गान्धी-विमर्शविमर्श

स्वदेशी, बाज़ार और गान्धी-दृष्टि—एक

एक वक़्त था जब शरमाते-सकुचाते और आम आदमी के प्रति जवाबदेही से मुँह छिपाने की कोशिश करते हुए ही हमारे सत्ताधीश प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जैसी चीज़ों की बात करने की थोड़ी-थाड़ी हिम्मत जुटा पाते थे, पर अब खेल खुल्लमखुल्ला है। बाज़ार खोलने की सीमा अब शत-प्रतिशत एफडीआई की हद नापने को बेताब है। कभी के ‘घूँघट की ओट’ का शर्म तो जैसे अब बाधक ही बनकर खड़ा हो गया है।

दिमाग़ पर थोड़ा भी ज़ोर डालिए तो उस वाक़ये को याद करने में ज़्यादा मुश्किल न आएगी जबकि क्लासिक क़लम बनाने वाली मशहूर बहुराष्ट्रीय स्विस कम्पनी मोब्लॉ महात्मा गान्धी के नाम पर 241 क़लमों की एक विशिष्ट शृङ्खला लेकर बाज़ार में उतरी थी। इसके पीछे प्रेरणा बताई गई थी दाण्डी यात्रा की। गान्धी इस यात्रा में 241 किलोमीटर चले थे, इसलिए क़लमें भी इतनी ही बनाई गईं। इतनी-सी बात होती तो आज़ादी के उस महानायक के प्रति ऐसे जज़्बे को बड़े आराम से सलाम करने को किसी का भी मन करता ही, पर असल पेंच तो इन क़लमों की क़ीमत में थी। डेढ़ लाख से चौदह लाख रुपये तक। करोड़पतियों के लिए भले ही यह सप्ताहान्त में शौक़िया तौर पर दिखावे के किसी ‘लग्ज़री आइटम’ को ख़रीद लेने से ज़्यादा की बात नहीं है, पर गान्धीजी जिस ‘आख़िरी आदमी’ को साथ लेकर चलने की बात ताउम्र करते रहे उस ‘आख़िरी आदमी’ की आँखों के सामने यदि अचानक इतने रुपये रख दिए जाएँ तो शायद एकबारगी वह ग़श ही खा जाए।

यों, आज़ादी के बाद सन् 1948 के आसपास से ही गान्धी के नाम का इस्तेमाल अगरबत्ती और तेल-साबुन जैसी चीज़ों के विज्ञापन में कारोबारियों ने अपने-अपने ढङ्ग से करना शुरू कर दिया था, पर तब बाज़ार का ऐसा बेशर्म स्वार्थ नहीं दिखाई देता था। इसके अलावा लक्ष्य में आम आदमी था और भावों में एक तरह का स्वदेशीपना था; बल्कि, यह कहा जाए कि स्वदेशीपने की प्रबलता दिखाने के लिए भी तब के विज्ञापनों में गान्धी का इस्तेमाल किया गया तो कोई ज़्यादा बेजा बात न होगी। लेकिन, आज़ादी की अर्धशताब्दी बीत जाने के बाद ‘लाखों की क़लम’ जैसी आए दिन हो रही अनगिन घटनाएँ साफ़ सङ्केत दे रही हैं कि साबरमती के सन्त के मन्तव्य के विपरीत अब ‘आख़िरी आदमी’ को केन्द्र ही नहीं, परिधि से भी बाहर फेंक दिया गया है। गान्धी के उपभोग के संयम में पलीता लगा दिया गया है और सभ्यता का नक़ली आवरण ओढ़े बाज़ार का विद्रूप हर गली-मुहल्ले में दूर-दूर तक पसर गया है। ऐसे में, मौजूदा व्यवस्था के ‘अनर्थशास्त्र’ ने स्वदेशी के मायने ही नहीं बदल दिए हैं, बल्कि बहुत हद तक उसे अप्रासङ्गिक-सा भी क़रार दिया है।

बदलते दौर की यही प्रवृत्तियाँ दरअसल उपर्युक्त सन्दर्भों में गान्धी-दृष्टि पर विमर्श को आवश्यक बनाती हैं। यहाँ सन्दर्भ स्वदेशी और बाज़ार का है, इसलिए ख़ास चर्चा उन्हीं की होगी, बाकी बातें अनुषङ्गी रूप में रहेंगी।

