तन-मनस्वास्थ्य

होम्योपैथी का जादू (दो)

होम्योपैथी ही एकमात्र चिकित्सा पद्धति है, जिसमें आनुवंशिक रोगों को अगली पीढ़ी में जाने से रोका जा सकता है। इस काम के लिए आजकल करोड़ों-अरबों ख़र्च करके जैनेटिक इञ्जीनिरिङ्ग के महत्त्वाकाङ्क्षी उपक्रम चलाए जा रहे हैं, फिर भी अभी इसे जन-सुलभ नहीं बनाया जा सका है।

होम्योपैथी अकेली चिकित्सा पद्धति है, जिसमें दुनिया के सबसे ख़तरनाक ज़हर से दवा बनाई जा सकती है। मसलन, जिस पोटैशियम सायनाइड से जुड़ी तमाम किंवदन्तियाँ हम बचपन से ही सुनते आ रहे हैं, उससे भी। ‘किंवदन्तियाँ’ इसलिए कह रहा हूँ कि कई बातें सचमुच वैसी नहीं हैं, जैसी हम सुनते हैं। प्रसङ्गवश बता रहा हूँ कि एक सावधानी रोज़मर्रा के खानपान में रखिएगा कि कभी सेब खाइए तो इसके बीज चबाने की कोशिश मत कीजिएगा। सायनाइड की हल्की-सी मात्रा इनमें होती है और इन्हें चबाना आपकी सेहत के लिए नुक़सानदेह हो सकता है। खुबानी, आड़ू, चेरी और आलूबुखारा के बीज़ों से भी सावधान रहिए।

ख़ैर, आज की मेरी चर्चा का मुद्दा चूँकि सायनाइड नहीं है, इसलिए इसे यहीं छोड़ता हूँ, पर इस बात से इस बात का अन्दाज़ा आपको लगा लेना चाहिए कि होम्योपैथी एक दुधारी तलवार भी है। हम इसे अक्सर एकदम से निरापद चिकित्सा पद्धति समझ लेते हैं; ऐसा ही बताया भी जाता है; लेकिन वास्तव में इसका मर्म समझ लेने के बाद ही तय हो पाता है कि आप सचमुच इसका निरापद व्यवहार कर पाएँगे, वरना ‘साइड इफेक्ट’ इसके भी कम ख़तरनाक नहीं होते। अच्छी बात यही है कि होम्योपैथी दवाओं के दुष्प्रभाव (शुरू में ये नक़ली लक्षण भर होते हैं) पहले ही साफ़-साफ़ सङ्केत देने लगते हैं कि भाई ठहर जाओ, आगे ख़तरा है। समझदार डॉक्टर तुरन्त समझ जाता है और दवा रोककर इन्तज़ार करता है अथवा ज़रूरत पड़ने पर ‘एण्टीडोट’ की व्यवस्था करता है। अगर आप सही समय पर सचेत नहीं हुए तो कुछ मामलों में होम्योपैथी ऐसे विकार भी आपको दे सकती है कि ताउम्र आप ढोते रहें और कोई अन्य पैथी उसे ठीक न कर सके। सीधी-सी बात कि होम्योपैथी दवाएँ भी कृपया अललटप्प ढङ्ग से इस्तेमाल न करें।

ज़्यादातर दवाएँ एक-दो ख़ुराक की लापरवाही से कोई दिक़्क़त पैदा नहीं करतीं, पर कुछ ऐसी भी हैं, जो महज़ एक ख़ुराक से भी उलटे असर दिखा सकती हैं। जिसे हम चिकित्सा की भाषा में ‘की-सिम्टम’ कहते हैं, अगर उस पर ही सीधे उलटे लक्षण वाली दवा पड़ जाय तो कुछ दवाओं का नुक़सान कुछ ही देर में प्रकट हो सकता है।

मैं अपने ही जीवन की एक सच्ची घटना बताता हूँ, जिससे आप यह बात आसानी से समझ सकते हैं कि होम्योपैथी का ‘साइड इफेक्ट’ कैसा होता है।

