सेहत का सर्वसुलभ शास्त्र रचते गान्धी
गान्धी न होते तो तमाम निराश रोगियों को जीवन दे रही प्राकृतिक चिकित्सा जैसी एक निरापद पद्धति के केन्द्र आज देश के तमाम नगरों-क़स्बों में दिखाई न देते। महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि हर किसी के आसपास, हर किसी के घर के भीतर-बाहर सहज उपलब्ध प्रकृति के इन उपादानों को गान्धीजी ने सिर्फ भौतिक रूप में ही नहीं देखा, इन्हें उन्होंने प्रकृति के साथ जीवन को समरस करते हुए आध्यात्मिक भाव से ईश्वर और धर्म की भारतीय संस्कृति के साथ जोड़कर देखा। आरोग्य की इस सहज विधा को गान्धी ने ‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे’ तक साधा और व्याख्यायित किया।
महात्मा गान्धी को अपने जीवन में तीन बार मलेरिया का सामना करना पड़ा। पहली बार सन् 1925 में, दूसरी बार सन् 1936 में और तीसरी बार सन् 1944 में। उनका बॉडी मास इण्डेक्स 17.1 यानी बहुत कम था। सन् 1939 में उनका वजन लिया गया था, तो वह सिर्फ़ 46.7 किलोग्राम था। 165 सेण्टीमीटर की लम्बाई के हिसाब से यह स्थित ‘अण्डरवेट’ वाली थी। लन्दन प्रवास के समय उन्हें फेफड़ों के सङ्क्रमण तक का सामना करना पड़ा। बवासीर और अपेण्डिक्स की समस्या से भी वे रूबरू हुए। कई बार ऐसी भी स्थितियाँ पैदा हुईं, जब लगा कि वे अब नहीं बचेंगे। इन सबके बावजूद गान्धी कभी अँग्रेज़ी दवाओं के रहमोकरम पर नहीं रहे। उच्च रक्तचाप से पीड़ित रहते हुए वे अपने जीवन में अगर बेहद शान्त रह लेते थे तो यह भी किसी आश्चर्य से कम नहीं है। यह अजूबा भी उनके साथ चस्पाँ है कि आज़ादी के सङ्घर्ष के दौरान वे जितना पैदल चले, उतने में धरती के दो चक्कर लगाए जा सकते हैं।
लम्बे-लम्बे उपवास सहने वाली इतनी दुबली-पतली और बीमार दिखने वाली काया में आख़िर इतना सामर्थ्य आया कहाँ से?
इसे समझना हो तो कुछ गहरे उतरना पड़ेगा। गान्धीजी की सङ्कल्प शक्ति के अलावा स्वास्थ्य विषयक उनकी मान्यताओं और उनके प्रयोगों को भी समझना पड़ेगा। वास्तव में गान्धी जब स्वास्थ्य की बात करते हैं तो जीवन की कुछ बुनियादी बातों की तरफ़ इशारा करते हैं। वे मानते हैं कि रोग के उत्स का सम्बन्ध देह के बाहरी तल से कहीं ज़्यादा विचारों के तल पर है। इस आधार पर मन की शुद्धि आध्यात्मिकता के लिए ही नहीं, आरोग्य के लिए भी उतना ही ज़रूरी है। इस तरह के विचार गान्धी के बहुत पहले तब से बनने लगे थे, जब वे विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के बारे में ज़्यादा कुछ नहीं जानते थे। होम्योपैथी वाले जान सकते हैं कि होम्योपैथी के मूल सिद्धान्त में गान्धी के निकाले निष्कर्ष वाली यही बात है कि बीमारी सबसे पहले मन के तल पर जड़ जमाती हैं। मन को शुद्ध करने की राह तलाशते हुए गान्धी ‘राम-नाम’ के रामबाण नुस्ख़े तक पहुँचे। यहाँ ध्यान देने की बात है कि गान्धी के राम मन्दिर की मूर्तियों में बैठे राम नहीं हैं। वे कण-कण में समाए राम हैं। उनके राम वही हैं जो ईश्वर, अल्लाह, गॉड हैं। परमपिता के अनेक नामों में से एक नाम ‘राम’। गान्धीजी कहते हैं कि राम का नाम उन्होंने बचपन से भजा है तो यह उनके संस्कार में है, अन्यथा कोई ईश्वर को ओम् नाम से भजे, अन्य किसी नाम से भजे, किसी भी भाषा में भजे—बात एक ही है, नतीजा एक ही आएगा। गान्धी को अपनी इस सोच का एक पुख्ता आधार तब मिला, जब वैद्यराज गणेश शास्त्री जैसे विद्वानों से उन्हें यह पता चला कि आयुर्वेद के हमारे महान् ग्रन्थों में तमाम उपचारों की चर्चा के बीच विष्णु के हज़ार नामों में से किसी भी एक नाम के आस्थापूर्वक जप को सर्वरोगहर सबसे बड़ा उपाय बताया गया है। गान्धीजी के ख़ुद के अनुभवों के बाद निकाले गए निष्कर्षों को इस सदी के महान् प्रेरक वक्ता जोसेफ मर्फ़ी के पैंतीस-चालीस वर्षों के शोध के बाद कही गई इस बात में भी प्रमाणित होते हुए देखा जा सकता है कि आपके अवचेतन मन की चमत्कारी शक्ति आपकी हर बीमारी ठीक कर सकती है…यह आपको दोबारा स्वस्थ, उत्साही और शक्तिशाली बना सकती है।
गान्धीजी का स्पष्ट मानना था कि ईश्वर की स्तुति और सदाचार का प्रचार हर तरह की बीमारी को रोकने का अच्छे से अच्छा और सस्ते से सस्ता इलाज है। उन्हें इस बात की तकलीफ़ थी वैद्य, हकीम और डॉक्टर इस सस्ते इलाज का उपयोग नहीं करते और कहीं कुछ किया भी जाता है तो जन्तर-मन्तर की शक्ल में अन्धविश्वास बनाकर।
राम-नाम और कुदरती उपचार के संयोग का एक अद्भुत अनुभव गान्धीजी को अपने पुत्र मणिलाल के बीमार पड़ने पर हुआ, जो उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है—‘‘मेरा दूसरा लड़का मणिलाल बहुत बीमार हो गया। उसे कालज्वर ने जकड़ लिया। ज्वर उतरता ही न था। बेचैनी भी थी। फिर रात में सन्निपात के लक्षण भी दिखाई पड़े। इस बीमारी के पहले बचपन में उसे चेचक भी बहुत ज़ोर की निकल चुकी थी।
मैंने डॉक्टर की सलाह ली। उन्होंने कहा, ‘इसके लिए दवा बहुत कम उपयोगी होगी। इसे तो अण्डे और मुर्गी का शोरबा देने की ज़रूरत है।’
मणिलाल की उमर केवल दस साल की थी। उससे भला मैं क्या पूछता? अभिभावक होने के नाते निर्णय तो मुझी को करना था। डॉक्टर एक बहुत भले पारसी थे। मैंने कहा, ‘डॉक्टर, हम सब अन्नाहारी है। मेरी इच्छा अपने लड़के को इन दो में से एक भी चीज़ देने की नहीं होती। क्या दूसरा कोई उपाय आप नहीं बताएँगे?’
मैं कूने के उपचार जानता था। उनके प्रयोग भी मैंने किए थे। मैं यह भी जानता था कि बीमारी में उपवास का बड़ा स्थान है। मैंने मणिलाल को कूने की रीति से कटि-स्नान कराना शुरू किया। मैं उसे तीन मिनट से ज़्यादा टब में नहीं रखता था। तीन दिन तक मैंने उसे केवल पानी मिलाए हुए सन्तरे के रस पर रखा।
लेकिन बुख़ार उतरता न था। रात में वह अण्ट-सण्ट बकता था। तापमान 104 डिग्री तक जाता था। मैं घबराया। यदि बालक को खो बैठा तो दुनिया मुझे क्या कहेगी? बड़े भाई क्या कहेंगे? दूसरे डॉक्टर को क्यों न बुलाया जाय? किसी वैद्य को क्यों न बुलाया जाय? अपनी ज्ञानहीन बुद्धि लड़ाने का माता-पिता को क्या अधिकार है?
एक ओर ऐसे विचार मन में आते थे; दूसरी ओर इस तरह के विचार भी आते थे: ‘हे जीव! तू जो अपने लिए करता वही अपने लड़के के लिए भी करे, तो परमेश्वर को सन्तोष होगा। तुझे पानी के उपचार पर श्रद्धा है, दवा पर नहीं। डॉक्टर रोगी को प्राणदान नहीं देता। वह भी तो प्रयोग ही करता है। जीवन की डोर तो एक ईश्वर के ही हाथ में है। ईश्वर का नाम लेकर, उस पर श्रद्धा रखकर तू अपना मार्ग मत छोड़।’
मन में इस तरह का मन्थन चल रहा था। रात पड़ी। मैं मणिलाल को बगल में लेकर सोया था। मैंने उसे भिगोकर निचोई हुई चादर में लपेटने का निश्चय किया। मैं उठा। चादर ली। उसे ठण्डे पानी में भिगोया। निचोया। फिर उसमें मणिलाल को सिर से पैर तक लपेट दिया। ऊपर से दो कम्बल ओढ़ा दिए और सिर पर गीला तौलिया दखा। बुख़ार से उसका शरीर तवे की तरह तप रहा था और बिलकुल सूख गया था। पसीना आता ही नहीं था।
मैं बहुत थक गया था। मणिलाल को उसकी माँ के ज़िम्मे करके मैं आधे घण्टे के लिए चैपाटी पर चला गया–थोड़ी हवा खाकर ताज़ा होने और शान्ति प्राप्त करने के लिए। रात के क़रीब दस बजे होंगे। लोगों का आना-जाना कम हो गया था। मुझे बहुत कम होश था। मैं विचार-सागर में गोते लगा रहा था। बार-बार कह रहा था: हे ईश्वर! इस धर्म-सङ्कट में तू मेरी लाज रखना। ‘राम-राम’ की रटन तो मुँह में थी ही। थोड़े चक्कर लगाकर धड़कती छाती से वापस आया। घर में पैर रखते ही मणिलाल ने मुझे पुकारा: ‘बापू, आप आ गए?’
‘हाँ, भाई?’
‘मुझे अब इसमें से निकालिए न? मैं जला जा रहा हूँ।’
‘क्यों, क्या पसीना छूट रहा है?’
‘मैं तो पूरा भीग गया हूँ। अब मुझे निकालिए न, बापूजी!’
मैंने मणिलाल का माथा देखा। माथे पर पसीने की बूँदें दिखाई दीं। बुख़ार कम हो रहा था। मैंने ईश्वर का आभार माना।
‘मणिलाल, अब तुम्हारा बुख़ार चला जाएगा। अभी थोड़ा और पसीना नहीं आने दोगे?’
‘नहीं, बापूजी! अब तो मुझे इस भट्टी से निकाल लीजिए। फिर दुबारा और लपेटना हो तो लपेट दीजिएगा।’
मुझे धीरज आ गया था, इसलिए उसे बातों में उलझाकर कुछ मिनट मैंने और निकाल दिए। उसके माथे से पसीने की धाराएँ बह चलीं। मैंने चादर खोली, उसका शरीर पोंछा और बाप-बेटे दोनों साथ सो गए। दोनों ने गहरी नींद ली।
सबेरे मणिलाल का बुख़ार हलका हो गया था। दूध और पानी तथा फलों के रस पर वह चालीस दिन तक रहा। अब मैं निर्भय हो चुका था। ज्वर हठीला तो था, पर वश में आ गया था। आज मेरे सब लड़कों में मणिलाल का शरीर सबसे अधिक बलवान है।
मणिलाल का नीरोग होना राम की देन है अथवा पानी के उपचार की, अल्पाहार की और सार-सम्भाल की–इसका निर्णय कौन कर सकता है? सब अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार जैसा चाहे निर्णय करें। मैने तो यह माना कि ईश्वर ने मेरी लाज रखी और आज भी मैं यही मानता हूँ।’’
गान्धी का राम-नाम अर्थात् मन की शुद्धि देह के संयम तक जाती है। यह संयम उनके लिए ब्रह्मचर्य का साधन है। ब्रह्मचर्य का मूल अर्थ वे समझाते हैं—ब्रह्म की प्राप्ति के लिए चर्या—और यह बिना संयम के असम्भव है। ब्रह्मचर्य को वे स्त्री-प्रसङ्ग से विरत रहने के प्रचलित सन्दर्भ के दायरे तक सीमित नहीं रखते, पर वीर्य-रक्षा के महत्त्व को भी पूरी गम्भीरता से समझाते हैं। वे कहते हैं—‘‘पूर्ण ब्रह्मचर्य का लाभ उससे (वीर्य-रक्षण से) नहीं मिलेगा, तो भी उसकी क़ीमत कुछ कम नहीं है।उसके बिना पूर्ण ब्रह्मचर्य असम्भव है। और उसके बिना, अर्थात् वीर्य-सङ्ग्रह के बिना, पूर्ण आरोग्य की रक्षा भी अशक्य-सी समझनी चाहिए।’’ इस तरह गान्धी अपने आरोग्य की अवधारणा में ब्रह्मचर्य को विशेष स्थान देते हैं और इसके लिए सविस्तार पाँच तरह के नियम समझाते हैं।
गान्धीजी आरोग्य के बारे में जड़ जमाए इस भ्रम को भी तोड़ते हैं कि आरोग्य का मतलब पहलवानों-जैसा शरीर है। 25 मई, 1924 के हिन्दी ‘नवजीवन’ में वे ख़ुद के बारे में लिखते हैं—‘‘यदि मैं अपने विचारों पर भी पूरी विजय पा सका होता, तो पिछले दस वर्षों में जो तीन रोग—पसली का वरम (प्लूरिसी), पेचिश और अपेण्डिक्स—मुझे हुए, वे कभी न होते। मैं मानता हूँ कि नीरोग आत्मा का शरीर भी नीरोग होता है। अर्थात् ज्यों-ज्यों आत्मा नीरोगी—निर्विकार होती जाती है, त्यों-त्यों शरीर भी नीरोग होता जाता है। लेकिन यहाँ नीरोग शरीर के मानी बलवान शरीर नहीं है। बलवान आत्मा क्षीण शरीर में ही वास करती है। ज्यों-ज्यों आत्मबल बढ़ता है, त्यों-त्यों शरीर की क्षीणता बढ़ती है। पूर्ण नीरोग शरीर बिलकुल क्षीण भी हो सकता है। बलवान शरीर में अधिकतर रोगों का वास होता है। रोग न हों तो भी वह शरीर सङ्क्रामक रोगों का शिकार तुरन्त ही हो जाता है। परन्तु पूर्ण नीरोग शरीर पर उनका असर नहीं हो सकता। शुद्ध ख़ून में जन्तुओं को दूर रखने का गुण होता है।’’
गान्धीजी के लिए स्वस्थ शरीर का अर्थ है—जो बिना थके रोज़ दस-बारह मील चल सकता है; सामान्य ख़ुराक पचा सकता है; जिसकी इन्द्रियाँ और मन स्वस्थ हैं। उनके अनुसार पहलवानों-जैसी देह ज़रूरी नहीं कि स्वस्थ हो, ऐसे शरीर का विकास एकाङ्गी कहा जाएगा। स्वास्थ्य के इस पैमाने पर चलते हुए ही वे बग़ैर दवाओं के बीमारियों से उबरने में बार-बार सफल हुए। गान्धी की स्वास्थ्य की अवधारणा उनकी स्वदेशी की अवधारणा से सहज रूप से एकाकार हो जाती है। स्वदेशी, यानी ज़्यादा से ज़्यादा अपने बूते, अपने आसपास से और बिना किसी का शोषण किए अपनी ज़रूरतें पूरी करना—और आरोग्य, यानी ज़्यादा से ज़्यादा अपने बूते और उन्हीं चीज़ों के सहारे रोगों से मुक्ति पाना, जिनसे यह देह बनी है। जिनसे यह देह बनी है, यानी भारतीय दर्शन के हिसाब से पञ्चभूत। गान्धी की नज़र में असली आरोग्य तब आता है, जब पञ्चभूत से बने इस शरीर में सारी इन्द्रियाँ अपनी पूरी क्षमता से कार्यक्षम होती हैं। इन पञ्चभूतों, यानी हवा, पानी, आकाश, तेज (सूर्य) और पृथ्वी के महत्त्व को उपचार के असली साधन के रूप में समझाने के लिए ही उन्होंने ‘आरोग्य की कुञ्जी’ नाम से एक छोटी-सी पुस्तक लिखी। इसके दूसरे ही पृष्ठ पर वे लिखते हैं–‘‘शरीर पञ्चभूत का पुतला है। इसी से कवि ने गाया हैः
पवन, पानी, पृथ्वी, प्रकाश और आकाश,
पञ्चभूत के खेल से बना जगत् का पाश।
इस शरीर का व्यवहार दस इन्द्रियों और मन के द्वारा चलता है। दस इन्द्रियों में पाँच कर्मेन्द्रियाँ हैं, अर्थात् हाथ, पैर, मुँह, जननेन्द्रिय और गुदा। ज्ञानेन्द्रियाँ भी पाँच हैं—स्पर्श करनेवाली त्वचा, देखनेवाली आँख, सुननेवाला कान, सूँघनेवाली नाक और स्वाद या रस को पहचाननेवाली जीभ। मन के द्वारा हम विचार करते हैं। कोई-कोई मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय कहते हैं। इन सब इन्द्रियों का व्यवहार जब सम्पूर्ण रीति से चलता है, तब शरीर पूर्ण स्वस्थ कहा जा सकता है। ऐसा आरोग्य बहुत कम देखने में आता है।’’
इस विचार-सरणी से गुज़रते हुए गान्धी जहाँ पहुँचते हैं, वह है कुदरती उपचार, जिसे आज हम प्राकृतिक चिकित्सा के नाम से जानते हैं। मतलब यह कि आहार-विहार के मामले में मनुष्य कुदरत के नियमों का पालन करे और मन को निर्मल रखे तो नीरोगी रह सकता है। विदेश में पढ़ाई करते हुए भी शाकाहार के सङ्कल्प ने खानपान के रास्ते इस तरह की चीज़ों में उनकी रुचि जगाई। शुरू में उन्हें कुदरती उपचार में भरोसा तो था, पर ज़्यादा जानकारी नहीं थी। जहाँ कहीं से कुछ फुटकर जानकारी मिल जाती, उसे वे आज़माने लगते। कम जानकारी के नाते सन् 1901 तक की उनकी स्थिति यह थी कि वे कभी बीमार होते तो डॉक्टरों के पास भागकर तो नहीं जाते, पर यदा-कदा उनकी दवाइयों का इस्तेमाल ज़रूर कर लेते थे। उन्हें क़ब्ज़ियत अक्सर परेशान करती थी, सो प्राणजीवन मेहता की बताई कुछ दवाएँ और फ्रूट सॉल्ट लेते थे। वे लिखते हैं—‘‘नैसर्गिक उपचारों में मुझे काफ़ी विश्वास था, मगर इस बारे में मुझे किसी से मदद नहीं मिलती थी। इधर-उधर से जो कुछ मैंने पढ़ लिया था, उसी के आधार पर मुख्यतः भोजन में फेरबदल करके मैं काम चला लेता था। मैं ख़ूब घूम लेता था, इस कारण खाट पर मुझे कभी पड़ना नहीं पड़ा। इस तरह मेरी ढीली-ढाली गाड़ी चला करती थी। ऐसे समय में जुस्ट की ‘रिटर्न टू नेचर’ नाम की पुस्तक भाई पोलाक ने मुझे पढ़ने को दी।’’ जुस्ट की पुस्तक से गान्धीजी को मिट्टी की उपचारक शक्ति का कुछ परिचय मिला। इसका उन्होंने अपने ऊपर प्रयोग किया और उपयोगी पाया। इसके पहले पानी की उपचारात्मक शक्ति के बारे में उन्होंने लुई कुने की पुस्तक में पढ़ा था। इन दोनों पुस्तकों ने प्राकृतिक चिकित्सा में उनकी रुचि गहरे तक जगाई।
महात्मा गान्धी मिट्टी, पानी, हवा, धूप, आकाश के जरिये अपने ऊपर चिकित्सा के प्रयोग करते हुए भारत में कुदरती उपचार के पहले प्रचारक बने। गान्धी न होते तो तमाम निराश रोगियों को जीवन दे रही प्राकृतिक चिकित्सा जैसी एक निरापद पद्धति के केन्द्र आज देश के तमाम नगरों-क़स्बों में दिखाई न देते। महत्त्वपूर्ण बात यह भी है कि हर किसी के आसपास, हर किसी के घर के भीतर-बाहर सहज उपलब्ध प्रकृति के इन उपादानों को गान्धीजी ने सिर्फ भौतिक रूप में ही नहीं देखा, इन्हें उन्होंने प्रकृति के साथ जीवन को समरस करते हुए आध्यात्मिक भाव से ईश्वर और धर्म की भारतीय संस्कृति के साथ जोड़कर देखा। आरोग्य की इस सहज विधा को गान्धी ने ‘यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे’ तक साधा और व्याख्यायित किया। ‘आरोग्य की कुञ्जी’ में आकाश तत्त्व के बारे में वे लिखते हैं—‘‘इस आकाश की मदद हमें आरोग्य की रक्षा के लिए और उसे खो चुके हों तो फिर से प्राप्त करने के लिए लेनी है। जीवन के लिए हवा की सबसे अधिक आवश्यकता है, इसलिए वह सर्व-व्यापक है। मगर हवा दूसरी चीज़ों के मुक़ाबले में व्यापक तो है, पर अनन्त नहीं है। भौतिक शास्त्र हमें सिखाता है कि पृथ्वी से अमुक मील ऊपर चले जाएँ, तो वहाँ हवा नहीं मिलती। ऐसा कहा जाता है कि इस पृथ्वी के प्राणियों जैसे प्राणी हवा के आवरण से बाहर रह ही नहीं सकते। यह बात सच हो या न हो, हमें इतना ही समझना है कि आकाश जैसे यहाँ है, वैसे ही वह हवा के आवरण से बाहर भी है। इसलिए सर्व-व्यापक तो आकाश ही है, फिर भले वैज्ञानिक लोग सिद्ध यिा करें कि उस आवरण के ऊपर ‘ईथर’ नाम का पदार्थ या कुछ और है। वह पदार्थ भी जिसके भीतर रहता है वह आकाश ही है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि अगर हम ईश्वर का भेद जान सकें, तो आकाश का भेद भी जान सकेंगे।
ऐसे महान तत्त्व का अभ्यास और उपयोग जितना हम करेंगे, उतना ही अधिक आरोग्य का उपभोग कर सकेंगे।
पहला पाठ तो यह है कि इस सुदूर और अदूर तत्त्व के और हमारे बीच में कोई आवरण नहीं आने देना चाहिए। अर्थात् यदि घर-बार के बिना, अथवा कपड़ों के बिना हम इस अनन्त के साथ सम्बन्ध जोड़ सकें तो हमारा शरीर, बुद्धि और आत्मा पूरी तरह आरोग्य अनुभव कर सकेंगे। इस आदर्श तक हम भले ही न पहुँच सकें, या करोड़ों में एक ही पहुँच सके, तो भी इस आदर्श को जानना, इसे समझना और इसके प्रति आदर-भाव रखना आवश्यक है। और यदि यह हमारा आदर्श हो तो जिस हद तक हम इसे प्राप्त कर सकेंगे, उसी हद तक हम सुख, शान्ति और सन्तोष का अनुभव कर सकेंगे। इस आदर्श को मैं आख़िरी हद तक पेश कर सकूँ, तो मुझे यह कहना पड़ेगा कि हमें शरीर का अन्तराय भी नहीं चाहिए। मन को हम इस तरह का शिक्षण दे सकें, तो शरीर को विषय-भोग का साधन तो कभी नहीं बनाएँगे। तब अपनी शक्ति और अपने ज्ञान के अनुसार हम अपने शरीर का सदुपयोग सेवा के लिए, ईश्वर को पहचानने के लिए उसके जगत् को जानने के लिए और उसके साथ ऐक्य साधने के लिए करेंगे।’’
सेहत के लिए हवा के इस्तेमाल में गान्धी की दृष्टि आज के लिए भी उतनी ही उपयोगी है, जितनी तब थी। घर की हवादार बनावट, मुँह से साँस लेने के नुकसान, नाक की सफ़ाई, खुले में सोने के फ़ायदे, रात की पोशाक, सोते समय ओढ़ने का शऊर, प्राणायाम—जैसे तमाम मुद्दों पर उन्होंने एकदम सरल-सहज तरीक़े से बुनियादी बातें कही हैं। उन्होंने अपने रहते जितने भी आश्रम बनाए, उनमें सेहत की दृष्टि से हवा की हर तरफ़ से आवाजाही का ख़ास ख़याल रखा। पानी कैसे पीना चाहिए, तरह-तरह के पानी का फ़र्क़—जैसी बातों को भी वे बड़े सलीक़े से समझाते हैं। हमारे यहाँ धार्मिक मान्यता है कि अनजाने स्थान या अनजाने कुएँ का पानी नहीं पीना चाहिए। गान्धीजी इस रहस्य को खोलते हुए कहते हैं—‘‘हम देखकर या चखकर हमेशा नहीं कह सकते कि कोई पानी पीने लायक़ है या नहीं। देखने में और चखने में जो पानी अच्छा लगता है, वह दरअसल ज़हरीला हो सकता है। इसलिए अनजाने घर या कुएँ का पानी न पीने की प्रथा का पालन करना अच्छा है।’’
पानी के चिकित्सकीय प्रयोग के सन्दर्भ में गान्धीजी लुई कुने से काफ़ी प्रभावित हुए थे, सो उन्होंने कुने के तरीक़ों में अपनी सुविधा के हिसाब से फेरबदल करके ख़ूब प्रयोग किए। कटि-स्नान, घर्षण-स्नान और भाप-स्नान पर अपने वर्णनों में उन्होंने ऐसे स्पष्ट ब्योरे दिए हैं कि कोई भी मरीज़ विधिपूर्वक ऐसे प्रयोग कर सके।
सेहत की दृष्टि से पृथ्वी तत्त्व की उपयोगिता समझाते हुए गान्धीजी मिट्टी की पट्टी की विधियों और मिट्टी के प्रकारों की बारीक जानकारी देते हैं। सिरदर्द, फोड़ा, बर्र का डङ्क, बिच्छू का डङ्क, साधारण बुख़ार, टायफायड, क़ब्ज़ियत जैसी चीज़ों पर उन्होंने मिट्टी की उपचारक शक्ति का ख़ूब प्रयोग किया। गान्धीजी ने पहली बार मिट्टी का प्रयोग अपनी क़ब्ज़ियत की बीमारी में किया। जुस्ट की पुस्तक पढ़ने के बाद उन्होंने रात भर के लिए अपने पेड़ू पर गीली मिट्टी की पट्टी रखी और दूसरे दिन उन्हें स्पष्ट लाभ महसूस हुआ। सिरदर्द में भी मिट्टी की पट्टी का प्रयोग उन्होंने सैकड़ों मरीज़ों पर किया और लोगों को स्पष्ट फ़ायदा मिला। एक बार दक्षिण अफ्रीका जाते हुए स्टीमर में कप्तान के साथ हिलमिल गए गान्धीजी के आठ साल के पुत्र रामदास का खेलते-खेलते हाथ टूट गया। उस समय डॉक्टर ने हड्डी बैठा दी, पर उसकी सलाह थी कि घाव को किसी योग्य डॉक्टर से दुरुस्त करा लिया जाय। गान्धी जोहानिस्बर्ग पहुँचे तो डॉक्टर को दिखाने के बजाय ख़ुद मिट्टी का प्रयोग करके घाव को ठीक करने का निश्चय किया। गान्धीजी ने लिखा है कि काँपते-काँपते उन्होंने घाव खोला और उसे साफ़ करके उस पर साफ़ मिट्टी की पुल्टिस रखकर पट्टी को फिर से पहले की तरह बाँध दिया। रोज़ वे घाव को साफ़ करते और उस पर मिट्टी रखकर बाँधते। इस तरह क़रीब महीने भर में घाव ठीक हो गया। डॉक्टर के बताए अनुसार इलाज होता तो भी इतना ही समय लगने की बात कही गई थी। टायफायड जैसे जिद्दी रोग में गान्धीजी ने मिट्टी का ख़ूब प्रयोग किया। बुख़ार तो अपनी मियाद पूरी करके ही जाता, पर मिट्टी के प्रयोग से मरीज़ काफ़ी आराम में रहता। उनके रहते सेवाग्राम आश्रम में मिट्टी का प्रयोग टायफायड के कई मरीज़ों पर किया गया। सभी मरीज़ आराम-आराम से ठीक हो गए। इसका असर यह हुआ कि वहाँ के लोगों के मन से टायफायड का डर पूरी तरह समाप्त हो गया।
आहार के विषय में गान्धीजी ने उपयोगी प्रयोग किए। कौन-से अनाज खाने चाहिए, किनसे परहेज़ करना चाहिए, आटा कैसे पीसा जाय, चावल की कुटाई कैसी हो, शाक-सब्ज़ी खाने का क्या तरीक़ा होना चाहिए, तेल-घी कितना खाना चाहिए—इन सब पर उन्होंने कई लेखों और पुस्तकों में विस्तार से चर्चा की है। फलों के बारे में बात करते हुए गान्धीजी जो सहज बात बताते हैं वह आज के फास्टफूड वाले समय में सेहत बचाने के लिए और भी ज़्यादा प्रासङ्गिक है। वे सुझाते हैं कि फलों को खाने का सबसे अच्छा समय सुबह का है। सवेरे फल-दूध का नाश्ता करने से भरपूर सन्तोष मिल जाता है। वे सुझाते हैं कि जो लोग खाना जल्दी खाते हैं, उनके लिए तो सवेरे केवल फल ही खाना अच्छा है। आहार में यह साधारण-सा परिवर्तन करके हज़ारों लोगों ने सेहत की कई परेशानियों से ख़ुद को बचाया है। गान्धीजी पहले हिंसा-अहिंसा के विचार के चलते दूध सेवन करने के विरोधी थे। एक स्पष्ट अनुभव के बाद दूध के बारे में उनके विचार कैसे बदले, यह उन्होंने आत्मकथा में कुछ यों लिखा है—‘‘खेड़ा जिले में (फौज में) सिपाहियों की भरती का काम करते-करते मैं भोजन में अपनी भूल के कारण मृत्युशैय्या पर पड़ गया। दूध के बिना जीने के लिए मैंने बहुत हाथ-पैर मारे। जिन वैद्यों, डॉक्टरों और रसायनशास्त्रियों को मैं जानता था, उनकी मदद मैंने माँगी। किसी ने मूँग के पानी का, किसी ने महुए के तेल का और किसी ने बादाम के दूध का सुझाव दिया। इन सब चीजों के प्रयोग करते-करते मैंने शरीर को निचोड़ डाला, पर उससे मैं बिछौना छोड़कर उठ न सका।
गाय-भैंस का दूध तो मैं ले ही नहीं सकता था। यह मेरा व्रत था। व्रत का हेतु तो दूध मात्र का त्याग था, पर व्रत लेते समय मेरे सामने गोमाता और भैंस माता ही थीं, इस कारण से तथा जीने की आशा से मैंने मन को जैसे-तैसे फुसला लिया। मैंने व्रत के अक्षर का पालन किया और बकरी का दूध लेने का निश्चय किया। बकरी माता का दूध लेते समय भी मैंने यह अनुभव किया कि मेरे व्रत की आत्मा का हनन हुआ है।
आरोग्य-विषयक मेरी पुस्तक के सहारे प्रयोग करने वाले सब भाई-बहनों को मैं सावधान करना चाहता हूँ। दूध का त्याग पूरी तरह लाभप्रद प्रतीत हो अथवा अनुभवी वैद्य-डॉक्टर उसे छोड़ने की सलाह दें तभी वे उसको छोड़ें, सिर्फ मेरी पुस्तक के भरोसे वे दूध का त्याग न करें। यहाँ का मेरा अनुभव अब तक तो मुझे यही बतलाता है कि जिसकी जठराग्नि मन्द हो गई है और जिसने बिछौना पकड़ लिया है, उसके लिए दूध जैसी दूसरी हलकी और पोषक खुराक है ही नहीं।’’
मिर्च-मसाले, चाय-कॉफ़ी वग़ैरह को उन्होंने किन्हीं अपरिहार्य स्थितियों के अलावा आरोग्य के लिए ग़ैरज़रूरी पाया। मेहनतकश की क्या खुराक हो, एक बुद्धिजीवी व्यक्ति को कब-कब, क्या-क्या खाना चाहिए—यह सब गान्धीजी ने विस्तार से समझाया है। जब भी उन्हें मौक़ा मिलता, बीमारी में अन्नाहार के तौर-तरीक़ों पर प्रयोग करने लगते। इन प्रयोगों की विशेषता यह थी कि पहले इन्हें वे ख़ुद के ऊपर करते, फिर दूसरों को बताते। एक बार उन्होंने रक्तस्राव को ठीक करने के लिए कस्तूरबा से दाल और नमक छोड़ने को कहा, तो कस्तूरबा पहले नहीं मानीं। गान्धीजी पर ही उन्होंने सवाल खड़ा कर दिया। इलाज के बहाने पति-पत्नी के अद्भुत रिश्तों पर यह पढ़ने लायक़ वर्णन है। गान्धीजी लिखते हैं—‘‘डरबन में रक्तस्राव के कारण जो शल्यक्रिया हुई उसके बाद कस्तूरबाई का रक्तस्राव थोड़े समय के लिए बन्द हो गया था, पर अब वह फिर शुरू हो गया था और किसी प्रकार बन्द ही न होता था। अकेले पानी के सारे उपचार व्यर्थ सिद्ध हुए। यद्यपि पत्नी को मेरे उपचारों पर विशेष श्रद्धा नहीं थी, तथापि उनके लिए उसके मन में तिरस्कार भी नहीं था। दूसरी दवा करने का उसको आग्रह न था। मैंने उसे नमक और दाल छोड़ने के लिए मनाना शुरू किया। बहुत मनाने पर भी, अपने कथन के समर्थन में कुछ-न-कुछ प्रमाणभूत बातें पढ़कर सुनाने पर भी, वह मानी नहीं। आख़िर उसने कहा, ‘दाल और नमक छोड़ने को तो कोई आपसे कहे, तो आप भी नहीं छोड़ेगें।’ मुझे इससे दुःख हुआ और हर्ष भी हुआ। मुझे अपना प्रेम उड़ेलने का अवसर मिला। उसके हर्ष में मैंने तुरन्त ही कहा, ‘तुम्हारा यह ख़याल ग़लत है। मुझे बीमारी हो और वैद्य इन चीज़ों को या दूसरी किसी चीज़ को छोड़ने के लिए कहे तो मैं अवश्य छोड़ दूँ। लेकिन जाओ, मैंने एक साल के लिए दाल और नमक दोनों छोड़े। तुम छोड़ो या न छोड़ो, यह अलग बात है।’
पत्नी को बहुत पश्चाताप हुआ। वह कह उठी, ‘मुझे माफ़ कीजिए। आपका स्वभाव जानते हुए भी मैं कहते कह गई। अब मैं दाल और नमक नहीं खाऊँगी, लेकिन आप अपनी बात लौटा लें। यह तो मरे लिए बहुत बड़ी सज़ा हो जाएगी।’
मैंने कहा, ‘अगर तुम दाल और नमक छोड़ोगी तो अच्छा होगा। मुझे विश्वास है कि उससे तुम्हें लाभ होगा, पर मैं की हुई प्रतिज्ञा वापस नहीं ले सकूँगा। मुझे तो इससे लाभ ही होगा। मनुष्य किसी भी निमित्त से संयम क्यों न पाले, उससे उसे लाभ ही होता है। अतएव तुम मुझसे आग्रह न करो। फिर मेरे लिए भी यह एक परीक्षा हो जाएगी और इन दो पदार्थों को छोड़ने का जो निश्चय तुमने किया है, उस पर दृढ़ रहने में तुम्हें मदद मिलेगी।’ इसके बाद मुझे उसे मनाने की ज़रूरत तो रही ही नहीं। ‘आप बहुत हठी हैं। किसी की बात मानते ही नहीं।’ कहकर और अंजलि भर आँसू बहाकर वह शांत हो गई।
इसके बाद कस्तूरबाई की तबीयत सँभली। इसमें नमक और दाल का त्याग कारणरूप था अथवा उस त्याग से उत्पन्न आहार सम्बन्धी अन्य छोटे-बड़े परिवर्तन कारणभूत थे या इसके बाद दूसरे नियमों का पालन कराने में मेरी पहरेदारी निमित्तरूप थी, अथवा उपर्युक्त प्रसंग से उत्पन्न मानसिक उल्लास निमित्तरूप था–यह मैं कह नहीं सकता। पर कस्तूरबाई का क्षीण शरीर फिर पनपने लगा, रक्तस्राव बन्द हुआ और ‘वैद्यराज’ के रूप में मेरी साख कुछ बढ़ी।’’
वास्तव में उपचार के ऐसे कुदरती उपायों पर गान्धीजी ने ध्यान केन्द्रित किया, जो पूरी तरह घरेलू थे, सहज उपलब्ध थे। दूसरों के भरोसे चलने के बजाय उन्होंने ख़ुद अनुसन्धानक का काम किया और एक ऐसी चिकित्सा-विधि की सम्भावना जगाई, जो आमजन के भी अनुकूल थी। भारत के लिए इससे आसान और सस्ती चिकित्सा सम्भव नहीं थी, लेकिन दुर्भाग्य से गोलियों, पुड़ियों और इञ्जेक्शन को इलाज के पर्याय रूप में प्रचारित कर दिए जाने से मिट्टी, पानी, उपवास जैसी चीज़ों के सहारे बीमारी से लड़कर जीतने का विश्वास जगाना मुश्किल था। यह ज़रूर हुआ है कि वर्तमान में अब जब एलोपैथी दवाओं के दुष्प्रभाव सामने आने लगे हैं तो गान्धीजी के सुझाए इलाज के प्राकृतिक तरीक़ों की ओर लोगों का रुझान बढ़ने लगा है। (सन्त समीर)