उसने बाक़ी चीन को बख़्श दिया? चीन के लोग अपने देश में सबसे ज़्यादा एक जगह से दूसरी जगह को जाते रहे होंगे, पर वायरस वुहान के अलावा पूरे चीन को छोड़कर पूरी दुनिया में फैल गया! यह दिलचस्प है कि जो चीन अपनी बातें अपनी सरहदों से बाहर नहीं निकलने देता, वह कोरोना के मामले में ख़ुद वीडियो और ख़बरें जारी कर-करके पूरी दुनिया को बता रहा था कि कैसे वुहान को लॉकडाउन किया जा रहा है और कैसे सोशल डिस्टेंसिङ्ग व मास्क जैसी चीज़ों को अनिवार्य करके कोरोना को फैलने से रोकने की युद्ध स्तर पर कोशिशें की जा रही हैं। ऐसा लगता है जैसे कि चीन पूरी दुनिया को दिखा-दिखाकर प्रेरणा या कहें कि ट्रेनिङ्ग दे रहा था कि लॉकडाउन कैसे करना है या कि कैसे सोशल डिस्टेंसिङ्ग करनी है, मास्क और हैण्डसेनेटाइजर का इस्तेमाल करना है। कुल नतीजा यह निकला कि इधर दुनिया पूरी तरह से ठप हो गई और उधर चीन पूरी तरह से चालू हो गया। उसके कारख़ाने दिन-रात उत्पादन में लगे रहे। जब कोरोना का भय दुनिया से समाप्त होता दिखने लगा तो पिछले दिनों चीन ने भय फैलाने के लिए फिर से नया नाटक लिखने की तैयारी शुरू की, पर बात ज़्यादा आगे नहीं बढ़ पाई। डब्ल्यूएचओ और चीन की मिलीभगत के आरोप की मज़बूती इस बात में भी है कि डब्ल्यूएचओ के अध्यक्ष टेड्रास चीन के ही समर्थन से इस पद पर क़ाबिज़ हुए थे।

डब्ल्यूएचओ की सन्देहास्पद भूमिकाओं का आरोप एक और कारण से प्रबल हो जाता है। इसके लिए थोड़ा अतीत में जाने की ज़रूरत है। पहले डब्ल्यूएचओ की महामारी की परिभाषा में दो बातें शामिल थीं। एक बात यह थी कि वायरस नया हो तो महामारी की बात सोची जा सकती है। दूसरी बात यह थी कि सामान्य बीमारियों की तुलना में अगर छह गुना मौतें हो रही हों तो महामारी की स्थिति बनती है। वायरस का नया होना और मौतों का छह गुना होना, दोनों बातें साथ-साथ थीं। 4 मई, 2009 को डब्ल्यूएचओ ने महामारी घोषित करने की शर्तों में से छह गुना मौतों वाली बात हटा दी। यानी वायरस के नए होने मात्र से किसी बीमारी को महामारी घोषित किया जा सकता है। आपको याद होगा कि इसके ठीक अगले महीने यानी जून-2009 में स्वाइन फ्लू (H1N1) को महामारी घोषित किया गया। यहाँ तक भी बात ग़नीमत थी, पर मामला तब सङ्गीन हो गया, जब कुछ ही समय बाद फार्मा कम्पनियों के साथ डब्ल्यूएचओ के गठजोड़ की बात उठी और ब्रिटेन की संसदीय समिति ने उसमें 18 मिलियन डॉलर का घोटाला पकड़ा।