क़रीब पन्द्रह साल पहले की बात है। तब आयुर्वेद और नेचुरोपैथी तो ठीक-ठीक जानता था, पर होम्योपैथी का ज्ञान ज़्यादा गहरा नहीं था। चूँकि मेरी असाध्य घोषित की जा चुकी बीमारियों पर इलाहाबाद वाले मेरे परिचित डॉ. दिनेश प्रसाद (इनका ज़िक्र पहले की पोस्ट में कर चुका हूँ) की कुछ दवाइयाँ अच्छा असर दिखाने लगी थीं तो मैं भी बस इसे सीखने में लग गया था। एक बार मैटेरिया मेडिका पढ़ते हुए ‘नाइट्रिकम एसिडम’ दवा पर पहुँचा। इस दवा को पढ़ते हुए मैं ख़ुशी से भर उठा। एक तरफ़ से ढेर सारे लक्षण मुझ पर घट रहे थे। लगा कि जैसे इस दवा से मेरा कायाकल्प ही हो जाएगा। मैं इतना ख़ुश था कि आनन-फानन में ‘नाइट्रिकम एसिडम-200’ मँगवाई और सीधे जीभ पर दो-तीन बूँदें टपका लीं। दवा के लक्षण इतने ज़्यादा मेल खा रहे थे कि मैंने ‘रिपर्टराइज़’ करने की ज़रूरत ही नहीं समझी…और यही मेरी सबसे बड़ी ग़लती थी।

दूसरे दिन से दाहिने कान में दर्द होने लगा। यह कुछ तेज़ था और परेशान करने वाला था। शुरू में सोचा कि यों ही होगा, पर हफ़्ते भर बाद भी नहीं ठीक हुआ तो माथा ठनका। होम्योपैथी के बुनियादी सिद्धान्त समझने लगा था, इसलिए रिपर्टरी उठाई। आश्चर्य, इसमें ‘बोल्ड रूब्रीक’ में दर्ज था कि ‘नाइट्रिक एसिड’ में दाहिने कान में तेज़ दर्द होता है। केण्ट की रिपर्टरी आप पलटेंगे तो इसे देख पाएँगे। दरअसल, दवा उलटी पड़ गई थी और अपने आपको ‘प्रूव’ कर रही थी। अब सवाल यह है कि यह उलटी पड़ी क्यों? इसके लिए ‘जनरलाइटीज़’ का अध्याय मदद करता है। ‘नाइट्रिक एसिड’ में मरीज़ को कार, बस वग़ैरह की सवारी करते समय आराम महसूस होता है, जबकि मेरे मामले में यह था कि कार, बस वग़ैरह में मेरी तकलीफ़ बढ़ जाती थी। दवा के चुनाव में असली चूक यही थी। यह इस दवा का ‘की सिम्टम’ है और यही उलटा पड़ गया।

अगर मुझे कोई दवा कब शुरू करनी है, किन सङ्केतों पर रोक देनी है, इसकी बुनियादी समझ न होती तो चार-छह ख़ुराक और लेकर ठीक-ठाक मुसीबत में फँस सकता था, पर दवा की दूसरी ख़ुराक मैंने नहीं ली और इन्तज़ार किया। तब एण्टीडोट करने की ज़्यादा समझ नहीं थी और फ़ोन वग़ैरह की सुविधा से महरूम था तो मध्य प्रदेश में रहते हुए इलाहाबाद फ़ोन करके सलाह भी नहीं ले सकता था। दवा 30 पोटेंसी की रही होती तो हफ़्ते-दस दिन में मामला शायद सुलट जाता, पर कुल मिलाकर ढाई-तीन महीने तक मुझे कान की तकलीफ़ झेलनी पड़ी।

