स्वदेशी, बाज़ार और गान्धी-दृष्टि—दो
प्रश्न तकनीक का नहीं है, प्रश्न तो तकनीक के पीछे काम करने वाले भाव का है। जड़ और भौतिक तकनीक भी अन्ततः अमूर्त और अभौतिक भावों की अनुषङ्गी है। तकनीक का रूप वैसा ही होगा, उसके पीछे जैसी मनसा काम कर रही होगी। दुनिया पर प्रभुता जमाने के भाव के बग़ैर अणुबम का आविष्कार नहीं हो सकता था। विनाशकारी तकनीक के पीछे युद्ध और मार-काट की मानसिकता तो होगी ही।
स्वदेशी की बात उठती है तो अक्सर समझ लिया जाता है कि यह यन्त्र विरोधी अर्थात् तकनीक विरोधी विचारधारा है। जो लोग ऐसा समझते हैं वे भूल जाते हैं कि गान्धी ने उस दौर के हिसाब से चरखे की बेहद उन्नत तकनीक को पुनर्जीवित किया था। उन्होंने इसे और उन्नत बनाने के लिए इनाम तक घोषित किया था। गान्धी-दृष्टि यह नहीं कहती कि मनुष्य यन्त्रों को पूरी तरह ख़ारिज कर दे और सिर्फ़ हाथ-पैरों का ही इस्तेमाल करके काम चलाए। गान्धी साफ़ कहते हैं—“यन्त्रों का भी स्थान है और यन्त्रों ने अपना स्थान प्राप्त भी कर लिया है। लेकिन मनुष्यों के लिए जिस प्रकार की मेहनत करना अनिवार्य होना चाहिए उसी प्रकार की मेहनत का स्थान उन्हें ग्रहण न कर लेना चाहिए। घर में चलाने लायक़ यन्त्रों में सुधार किए जाएँ तो मैं उसका स्वागत करूँगा। लेकिन मैं यह भी समझता हूँ कि जब तक लाखों किसानों को उनके घर में कोई दूसरा धन्धा करने के लिए न दिया जाय तब तक हाथ-मेहनत से चरख़ा चलाने के बदले किसी दूसरी शक्ति से कपड़े का कारख़ाना चलाना गुनाह है। लेकिन ऐसे सादे औज़ारों, साधनों या यन्त्रों का, जो व्यक्ति की मेहनत को बचाएँ और झोंपड़ियों में रहने वाले लाखों-करोड़ों लोगों का बोझ कम करें, मैं ज़रूर स्वागत करूँगा। हिन्दुस्तान के सात लाख गाँवों में फैले हुए ग्रामवासी-रूपी करोड़ों जीवित यन्त्रों के विरुद्ध इन जड़ यन्त्रों को प्रतिद्वन्द्विता में नहीं लाना चाहिए। यन्त्रों का सदुपयोग तो यह कहा जाएगा कि उससे मनुष्य के प्रयत्न को सहारा मिले और उसे वह आसान बना दे। यन्त्रों के मौजूदा उपयोग का झुकाव तो इस ओर ही बढ़ता जा रहा है कि कुछ इने-गिने लोगों के हाथ में ख़ूब सम्पत्ति पहुँचाई जाय…।” इस दृष्टि को न समझ पाने पर गान्धी ने चेतावनी दी थी कि—“एक क्षण के लिए मान भी लिया जाय कि यन्त्र मानव-समाज की सारी आवश्यकताएँ पूरी कर सकते हैं, तो भी उसका यह परिणाम तो होगा ही कि उत्पादन कुछ विशिष्ट क्षेत्रों में केन्द्रित हो जाएगा और इसलिए वितरण की योजना के लिए हमें द्राविड़ी प्राणायाम करना पड़ेगा।” और वास्तव में, आज की तारीख़ में यह बताने की कोई बहुत ज़रूरत नहीं रह गई है कि व्यवस्था के हर पायदान पर हम आए दिन इस द्राविड़ी प्राणायाम की स्थितियों से रू-ब-रू हो ही रहे हैं।
प्रश्न तकनीक का नहीं है, प्रश्न तो तकनीक के पीछे काम करने वाले भाव का है। जड़ और भौतिक तकनीक भी अन्ततः अमूर्त और अभौतिक भावों की अनुषङ्गी है। तकनीक का रूप वैसा ही होगा, उसके पीछे जैसी मनसा काम कर रही होगी। दुनिया पर प्रभुता जमाने के भाव के बग़ैर अणुबम का आविष्कार नहीं हो सकता था। विनाशकारी तकनीक के पीछे युद्ध और मार-काट की मानसिकता तो होगी ही। अन्यथा, दुनिया में अमन-चैन और आपसी सहयोग का मानस बनाने का काम चले तो उसी आणविक शक्ति से धरती पर स्वर्ग उतारने की हज़ार राहें तलाशी जा सकती हैं। और तब, इस मूल सवाल का भी सहज जवाब मिल जाएगा कि आणविक शक्ति का उपयोग किसी काम में किया भी जाना चाहिए या नहीं; या कि इसका कोई सस्ता विकल्प ही क्यों न तलाश लिया जाए। तकनीक की राह वही नहीं है जिसे मुनाफ़ा आधारित बाज़ार का तन्त्र दिखाता है। स्वदेशी की भावना से अनुप्राणित ऐसे तमाम प्रतिभासम्पन्न लोग हैं, जिन्होंने बेहद सीमित और आसपास के ही साधनों के इस्तेमाल से उपयोगी तकनीक के अनगिन अजूबे खड़े किए हैं। दुर्भाग्य कि पश्चिम प्रेरित बाज़ारी चमक में चौंधियाए लोग उनकी शिनाख़्त नहीं करना चाहते। मैं ख़ुद देश के कोने-कोने में बिखरे कई ऐसे लोगों को जानता हूँ और उनसे मिल चुका हूँ जिन्होंने अपने ही बूते ऐसे छोटे-छोटे यन्त्र बनाए हैं, जो आम आदमी की मशक़्क़त भरी ज़िन्दगी को आसान और सुविधाजनक बनाने में सक्षम हैं। एक बार छत्तीसगढ़ के इलाक़े में एक परिवार में मेरा जाना हुआ तो वहाँ मैंने देखा कि कैसे गोमूत्र को प्लास्टिक के डिब्बों में भरकर और बिजली के सामान्य सिद्धान्त के अनुसार धनात्मक और ऋणात्मक एनोड का संयोजन कर दीवार घड़ी, ट्राञ्जिस्टर वगै़रह चलाए जा सकते हैं और ट्यूबलाइट तक जलाए जा सकते हैं। ज़ाहिर है, विज्ञान के जानकार इस काम को थोड़ा और आगे बढ़ाएँ तो गोमूत्र जैसी रोज़-रोज़ बेकार जाने वाली चीज़ भी हमारे गाँवों के लिए आत्मनिर्भरता का मूलमन्त्र बन सकती है। इसी तरह गोबर-गैस से ट्रैक्टर और टैक्सी जैसे वाहन भी लोगों ने चलाकर दिखाए हैं। इलाहाबाद के मेरे एक परिचित और वहाँ के मशहूर अस्थिरोग विशेषज्ञ डॉ. आर. सी. गुप्त ने वर्षों पहले नगर पालिका से बेकार और बूढ़ी गायें माँगकर गौशाला बनाई और उन्हें दुधारू गायों से ज़्यादा उपयोगी साबित करके दिखा दिया था। स्पष्ट है कि सत्तासीनों की नज़र का धुँधलापन मिट जाए तो गोरक्षा के लिए नक़ली उपायों की ज़रूरत नहीं रह जाएगी और बूढ़ी हो चुकी गायें भी बड़े काम की समझी जाएँगी। पुणे के इञ्जीनियर बाप-बेटे ने पानी से जीप चलाकर दिखाया तो प्रशासन ने तब उसे कुतूहल भरे जादू-टोने जैसे किसी काम से ज़्यादा का महत्त्व नहीं दिया, लेकिन जब मशहूर उद्योगपति टाटा ने पानी से चलाए जा सकने वाले इञ्जन पर काम करने के लिए मोटी रक़म के निवेश का ऐलान किया तो बड़ी ख़बर बन गई। रामर पिल्लै की कहानी किसे भूली होगी, जिसने लगभग एक दशक पहले कुछ वनस्पतियों से पेट्रोल का विकल्प तैयार करने का दावा किया तो उसे जेल में डाल दिया गया, पर जब एक एनआरआई ने वैसे ही बायोफ्यूल के इस्तेमाल से पहली बार अपना निजी हेलीकॉप्टर उड़ाकर दिखाया तो ख़ूब वाहवाही हुई और कुछ दिनों के लिए जेटरोफा जैसी चीज़ों की खेती की बहार आ गई। पुणे के ही एक व्यक्ति ने बग़ैर किसी ईंधन के नदी से पानी खींचने और सौ फुट ऊँचाई तक जलापूर्ति का यन्त्र बनाया। राजकोट के मेरे एक परिचित बेलजी भाई देसाई ने गाँवों के स्तर पर बिजली का उत्पादन कर सकने वाले छोटे-छोटे पॉवर प्लाण्ट बनाकर दिखाए। उन्होंने सुविधाजनक छोटी-छोटी घाणियाँ भी बनाईं और सोलर कुकर को इतना आसान और प्रभावी बनाकर दिखा दिया कि एक साथ उसमें पचास लोगों तक का खाना पकाया जा सके और टूटने-फूटने पर साधारण-सा व्यक्ति भी उसकी मरम्मत कर ले।
स्वदेशी भाव दृष्टि के ये कुछ आयाम हैं। ऐसे ढेरों उदाहरण देश के कोने-कोने में बिखरे पड़े हैं। ऐसी कोशिशों को आमतौर पर सत्ता प्रतिष्ठान की तरफ़ से हतोत्साहित किया जाता है या झूठे आश्वासनों के जाल में फँसा दिया जाता है। वजह साफ़ है। ऐसी कोशिशें केन्द्रीकृत व्यवस्था और बाज़ार की आधुनिक सोच के खि़लाफ़ जाती हैं। कल्पना कीजिए कि यदि एक दिन देश का हर गाँव अपने ही संसाधनों के बूते अपनी ज़रूरत के ऊर्जा प्रकल्प ख़ुद खड़ा कर ले तो क्या होगा? इस एक मोर्चे पर आत्मनिर्भरता के मायने हैं कि तेल कारोबार का अरबों-खरबों का खेल लगभग ख़त्म। बिजली कम्पनियों के घाटे-मुनाफ़े का गुणा-गणित भी क़रीब-क़रीब बेमानी। ऐसे ही दूसरी ज़रूरतों का अधिकांश भी अपने आसपास से ही पूरा होने लगे तो साफ़ अर्थ हुआ कि मुनाफ़े का केन्द्रीयकरण मुश्किल हो जाएगा। कुल नतीजा यह होगा कि बाज़ार का पश्चिमी चेहरा हिन्दुस्तानी हाट में तब्दील हुए बिना न रहेगा। बाज़ार के लगभग पुख़्ता हो चले आज के स्वरूप के बदल जाने का यह भी अर्थ है कि शोषण के उस पूरे सञ्जाल का ही तार-तार बिखरना, जिसे महात्मा गान्धी यन्त्रों के सङ्गठित रूप के ज़रिये चन्द हाथों में धन और सत्ता के केन्द्रीयकरण की साज़िश के रूप में देख रहे थे।
यह सब कहते हुए सत्रहवीं सदी के प्रखर फ्रेञ्च चिन्तक वाल्तेयर के प्रति मैं क़तई निष्ठुर नहीं हूँ, जिसने बाज़ार से मुनाफ़ा कमाने और उसके सहारे जीवनयापन करने को नैतिक दृष्टि से एकदम उचित माना। उस दौर में यूरोप जैसी परिस्थितियों से गुज़र रहा था वैसे में यह सोच स्वाभाविक थी। वाल्तेयर ने यदि पूँजी बाज़ार तक में सामाजिक सौहार्द बनाए रखने के तत्त्व देखे तो वह भी पश्चिम का युगीन यथार्थ ही था। वाल्तेयर का कहना था कि पूँजी बाज़ार लोगों को प्रेरित करता है कि वे धर्म, सम्प्रदाय, राष्ट्र आदि के भेदों से ऊपर उठें और समान उद्देश्य ‘अधिकाधिक सम्पदा बटोरने’ के लिए जुटें। वाल्तेयर को लगता था कि अपनी ज़िन्दगी ख़राब कर दूसरों की आत्मा की मुक्ति के लिए धार्मिक अभियान छेड़ने से वैध धन-सम्पदा बटोरने के पीछे दौड़ना कहीं ज़्यादा बेहतर है, जिससे शान्ति रहेगी और सबका भला होगा।
इस सोच को पश्चिम के सन्दर्भ में वहाँ की धार्मिक-सामाजिक परिस्थितियों को देखते हुए एक तात्कालिक युगधर्म मान लिया जाए तो कुछ ख़ास दिक़्क़त नहीं है, पर सनद रहे कि यह पश्चिम के लिए भी तात्कालिक ही है, सार्वकालिक नहीं। वाल्तेयर जैसों के इस बाज़ार-धर्म को पूरी तरह ठीक मान लेने की एक वजह तब ज़रूर बन सकती है, जबकि धन-सम्पदा मानो आसमान से टपक कर इफ़रात में बिखरी पड़ी हो और जिसकी भी इच्छा करे बटोरने में लग जाए। लेकिन सच यही है कि मुनाफ़ा बटोरने के लिए धन्धे में उतरना सर्वसुलभ नहीं है। इसका सर्वसुलभ दिखाई देना महज़ भ्रम है। बाज़ार अन्ततः लेन-देन पर टिका व्यवहार है। कुछ लोगों की जेबों में मुनाफ़ा तभी जाएगा, जबकि कुछ लोगों की जेबें ख़ाली होंगी। बाज़ार का मौजूदा चरित्र बराबरी के व्यवहार का नहीं है। यदि कोई कहे कि किसी स्थान पर रहने वाले सारे ही लोग अलग-अलग क़िस्म के धन्धे अपनाकर स्वतन्त्र रूप से मुनाफ़ा कमा सकते हैं तो यह एक हद तक तभी सच हो सकता है जबकि मुनाफ़े का स्रोत धन्धेवालों की बस्ती के बाहर हो। हालाँकि, इसमें भी इतना तो तय है कि धन्धेवालों की बस्ती में सम्पदा जितनी ही इकट्ठी हो रही होगी, उसी अनुपात में उतनी ही सम्पदा बाहर के कुछ हाथों से निकल रही होगी। यदि सम्पदा बटोरने का कारोबार सिर्फ़ बस्ती के भीतर ही आपसी ख़रीद-बेच के तौर पर चले तो भी किसी का मुनाफ़ा तभी सम्भव है जबकि किसी दूसरे का घाटा भी हो रहा हो। मुनाफ़े का सीधा अर्थ है कि किसी के पास जितना था, उससे ‘अतिरिक्त’। आख़िर हर किसी के पास ‘अतिरिक्त’ कैसे आ सकता है? ‘अतिरिक्त’ सिर्फ़ कुछ के पास इकट्ठा हो सकता है और वह भी तब जबकि कुछ ‘रिक्त’ हो रहे हों। सभी धन्धेवाले हों और सभी का धन्धा बराबर चल रहा हो, इसका मतलब होगा कि मुनाफ़ा नाम की चीज़ किसी के पास इकट्ठा नहीं रह सकती। अभी इकट्ठा भी हुई तो थोड़ी ही देर में चली भी जाएगी, क्योंकि पड़ोसी का धन्धा भी बराबरी पर चलना है, और बात यह भी कि जो किसी एक चीज़ का विक्रेता है वही किसी दूसरी चीज़ का क्रेता भी है। अपने अन्तिम फलितार्थ में यह तो महज़ ज़रूरत की चीज़ों के लेन-देन का आपसी व्यवहार भर हुआ। दरअसल, गान्धी की स्वदेशी-दृष्टि यही तो चाहती है, जहाँ ज़रूरतें पूरी करने का सहज व्यवहार चलता हो। ऐसे में, गाँव-नगर-देश के बाहर से व्यापारिक सम्बन्ध बनते हैं और मुनाफ़ा भी इकट्ठा होता है तो यह भी समाज की बेहतरी के काम आता है। इस स्वदेशी संसार में लालच के लिए कोई जगह नहीं है और इस तरह ही समाज का ज़्यादा स्वस्थ विकास हो सकता है। आज जिस बाज़ार को हम विस्तार दे रहे हैं वह वास्तव में व्यापारिक युद्ध-स्थल है। इसका चक्रव्यूह इतना जटिल है कि समझदारों को भी ठीक से समझ में नहीं आता, आम आदमी की तो क्या बिसात?
तो, क्या बाज़ार को सचमुच इतना भयावह और सिर्फ़ शोषण को प्रश्रय देने वाला ही समझा जाए? अगर ऐसा मानकर कोई अन्तिम फ़ैसला दे दिया जाए तो भी ठीक नहीं। गान्धी-दृष्टि ऐसे निर्दयी और एकपक्षीय फ़ैसले की हामी नहीं है। एक बार फिर वाल्तेयर की ओर मुड़िए। बाज़ार कई मायनों में अवसर देता है और उसने दिया भी है। सामन्ती व्यवस्था में सम्भावनाएँ खो चुके जाने कितने लोगों और समुदायों को इस बाज़ार ने पहचान दी है। बाज़ार में खड़ी स्त्री बाज़ारू बनते-बनते भी गुलामी की ज़ञ्जीरें तोड़ती हुई कुछ क़दम आगे तो बढ़ी ही है। इण्टरनेट आधारित जिस सोशल मीडिया के सहारे कई सार्थक मुद्दों को उजागर करने में मदद मिली है और जनान्दोलनों की एक बेहतर सम्भावना जगी है वह भी इस बाज़ार का ही ‘बाई प्रोडक्ट’ है। मुनाफ़ा बटोरने की जुगत में जुटे धनी देशों की धमकियों-प्रलोभनों में ही सही, पर दुनिया भर के देशों के खुलते बाज़ार उनके अपने बीच सम्बन्ध बनाने और एक-दूसरे की सभ्यता-संस्कृतियों को आत्मसात् करने के माध्यम भी बने हैं।
प्रश्न दरअसल बाज़ार-विस्तार का नहीं, इसके पीछे की रीति-नीति और स्वार्थी मानसिकता का ही है। गान्धी-दृष्टि यही कहती है कि बाज़ार-विस्तार या उत्पादन-तन्त्र के पीछे का उद्देश्य लोकमङ्गलकारी हो जाए, साधनों की पवित्रता पर ध्यान दे लिया जाए तो सब कुछ ठीक राह पर चल पड़ेगा। गान्धी का नज़रिया, सवाल हमारे नक़लची होने पर उठाता है। गान्धी कहते हैं—“यूरोपीय सभ्यता बेशक यूरोप के निवासियों के लिए अनुकूल है; लेकिन यदि हमने उसकी नक़ल करने की कोशिश की तो भारत के लिए उसका अर्थ अपना नाश कर लेना होगा। इसका यह मतलब नहीं कि उसमें जो कुछ अच्छा और पचा सकें, ऐसा हो, उसे हम लें नहीं या पचाएँ नहीं। इसी तरह उसका यह मतलब भी नहीं कि उस सभ्यता में जो दोष घुस गए हैं, उन्हें यूरोप के लोगों को दूर नहीं करना पड़ेगा। शारीरिक सुख-सुविधाओं की सतत खोज और उनकी सङ्ख्या में तेज़ी से हो रही वृद्धि ऐसा ही एक दोष है, और मैं साहसपूर्वक यह घोषणा करता हूँ कि जिन सुख-सुविधाओं के हम गुलाम बनते जा रहे हैं उनके बोझ से यदि उन्हें कुचल नहीं जाना है तो यूरोपीय लोगों को अपना दृष्टिकोण बदलना पडे़गा। सम्भव है, मेरा निष्कर्ष ग़लत हो, लेकिन यह मैं निश्चयपूर्वक जानता हूँ कि भारत के लिए सुनहरे मायामृग के पीछे दौड़ने का अर्थ आत्मनाश के सिवा और कुछ न होगा।” गान्धी की ये बातें क्या आज हम सच होते हुए नहीं देख रहे हैं। सच्चाई यही है कि अपनी आदतों, बोल-बात-व्यवहार में न तो हम भारतीय रह पा रहे हैं और न पूरे अर्थां में पश्चिमी रङ्ग में ही ढल पा रहे हैं। शायद हम ‘कल्चरल मङ्की’ बनने की राह पर हैं। धन से लेकर अस्मत तक के लुटेरों की जमात निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। रात की कौन कहे दिन-दोपहर भरी भीड़ में भी हम ख़ुद को सुरक्षित मानकर निश्चिन्त भाव से नहीं चल सकते। उस देश का यह हाल है जहाँ महापापी रावण में भी इतनी नैतिकता शेष थी कि वह निस्सहाय सीता की ज़बर्दस्ती अस्मत लूटने की हिम्मत नहीं कर सकता था। क्या स्वदेशी भाव-दृष्टि को अप्रासङ्गिक मानने वाले यह दावा कर सकते हैं कि बाज़ार और उद्योगीकरण के सहारे सभ्यता की जिस राह पर आज की दुनिया भाग रही है वह वास्तव में सुकून की साँस लेने लायक़ किसी मञ्ज़िल पर जाकर ख़त्म होगी? सङ्केत साफ़ हैं कि ऐसा नहीं होने वाला। और तब, गान्धी जिस राह के हामी थे उसके अलावा और दूसरा रास्ता क्या बचता है? (समाप्त) (सन्त समीर)