सातों दिन भगवान के…
आपने अपने आपको नहीं बनाया, आपकी ज़िन्दगी की डोर आपके हाथों में नहीं है, आपमें तो दरअसल इस बात तक का दम नहीं है कि आप डङ्के की चोट पर दावा कर सकें कि कल के दिन आप क्या करेंगे, क्या बोलेंगे। बावजूद इसके, यह तय है कि आप रोज़ कुछ-न-कुछ करेंगे, आपका दिमाग़ रोज़ कुछ-न-कुछ सोचे-विचारेगा।
जन्म कुण्डली और हाथ की रेखाएँ देखते-दिखाते लोगों को देखता हूँ तो सोचता हूँ, ज्योतिष क्या है? जवाब आता है, यह मानना कि होगा वही जो लिलार में लिखा होगा, फिर भी टोने-टोटके-गण्डे-ताबीज़-रत्नजड़ित अँगूठियों वग़ैरह के सहारे ऊपरवाले की लिखी तक़दीर को बदल देने का दम भरना। ख़ैर, मुतमइन रहिए कि हो-न-हो यह सब करना भी आपकी तक़दीर का ही हिस्सा हो। ज्योतिष मानने वाले भाग्यवादी भाइयों के पक्ष में एक ज़ोरदार तर्क है। वह यह कि आपने अपने आपको नहीं बनाया, आपकी ज़िन्दगी की डोर आपके हाथों में नहीं है, आपमें तो दरअसल इस बात तक का दम नहीं है कि आप डङ्के की चोट पर दावा कर सकें कि कल के दिन आप क्या करेंगे, क्या बोलेंगे। बावजूद इसके, यह तय है कि आप रोज़ कुछ-न-कुछ करेंगे, आपका दिमाग़ रोज़ कुछ-न-कुछ सोचे-विचारेगा। मतलब साफ़ है कि आपकी हरकतें कहीं और से निर्धारित हो रही हैं। यहाँ तक कि जिन चीज़ों को आप ख़ुद के द्वारा निर्धारित किया हुआ मानते हैं, उसकी भी डोर आपके हाथ में नहीं है। यह सब भाग्य नहीं तो क्या है? ज्योतिष के आधार के लिए इससे पुख़्ता सबूत और क्या चाहिए! लेकिन… इस ज्योतिष और भाग्यवाद को ख़ारिज करने के लिए मुझे कई पोस्ट लिखने पड़ेंगे। ज़रा-सी बात करके किसी को घनचक्कर नहीं बनाना चाहता। गाँधीजी ने कहा है कि यदि आप किसी को चलना नहीं सिखा सकते तो आपको उसकी बैसाखी छीनने का भी कोई अधिकार नहीं है। अपने बारे में बस इतना ही कहूँगा कि कोई ज्योतिषी मुझे कुछ बता दे तो मैं करता उसके उलट हूँ। अपनी शादी तक मैंने सबसे ख़राब मुहूर्त पूछकर की थी। शून्य पर खड़ा एक आदमी ऐसी हरकतें करते हुए भी पूरी ईमानदारी के साथ एक ऐसी स्थिति तक ख़ुद को पहुँचा ले जाय, जहाँ से वह कुछ ज़रूरतमन्दों की मदद भी कर सकता हो तो इससे बड़ी कामयाबी किसी की भला और क्या हो सकती है! मुफ़लिसी में भी ख़ुशी का फार्मूला हाथ लग जाय तो इससे बड़ी बात और क्या हो सकती है! जी हाँ, मैं ठीक कह रहा हूँ। एक वक़्त था कि जैसे तनावों के समन्दर में ही डूबता-उतराता रहता था, पर सब कुछ छिन जाने पर भी ख़ुश रहने का राज़ जान गया हूँ। ग़ुस्सा आए तो उसमें अन्धा बनने के बजाय उसे देखना और उसे कोई ख़ूबसूरत मोड़ देना सीख गया हूँ। कोई तारीफ़ करे, अच्छा लगता है, पर गुमनाम रहते हुए भी दुनिया के सबसे कामयाब लोगों में से एक मैं भी ख़ुद को मान सकता हूँ और ऐसा महसूस करने से मुझे कोई रोक नहीं सकता। तक़दीर का ख़याल आए तो निदा फ़ाज़ली का एक दोहा अक्सर याद आ जाता है—
सातों दिन भगवान के क्या मङ्गल क्या पीर। जिस दिन सोए देर तक भूखा रहे फ़क़ीर।।