कहने का मतलब यह है कि होम्योपैथी कितनी भी निरापद लगे, पर कोई भी दवा बस यों ही नहीं ले लेनी चाहिए। ‘सल्फर’ जैसी दवा आप जल्दी-जल्दी नहीं दोहरा सकते। शाम के समय लेने पर यह आपकी नींद तक ग़ायब कर सकती है या कुछ देर के लिए बीमारी बढ़ा सकती है। सही लक्षणों पर ‘फॉस्फोरस’ का चमत्कार बहुत जल्दी दिखाई देता है, पर बिना ठीक से सोचे-विचारे दे दी जाय तो उल्टावाला चमत्कार भी दिखा सकती है। मरीज़ की हालत नाजुक हो तो ग़लत ढङ्ग से दी गई ‘फॉस्फोरस’ जान भी ले सकती है, इसलिए इसकी एक ख़ुराक देकर राह देखनी चाहिए। ‘कल्केरिया कार्ब’ की बार-बार की ख़ुराकें उल्टे नुक़सान पहुँचा सकती हैं। किसी भले-चङ्गे को मुसीबत में डालना हो तो ‘ट्यूबरक्यूलीनम’ की कुछ ख़ुराकें कुछ दिनों तक लगातार देते रहिए, बिन बुलाए मुसीबत गले आ पड़ेगी।

होम्योपैथी सीखने में दिलचस्पी रखने वालों को यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि शुरुआती दिनों में कम पोटेंसी (सामान्यतः 30) से इलाज शुरू करें। समझदारी बढ़ जाए तो आप समझने ही लगेंगे कि बीमारी का स्तर क्या है और किस पोटेंसी की दवा बेहतर परिणाम देगी। हाँ, नए हों या पुराने, नोसोड दवाओं के बारे में ज़रूर समझ लें कि इनमें से कई ऐसी हैं, जिनको 200 पोटेंसी से कम में इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। नोसोड असल में वे दवाएँ होती हैं, जो सीधे बीमारी के विष से बनाई जाती हैं। जैसे कि टीबी के विष से ‘ट्यूबरक्यूलीनम’ तथा ‘बेसिलीनम’, खाज-खुजली के विष से ‘सोरिनम’, चेचक-जाति के रोगों के विष से ‘वेरियोलीनम’, सीधे चेचक के विष से ‘वैक्सिनिनम’, सिफिलिस के घाव के विष से ‘सिफिलीनम’…आदि-आदि। एलोपैथी में वैक्सिनेशन का ढर्रा कुछ-कुछ ऐसा ही है।

यहीं पर यह भी जानिए कि होम्योपैथी ही एकमात्र चिकित्सा पद्धति है, जिसमें आनुवंशिक रोगों को अगली पीढ़ी में जाने से रोका जा सकता है। इस काम के लिए आजकल करोड़ों-अरबों ख़र्च करके जैनेटिक इञ्जीनिरिङ्ग के महत्त्वाकाङ्क्षी उपक्रम चलाए जा रहे हैं, फिर भी अभी इसे जन-सुलभ नहीं बनाया जा सका है।

यह अजीब और अविश्वसनीय लगेगा, पर सौ फ़ीसद सच है कि पागल कुत्ते के काट खाने के बाद होम्योपैथी बड़ी आसानी से बचाव करती है। एक सच यह है कि पागल कुत्ता काट ले और समय पर टीका न लगे तो रेबीज़ होने के बाद दुनिया की कोई भी एलोपैथी दवा मरीज़ को बचा नहीं सकती, पर दूसरा सच यह है कि होम्योपैथी की ‘बेलाडोना’, ‘हायोसायमस’ और ‘स्ट्रामोनियम’ की पर्यायक्रम से बस तीन-तीन ख़ुराकें रेबीज़ नहीं होने देतीं और रोग हो चुका हो तो भी बचा लेती हैं। ‘हाइड्रोफोबिनम’ भी काम आती है। चौंकना स्वाभाविक है, पर अतीत में यह बार-बार सच साबित होता रहा है। दुर्भाग्य से एलोपैथी के आतङ्क में दूसरी पैथियों के आसान-से तरीक़े भी आज़माए नहीं जाते। वैसे, अख़बारों में रेबीज़ के मुद्दे पर होम्योपैथी से इलाज के दावे छपते रहे हैं, पर किसी अख़बार ने कभी दवाओं के नाम नहीं छापे। चूँकि कुत्ता काटने के बाद रेबीज़ में जो लक्षण दिखाई पड़ते हैं, उन्हें हम पहले से ही जान रहे होते हैं, इसलिए बचाव या इलाज के लिए उन लक्षणों के आने का इन्तज़ार किए बग़ैर निःशङ्क भाव से वैसे लक्षणों वाली दवाएँ दे सकते हैं। रेबीज़ न हो तो भी इन दवाओं की कुछ ख़ुराकों से नुक़सान का कोई ख़तरा नहीं है, इसलिए मैंने आपको इन दवाओं के स्पष्ट नाम बता दिए।

