पत्रकारिता

हिन्दी पत्रिकाओं का सङ्कट काल

हिन्दी पत्रिकाओं के मामले में एक बड़ा मुद्दा यह है कि उनके साथ हिन्दी देश में ही दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता रहा है। हिन्दी पत्रिका अँग्रेज़ी की तुलना में भले ही कई गुना ज़्यादा पढ़ी जाए, पर उसे विज्ञापन अँग्रेज़ी की तुलना में कम दिए जाएँगे। हिन्दी पत्रिकाओं के प्रति यह व्यवहार सरकारों और ग़ैर सरकारी संस्थानों, दोनों तरफ़ से है। कहा जाता है कि यह ‘फ्री मार्केट’ का दौर है, पर वास्तव में यह ‘फिक्स्ड मार्केट’ का दौर है।

पिछले दिनों ‘कादम्बिनी’ और ‘नन्दन’ बन्द हुईं तो हिन्दी जगत् ने एक बड़ा ख़ालीपन महसूस किया। बीते दो दशक में क़रीब दर्जन भर बड़ी पत्रिकाएँ तो ख़ैर पहले ही दम तोड़ चुकी हैं। हिन्दी पत्रिकाओं के एक-एक कर बन्द होते जाने की इन घटनाओं ने आशङ्का यह तक पैदा कर दी है कि हिन्दी पत्रिकाओं का समूचा बाज़ार ही क्या समाप्त हो जाने वाला है?

क़रीब पन्द्रह साल पहले की बात है। मैं इलाहाबाद की पत्रकारिता पर कुछ काम कर रहा था। साथी अभय प्रताप जी के साथ मिलकर मैंने तीन-चार महीने यह जानने में लगाए कि आज़ादी के बाद इलाहाबाद से हिन्दी की कितनी पत्रिकाएँ निकली होंगी। शहर से लेकर गाँव की गलियों तक की ख़ाक हमने छानी। हमारी सूची पहुँची छह सौ से ज़्यादा पत्र-पत्रिकाओं तक। उनके शुरू होने और बन्द होने की कथा-कहानियाँ भी सुनीं। आज की तारीख़ में देखें तो ज़्यादातर पत्रिकाएँ बन्द हो चुकी हैं। इक्का-दुक्का निकल रही हैं, तो किन्हीं और रूपों में।

बात यह है कि देश के विभिन्न शहरों, क़स्बों से हिन्दी की पत्रिकाएँ निकली भी ख़ूब हैं और बन्द भी ख़ूब हुई हैं, पर तब की बन्दी और अब की बन्दी में बुनियादी फ़र्क़ है, जिसे समझा जाना चाहिए। आज़ादी के शुरुआती कुछ दशकों में पत्रकारिता के प्रति एक जुनून और समाज के प्रति एक सरोकार हम देख सकते हैं। संस्थागत और ग़ैर संस्थागत, दोनों रूपों में हिन्दी में पत्रिकाएँ निकालने की एक होड़-सी दिखाई देती है। यह भी दिलचस्प है कि संस्थागत की तुलना में ग़ैर संस्थागत पत्रिकाओं का प्रभाव कई बार ज़्यादा रहा है। दिक़्क़त इस बात की थी कि किसी ने अपनी किसी ख़ास रुचि के तहत पत्रिका निकाली, पर बाद में जब वह किसी और काम में लग गया तो पत्रिका बन्द हो गई। तमाम संस्थाओं की पत्रिकाएँ संस्थाओं की निष्क्रियताओं के चलते काल की भेंट चढ़ीं। पत्रिकाओं की एक बड़ी सङ्ख्या है, जो मुनाफ़े के गणित की मोहताज नहीं थी। शौक़ और सरोकार इनके शुरू या बन्द होने के पीछे मुख्य कारण रहे। यहाँ उन पत्रिकाओं की बात करने की ज़रूरत नहीं है, जो महज़ धन्धा-पानी चमकाने या नेटवर्किङ्ग बढ़ाने के उद्देश्य से निकाली जाती रही हैं।

असल में वर्तमान में हिन्दी पत्रिकाओं के लगातार बन्द होते जाने की बड़ी चिन्ता उन पत्रिकाओं से जुड़ी है, जो बड़े संस्थानों या कॉरपोरेट घरानों की रही हैं। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, पराग, रविवार, दिनमान, सण्डे मेल…एक-एक कर बन्द होती गईं। हर पत्रिका के बन्द होने के बाद कुछ दिन प्रासङ्गिकता-अप्रासङ्गिकता, घाटा-मुनाफ़ा जैसी चीज़ों पर लेखकीय चर्चाएँ चलीं और फिर सब कुछ शान्त। हाल में कादम्बिनी और नन्दन बन्द हुई हैं तो भी ऐसी ही चर्चाएँ चल रही हैं। हम अक्सर मान लेते हैं कि हिन्दी घाटे का सौदा है, इसलिए हिन्दी की पत्र-पत्रिकाओं को अन्ततः बन्द होने को अभिशप्त होना ही है, जबकि यह पूरा सच नहीं हैं। यह बात तो है कि व्यावसायिक घराने मुनाफ़े की सम्भावनाओं पर काम करते हैं और जहाँ मुनाफ़ा नहीं होगा, वहाँ ये अपनी ऊर्जा क्यों लगाएँगे, लेकिन हिन्दी पत्रिकाओं के बन्द होने के पीछे कारण मुनाफ़े से ज़्यादा बदलती मानसिकता है। तर्क घाटे का दिया जाता है, पर कारण इससे ज़्यादा कुछ और होता है। व्यावसायिक घरानों के संरचनात्मक ढाँचे के हिसाब से हिन्दी पत्रिकाओं के संरचनात्मक ढाँचे को देखें तो मुनाफ़ा या घाटा बड़ा मुद्दा नहीं है। हिन्दुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इण्डिया की बात करें तो ध्यान देने वाली बात है कि इनकी हिन्दी पत्रिकाएँ इनके मालिकों के बमुश्किल रोज़मर्रा के ख़र्चे बराबर लागत पर निकलती रही थीं। कादम्बिनी से मैं ख़ुद बीते दस साल से जुड़ा हुआ था तो देखता ही रहा हूँ कि इसके या नन्दन के कभी बन्द करने की बात भी नहीं सोची गई। माना जाता रहा है कि ये पत्रिकाएँ संस्थान की प्रतिष्ठा बनाए रखने का काम करती हैं; और यह सच भी है।

दिक़्क़त यह हुई है कि पहले के मालिकों की संवेदना अपने नीचे के कर्मचारियों तक जाती थी, पर नए कॉरपोरेट कल्चर में पले अब के मालिकों के रिश्ते सिर्फ़ सम्पादकों तक सीमित रह गए हैं और सम्पादक सम्पादक कम, मैनेजर ज़्यादा हो गया है। बीते कुछ वर्षों में मीडिया घरानों की संरचना में हुआ परिवर्तन पत्रकारिता की प्रकृति से मेल नहीं खाता। प्रबन्धन और एचआर का जो तन्त्र विकसित हुआ है, उसका पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं है। वह हर चीज़ को बस उत्पाद की निगाह से देखता है। अगर कोई पत्रिका कुछ लाख में मुनाफ़ा देती भी है, तो उसे यह घाटे का सौदा लगता है। मुनाफ़ा उसे करोड़ों-अरबों में चाहिए। उसे यह नहीं दिखाई देता कि देश के लाखों पाठकों को मिलने वाली मानसिक ख़ुराक कोई महत्त्वपूर्ण चीज़ है। कई हिन्दी पत्रिकाएँ ऐसी रही हैं, जो घाटे में नहीं थीं या उन्हें विज्ञापनों की भी कमी नहीं थी, पर वे करोड़ों-अरबों में मुनाफ़ा नहीं दे सकती थीं तो एमबीए-धारी अँग्रेज़ीदाँ प्रबन्धन की निगाह में सिरदर्द थीं। मालिकों को समझाने के लिए उन्हें घाटे में लाया गया और पूरी तरह बन्द करने का माहौल बना दिया गया। अपनी नौकरी बनाए रखने के चक्कर में पत्रकारिता के ऊँचे ओहदों पर बैठे लोगों ने भी प्रबन्धन का इसमें साथ दिया। मैंने लगातार देखा है कि पिछले कुछ वर्षों में कैसे कादम्बिनी के लिए विज्ञापन लेने के प्रयास रोके गए और प्रसार बढ़ाने की सारी गतिविधियाँ बन्द की गईं। दस जगह से माँग आती थी तो इक्का-दुक्का जगहों पर ही पत्रिका भेजी जाती थी। गुज़रे ज़माने का माहौल होता तो आवाज़ भी उठती, पर आज माहौल ऐसा बना दिया गया है कि पत्रकार बेचारगी की स्थिति में है, महज़ नौकर बनकर रह गया है।

बहुत कुछ डिजिटल होते जाने के दौर में तेज़ तकनीकी बदलाव को हिन्दी पत्रिकाओं के बन्द होने के पीछे एक बड़ा कारण माना जा रहा है। यह विचार करने लायक़ कारण है, पर यह भी समझने की बात है कि हाल के लॉकडाउन को छोड़ दें तो हिन्दी के समाचार पत्र लगातार सिर्फ़ क़ायम ही नहीं हैं, बल्कि तेज़ी से फलते-फूलते रहे हैं। सवाल है कि हिन्दी के पाठक क्या सिर्फ़ हिन्दी के अख़बार ही पढ़ना चाहते हैं और हिन्दी की पत्रिकाओं से दूर रहना चाहते हैं? एक मज़ेदार तथ्य यह है कि हिन्दी किताबों के प्रकाशक किताबें लगातार छाप रहे हैं। मौजूदा दौर में पढ़ने की घटती प्रवृत्ति के बावजूद किताबें ख़ूब बिक रही हैं। एक तरफ़ पाठक ग़ायब हो रहे हैं, तो दूसरी तरफ़ सोशल मीडिया ने आम आदमी को भी कवि-लेखक बना दिया है। फेसबुकिया बहसों में हिस्सा लेने वाले आम लोग भी बुद्धिजीविता की दौड़ में शामिल हो रहे हैं और भाँति-भाँति की पोस्टें पढ़ते-पढ़ते भाँति-भाँति की किताबें भी पढ़ने की ओर बढ़ रहे हैं। दस-बीस किताबों के नाम सुनने के बाद कोई भी व्यक्ति एक-दो किताबें ख़रीदने की दिलचस्पी भी दिखा ही देता है। ऐसा नहीं है कि ऑनलाइन किताबों के बढ़ते बाज़ार ने काग़ज़ पर छपी किताबों की माँग एकदम से ख़त्म कर दी है, बल्कि कुछ बढ़ाया ही है। छपा हुआ इतमीनान से पढ़ने का एक सुख है, जिसके चलते किताबों की दुनिया शायद ही कभी समाप्त हो। यहीं पर इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि जब पढ़ने की प्रवृत्ति के घटने की बातें की जा रही हैं, तो लगातार ऐसी अनूदित किताबें आ रही हैं, जो लाखों की सङ्ख्या में बिक रही हैं। ‘बेस्टसेलर’ की जलवानुमाई हम इसी दौर में देख रहे हैं। ऐसे में सवाल बनता ही है कि जब किताबें पढ़ी जा रही हैं और प्रकाशकों की सङ्ख्या में इज़ाफ़ा हो रहा है, तो पत्रिकाएँ भी काग़ज़ पर छापी जाने के बावजूद गहरे सङ्कट में आख़िर कैसे आती जा रही हैं?

यहाँ एक किताब और एक पत्रिका के पढ़े जाने के बीच के महीन अन्तर को समझने की ज़रूरत है। असल में विषय और रुचि के हिसाब से किसी किताब का हम स्वतन्त्र चयन करते हैं, पर पत्रिका का हर अङ्क अपने-आपमें स्वतन्त्र होते हुए भी वर्षों के एक ख़ास नैरन्तर्य में बँधा होता है। किसी पत्रिका के कुछ अङ्क लगातार अगर रुचि पर खरा न उतरें तो पाठक उस पूरी पत्रिका को ही ख़ारिज करने लगता है, क्योंकि ज़्यादातर पाठकों को एक ही बार में कई अङ्कों के लिए साल-दो साल तक का ग्राहक बनने का निर्णय करना होता है। यह भी एक बिन्दु है, जिसे हिन्दी या किसी भी भाषा की पत्रिकाओं के बन्द होने की व्यथा-कथा के साथ जोड़कर देखना चाहिए। बदलता समय नवाचार की माँग कर रहा है, पर ज़्यादातर पत्रिकाएँ अपने ढर्रे से टस से मस नहीं होना चाहतीं। हिन्दी के साथ एक अजीब बात है कि साहित्य और साहित्येतर, दोनों स्तरों पर लेखन के दायरे जैसे रूढ़ और ठस-से हो गए हैं। गिनेचुने लेखकों को छोड़ दिया जाय तो हिन्दी का लेखक अँग्रेज़ी में प्रवेश न कर पाने के चलते जैसे मजबूरी में हिन्दी में क़लम घिस रहा है। बने-बनाए रूढ़ हो चुके दायरे से बाहर उसकी जैसे निगाह ही नहीं जा पाती और ऐसा कुछ उसकी क़लम से नया निकलता ही नहीं कि पाठक की ज़िन्दगी में आह्लाद या नया कुछ पा जाने की सन्तुष्टि या ललक भर उठे। हिन्दी लेखकों को यह नहीं समझ में आ रहा है कि हिन्दी में मौलिक किताबों के बजाय अनूदित किताबों के प्रति बढ़ती रुचि की वजह यही है। इसके अलावा बात यह भी है कि पत्रकारिता की समझ से दूर रहकर पले-बढ़े अब के मालिकों ने हिन्दी पत्रिकाओं के नई तकनीक के साथ क़दमताल और नवाचार करने के प्रति उदासीनता दिखाई है। पत्रिकाएँ पुराने ढर्रे पर जैसे-तैसे चलाई या कहें कि ढोई जाती रही हैं। इनमें काम करने वाले लोगों की हैसियत न लेखक की है न पत्रकार की। वे बस नौकर हैं। किसी भी तरह नौकरी चलाए रखना चाहते हैं। काम से ज़्यादा ‘सीनियर-जूनियर’ चलाया जाता है। कोई नया उत्साही कुछ नया करना भी चाहे तो पुराने सीनियर उसे हतोत्साहित करते हैं। मालिक अपने दफ़्तर से बहुत दूर है, तो कॉरपोरेट घराने की पत्रिकाओं के दफ़्तरों का आज का यही हाल है। ऐसे माहौल का नतीजा एक पत्रिका के दुर्दिन के रूप में सामने आता है। बीते कुछ सालों में जो पत्रिकाएँ बन्दी की शिकार हुई हैं, उनके पीछे घाटे-मुनाफ़े का कम, बड़ा कारण यही रहा है, जिस पर अन्दरूनी मामला होने के नाते किसी का ध्यान नहीं जाता। कादम्बिनी और नन्दन के साथ ऐसा ही था। पत्रिकाएँ ही नहीं, अँग्रेज़ी के ‘मेल टुडे’ जैसे टैबलायड अख़बार के साथ जो हुआ है, उसके पीछे भी नवाचार के अभाव की यही कहानी है। भीतर की और बातें इसमें काम कर रहे उन पत्रकारों की ज़बानी सुन सकते हैं, जिनकी क़लम की धार आपसी उठा-पटक में कुन्द हो गई या कर दी गई थी। इल्स्ट्रेटेड वीकली, यूथ और साइंस टुडे वग़ैरह के बन्द होने के पीछे की वजहों का भी एकदम से सामान्यीकरण नहीं किया जा सकता।

हिन्दी पत्रिकाओं के मामले में एक बड़ा मुद्दा यह है कि उनके साथ हिन्दी देश में ही दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता रहा है। हिन्दी पत्रिका अँग्रेज़ी की तुलना में भले ही कई गुना ज़्यादा पढ़ी जाए, पर उसे विज्ञापन अँग्रेज़ी की तुलना में कम दिए जाएँगे। हिन्दी पत्रिकाओं के प्रति यह व्यवहार सरकारों और ग़ैर सरकारी संस्थानों, दोनों तरफ़ से है। कहा जाता है कि यह ‘फ्री मार्केट’ का दौर है, पर वास्तव में यह ‘फिक्स्ड मार्केट’ का दौर है। कुछ लोग निहित स्वार्थों के तहत कुछ चीज़ें तय कर रहे हैं। यह भी कहा जाता है कि बड़ा ख़रीदार वर्ग अँग्रेज़ीदाँ है, तो अँग्रेज़ी को विज्ञापन ज़्यादा मिलेंगे ही, लेकिन सवाल है कि क्या भारत का अँग्रेज़ीदाँ वर्ग हिन्दी नहीं समझता? सच्चाई यह है कि उसके भी ज़िन्दगी के छोटे-बड़े ज़्यादातर काम हिन्दी में ही होते हैं। वह हिन्दी जानता-समझता है, पर अँग्रेज़ियत की मानसिकता के चलते अँग्रेज़ी उसके लिए रौब-ग़ालिब की भाषा ज़रूर बनी हुई है। बहरहाल, हिन्दी में मुनाफ़ा सीमित कर दिया गया है, तो जो मीडिया संस्थान एक साथ हिन्दी और अँग्रेज़ी, दोनों में काम करते हैं, उनके लिए हिन्दी का अपना ही एक विभाग हिकारत की वस्तु बनने लगता है।   

इस सच से इनकार नहीं किया जा सकता कि दृश्य माध्यमों के तकनीकी विस्फोट ने पठन-पाठन की आदतों में ज़बरदस्त हस्तक्षेप किया है। सोशल मीडिया के विभिन्न मञ्चों, वेबसाइटों, ईबुक रीडर के किण्डल और दूसरे कई संस्करणों ने पाठकों की निगाहों को अपनी ओर तेज़ी से खींचा है। यह सही है कि मोबाइल, टीवी और कम्प्यूटर स्क्रीन पर पाठकों का ध्यान ज़्यादा जा रहा है, पर यह भी सही है कि ये माध्यम आँखों का सुकून छीनकर उनमें थकान भरते हैं। तकनीक के मोर्चे पर अभी का हाल एक तरह से सङ्क्रमण काल जैसा है। कुछ उसी तरह से जैसे कि शुरू में टीवी का आगमन हुआ तो हम स्क्रीन पर बस आँखें गड़ाए रहते थे। समाचार हो या कृषि-दर्शन, सब कुछ देखते थे। ऐसे ही आज की मोबाइल या डिजिटल क्रान्ति है। उम्मीद की जानी चाहिए कि कुछ समय बाद आँखें स्क्रीन की क्षणभङ्गुर रङ्ग-बिरङ्गी झिममिल से थकेंगी, पत्रिकाओं के पन्ने के पलटने को बेचैन होंगी और तब नए तेवर की, नए ज़माने नई पीढ़ी की ज़रूरतों के मुताबिक नवाचार को उद्यत नई पत्रिकाओं का एक नया बाज़ार हमारे चारों तरफ़ बनता हुआ एक बार फिर दिखाई देगा।

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सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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