शायद ही किसी को डब्ल्यूएचओ का वह शुरुआती बयान भूला होगा, जिसमें उसने कहा था कि कोरोना की वजह से दुनिया भर में दो करोड़ लोग तक मौत के शिकार हो सकते हैं। उसका सहयोग कर रही कुछ और रिपोर्टें बता रही थीं कि मौतों की सङ्ख्या छह-सात करोड़ तक जा सकती है। ‘लांसेट’ जैसी एलोपैथी की पुरज़ोर वकालत करने वाली पत्रिका डब्ल्यूएचओ का क़ायदे से साथ देती रही है। दुनिया के कई देशों में होम्योपैथी, आयुर्वेद जैसी वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों पर पाबन्दी लगवाने में इसकी बहुत बड़ी भूमिका कही जाती रही है। जो भी हो, मौतों का दो करोड़ या छह-सात करोड़ का आँकड़ा जब दूर-दूर तक दिखाई नहीं दिया तो इसे पूरा करने के लिए जुगत-जुगत भिड़ाए गए हैं। इसी क्रम में डब्ल्यूएचओ का वह बयान याद कर सकते हैं कि सङ्क्रमण का दूसरा दौर ज़्यादा ख़तरनाक हो सकता है। सवाल जायज़ है कि डरा-डराकर लोगों को मारने का कहीं अभियान तो नहीं चलाया गया? ज़्यादा लोग मरेंगे नहीं तो इसे महामारी कैसे कहा जा सकेगा? कम लोग मरेंगे तो ख़ौफ़ कम होगा और फिर वैक्सीन, दवाओं, टेस्ट किट और भाँति-भाँति के मेडिकल उत्पादों का धन्धा कैसे बढ़ेगा? सन्देह की एक बड़ी वजह यह भी है कि जिस सङ्गठन की ज़िम्मेदारी संसार की सेहत के लिए काम करने की है, वह महामारी जैसी स्थितियों में भी सभी पैथी वालों को साथ बैठाकर इलाज की सम्भावनाएँ तलाशने के बजाय मॉडर्न मेडिकल साइंस के नाम पर सिर्फ़ एलोपैथी के साथ खड़ा होता है और बाक़ी पैथियों को अपनी गाइडलाइन से बाहर रखता है। यहाँ यह भी जानना दिलचस्प है कि कोरोना का ख़ौफ़ शुरू हुआ तो शुरू में आयुर्वेद का मज़ाक़ उड़ाया गया कि इससे भला इस बीमारी में क्या होगा…पर आज का हाल यह है कि अस्पतालों में जिन्हें आयुर्वेदिक काढ़ा और हल्दी-दूध वग़ैरह दिया गया, वे ही ज़्यादा अच्छे से ठीक होकर घर लौटे। हमारी रसोई के हल्दी, दालचीनी, काली मिर्च, सोंठ, लौंग जैसे मसाले हमारी इम्युनिटी के लिए ज़्यादा कारगर साबित हुए।

डब्ल्यूएचओ की बात चली है तो एक बात पर और ध्यान दे लेना चाहिए। डब्ल्यूएचओ ने हमारे स्वास्थ्य मन्त्री हर्षवर्धन को कार्यकारी बोर्ड का अध्यक्ष क्यों बनाया? भारत की बारी होना एक बात है, पर भारत के स्वास्थ्य मन्त्री का ही चुनाव कर लेना दूसरी बात है। सन्देह इस बात के हैं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि अमेरिका का विरोध झेल रहे इस सङ्गठन ने अपनी साख बचाने के लिए हमारे सीधे-सादे स्वास्थ्य मन्त्री को मोहरा बना लिया है कि कम-से-कम भारत जैसे बड़े देश की ओर से उसके ख़िलाफ़ विरोध का कोई स्वर न उठे। इसके अलावा भारत के साथ अमेरिका की बढ़ती दोस्ती के चलते अमेरिका का रुख़ नरम करने में भी मदद मिल सकती है।

अजीब बात है कि वैश्विक संस्थाओं से लेकर हमारा मीडिया तक डर का माहौल बनाने में जैसे प्राणपण से लगा हुआ है। अगर कोरोना सङ्क्रमण के आँकड़े इस तरह से रोज़-रोज़ देने ज़रूरी हैं तो क्या अन्य बीमारियों के आँकड़े रोज़-रोज़ नहीं दिए जाने चाहिए? सच्चाई यही है कि जिन बीमारियों में इससे ज़्यादा मौतें होती हैं, अगर उनकी भी बुलेटिन हरदिन जारी की जाय तो आश्चर्यजनक रूप से कोरोना का सारा भय भाग जाएगा। एक बात समझिए कि महामारी की हालत पैदा होने पर बिना मीडिया के शोर मचाए भी सङ्केत मिलने ही लगते हैं। अतीत में सदी-दर-सदी जब-जब महामारियाँ आई हैं तो आज की तरह मीडिया नहीं था। गाँव-क़स्बे से जब आए दिन लाशों पर लाशें निकलती थीं तो पता चल जाता था कि महामारी है और लोग गाँव-क़स्बा छोड़कर कुछ दिनों के लिए पास-पड़ोस के नदी-तलाब के किनारे डेरा जमा लेते थे। कारोना-काल का हाल यह रहा कि मीडिया क्षण-क्षण अपडेट देना बन्द कर देता अथवा लोग ही दो-चार दिन ख़बरों से निगाह हटा लेते तो ज़रा भी पता न चलता कि कहीं कोई महामारी है। ख़बरों से नज़र हटते ही सारा डर ख़त्म हो जाता। आपने ध्यान दिया होगा कि रूस-यूक्रेन युद्ध में जब तक मीडिया दिन-रात उसकी लाइव रिपोर्टिङ्ग कर रहा था, तब तक ऐसा लग रहा था कि जैसे यह सब हमारे आसपास ही हो रहा है, और कि जैसे पूरी दुनिया ही युद्धरत है; पर जैसे ही मीडिया ने ख़बरें चलानी कम कर दीं, तो दो-तीन दिन में ही लगने लगा कि जैसे अब कहीं कोई युद्ध न हो। साल-छह महीने में जैसे पहले मुहल्ले-क़स्बे-गाँव का कोई व्यक्ति अल्लाह को प्यारा हो जाता था वैसे ही आज भी हो रहा है। दूसरी लहर में ज़रूर हमने अपने आसपास स्पष्ट रूप से कुछ मौतें देखीं, पर सोचना पड़ेगा कि यह कोरोना की सहज मौतें थीं या पहली लहर के कुप्रबन्धन और अस्पतालों की ग़ैरज़िम्मेदारी की वजह से? यहीं पर याद कीजिए कि एक अस्पताल पर आरोप लगा कि उसने मॉकड्रिल का नाटक करके 22 कोरोना मरीज़ों को मौत के घाट उतार दिया।

बहरहाल, बीमारी साधारण हो या महामारी, पर वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों की तरफ़ से ध्यान हटाने की तमाम कोशिशों के बावजूद इन पैथियों ने भारत की स्थिति को बदतर होने से काफ़ी हद तक बचाया।  हृदय रोग, रक्तचाप, मधुमेह वग़ैरह से पीड़ित लोग इस कोरोना-काल में काफ़ी सावधान हुए और अपनी इम्युनिटी बढ़ाने के लिए वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों का सहारा लिया। एक बड़ी आबादी चाय की जगह आयुर्वेदिक काढ़ा, गिलोय वग़ैरह लेने लगी है और बेहतर महसूस कर रही है। ढाई साल से हम सिर्फ़ कोरोना के आँकड़े सुनते रहे तो लगता रहा कि दुनिया जैसे मरी जा रही है, पर पहली लहर के बाद दिल्ली नगर निगम ने आँकड़े जारी किए तो पता चला कि उसके एक साल पहले की तुलना में कोरोना-काल में कुल मौतों की सङ्ख्या वास्तव में कम हो गई थी। यह वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों की ओर लोगों के बढ़ते रुझान की वजह से सम्भव हुआ।

कोविड-19 ने आधुनिक चिकित्सा प्रणाली को जिस तरह से किङ्कर्तव्यविमूढ़ किया, उससे यह स्पष्ट हो गया है कि भारत की सत्ता-व्यवस्था को वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों पर भरोसा करना चाहिए था। सेहत पर हमारा अपना मज़बूत तन्त्र होना चाहिए था, हमारी अपनी हेल्थ एडवायजरी होनी चाहिए थी, पर हमने ख़ुद को पश्चिमी तन्त्र के रहमोकरम पर छोड़कर ख़ुद की सम्भावनाशील पद्धतियों तक को उपेक्षा का शिकार बना दिया है। आयुष मन्त्रालय बना ज़रूर है, पर वैसा काम वह कर नहीं पा रहा है, जैसे काम की उससे उम्मीद की जाती है। अगर हमारी सरकार ने आयुर्वेद, होम्योपैथी, नेचुरोपैथी, यूनानी, सिद्ध वग़ैरह पर ठीक से भरोसा किया होता तो सङ्क्रमण भले कितना ही बढ़ जाता, पर हमारे देश को इतनी मौतों का सामना न करना पड़ता। दिलचस्प है कि तमाम किन्तु-परन्तुओं के बीच जब कुछ जगहों पर आयुर्वेद और होम्योपैथी को ट्रायल की छूट दी गई तो ये पैथियाँ ही सबसे ज़्यादा कारगर साबित हुई हैं। इस लेखक ने स्वयं व्यक्तिगत स्तर पर होम्योपैथी, नेचुरोपैथी और आयुर्वेद की सहायता से डेढ़ हज़ार से ज़्यादा कोरोना मरीज़ों का सफलतापूर्वक आसानी से इलाज किया। लेखक के बनाए वायरल पर्चे से हज़ारों लोगों ने घर में रहते हुए ही अपना इलाज ख़ुद किया। नेचुरोपैथी में बिना दवा के सिर्फ़ खानपान के सुधार से हज़ारों कोरोना मरीज़ आसानी से ठीक किए गए। ऐसे में, अच्छी बात यही होगी कि एलोपैथी जहाँ स्पष्ट रूप से कारगर हो सकती है, उसका इस्तेमाल वहीं किया जाए, बाक़ी वैकल्पिक पद्धतियाँ जहाँ प्रभावी सिद्ध हो सकती हैं, वहाँ उनको काम करने दिया जाए।

महामारी को मात देने में वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ, ख़ास तौर से होम्योपैथी और नेचुरोपैथी विशेष कारगर हैं तो इसकी एक ख़ास वजह है। वास्तव में ये पैथियाँ किसी वायरस या बैक्टीरिया को ख़तरा नहीं मानतीं। इनके हिसाब से वायरस या बैक्टीरिया लाखों-करोड़ों की सङ्ख्या में हमारे शरीर में अन्दर-बाहर होते ही रहते हैं, वे ख़तरा तभी बनते हैं, जब हम अपनी इम्युनिटी कमज़ोर करके अपने भीतर उनको पनपने का माहौल देते हैं। इन पद्धतियों के अनुसार एक स्वस्थ शरीर के लिए माहौल में वायरस और बैक्टीरिया की मौजूदगी ज़रूरी है, क्योंकि माहौल में वायरस और बैक्टीरिया न हों तो हमारे शरीर में रोगों से लड़ने की इम्युनिटी विकसित ही नहीं हो सकती।

आधुनिक चिकित्सा पद्धति बनाम वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के सन्दर्भ में समझने की बात है कि हमारे शरीर को प्रकृति ने भाँति-भाँति के रसायनों से इलाज के लिए नहीं डिज़ाइन किया है। शरीर इलाज के उसी तरीक़े को सहजता से स्वीकार करता है, जो इसके लिए बनाए गए आहार के तरीक़े के आसपास हो। प्राकृतिक चिकित्सा तो एक तरह से आहार शैली ही है। होम्योपैथी में दवा की स्थूल मात्रा समाप्त कर दी जाती है। आयुर्वेद का भी अधिकांश हिस्सा आहार शैली है और इसमें दवाओं का रूप कितना भी बदल दिया जाय, पर कभी भी किसी एक ख़ास रसायन को जड़ी-बूटी से पूरी तरह अलग नहीं किया जाता। अगर कुछ अलग भी किया जाता है, तो वह भी तत्त्वों के समन्वयकारी समुच्चय के रूप में होता है, मसलन, भस्म, क्षार, सत्त्व वग़ैरह। भस्म वग़ैरह बनाए जाते हैं तो इस तरह से कि शरीर उन्हें सहजता से स्वीकार कर सके। वास्तव में आयुर्वेद को जैसा आज हम समझते हैं, यह उससे बहुत आगे की चीज़ है। सदियों पहले ‘सुश्रुत संहिता’ में वर्णित सर्जरी के औज़ारों और तरीक़ों के प्रकाश में आने के बाद इसका लोहा अब पूरी दुनिया मान रही है। कहा यहाँ तक जा रहा है कि सुश्रुत ने जिस तरह के औज़ारों का वर्णन किया है, कुछ मामलों में उस स्तर की तकनीकी तक अभी हम नहीं पहुँच पाए हैं। यह भी सोचने की बात है कि हमारे अतीत के चिकित्सा विशेषज्ञों के पास आख़िर कोई-न-कोई उच्च वैज्ञानिक परीक्षण विधि रही होगी, जिसके सहारे उन्होंने हज़ारों-हज़ार जड़ी-बूटियों के गुणधर्मों का आश्चर्यजनक रूप से सटीकता के साथ पता लगाया। आयुर्वेद का त्रिदोष विज्ञान भी अद्भुत है। शरीर में कफ-पित्त-वात के सन्तुलन का आयुर्वेदिक अध्ययन इतना अजब और सटीक है कि आज भी जो वैद्य उस हिसाब से चिकित्सा करते हैं, वे कभी विफल होते नहीं देखे जाते। इस पूरे कोरोना-काल में देश के विभिन्न हिस्सों से रह-रहकर आती रही ख़बरों से यह साबित होता रहा है कि आयुर्वेद आज भी कोरोना जैसी महामारी को क़ाबू करने में सक्षम है। हज़ारों लोग आयुर्वेदिक पद्धति से ठीक किए गए हैं। यह ख़बर सुकून देने वाली है कि दिल्ली के ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ आयुर्वेदिक साइंस से क़रीब 94% मरीज़ अपना इलाज कराकर सकुशल घर वापस लौटे, वह भी बिना किसी साइड इफेक्ट के। गुजरात, मध्यप्रदेश, उत्तर प्रदेश, केरल जैसे विभिन्न राज्यों से ख़बरें आती रही हैं कि आयुर्वेद ने कोरोना के इलाज में कमाल किया है। स्वामी रामदेव के कोरोनिल ने लाखों मरीज़ों को मुसीबत से उबारने में मदद की है। इस बात के स्पष्ट सङ्केत है कि अगर आयुर्वेद को समय रहते बड़े पैमाने पर आज़माया गया होता तो आज देश का तसवीर कुछ और हो सकती थी। अन्तिम निष्कर्ष यही है कि इस महामारी को वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियाँ ज़्यादा बेहतर ढङ्ग से सँभाल सकती थीं, यह बात अलग है कि हमने सही समय पर इन पर भरोसा करने के बजाय वहाँ शरण लेने की सोची जहाँ कोई उपाय ही नहीं था। (…जारी) (सन्त समीर)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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