होम्योपैथी इलाज में सबसे बड़ी परेशानी तब होती है, जब मरीज़ वर्षों-वर्षों तक ढेर सारी एलोपैथी दवाएँ खा-खाकर थका-माँदा होम्योपैथ के पास पहुँचता है। एलीपैथी दवाएँ ज़्यादा हो चुकी हों तो शरीर में कई तरह के ‘कम्प्लीकेशंस’ भी पैदा हो चुके होते हैं। असली बीमारी के लक्षणों पर अँग्रेज़ी दवाओं के लक्षण ‘ओवरलैप’ कर चुके होते हैं। ऐसे में होम्योपैथ के सामने पहली चुनौती होती है कि वह ‘कम्प्लीकेशंस’ को दूर करके असली बीमारी के लक्षणों को सामने लाए और फिर इलाज के सही रास्ते पर आगे बढ़े। कई बार इसमें कई-कई महीने भी लग सकते हैं; हालाँकि अनुभवी डॉक्टर यह काम भी धीरे-धीरे कर ही लेता है और शरीर की जीवनीशक्ति बची हो तो बीमारी भी ठीक हो जाती है।

इसका मतलब यह भी नहीं है कि होम्योपैथी हर बीमारी को एकदम से ठीक ही कर देती है। यह सही है कि कई स्थितियों में यह सर्जरी का लाखों का ख़र्च बचा सकती है, पर कई बार सर्जरी के अलावा कोई विकल्प नहीं। अलबत्ता, होम्योपैथी में निदान की विधि पर कुछ और काम हो तो इसमें बड़े-बड़े चमत्कारों की सम्भावना अभी बाक़ी है।

अब ज़रा यह समझने की कोशिश कीजिए कि दवाओं का सटीक चुनाव कैसे किया जाए। इस मुद्दे पर लम्बी पोस्ट लिखनी पड़ेगी, इसलिए आप बस कुछ बुनियादी बातें समझिए।

सामने बैठा मरीज़ बीमारी के नाम पर ज़ोर दे तो आप ज़्यादा ध्यान मत दीजिए। एक कान से सुनिए, दूसरे से बाहर निकलने दीजिए। ऐसा नहीं है कि बीमारी का नाम जानना एकदम बेकार है, पर उसकी ज़रूरत किन्हीं ख़ास स्थितियों में ही पड़ेगी। शुरू में नाम पर ध्यान देने का ख़तरा यह है कि आप बीमारी के नाम पर रटी-रटाई कोई दवा देने की कोशिश करेंगे और ज़्यादा सम्भावना है कि विफल होंगे। इसी नाते बीमारी के नाम को आधार मानकर लिखी गई होम्योपैथी की ढेर सारी किताबें ज़्यादा काम की नहीं हैं। आप तो एक-एक लक्षण को ध्यान से सुनिए। तकलीफ़ क्या है, इस बात को समझिए। इसके बाद यह ध्यान दीजिए कि तकलीफ़ कब, कैसे, किस तरह से घटती और बढ़ती है। कहीं से कोई स्राव निकलता हो तो उसका रङ्ग वग़ैरह कैसा है? ‘घटने’ और ‘बढ़ने’ की प्रकृति को जानना सबसे ज़रूरी है। यह जानने पर दवा का चुनाव बहुत आसान हो जाएगा। तकलीफ़, तकलीफ़ की प्रकृति-समय और वृद्धि-ह्रास की लय…ये बुनियादी बातें हैं। यों समझिए कि ये दवा चुनाव के तीन आधार हैं। वैसे ही जैसे कि एक स्टूल को खड़ा करने के लिए कम-से-कम तीन पाये ज़रूरी होते हैं। कोई ‘की-सिम्टम’ मिल जाए तो तीन पायों के बिना भी काम चल सकता है। फिर तो इसे मेट्रो का मोटा वाला मज़बूत पिलर समझिए।