स्वदेशी और बाज़ार पर बात शुरू करते हुए आज के हाल पर ज़रा निगाह दौड़ाइए। ऐसा लगता है जैसे कि फ़िज़ा में हर तरफ़ बस खुले बाज़ार की ही धुन गूँज रही है। कुछ के लिए यह कुछ कर्कश है, पर ज़्यादातर के लिए एकदम सुरीली। ऐसे माहौल में गान्धी की स्वदेशी का सुर सुन पाना, आप अनुमान लगा सकते हैं कि कितना कठिन होगा? एक वक़्त था जब शरमाते-सकुचाते और आम आदमी के प्रति जवाबदेही से मुँह छिपाने की कोशिश करते हुए ही हमारे सत्ताधीश प्रत्यक्ष विदेशी निवेश जैसी चीज़ों की बात करने की थोड़ी-थाड़ी हिम्मत जुटा पाते थे, पर अब खेल खुल्लमखुल्ला है। बाज़ार खोलने की सीमा अब शत-प्रतिशत एफडीआई की हद नापने को बेताब है। कभी के ‘घूँघट की ओट’ का शर्म तो जैसे अब बाधक ही बनकर खड़ा हो गया है। हाल यह है कि दलितों-वञ्चितों के हित की राजनीति करने वाले और समाजवादी व्यवस्था के झण्डाबरदार तक बाज़ार के इस पश्चिमी चेहरे में ही अपना और देश का हित देखने लगे हैं। बेशर्मी की हद देखिए कि खुदरा बाज़ार में एफडीआई की वकालत करते हुए 7 दिसम्बर, 2011 को संसद में सत्ता के एक प्रतिनिधि ने कहा—“गान्धीजी ने विदेशी कपड़ों की होली जलाई थी। आज भी कृषि के बाद कपड़ा उद्योग में सर्वाधिक लोग कार्यरत हैं—23 प्रतिशत। तब हमारी हज़ारों मिलें बन्द हो गई थीं। चरख़ा इसीलिए राष्ट्रीय प्रतीक बना। वातावरण अलग था। हम गान्धी-नेहरू की नीतियों पर चलने वाले हैं। कोई ताक़त हमें डिगा नहीं सकती, क्योंकि गान्धी-नेहरू हमारे दिल में हैं, धरोहर हैं…” वग़ैरह-वग़ैरह।

सन्दर्भ न प्रसङ्ग, ज़बर्दस्ती की व्याख्या। क्या यही कहा जाए कि ऐसा कमाल भारतीय राजनीति में ही सम्भव है? क्या इस देश की जनता दिमाग़ से इतनी पैदल है कि हमारे नेता सन्निपात में भी कुछ बर्ड़ाएँ तो उसे वह ‘ऊँची बात’ मान लेती है? ऐसा नहीं है कि प्रत्यक्ष विदेशी निवेश हर मायने में बुरा है, पर इसका एक साफ़ और सीधा-सा अर्थ है कि आप दुनिया भर की केन्द्रीयकृत व्यवस्था की हामी उन बड़ी-बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को अपना बाज़ार सौंप रहे हैं, जिनके चरित्र का तानाबाना विशुद्ध मुनाफ़ा बटोरने और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को जैसे भी हो, कम करने या समाप्त करने के बाज़ारी स्वार्थसूत्रों से बुना गया है। बात एफडीआई की हो, और वह भी खुदरा बाज़ार के सन्दर्भ में, तो अपने पास-पड़ोस से अपनी ज़रूरतें पूरी कर लेने की बुनियादी समझ से निकले स्वदेशी विचार के सन्देशवाहक उस अधनङ्गे फ़क़ीर की जगह इसके नज़दीक कहाँ और कितनी बनती है, क्या कोई बता सकता है? और, सपाट-सा सवाल तो यह है कि एफडीआई प्रेरित बाज़ार-विस्तार के समर्थन में क्या येन-केन-प्रकारेण गान्धी की दुहाई दी भी जा सकती है।

स्वदेशी की भावना स्पष्ट करते हुए गान्धी कहते हैं—‘‘स्वदेशी की भावना का अर्थ है हमारी वह भावना, जो हमें दूर को छोड़कर अपने समीपवर्ती प्रदेश का ही उपयोग और सेवा करना सिखाती है। उदाहरण के लिए इस परिभाषा के अनुसार धर्म के सम्बन्ध में यह कहा जाएगा कि मुझे अपने पूर्वजों से प्राप्त धर्म का ही पालन करना चाहिए। अपने समीपवर्ती धार्मिक परिवेष्टन का उपयोग इसी तरह हो सकेगा। यदि मैं उसमें दोष पाऊँ तो मुझे उन दोषों को दूर करके उसकी सेवा करनी चाहिए। इसी तरह राजनीति के क्षेत्र में मुझे स्थानीय संस्थाओं का उपयोग करना चाहिए और उनके जाने-माने दोषों को दूर करके उनकी सेवा करनी चाहिए। अर्थ के क्षेत्र में मुझे अपने पड़ोसियों द्वारा बनाई गई वस्तुओं का ही उपयोग करना चाहिए और उन उद्योगों की कमियाँ दूर करके, उन्हें ज़्यादा सम्पूर्ण और सक्षम बनाकर उनकी सेवा करनी चाहिए। मुझे लगता है कि यदि स्वदेशी को व्यवहार में उतारा जाय, तो मानवता के स्वर्णयुग की अवतारणा की जा सकती है।’’

गान्धी का स्वदेशी-भाव सिर्फ़ कुछ वस्तुओं के बनाने-बेचने की आचार संहिता से आगे देश और समाज की अन्यान्य व्यवस्थाओं तक दूर-दूर विस्तारित है। स्वदेशी की मूल अवधारणा में शोषणविहीन समाज निर्माण के चाहत की गहरी संवेदना है और इसलिए इसे केन्द्र में रखते ही मनुष्य समाज के प्रायः सारे ज़रूरी पहलू, मसलन—धर्म, आस्था, संस्कृति, राजनीति, अर्थतन्त्र, आपसी सम्बन्ध—आदि-आदि व्याख्याओं का सन्तुलन धारण करने लगते हैं। स्वदेशी का मर्म समझ लेने पर प्रकृति में व्याप्त अन्योन्याश्रितता का तत्त्व भी अपने पूरे वैभव में अन्तःपटल पर आकार लेते हुए हृदयङ्गम होने लगता है। गान्धी के किए-धरे में इसकी अभिव्यक्ति देखनी हो तो अपने पूर्व स्वरूप में ही वर्तमान सेवाग्राम आश्रम (वर्धा, महाराष्ट्र) को एक बार ज़रूर देख आना चाहिए। एकदम साधारण-सी दिखने वाली आश्रम की झोंपड़ियों की असाधारणता इसी बात में है कि इन्हें अन्दर-बाहर से देखते हुए गान्धीजी की सोच-समझ और जीवनदृष्टि की स्पष्ट झलक मिलती है। जब गान्धीजी के निवास हेतु पहली कुटिया बनाने की योजना बनी, तो उन्होंने तीन शर्तें रखीं। एक, पाँच सौ रुपये से ज़्यादा ख़र्च नहीं होना चाहिए। दो, पचहत्तर किलोमीटर के दायरे में उपलब्ध वस्तुओं का ही इस्तेमाल किया जाय। तीन, सिर्फ़ स्थानीय कारीगरों की मदद ही ली जाय। इस तरह इन शर्तों का पूरी तरह पालन करते हुए गान्धीजी के लिए पहली कुटी, जिसे आज ‘आदिनिवास’ के रूप में हम जानते हैं, बनकर तैयार हुई। शुरुआत में उनके साथ ख़ान अब्दुल गफ़्फ़ार खाँ, सन्त तुकड़ोजी, प्यारेलाल, कस्तूरबा तथा दूसरे कई आश्रमवासी इसी मकान में रहे। इसके उत्तर वाले बरामदे में बापू ख़ुद अपने हाथों से आश्रमवासियों को भोजन परोसते थे। 1942 में ‘भारत छोड़ो’ आन्दोलन की पहली सभा भी इसी कुटिया में हुई।

ध्यान देने की बात है कि गान्धी का स्वदेशी-भाव अपनी ज़रूरतें अपने आसपास से पूरी ज़रूर कर लेता है, पर वह शेष संसार से भी क़तई कटकर नहीं रहता, जैसा कि अक्सर आरोप लगाया जाता है। इसका व्यावहारिक रूप देखना हो तो गाँवों और शहरों की बनावट पर भी एक निगाह ज़रूर डाल लेनी चाहिए। हमारे गाँवों की काफ़ी दुर्गति हो चुकी है, फिर भी वहाँ आस-पड़ोस से अपनी ज़रूरतें पूरी कर लेने के स्वदेशी-भाव का कुछ अंश अभी तक बचा चला आ रहा है, तो इसलिए लोग एक-दूसरे को काफ़ी हद तक जानते-समझते हैं और आपस के सुख-दु:ख के मौक़ों पर गाहे-ब-गाहे एक साथ खड़े भी दिखाई देते हैं। लेकिन, शहरों में तो अपने अड़ोस-पड़ोस से कम ही लोग मतलब रखते हैं। यहाँ तक कि एक अपार्टमेण्ट में रह रहे परिवार अपने ही पैरों के नीचे या सिर के ठीक ऊपर रहने वाले लोगों के बारे में कुछ नहीं जानते, या जानना भी नहीं चाहते हैं। शहरी जीवन में चूँकि ज़्यादातर ज़रूरतें पड़ोस के बजाय दूर-दूर से पूरी होती हैं तो ज़ाहिर है कि भौगोलिक नज़दीकियाँ भी दिलों की दूरियाँ पाटने का कोई सबब नहीं पैदा कर पातीं। लेकिन सावधान! इसका अर्थ आप यह न समझ लें कि स्वदेशी के सिद्धान्त में शहर-विरोध का कोई स्थायी भाव है। गान्धी जब स्वदेशी की बात करते हैं, बाज़ार और उद्योगवाद की बात करते हैं तो भारत और पश्चिम के सन्दर्भ में गाँव और शहर के ज़रूरी और ग़ैरज़रूरी होने को भी रेखाङ्कित करते चलते हैं। ज़रा गान्धी का यह वक्तव्य देखिए—“दुनिया में ऐसे विवेकी पुरुषों की सङ्ख्या लगातार बढ़ रही है, जो इस सभ्यता को—जिसके एक छोर पर तो भौतिक समृद्धि की कभी तृप्त न होने वाली आकाङ्क्षा है और दूसरे छोर पर उसके फलस्वरूप पैदा होने वाला युद्ध है—अविश्वास की निगाह से देखते हैं। लेकिन यह सभ्यता अच्छी हो या बुरी, भारत का पश्चिम जैसा उद्योगीकरण करने की क्या ज़रूरत है? पश्चिमी सभ्यता शहरी सभ्यता है। इङ्ग्लैंड और इटली जैसे छोटे देश अपनी व्यवस्थाओं का शहरीकरण कर सकते हैं। अमेरिका बड़ा देश है, किन्तु उसकी आबादी बहुत विरल है। इसलिए उसे भी शायद वैसा करना पड़ेगा। लेकिन कोई भी आदमी यदि सोचेगा तो यह मानेगा कि भारत जैसे बड़े देश को, जिसकी आबादी बहुत ज़्यादा बड़ी है और ग्राम-जीवन की ऐसी पुरानी परम्परा में पोषित हुई है जो उसकी आवश्यकताओं को बराबर पूरा करती आई है, पश्चिमी नमूने की नक़ल करने की कोई ज़रूरत नहीं है और न ही उसे ऐसी नक़ल करनी चाहिए। विशेष परिस्थितियों वाले किसी एक देश के लिए जो बात अच्छी है वह भिन्न परिस्थितियों वाले किसी दूसरे देश के लिए भी अच्छी ही हो, यह ज़रूरी नहीं है। जो चीज़ किसी एक आदमी के लिए पोषक का काम देती हो, वही दूसरे के लिए ज़हर जैसी सिद्ध होती है। किसी देश की संस्कृति को निर्धारित करने में उसके प्राकृतिक भूगोल का प्रमुख हिस्सा होता है। ध्रुव-प्रदेश के निवासी के लिए ऊनी कोट ज़रूरी हो सकता है, लेकिन भूमध्य रेखावर्ती प्रदेशों के निवासियों का तो उससे दम ही घुट जाएगा।” इतने के बाद भी यदि गान्धी का स्वदेशी-भाव हमारे रहनुमाओं को अव्यावहारिक और पुरोगामी लगता है तो उनकी समझ को क्या कहा जाए! (…जारी) (सन्त समीर)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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