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क्या इस्लाम का मतलब धोखा देना है?

मूल प्रश्न भरोसे का है। जहाँ भरोसा होता है, वहाँ हिन्दू समुदाय के लोग मुसलमानों के साथ उत्सव मनाने में कोई परहेज़ नहीं करते। अयोध्या में मुसलमानों ने हिन्दुओं का स्वागत किया तो हिन्दुओं ने आभार जताया और भाईचारे का अच्छा माहौल बना। याद रखना चाहिए कि यहाँ मुसलमानों ने नाम छिपाकर कोई काम नहीं किया था। अब सवाल यह बनता है कि आख़िर काँवड़ या कुछ व्यावसायिक मौक़ों पर मुसलमानों को नाम छिपाने की ज़रूरत क्यों है। नाम छिपाकर काम करना क्या एक पूरी क़ौम को धोखे में रखना नहीं है?

सबसे पहले अदालती टीका-टिप्पणियों को थोड़ी देर के लिए मैं किनारे रखता हूँ, क्योंकि बात आस्था-विश्वास और भावनाओं की है और क़ानूनी लड़ाई में भावनाएँ आमतौर पर बहुत हद तक दरकिनार कर दी जाती हैं।  

अब बात यह कि क्या सचमुच उत्तर प्रदेश की योगी सरकार का पिछले दिनों का आदेश कि काँवड़ रूट पर पड़ने वाले ठेलों, खोमचों या सभी तरह की दुकानों पर उनके मालिकों के नाम स्पष्ट रूप से लिखे जाएँ, संविधान का उल्लङ्घन है? काँग्रेस महासचिव प्रियङ्का गान्धी कह रही हैं कि हमारा संविधान हर नागरिक को गारण्टी देता है कि उसके साथ जाति, धर्म, भाषा या किसी अन्य आधार पर भेदभाव नहीं होगा। और यह कि उत्तर प्रदेश में ठेलों, खोमचों और दुकानों पर उनके मालिकों के नाम का बोर्ड लगाने का विभाजनकारी आदेश हमारे संविधान, हमारे लोकतन्त्र और हमारी साझी विरासत पर हमला है; समाज में जाति और धर्म के आधार पर विभाजन पैदा करना संविधान के ख़िलाफ़ अपराध है। सपा के प्रो. रामगोपाल यादव भी कह रहे हैं कि यह आदेश पूर्णतः असंवैधानिक है, बल्कि ऐसे कार्य करके भाजपा के लोग बाबासाहब अम्बेडकर का अपमान कर रहे हैं। इसी तरह के बयान दूसरे विपक्षी नेताओं के भी हैं। भाजपा के सहयोगी दल तक योगी सरकार के इस आदेश के ख़िलाफ़ बयान दे रहे हैं। ओवैसी जैसे लोगों को तो राजनीति करने का अच्छा मौक़ा ही मिल गया है।

बयान और भी अजब-ग़ज़ब हैं, पर इन बयानों से गुज़रते हुए एक बात स्पष्ट समझ में आती है कि हमारे देश के ज़्यादातर नेता राजनीति के नाम पर वैचारिक लफ़ङ्गई करने में लगे हैं और देश की अधिसङ्ख्य जनता इतनी मूर्ख है कि इन वैचारिक लफ़ङ्गों के जाल में फँस रही है। ऐसा लगता है कि हमारे नेता, सही सवाल जो बनता है, उसे उठाने की ज़रूरत ही नहीं समझते।

असल में तो इन नेताओं के सवाल पर सवाल उठना चाहिए कि जिस व्यक्ति की दुकान है, उसका नामपट्ट वहाँ लगा होना आख़िर किस हिसाब से संविधान का उल्लङ्घन है। संवैधानिक रूप से नाम लिखने की अनिवार्यता न होना अलग बात है, पर नाम लिखना असंवैधानिक कैसे? क्या हमारा संविधान कहता है कि आप अन्य सभी मामलों में तो अपना नाम ज़रूर बताएँ, पर दुकान खोलनी हो तो अपना नाम छिपाकर रखें, ख़ासकर मुसलमान हों तो। वैसे एक सच्चाई यह भी है कि जो लोग नाम लिखने का सबसे ज़्यादा विरोध कर रहे हैं, उन्हीं के सत्ता काल में खाद्य प्रतिष्ठानों के लिए ‘फ़ूड सेफ़्टी एण्ड स्टैण्डर्ड्स एक्ट 2006’ के तहत नियम-क़ायदों का प्रावधान ‘फ़ूड सेफ़्टी नियम 2011’ के तौर पर किया गया था। इसमें सबसे पहली शर्त यही है कि खाद्य प्रतिष्ठानों को अपने लाइसेंस की असली कॉपी दुकान में किसी ऐसी जगह लगाना अनिवार्य है, जो उपभोक्ता को नज़र आए। क्या प्रियङ्का और राहुल अपने गिरेबान में झाँकेंगे?

अलबत्ता, यह सवाल ज़रूर बनता है कि इस आदेश की आड़ में योगी सरकार कोई राजनीति तो नहीं कर रही है! राजनीति का प्रश्न स्वाभाविक है, क्योंकि सारे दल आख़िरकार राजनीति ही कर रहे हैं। यों, यह सवाल उलटकर विपक्षियों पर और भी तीव्रता से प्रहार करता है, क्योंकि विपक्षी दल मुसलमानों की चिन्ता में नहीं, अपनी राजनीति चमकाने की चिन्ता में घुले जा रहे हैं। यह समझना ज़रा भी कठिन नहीं है कि यदि मुसलमान बहुसङ्ख्यक होते और मुसलमानों के त्योहारों पर हिन्दू लोग अपने नाम छिपाकर धन्धा कर रहे होते तो ऐसे किसी सरकारी फ़रमान पर ये ही विपक्षी दल इसे सही फ़ैसला बता रहे होते और नाम छिपाने को अपराध तक घोषित करने की माँग करते।

एक बात से और मैं सहमत हूँ कि काम-धन्धे की आज़ादी सबको बराबर मिलनी चाहिए, चाहे बात किसी भी धर्म या मज़हब की हो। लेकिन, यहाँ बात दूसरी है। सावन के महीने में लोग एक विशेष धार्मिक आस्था के साथ काँवड़ यात्रा निकालते हैं। अगर कोई मांसाहारी हो तो वह भी इस दौरान मांसाहार त्याग देता है। हिन्दुओं में एक विशेष शुद्धता और पवित्रता की भावना के साथ सावन का महीना शुरू होता है। ज़ाहिर है, जो इस धार्मिक आस्था को हृदय से नहीं मानता, उससे ऐसी पवित्रता और शुद्धता बनाए रखने की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। नाम लिखने का आदेश सबके लिए है, पर बात मुसलमानों पर आ रही है तो इसकी वजह यही है कि मुसलमान ऐसी आस्था नहीं रखते। अगर कोई मुसलमान ऐसी आस्था रखने लगे तो उसे काफ़िर करार दिया जाएगा। बात यह भी है कि अधिकतर मुसलमान बुनियादी रूप से मांसाहार को सही मानते हैं, बल्कि उनका एक पूरा त्योहार ही बहुत हद तक मांसाहार को समर्पित है, जबकि हिन्दू बुनियादी रूप से मांसाहार को ग़लत और पाप मानते हैं। आदत की वजह से कोई हिन्दू भले मांसाहार करे, पर अन्ततः वह भी किसी जानवर को मारने और मांस खाने को पाप ही मानता है। यहाँ तक कि हिन्दू घरों में मांसाहारियों के लिए बरतन तक मुख्य रसोई से अलग रखे जाते हैं। यहाँ मैं अतीत की उस मूर्खतापूर्ण बहस की बात नहीं कर रहा हूँ कि इतिहास में प्रमाण हैं कि हिन्दू भी बलि दिया करते थे।

बहरहाल, काँवड़ यात्रियों को साफ़-साफ़ पता रहे कि कौन-सी दुकान किसकी है, तो वे अपनी इच्छा से तय कर सकते हैं कि किस दुकान पर वे भरोसा करें या किस पर न करें। हर किसी को हर किसी दुकान पर जाने-खाने की स्वतन्त्रता है। ऐसा भी हुआ है कि जब-जब किसी मुसलमान ने हिन्दू भावनाओं के प्रति सम्मान दिखाया है तो हिन्दुओं ने आँख मूँदकर उस भरोसा किया है और उसके साथ धार्मिक मौक़ों पर लेनदेन भी करते ही रहे हैं।

मूल प्रश्न भरोसे का है। जहाँ भरोसा होता है, वहाँ हिन्दू समुदाय के लोग मुसलमानों के साथ उत्सव मनाने में कोई परहेज़ नहीं करते। अयोध्या में मुसलमानों ने हिन्दुओं का स्वागत किया तो हिन्दुओं ने आभार जताया और भाईचारे का अच्छा माहौल बना। याद रखना चाहिए कि यहाँ मुसलमानों ने नाम छिपाकर कोई काम नहीं किया था। अब सवाल यह बनता है कि आख़िर काँवड़ या कुछ व्यावसायिक मौक़ों पर मुसलमानों को नाम छिपाने की ज़रूरत क्यों है। नाम छिपाकर काम करना क्या एक पूरी क़ौम को धोखे में रखना नहीं है? स्पष्ट बात है कि एक क़ौम को दूसरी क़ौम पर पूरा भरोसा नहीं है, इसलिए दूसरी क़ौम धन्धा चलाने के लिए अपनी पहचान छिपाकर काम करना चाहती है। एक बड़ा प्रश्न और है कि अल्लाह या पैग़म्बर मुहम्मद साहब का स्केच भी कोई बना दे तो मुसलमान लोग ‘सिर तन से जुदा’ का नारा लगाने लगते हैं और हमलावर हो जाते हैं, लेकिन जब ये ही लोग ‘श्रीराम ढाबा’ या ‘वैष्णव ढाबा’ नाम रखते हैं और उस पर ‘बम भोले’ की तसवीर लगाकर दुकान चलाते हैं तो क्या यह अल्लाह की शान में गुस्ताख़ी नहीं है।

सामाजिक समरता और भाईचारा, या कि गङ्गा-जमुनी संस्कृति को बढ़ावा इस बात से नहीं मिलेगा कि एक क़ौम अपने नाम छिपाकर दूसरी क़ौम को धोखे में रखे, बल्कि आपसी सौहार्द इस बात से क़ायम होगा कि हम एक-दूसरे के प्रति ईमानदार रहें। किसी को लग सकता है कि मैं हिन्दुओं का पक्ष ले रहा हूँ, पर यह सच है कि मुल्ले-मौलवियों ने कम पढ़े-लिखे अधिसङ्ख्य मुसलमानों को इस बात की घुट्टी पिला रखी है कि हिन्दुओं के तीज-त्योहारों के प्रसाद खा लेने से इस्लाम की तौहीन हो जाएगी। ज़्यादातर मुसलमान हिन्दुओं के मन्दिर में इसलिए नहीं जा सकते कि इससे मूर्तिपूजा हो जाएगी या कि ये काफ़िरों की इबादतगाहें हैं। इसके उलट, हिन्दू लोग मुसलमानों की पीर-फ़क़ीरों की पाक मानी जाने वाली जगहों, दरगाहों पर जाने में ज़रा भी परहेज़ नहीं करते।

याद रखना चाहिए कि मैं जब मुसलमानों की बात कर रहा हूँ तो अधिसङ्ख्य मुसलमानों की बात कर रहा हूँ, सारे मुसलमानों की नहीं। मुसलमानों में भी एक अच्छी सङ्ख्या ऐसे मुसलमानों की है, जो स्थितियों की समझ रखते हैं और कुढ़मग़ज़ नहीं हैं। बीती सदी के आख़िरी दशक में जब प्रयागराज में रहा करता था तो लगभग तेरह साल तक लगातार मैंने ईद भी मनाई है। हर वर्ग के बुद्धिजीवी मुसलमानों से अपना रिश्ता रहा। डॉ. ए. ए. फ़ातमी, असरार गान्धी, परवेज़ आलम, ज़ियाउल हक़, एडवोकेट काज़मी जैसे दर्जनों नामों की ख्याति राष्ट्रीय स्तर पर रही है। मुसलमान परिवार देर रात तक हम कुछ लोगों का इन्तज़ार करते थे कि ईद के दिन देर-सबेर हम उनके यहाँ पहुँचेंगे ज़रूर। वे हम पर विश्वास करते थे और हम उन पर। उसी का असर है कि दिल्ली आ जाने के बावजूद मेरे घर में ईद के दिन सिंवई बनाने की परम्परा अभी तक बनी हुई है। लेकिन, यह भी सच है कि यहाँ भरोसे लायक़ मुसलमान मुझे मिले तो हैं, पर कम मिले हैं। जो मिले हैं, उनसे अपनापा क़ायम है। दिल्ली में रहते हुए मैंने भले ही दूसरे इलाक़े में मकान ले लिया है, पर आज भी महीने-डेढ़ महीने में बाल बनवाने पुराने मुहल्ले के अपने उसी मुसलमान नाई के पास जाता हूँ और वह भी देखकर ख़ुश हो जाता है।

बात कड़वी लग सकती है, पर यह सच है कि भरोसा हिन्दुओं ने नहीं, बल्कि मुसलमानों ने तोड़ा है। हम जानते ही हैं कि हिन्दुओं को ज़बरदस्ती या बरगला कर मुसलमान बनाने की घटनाएँ अनगिनत हैं, पर क्या मुसलमानों को बरगला कर हिन्दू बनाने के भी कुछ उदाहरण हैं? मुसलमानों की ओर से दूसरी क़ौमों के लोगों को मुसलमान बनाने का अभियान चलाया जाता है, पर हिन्दू इस तरह का कोई अभियान नहीं चलाते। वास्तव में हिन्दू कोई सङ्गठित मज़हब जैसी चीज़ है ही नहीं। हिन्दू नास्तिक भी हो सकता है आस्तिक भी। वह साकार को मानने वाला हो सकता है और निराकार को मानने वाला भी। एक हिन्दू की आस्था एक देवता में हो सकती है, दूसरे हिन्दू की किसी दूसरे देवता में। जैन, बौद्ध वग़ैरह हिन्दू से इतर नहीं हैं। हिन्दुओं के लिए ज़रूरी नहीं है कि सबकी पूजा पद्धति एक हो। इसी नाते यहाँ दूसरी क़ौमों को हिन्दुत्व में दीक्षित करने का अभियान चलाने की ज़रूरत भी महसूस नहीं की जाती। भारतीय संस्कृति की मूल सीख यह है कि कोई भी मनुष्य किसी सम्प्रदाय में दीक्षित हो या न हो, उसे बस अच्छाई की राह पर चलना चाहिए। यहाँ अनपढ़ व्यक्ति भी कहता हुआ पाया जाता है कि मन चङ्गा तो कठौती में गङ्गा।  

हिन्दुओं में अगर एक बजरङ्गदली गुट पैदा हुआ है तो यह हिन्दुओं के सहज स्वभाव के कारण नहीं, बल्कि प्रतिक्रियावश है। हिन्दुत्व का मूल स्वभाव यह है कि अगर हिन्दुओं को इस बात का भरोसा दिला दिया जाए कि उनके धर्म-कर्म पर कोई ख़तरा नहीं है, तो वे किसी भी मज़हब-सम्प्रदाय के व्यक्ति का स्वागत करने को तैयार रहते हैं। यहाँ तो दरवाज़े पर दुश्मन भी याचक बनकर खड़ा हो तो उसे देवता मानने की परम्परा रही है। ‘अतिथि देवो भव’ की मान्यता वाला यह देश रहा है। जब मुसलमानों का यहाँ राज नहीं था और वे केवल व्यापार करने के लिए आते थे, तो उनके निवेदन पर हिन्दुओं ने उन्हें गुजरात में पहली मस्ज़िद बनाकर दी थी। स्मरण रखना चाहिए कि इस देश में जिस गङ्गा-जमुनी संस्कृति और संसार के सबसे बड़े और शानदार लोकतन्त्र की बात हम करते हैं, वह मुसलमानों की वजह से नहीं, बल्कि हिन्दुओं की वजह से सम्भव हुआ है। थोड़े भी पारदर्शी तरीक़े से सोचेंगे तो समझ में आएगा कि जब तक हिन्दू यहाँ बहुसङ्ख्यक हैं, तभी तक के लिए लोकतन्त्र और गङ्गा-जमुनी तहज़ीब की बात सच है। ऐसा इसलिए कहा जा सकता है कि दुनिया में जहाँ-जहाँ मुसलमानों की आबादी चालीस-पचास प्रतिशत तक हो गई, वहाँ-वहाँ उन्होंने दूसरी क़ौमों को इस्लाम स्वीकार करने पर मजबूर किया या उन्हें मार-पीटकर देश छोड़ने पर मजबूर किया और पूरे देश को इस्लामी राज्य घोषित कर दिया।

यों, किसी देश को मुस्लिम राष्ट्र घोषित करने में भी कोई परेशानी नहीं है, अगर इससे सचमुच ख़ुशहाली आए तो। उलटे, सच्चाई यह है कि जो भी देश इस्लामी राज्य बने, वे लगातार नरक भी बनते गए। कहने के लिए सऊदी अरब अगर कुछ लोगों को स्वर्ग जैसा दिखाई देता है तो वह इस्लाम की वजह से नहीं, बल्कि तेल के पैसे की वजह से, जो अब दिखने लगा है कि ज़्यादा दिनों तक क़ायम नहीं रहने वाला। यह बात अब वहाँ के प्रिंस भी समझने लगे हैं और समझदारी दिखाते हए नई दुनिया के साथ तालमेल बैठाने में लग गए हैं।

ज़रूरत नाम छिपाकर काम करने की नहीं, बल्कि ईमानदारी से वह भरोसा पैदा करने की है कि किसी को नाम जानने की ज़रूरत ही महसूस न हो। अगर किसी को काफ़िर माना जाएगा और उसकी सब्ज़ी, चाय या खाने-पीने की चीज़ों में थूककर भ्रष्ट करने की मानसिकता दर्शाने वाली घटनाएँ सामने आएँगी तो इससे तो शक पैदा ही होगा। ऐसे में कोई हिन्दू किसी अनजान मुसलमान पर कैसे भरोसा कर ले? सावन का पवित्र माना जाने वाला महीना हो तो बात और गम्भीर हो जाती है।

वास्तव में, हिन्दू-मुसलमान की समस्या छोटी नहीं, बल्कि बहुत बड़ी है। दो-चार सद्भाव के उदाहरण दिखा देने से सब अच्छा-अच्छा नहीं हो जाता। इस समस्या पर बस घटिया क़िस्म की राजनीति की जाती रही और ठीक से ध्यान न दिया गया तो कुछ दशकों बाद देश के एक-दो टुकड़े और होने की नौबत आ जाए तो कोई आश्चर्य नहीं।

मेरा मानना है कि समस्या किसी मज़हब की नहीं, बल्कि मज़हबी व्याख्याओं की है। मेरी परिचित एक अफ़ग़ान लड़की है। वह इस्लाम की शानदार व्याख्या करती है। उसकी व्याख्या सनातन धर्म और इस्लाम को एकमएक कर देती है। इस्लाम के समझदार ऐसी समझदारी वाली व्याख्याएँ दें और यह डर समाप्त हो जाए कि मुसलमानों की आबादी बढ़ गई तो वे हिन्दुओं को कश्मीर की तरह हर कहीं से मार-पीटकर भगा देंगे या ज़बरदस्ती मुसलमान बना देंगे, तो यक़ीन मानिए इस देश के हिन्दू, मुसलमानों के हर दुःख-सुख में साथ खड़े नज़र आएँगे। (सन्त समीर)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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