एक केस लीजिए। मान लीजिए कि किसी को सिरदर्द है। यह रोज़ शाम को बढ़ जाता है। मरीज़ खुली हवा में घूमे तो राहत मिलती है। पीठ के बल लेट जाए तो भी राहत मिलती है। जब से सिरदर्द है, तब से प्यास ग़ायब है या न के बराबर है। मैटेरिया मेडिका की ठीक समझ होगी या रिपर्टरी देखने का विज्ञान (दुर्भाग्य से आजकल की पढ़ाई के तौर-तरीक़े में कई बड़े-बड़े डॉक्टरों को रिपर्टरी देखनी नहीं आती) जानते होंगे तो आपको समझते देर नहीं लगेगी कि मरीज़ ‘पल्साटिल्ला’ की एक-दो ख़ुराक से चङ्गा हो जाएगा। सिरदर्द के पीछे कोई और बीमारी होगी तो वह भी ठीक होने की राह पर चल पड़ेगी। इसके बजाय, सिरदर्द में अगर लगे कि हथौड़े की चोट जैसे पड़ रही हो; दर्द पल में आए पल में जाए; लगे कि आँखों से गरमी का भभका निकल रहा है…तो ‘बेलाडोना’ काम करेगी। किसी सिरदर्द में लगे कि दर्द एक-जैसा है; लगातार बना हुआ है; घण्टे-दो घण्टे पर गिलास भरकर ज़्यादा मात्रा में ठण्डा पानी पीने की इच्छा हो रही हो; चुपचाप पड़े रहने का मन करे…तो ‘ब्रायोनिया’ अव्यर्थ दवा है।

रोग निदान में बीमारी की वजह से अगर कोई विशिष्ट मानसिक लक्षण विकसित हुआ हो या ख़ास समय पर रोज़ ही बीमारी बढ़ जाती हो तो समझिए कि यह ‘की सिम्टम’ है। जैसे कि किसी से मिलने-जुलने में शुरू में घबराहट लगे; कोई काम शुरू करने में शुरू में भय लगे, पर शुरू करने के बाद भय भाग जाए तो ऐसे लोगों को ‘लाइकोपोडियम’ फ़ायदा पहुँचा सकती है। शाम को चार से आठ बजे के बीच रोज़ रोग बढ़े तो भी ‘लाइकोपोडियम’ काम करेगी। शरीर के दाहिने हिस्से का रोग हो तो भी अन्य दवाओं के साथ ‘लाइकोपोडियम’ पर ध्यान देना पड़ेगा। दोपहर में दस-ग्यारह बजे के आसपास रोग बढ़ने का क्रम हो तो ‘नेट्रम म्यूर’ को आप भूल नहीं सकते।

जब मैं सेवाग्राम आश्रम-वर्धा में रहता था तो राजीव दीक्षित के छोटे भाई प्रदीप दीक्षित और मैं, एक दिन एक प्रिण्टिङ्ग प्रेस में गए। बात करते हुए अचानक प्रदीप दीक्षित ने प्रेस मालिक से कहा कि ये सन्त समीर जी हैं और होम्योपैथी के जानकार हैं, इनसे आप अपनी पुरानी वाली तकलीफ़ बता सकते हैं। उन्होंने घबराहट, प्यास वग़ैरह के कुछ लक्षण बताए। मैंने सुनते ही कहा कि रात एक बजे के आसपास क्या आपकी नींद उचट जाती है? वे आश्चर्यचकित थे। उन्होंने कहा कि आप ज्योतिषी हैं क्या? मैंने स्पष्ट किया कि आपकी बीमारी ख़ुद बता रही है। ख़ैर, वे ‘आर्सेनिक’ की कुछ ख़ुराकों से चङ्गे हो गए। वहाँ रहते हुए जब वर्धा मेडिकल कॉलेज के कुछ एलोपैथी डॉक्टर भी अपनी तकलीफ़ों के लिए होम्योपैथी दवा लेने आने लगे थे, और मैंने नई तालीम परिसर के मन्त्री कनकमल गाँधी जी के घर पर धर्मार्थ होम्योपैथी डिस्पेंसरी शुरू करवाई, तो उसकी भी एक दिलचस्प कहानी है। फिर कभी! (29 जुलाई 2019 फेसबुक) (सन्त समीर)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *