अपनी हिन्दीसाहित्य

सिर्फ़ लिपि भर नहीं है देवनागरी

(मैं क्यों हिन्दी की क़ीमत पर भी देवनागरी लिपि को बचाने की बात करता हूँ? मैं क्यों हिन्दी में पञ्चमाक्षरों के फिर से चलन की वकालत करता हूँ? मैं क्यों कहता हूँ कि हिन्दी को रोमन में नहीं, बल्कि अँग्रेज़ी को देवनागरी में लिखने का अभियान चलाना चाहिए? आज की इस टिप्पणी में इन्हीं सवालों पर चन्द ज़रूरी बातें।)

कुछ ध्यान से देखने की कोशिश करें तो स्पष्ट दिखाई देगा कि देवनागरी दरअसल महज़ एक लिपि भर नहीं है। यह लिपि से कहीं आगे हमारी सांस्कृतिक विकास-प्रक्रिया का एक ऐसा चेहरा भी है, जिस पर आप गर्व कर सकते हैं। जब मैं सांस्कृतिक विकास प्रक्रिया की बात कर रहा हूँ तो आपसे यह निवेदन भी ज़रूर करूँगा कि हो सके तो थोड़ी देर के लिए आप अपनी मान्यताओं-आस्थाओं के खाँचे से ख़ुद को बाहर खड़ा करने की कोशिश करें और चीज़ों को बग़ैर किसी चश्मे के तटस्थ भाव से देखने की मानसिकता बनाएँ। याद रखिए, प्रकृति के आँगन में हमारे भाँति-भाँति के आवरणों का कोई मतलब नहीं है, या कि इस बात के कोई मायने नहीं हैं कि आप मार्क्सवादी हैं, गाँधीवादी हैं, पूँजीवादी हैं, विवेकानन्दवादी हैं, दयानन्दवादी हैं, रजनीशवादी हैं, कृष्णमूर्तिवादी हैं, राम-रहीम-ईसा के भक्त हैं अथवा कुछ और। प्रकृति की अपनी गति है, और वह किसी वाद के हिसाब से नहीं चलती। वाद अच्छे भी हो सकते हैं, पर वादों-मान्यताओं का सबसे बड़ा ख़तरा यही है कि उनके अपने दायरे बन जाते हैं और उन दायरों के प्रति आग्रहों के चलते कई बार उनके बाहर के सच को जाने-अनजाने हम नकारने की कोशिश करने लग जाते हैं। विचारधाराओं के झगड़े और साम्प्रदायिक दङ्गे मान्यताओं के प्रति ऐसे ही आग्रहों के प्रतिफल हैं। वैसे यह सच है कि बचपन से जो आस्थाएँ हमसे चिपकाई जाती रही हैं, उन्हें अचानक तटस्थ भाव से देखने लग जाना आसान नहीं है, पर यह भी सच है कि सच्चाई की तलाश की बुनियादी शर्त यही है। मतलब यह कि जीवन में सहज होते जाना सबसे ज़रूरी चीज़ है।

 अब देवनागरी लिपि के बारे में कल की अपनी इस घोषणा पर आता हूँ कि–प्रकृति की ध्वनियों को पकड़ने की इससे बेहतर लिपि संसार में अभी तक और कोई नहीं है। परीक्षा करनी हो तो सबसे पहले यह कीजिए कि जितनी भी लिपियाँ आप जानते हों, उनके कुछ वर्णों का उच्चारण कीजिए, फिर देवनागरी पर ध्यान दीजिए। देवनागरी में अ..है तो ..अ, इ..है तो ..इ, क..है तो..क, ख है तो ..ख। इसी तरह सारे वर्णों को आप वही लिखते हैं जो आप बोलते हैं। भाषा का इससे बड़ा जादू और क्या हो सकता है? कुछ ध्वनियों के उच्चारण हम भूल चुके हैं तो यह हमारी ग़लती है ध्वनियों की नहीं। देवनागरी के हर वर्ण की बनावट में भी एक जादू है। आपको यह जानकर ताज़्ज़ुब होगा कि हर वर्ण अपनी बनावट में अपने मूल अर्थ का भान कराता है।

वर्णों की बनावट की बात करूँ, इसके पहले यह बताना ज़रूरी है कि देवनागरी की इस अजब-ग़ज़ब ध्वन्यात्मकता की मूल वजह क्या है। वास्तव में भारतीय मनीषा समूची प्रकृति को ही एक लयबद्ध रचना मानती है। अगर मैं – प्रातरग्निं प्रातरिन्द्रं…- जैसे किसी मन्त्र का अर्थ करके बताऊँ तो शायद आपको बात आसानी से समझ में आ जाएगी, पर लम्बी होती हुई पोस्ट और लम्बी न हो जाय, इसलिए इस पर फिर कभी…। यहाँ बस इतना ही समझ लेना पर्याप्त है कि हमारे पुरखे मानते थे कि प्रकृति में कुछ भी अललटप्प नहीं है। पूरी प्रकृति सुविचारित है, तारतम्य में है और इसका ज़र्रा-ज़र्रा नियमों में बँधा है। इसी सोच की वजह से आस्तिकता का जन्म हुआ कि यह सृष्टि नियन्त्रण में है और इसका कोई नियन्ता है। कृपया यहाँ नियन्ता का अर्थ अपनी-अपनी मान्यता के देवी-देवताओं या अल्लाह-गॉड वग़ैरह से न लगाएँ। इस बुनियादी सोच के चलते हमारे लोगों ने प्रकृति में अललटप्प ढङ्ग से जीने के बजाय इसके साथ समरस होकर जीने का तरीक़ा अपनाया। इसीलिए उन लोगों ने अपने काम के भौतिक-अभौतिक जो भी उपकरण बनाए, उन सबमें भी एक लयबद्धता तलाशी और अन्तिम सीमा तक उनकी बुनियाद प्राकृतिक रखने की कोशिश की। योग, सङ्गीत, आयुर्वेद..जैसी अन्यान्य विद्याओं के प्राचीन रूपों में आप इस लयबद्धता को साफ़ तौर पर महसूस कर सकते हैं। यहाँ मैं प्रकृति के सिर्फ़ ऊपरी आवरणों में उलझे हुए तमाम विज्ञानवादियों से माफ़ी माँगना चाहूँगा, क्योंकि देवनागरी के विकास के ढर्रे की पड़ताल करते हुए नक़ली विज्ञान और विकासवाद की कई धारणाएँ धराशायी होती हुई नज़र आएँगी। ध्यान में रखने की बात है कि देवनागरी लिपि का जब विकास होना शुरू हुआ तो यह देश श्रुति परम्परा के सहारे ज्ञान-विज्ञान की समझ में संसार में सबसे आगे था। समझदारी के शिखर पर बैठे एक समाज ने जब अपने लिए एक लिपि की ज़रूरत महसूस की होगी तो ज़ाहिर है, उसकी लिपि संसार के अन्य समाजों की लिपियों की तरह बिना समझदारी वाली तो नहीं ही हो सकती।

यह भी याद दिलाता चलूँ कि मेरे जैसे लोग ही देवनागरी की सामर्थ्य पर लहालोट हुए जा रहे हैं, ऐसी भी बात नहीं है। क़रीब एक शताब्दी पहले ही आशुलिपि के अनुसन्धानकर्ता आइजक पिटमैन और मोनियर विलियम्स जैसे प्रसिद्ध अङ्ग्रेज़ विद्वानों को भी मानना ही पड़ा था कि संसार की समस्त लिपियों में देवनागरी में सबसे ज़्यादा पूर्णता है।

आइए, पहले ज़रा अपनी वर्णमाला का कुछ सामान्य ज्ञान कर लें। केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय ने हिन्दी की वर्णमाला में 11 स्वर (अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ए, ऐ, ओ, औ) तथा 35 व्यञ्जन (क, ख, ग, घ, ङ, च, छ, ज, झ, ञ, ट, ठ, ड, ढ, ण, त, थ, द, ध्, न, प, फ, ब, भ, म, य, र, ल, व, श, ष, स, ह, ड़, ढ़) मूल रूप में स्वीकार किए हैं। ऋ, लृ के दीर्घ रूपों को सिर्फ संस्कृत-लेखन की दृष्टि से उपयोगी माना गया है।

वैसे, यहाँ हम देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता को ठीक से समझने के लिए हिन्दी में व्यवहृत वर्णों के बजाय संस्कृत में प्रयुक्त होने वाली मूल वर्णमाला के परिप्रेक्ष्य में ही विचार करेंगे, ताकि बात ठीक से स्पष्ट हो सके। इस दृष्टि से देवनागरी में वास्तव में कुल 64 वर्ण हैं। 25 स्वर, 25 वर्ग (कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग) के तथा 13 स्फुट के जोड़कर 63 अक्षर हुए और इनमें एक अर्धचन्द्र मिलाकर कुल 64 होते हैं। पाणिनि ने इसी विषय में लिखा है–‘त्रिषष्टिः चतुः षष्टिर्वा वर्ण शम्भुमते मताः।’ अर्थात् शम्भु परमात्मा के वैदिक मत के 63 या 64 वर्ण हैं। इन वर्णों पर और सूक्ष्मता से विचार करें तो पता चलेगा कि वैदिक वर्णमाला में मूलतः 17 अक्षर हैं। केवल प्रयत्न से उच्चारित होने वर्णों, यानी स्वरों (अ, इ, उ, ऋ, लृ) की सङ्ख्या 5 तथा जिनके उच्चारण में स्थान और प्रयत्न दोनों सहायक होते हैं, यानी व्यञ्जनों (क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब) की सङ्ख्या 10 है। दो मध्यस्थ, यानी अनुस्वार तथा विसर्ग हैं। ये ही 17 अक्षर आपसी संयोग से 64 प्रकार के स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। वैसे ज़्यादा गहरे उतरने की कोशिश करें तो पता चलेगा कि सारी ध्वनियों की जड़ में एक अदद ध्वनि या वर्ण ‘अ’ है। मुँह सहज रूप से खुलता है तो सबसे पहले ‘अ’ ही निकलता है। इस ‘अ’ को बोलते हुए जब जीभ को इधर-उधर हिलाते-डुलाते या स्पर्श कराते हुए उच्चारण किया जाता है तो भाँति-भाँति की ध्वनियाँ सुनाई देने लगती हैं। इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि आप हिन्दी बोल रहे हैं या अँग्रेज़ी। अब ज़रा इस मज़ेदार और एकदम प्राकृतिक या कहें परम वैज्ञानिक ध्वनि परिवर्तन की प्रक्रिया की एक बानग़ी देखें कि कैसे एक वर्ण से दूसरा वर्ण मिलता है तो सहज रूप से एक तीसरे वर्ण का जन्म हो जाता है। प्रयोग के तौर पर आप ‘क’ और ‘ह’ को मिलाकर बोलने की कोशिश करें। आश्चर्यजनक रूप से आपकी ज़ुबान से ‘ख’ सुनाई देगा। इसी तरह बताने की ज़रूरत नहीं है कि ग+ह=घ, च+ह=छ, ज+ह=झ, ट+ह=ठ, ड+ह=ढ, त+ह=थ, द+ह=ध, प+ह=फ, ब+ह=भ…बन जाते हैं। यह देवनागरी के ध्वनि-विज्ञान की तरफ़ इशारा भर है, क्योंकि इस बात का पूरा ज़िक्र करने में कि कैसे मुँह के भीतर ज़ुबान के अलग-अलग स्थानों पर स्पर्श करने से अलग-अलग वर्ण बनने लगते हैं, एक पूरी पुस्तक लिखने की ज़रूरत पड़ सकती है। संसार की अन्य भाषाओं की लिपियों में वर्णों के विकास और शब्द निर्माण में कहीं कोई वैज्ञानिकतापूर्ण समझ नहीं नज़र आती, परन्तु देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता का इससे स्पष्ट प्रमाण और क्या हो सकता है कि कोई ध्वनि जैसी उच्चारित होती है, उसे उसी रूप में इस लिपि में लिखा जाता है।

देवनागरी के वर्ण कैसे अपनी बनावट में भी अपने अर्थ का भान कराते हैं, अब ज़रा इस पर निगाह डालते हैं। शुरू के दो मूल स्वरों ‘अ’ और ‘इ’ की ही संक्षिप्त विवेचना कर लें तो बाक़ियों के लिए बात साफ़ हो जाएगी। इस विवेचना से पहले एक बात यह समझ लेने की है कि हमारे मनीषी प्रकृति में विद्यमान हर चीज़ को अपने मूल रूप में सार्थक मानते थे। उनके हिसाब से इस संसार में कुछ भी निरर्थक नहीं है। इसीलिए वे भाषा की मूल इकाई वर्णमाला के हर अक्षर को भी अर्थ युक्त मानते थे। संस्कृत के शब्दकोशों में देखें तो विभिन्न वर्णों के भी प्रायः कुछ-न-कुछ अर्थ लिखे हुए मिल जाएँगे। इसी विषय में महर्षि पतञ्जलि अपने महाभाष्य में लिखते हैं–‘अर्थवन्तो वर्णाः। धातुप्रातिपदिकप्रत्ययनिपातानामेकवर्णानामर्थदर्शनात्। धातव एकवर्णाः अर्थवन्तो दृश्यन्ते प्रातिपदिकान्येकवर्णान्यर्थवन्ति।…निपाता एकवर्णा अर्थवन्तः।’ अर्थात् वर्ण अर्थ वाले हैं। धातु, नाम, प्रत्यय और निपात का प्रत्येक वर्ण अर्थवान् होता है। धातु एक वर्ण का अर्थवान् होता है, नाम अनेक वर्णों के संयोग से अर्थवान् होते हैं और निपात एक वर्ण का अर्थवान् होता है।

ऋग्वेद में तो इससे भी पहले लिखा है—‘ऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन्देवा अधि विश्वे निषेदुः। यस्तन्न वेद किमृचा करिष्यति य इत्तद्विदुस्त इमे समासते।।’ अर्थात् ऋचाएँ परम अविनाशी शब्दमय अक्षर में ठहरी हैं, जिनमें देवता अर्थात् शब्द के विषय (अर्थ) ठहरे हैं। जो उस अक्षरार्थ को नहीं जानता, वह ऋचाओं से क्या लाभ प्राप्त करेगा? सीधे-सीधे वर्णों का ही उल्लेख देखना हो तो छान्दोग्य उपनिषद् में ‘सत्य’ शब्द का अर्थ बताने वाला यह मन्त्र देखना चाहिए—‘तानि ह वा एतानि त्रीण्यअक्षराणि ‘स-ति-यमिति’। तद्यत् सत् तदमृतमथ यत् ति तन्मत्र्यमव यद् यम् तेनोभे यच्छति।।’ अर्थात् ‘सत्य’ शब्द के तीन अक्षरों में ‘स’ का अर्थ अमृत ‘त’ का अर्थ मर्त्य और ‘य’ का अर्थ दोनों को नियम में रखने वाला है।

यास्क के निरुक्त में भी वर्णों के अर्थ बताए गए हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में तो इस तरह के ढेरों उदाहरण मिल जाएँगे। वास्तव में संस्कृत व्याकरण में धातु विज्ञान के मूल में यही अक्षरार्थ की विद्या है। वर्णार्थों का यह रहस्य मालूम हो तो धात्वर्थ की तार्किकता भी समझ में आने लगती है। कुछ उदाहरणों से आप वर्णों के अर्थवान् होने की बात को और आसानी से समझ सकते हैं। ‘अ’ और ‘आ’ के बारे में आप जानते ही होंगे कि किसी शब्द के आगे ‘अ’ लगा दीजिए तो वह नकारात्मक हो जाता है, यानी ‘अ’ के अर्थ ‘नहीं’ और ‘अभाव’ के हैं, जैसे कि ‘तार्किक’ से ‘अतार्किक’। इसके उलट ‘आ’ किसी शब्द के पूर्व लगाने पर इसके सम्पूर्णता और भाव के अर्थ निकलने लगते हैं। ‘ख’ के मूल अर्थों में से एक ‘आकाश’ भी है। ‘खग’ शब्द में इसका अर्थ आप पहचान सकते हैं। इसी शब्द में ‘ग’ वर्ण के गति वाले अर्थ को भी आप समझ सकते हैं। खग का मतलब है, आकाश में गति करने वाला, यानी पक्षी। इसी तरह ‘ज’ का मतलब है, जन्म लेना, पैदा होना। जल में, पङ्क में पैदा होने के कारण ही कमल को जलज, पङ्कज वग़ैरह भी कहते हैं। ‘द’ का अर्थ देना भी होता है, इसीलिए नीर या जल देने वाला नीरद, जलद, यानी बादल भी होता है। संस्कृत के दो-चार वाक्य भी आपने पढ़े होंगे तो ‘च’ से आपका साबक़ा ज़रूर पड़ा होगा, जिसका एक मतलब ‘और’ होता है। ‘ह’ का मतलब ‘निश्चय’ होता है। जब आप कहते हैं कि ‘मैं फल ही खाऊँगा’ या ‘मैं यह काम करूँगा ही’, तो ‘ह’ का निश्चयात्मक अर्थ आसानी से समझ में आ जाता है। इसी तरह से अन्यान्य वर्णों के भी अपने अर्थ हैं, लेकिन विस्तार भय से इस प्रकरण को यहीं छोड़ रहा हूँ।

अब देखें कि वर्णमाला के पहले अक्षर ‘अ’ का पुराना रूप कैसे बना। वर्णों के पुराने रूपों को बनाने का युनिकोड में कोई तरीक़ा दिखाई नहीं दे रहा, इसलिए इस पोस्ट के अन्त में एक तसवीर दे रहा हूँ, ताकि आप उसके सहारे वर्णों की तुलना कर सकें। अक्षरों की बनावट में वास्तव में उच्चारण के समय मुँह में बनने वाले आकार तथा अक्षरार्थ, दोनों का ध्यान रखा गया है। ‘अ’ का उच्चारण करते समय इसकी ध्वनि तालु से लेकर बाहर तक सीधे दण्ड (।) जैसे आकार में निकलती है। तो यह दण्ड या स्तम्भ (।) ही ‘अ’ के पुराने रूप (तसवीर में देखें) का मूल है। चूँकि किसी भी अक्षर का उच्चारण बिना अ-कार के सम्भव नहीं होता तो इसलिए वर्णमाला के हर अक्षर की बनावट में भी इस स्तम्भ की मौजूदगी दिखाई देती है, यानी ‘अ’ सबमें समाया हुआ है। कोई मात्रा (स्वर) लगाई जाती है तो वह भी इसी स्तम्भ यानी ‘अ’ पर लगाई जाती है। ‘अ’ (पुराने रूप पर ध्यान दें) की बनावट में एक विशेषता यह है कि यह स्वतन्त्र रूप में लिखा जाता है तो (।) के बजाय शून्य जैसे आकार ‘0’ में दण्ड (।) जोड़कर बनाया गया है। 0 का आकार इसलिए कि अ-कार की ध्वनि निकलते समय पूरा मुँह जिस आकार में चारों ओर से एक समान खुला रहता है (सर्व मुखस्थानमवर्णमित्येके—पाणिनि), उसका सबसे अच्छा चित्र 0 ही हो सकता है। मज़े की बात है कि ‘अ’ अक्षर पूर्ण, सर्वव्यापक, अखण्ड के साथ-साथ अभाव के अर्थ वाला भी है, तो पूर्णता और अभाव दोनों के लिए भी 0 सर्वथा उपयुक्त प्रतीक है। इस तरह स्पष्ट हुआ कि ‘अ’ के पुराने रूप की बनावट में कितनी वैज्ञानिकता है।

इसी प्रकार ‘ई’ के अक्षरार्थ पर ध्यान दें तो इसका अर्थ ‘गति’ है। निःसन्देह कहा जा सकता है कि गति का स्वाभाविक प्रतीक बनाना हो तो उसे कुछ-कुछ सर्पिल बनाना पड़ेगा। ‘ई’ में गति का यही प्रतीक विद्यमान है। वास्तव में सारे वर्णों के विकास की कहानी कुछ ऐसी ही है। हो सकता है सृष्टि की उत्पत्ति और विकास को ‘अललटप्प ही हो गया’ मानने वाले जड़वादी लोग इन बातों को लेकर किन्तु-परन्तु करें, पर भारतीय विद्याओं की विकास प्रक्रिया पर ध्यान दें तो इस अक्षर विज्ञान में भी गहरे सारतत्त्व दिखाई देंगे।

देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता सिद्ध करने के लिए अक्षर-विज्ञान की इस सक्षिप्त चर्चा का आशय यही है कि इतनी वैज्ञानिकतापूर्ण ध्वन्यात्मक लिपि के होते हुए भी जो लोग हिन्दी को रोमनमय बनाना चाहते हैं, वे वास्तव में अमूल्य हीरा फेंककर कङ्कड़, पत्थर सहेजने वाला काम कर रहे हैं। यह बात ज़रूर है कि हमारी लिपि के मूल ध्वनि-चिह्न वर्तमान तक आते-आते काफ़ी परिवर्तित हो गए हैं, परन्तु, इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि अक्षरात्मकता और ध्वन्यात्मकता की इसकी मूल विशेषता का इससे क्षरण नहीं हुआ है।

देवनागरी की वैज्ञानिकता का एक निरुत्तर कर देने वाला उदाहरण यह भी है कि इसमें स्वर-व्यञ्जन, अल्पप्राण-महाप्राण, अनुनासिक्य-अन्तस्थ-ऊष्म आदि रूपों में ध्वनि-चिह्नों की क्रम-व्यवस्था को ध्वनि-वैज्ञानिक पद्धति से उच्चारण स्थान तथा प्रयत्नों को आधार बनाकर तय किया गया है। इसमें अन्य भाषाओं की तरह एक चिह्न से अनेक ध्वनियों को व्यक्त नहीं किया जाता, बल्कि प्रत्येक ध्वनि के लिए स्वतन्त्र चिह्न निर्धरित है। इससे लेखन में किसी भ्रम की गुञ्जाइश नहीं रह जाती। अँग्रेज़ी जैसी भाषा की रोमन लिपि में जिस तरह से विद्वान् से विद्वान् व्यक्ति को भी हर नए शब्द की वर्तनी (स्पेलिङ्ग) रटनी ही पड़ती है, उस तरह से देवनागरी लिपि में करने की आवश्यकता नहीं होती। इसमें तो वर्णमाला और मात्रा-विधान को जान लेने के बाद केवल शुद्ध उच्चारण जान-सुनकर भी किसी भी शब्द को ठीक रूप में लिखा जा सकता है।

देवनागरी लिपि की रक्षा इसलिए भी की जानी चाहिए, क्योंकि इस देश का प्राचीनतम वैभव इसी लिपि में सुरक्षित है। इसके अलावा यह संस्कृत, प्राकृत, पालि, अपभ्रंश, हिन्दी नेपाली, मराठी, सिन्धी, कोंकणी, विष्णुपुरिया, तामाङ, मगही, बोडो, अङ्गिका, भोजपुरी, मैथिली, अवधी आदि अनेक भाषाओं की लिपि है, तो अब उर्दू, गुजराती, पञ्जाबी, मणिपुरी आदि भाषाएँ भी नागरी में लिखी जाने लगी हैं। विलुप्तप्राय भाषा ‘ग्रेट अण्डमानी’ का शब्दकोश देवनागरी में ही शुद्धता के साथ लिखा जा सका है। निष्कर्ष यह है कि वर्तमान में विभिन्न देशों के बीच आपसी सम्पर्क जिस तीव्रता से बढ़ रहा है, उसके चलते कालान्तर में यदि संसार की समस्त भाषाओं के लिए किसी एक सर्वमान्य लिपि की आवश्यकता महसूस की जाएगी तो निश्चित रूप से सर्वाधिक उपयुक्त देवनागरी ही ठहरेगी; और इसलिए, इसकी रक्षा भी यथासम्भव की ही जानी चाहिए। (रचना तिथि—9 अक्टूबर, 2015, फेसबुक)

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सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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