गान्धी-विमर्श

पहले स्वच्छता फिर स्वतन्त्रता

गान्धी के लिए स्वच्छता का मुद्दा कई अर्थों में आध्यात्मिक मसला भी था। भगवान से प्रेम के बाद वे स्वच्छता से प्रेम को भी भगवत्भक्ति के लिए ज़रूरी मानते थे। जिस तरह से ईश्वर का प्रसाद पाने के लिए मन का मैल हटाना ज़रूरी है, वैसे ही शरीर का भी मैल हटाकर उसे साफ़-सुथरा रखना चाहिए। इतना ही नहीं, अपने गाँव और शहर को भी स्वच्छ रखना चाहिए, अन्यथा प्रभु की बनाई प्रकृति को गन्दा रखते हुए भला प्रभु-प्रसाद पाने के हक़दार हम कैसे हो सकते हैं?

एक बार एक अँग्रेज़ ने महात्मा गान्धी से पूछा—“यदि आपको एक दिन के लिए भारत का वायसराय बना दिया जाय तो आप क्या करेंगे?” गान्धीजी ने कहा—“राजभवन के पास जो गन्दी बस्ती है, मैं उसे साफ़ करूँगा।” अँग्रेज़ ने फिर पूछा—“मान लीजिए कि आपको एक और दिन उस पद पर रहने दिया जाय तब?” गान्धीजी का जवाब था—“दूसरे दिन भी वही करूँगा। जब तक आप लोग अपने हाथ में झाड़ू और बाल्टी नहीं लेंगे, तब तक आप अपने नगरों को साफ़ नहीं रख सकते।”

इस बात से अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि गान्धीजी स्वच्छता यानी साफ़-सफ़ाई के मामले में किस हद तक सोचते थे। इतना ही नहीं, एक बार तो उन्होंने यहाँ तक कह दिया—“स्वच्छता स्वतन्त्रता से भी अधिक आवश्यक है।” कई लोगों को ये बातें महज़ जुमले जैसी लग सकती हैं, पर वास्तव में इन बातों में गान्धीजी की गहरी दृष्टि दिखाई देती है। वह गहरी दृष्टि, जिसने उन्हें आज़ादी की लड़ाई का महानायक बनाया। स्वतन्त्रता सङ्ग्राम के तमाम दूसरे नेताओं की तरह गान्धी का लक्ष्य येन-केन-प्रकारेण आज़ादी पा लेना भर नहीं था, आज़ादी का उनका साध्य नशामुक्ति, अछूतोद्धार, स्वदेशी, स्वावलम्बन, गोरक्षा और स्वच्छता जैसी चीज़ों से होकर गुज़रता था। ये छोटे-छोटे साध्य उनके लिए आज़ादी के सबसे ज़रूरी साधन थे। स्वच्छता को यदि उन्होंने आज़ादी से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण माना तो दरअसल इसकी वजह यही थी कि वे स्वच्छता को व्यक्ति की चारित्रिक विशेषता से जोड़कर देख रहे थे। गन्दगी फैलाने को वे साफ़-साफ़ पाप कहते थे तो वास्तव में भारतीय सभ्यता-संस्कृति की मूल चारित्रिक विशेषताओं के अनुरूप आमजन के मानस को झकझोरना चाहते थे। लोकमानस में बैठे पापबोध के आधार को वे प्रचलित रूढ़ मान्यताओं के खाँचे से बाहर निकाल युगीन सन्दर्भों से जोड़ने का विराट् लक्ष्य साध रहे थे।

गान्धी जानते थे कि भारत के लोग रूढ़ियों-कुरीतियों के जाल में बुरी तरह उलझकर अपनी मूल पहचान खोते जा रहे हैं और इसके ही कारण वे गुलामी को अपनी नियति मान बैठे हैं। इस नियति से बाहर उम्मीदों के नए क्षितिज की ओर देख सकने का सामर्थ्य उनमें तभी आ सकता है जब वे रोज़मर्रा की अपनी लापरवाहियों से उबरने का अभ्यास करें। साफ़-सुथरा न रहने की आदत गान्धी के लिए चारित्रिक लापरवाही थी, जो वास्तव में पूरे व्यक्तित्व के स्तर पर एक सजग इनसान बनने की विरोधी थी। जो क़ौम साफ़-सुथरा नहीं रह सकती, अपने चारों तरफ़ स्वच्छ वातावरण का निर्माण नहीं कर सकती, वह गुलामी की गन्दगी को ढोने की नियति से भी भला कैसे बची रह सकती है! वास्तव में गान्धीजी आसपास फैली बाहर की गन्दगी और मानस में मौजूद कुरीतियों की गन्दगी को एक साथ आमने-सामने करके देख रहे थे। उनकी यात्रा साफ़-सुथरे मन से शुरू होकर साफ़-सुथरे वातावरण और इस तरह आज़ादी की साफ़ प्राणवायु तक पहुँच रही थी।

गान्धी के लिए स्वच्छता का मुद्दा कई अर्थों में आध्यात्मिक मसला भी था। भगवान से प्रेम के बाद वे स्वच्छता से प्रेम को भी भगवत्भक्ति के लिए ज़रूरी मानते थे। जिस तरह से ईश्वर का प्रसाद पाने के लिए मन का मैल हटाना ज़रूरी है, वैसे ही शरीर का भी मैल हटाकर उसे साफ़-सुथरा रखना चाहिए। इतना ही नहीं, अपने गाँव और शहर को भी स्वच्छ रखना चाहिए, अन्यथा प्रभु की बनाई प्रकृति को गन्दा रखते हुए भला प्रभु-प्रसाद पाने के हक़दार हम कैसे हो सकते हैं? 19 नवम्बर, 1925 को ‘यङ्ग इण्डिया’ में वे लिखते हैं—“भगवान के प्रेम के बाद महत्त्व की दृष्टि से दूसरा स्थान स्वच्छता के प्रेम का है। जिस तरह हमारा मन मलिन हो तो हम भगवान का प्रेम सम्पादित नहीं कर सकते, उसी तरह हमारा शरीर मलिन हो तो भी हम उसका आशीर्वाद नहीं पा सकते। और शहर अस्वच्छ हो तो शरीर स्वच्छ रहना सम्भव नहीं है।”

गान्धीजी का मानना था कि विद्यार्थी जीवन में ही बच्चों के मन में सफ़ाई की भावना विकसित करना महत्त्वपूर्ण है। एक बार एक स्कूल में वे गए तो शिक्षकों से स्पष्ट बोले—“आप अपने छात्रों को किताबी पढ़ाई के साथ-साथ खाना पकाना और सफ़ाई का काम भी सिखा सकें, तभी आपका विद्यालय आदर्श होगा।” 25 नवम्बर, 1944 को सेवाग्राम में हिंदुस्तानी तालीमी सङ्घ द्वारा आयोजित प्रशिक्षण शिविर में भाग लेने वाले सदस्यों को सम्बोधित करते हुए उन्होंने अपनी भावना कुछ यों व्यक्त की—‘‘शिक्षा में मन और शरीर की सफ़ाई ही शिक्षा का पहला क़दम है।…’

भारतीय समाज के सन्दर्भ में गान्धी की स्वच्छता की सोच प्राचीन भारतीय मनीषा की उस बुनियादी धारणा से निकली थी, जिसके मूल में स्वच्छता अनिवार्य तत्त्व रही है। पवित्रता वास्तव में आन्तरिक और बाह्य स्वच्छता की धार्मिक अवधारणा का एक शब्द-रूप भर है। यहाँ हर तरह के धर्म-कर्म में अपने चारों ओर के वातावरण को स्वच्छ और सुगन्धित बनाया जाता है और मानसिक स्तर पर मन के दुर्भावना रूपी मैल को दूर हटाया जाता है। जब तक इस मूल भाव का मतलब लोग समझते रहे तब तक भारत विश्वगुरु के दर्जे का हकदार रहा, परन्तु कालान्तर में पवित्रता के नक़ली आवरण में कुरीतियों, अन्धविश्वासों का जाल फैलता गया और यह देश पिछड़ता चला गया। अपने ही जैसे समाज के कुछ लोगों को अपवित्र और अछूत घोषित करने को ही शुचिता का मानदण्ड बना दिया गया। गान्धीजी दरअसल शुचिता के इस नकली मानदण्ड को चुनौती दे रहे थे और पवित्रता की सही परिभाषा लोगों के मन में उतारने की जुगत कर रहे थे। शुचिता, पवित्रता के नक़लीपने को लक्ष्य करते हुए वे रचनात्मक कार्यक्रमों की रूपरेखा के तौर पर कहते हैं—“हमने राष्ट्रीय या सामाजिक सफ़ाई को न तो ज़रूरी गुण माना, और न उसका विकास ही किया। यों रिवाज के कारण हम अपने ढङ्ग से नहा भर लेते हैं, मगर जिस नदी, तालाब या कुएँ के किनारे हम श्राद्ध या वैसी ही दूसरी कोई धार्मिक क्रिया करते हैं और जिन जलाशयों में पवित्र होने के विचार से हम नहाते हैं, उनके पानी को बिगाड़ने या गन्दा करने में हमें कोई हिचक नहीं होती। हमारी इस कमज़ोरी को मैं एक बड़ा दुर्गुण मानता हूँ। इस दुर्गुण का ही यह नतीजा है कि हमारे गाँवों की और हमारी पवित्र नदियों के पवित्र तटों की लज्जाजनक दुर्दशा और गन्दगी से पैदा होने वाली बीमारियाँ हमें भोगनी पड़ती हैं।”

गान्धीजी ने स्वच्छता के प्रति भारतीय समाज की उपेक्षा को बचपन के दिनों में ही महसूस कर लिया था और इसके प्रति उनके भीतर एक सचेत दृष्टि विकसित होने लगी थी। दक्षिण अफ्रीका में जब वे पहुँचे तो सन् 1895 में स्वच्छता के मसले को भारतीय व्यापारियों के सन्दर्भ में उठाया। जब उन्होंने देखा कि ब्रिटिश सरकार भारतीय और एशियाई व्यापारियों से स्वच्छता को मुद्दा बनाकर उन्हें अलग-थलग करने की दुर्भावनापूर्ण साज़िश कर रही है तो उन्होंने स्वच्छता के प्रति भारतीय व्यापारियों के रवैये का समर्थन किया, पर सभी समुदायों से सफ़ाई रखने की अपील भी की।

स्वच्छता के मसले पर भारत में पहला सार्वजनिक भाषण गान्धीजी ने 14 फरवरी, 1916 को एक मिशनरी सम्मेलन में दिया था। गाँवों के सन्दर्भ में उन्होंने स्पष्ट कहा था—“गाँव की स्वच्छता के सवाल को बहुत पहले हल कर लिया जाना चाहिए था।” ध्यान देने वाली बात है कि गान्धी उस वक्त भारत के गाँवों के सन्दर्भ में स्वच्छता को महत्त्वपूर्ण मुद्दा बना रहे थे, जब आमतौर पर इस बात की कहीं कोई ज़रूरत नहीं समझी जा रही थी। खुली प्रकृति के गाँवों में स्वच्छता की बात एक तरह से हास्यास्पद समझी जा रही थी, पर जब गान्धीजी ने गाँवों में गन्दगी की असल तसवीर सामने रखी तो बड़े-बड़े नेताओं के लिए हतप्रभ हो जाने वाली स्थिति थी। उन्होंने लिखा—“श्रम और बुद्धि के बीच जो अलगाव हो गया है, उसके कारण हम अपने गाँवों के प्रति इतने लापरवाह हो गए हैं कि वह एक गुनाह ही माना जा सकता है। नतीजा यह हुआ है कि देश में जगह-जगह सुहावने और मनभावने छोटे-छोटे गाँवों के बदले हमें घूरे जैसे गन्दे गाँव देखने को मिलते हैं। बहुत से या यों कहिए कि क़रीब-क़रीब सभी गाँवों में घुसते समय जो अनुभव होता है, उससे दिल को ख़ुशी नहीं होती। गाँव के बाहर और आसपास इतनी गन्दगी होती है और इतनी बदबू आती है कि अकसर गाँव में जाने वाले को आँख मूँदकर और नाक दबाकर ही जाना पड़ता है।” सच कहें तो गान्धी के इस बयान का और ज़्यादा वीभत्स रूप हमें आज के गाँवों दिखाई देने लगा है।    

नगरों की सफ़ाई के मामले में गान्धीजी पश्चिम से प्रेरणा लेने में भी कोई परहेज़ नहीं करते। हाँ, भारतीयता सभ्यता-संस्कृति के प्रति वे सजग ज़रूर रहते हैं। ‘यङ्ग इण्डिया’ के 26 दिसम्बर, 1924 के अङ्क में वे लिखते हैं—“पश्चिम से हम एक चीज़ ज़रूर सीख सकते हैं और वह हमें सीखनी ही चाहिए—वह है शहरों की सफ़ाई का शास्त्र। पश्चिम के लोगों ने सामुदायिक आरोग्य और सफ़ाई का एक शास्त्र ही तैयार कर लिया है, जिससे हमें बहुत कुछ सीखना है। बेशक, सफ़ाई की पश्चिम की पद्धतियों को हम अपनी आवश्यकताओं के अनुसार बदल सकते हैं।”

नगरों की साफ़-सफ़ाई के मामले में गान्धीजी सरकारी संस्थाओं की भूमिका को भी महत्त्वपूर्ण ढङ्ग से रेखाङ्कित करते हैं। नगरपालिका की भूमिका के बारे में उनका बयान दिलचस्प है—“जिस नगर में साफ़ सण्डास नहीं हों और सड़कें तथा गलियाँ चौबीसों घण्टे साफ़ नहीं रहती हों, वहाँ की नगरपालिका इस क़ाबिल नहीं है कि उसे चलने दिया जाए। नगरपालिकाओं की सबसे बड़ी समस्या गन्दगी है।” लेकिन साथ ही वे नगरपालिका की सीमाओं की भी पहचान करते हैं और कहते हैं—“भारत के हर एक शहर के मध्यवर्ती भागों में सफ़ाई की जो दयनीय स्थिति दिखाई देती है, उसकी ज़िम्मेदारी हम म्युनिसिपैलिटी पर नहीं डाल सकते। और मेरा ख़याल है कि दुनिया की कोई भी म्युनिसिपैलिटी लोगों के अमुक वर्ग की उन आदतों का प्रतिकार नहीं कर सकती, जो उन्हें पीढ़ियों की परम्परा से मिली है। …इसलिए मैं कहना चाहता हूँ कि अगर हम अपनी म्युनिसिपैलिटियों से यह उम्मीद करते हों कि इन बड़े शहरों में जो सफ़ाई सम्बन्धी सुधार का सवाल पेश है उसे वे इस स्वेच्छापूर्ण सहयोग की मदद के बिना ही हल कर लेंगी तो यह अशक्य है। अलबत्ता, मेरा मतलब यह बिलकुल नहीं है कि म्युनिसिपैलिटियों की इस सम्बन्ध में कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।” ये दोनों बयान स्पष्ट करते हैं कि गान्धी कितनी सन्तुलित दृष्टि के साथ अपना स्वच्छता अभियान चला रहे थे। व्यक्ति, व्यवस्था और समाज तीनों की ज़िम्मेदारियों के प्रति वे सजग थे।

गान्धी का स्वच्छता अभियान उनकी मृत्यु तक चलता रहा। इस मसले पर उन्होंने काफ़ी कुछ लिखा और बोला। व्यक्तिगत स्वच्छता से लेकर आसपास के समाज, गाँव, शहर तक की साफ़-सफ़ाई पर उनकी पैनी दृष्टि रही। धर्मस्थलों में फैली गन्दगी और रेलवे जैसे सार्वजनिक परिवहन की गन्दगी पर भी उन्होंने सवाल उठाए। 25 दिसम्बर, 1917 को अपने एक पत्र में उन्होंने रेलवे के मामले में लिखा—“इस तरह की सङ्कट की स्थिति में तो यात्री परिवहन को बन्द कर देना चाहिए, लेकिन जिस तरह की गन्दगी और स्थिति इन डिब्बों में है उसे जारी नहीं रहने दिया जा सकता, क्योंकि वह हमारे स्वास्थ्य और नैतिकता को प्रभावित करती है।” ‘यङ्ग इण्डिया’ में 3 फरवरी, 1927 को बिहार के पवित्र माने जाने वाले शहर गया की गन्दगी के बारे उन्होंने काफ़ी ज़ोरदार ढङ्ग से लिखा।

विशिष्ट बात यह है कि गान्धी के इस पूरे अभियान में सिर्फ़ गन्दगी को दूर कहीं फेंक देना भर ही स्वच्छता का अभिप्राय नहीं था। गान्धी गन्दगी को भी सम्पत्ति में बदल देने के हिमायती थे। उनका नज़रिया बहुत वैज्ञानिक था। ‘हरिजन सेवक’ के 15 फरवरी, 1935 के अङ्क में वे लिखते हैं—“बाज़ार तथा गलियों को सब प्रकार का कूड़ा-करकट हटाकर स्वच्छ बना लेना चाहिए। फिर उस कूड़े का वर्गीकरण कर देना चाहिए। उसमें से कुछ का तो खाद बनाया जा सकता है, कुछ को सिर्फ़ ज़मीन में गाड़ देना भर बस होगा और कुछ हिस्सा ऐसा होगा कि जो सीधा सम्पत्ति के रूप में परिणत किया जा सकेगा। वहाँ मिली हुई प्रत्येक हड्डी एक बहुमूल्य कच्चा माल होगी, जिससे बहुत-सी उपयोगी चीज़ें बनाई जा सकेंगी, या जिसे पीसकर क़ीमती खाद बनाया जा सकेगा। कपड़े के फटे-पुराने चिथड़ों तथा रद्दी काग़ज़ों से काग़ज़ बनाए जा सकते हैं और इधर-उधर से इकट्ठा किया हुआ मल-मूत्र गाँव के खेतों के लिए सुनहले खाद का काम देगा। मल-मूत्र को उपयोगी बनाने के लिए यह करना चाहिए कि उसके साथ, चाहे वह सूखा हो या तरल, मिट्टी मिलाकर उसे ज़्यादा-से-ज़्यादा एक फुट गहरा गड्ढा खोदकर ज़मीन में गाड़ दिया जाय।”

गान्धी जब कूड़े को एक ज़्यादा-से-ज़्यादा एक फुट गहरी ज़मीन में गाड़ने की बात कर रहे थे तो दरअसल उन्हें यह वैज्ञानिक तथ्य पता था कि ज़मीन के भीतर की यही वह सीमा है जहाँ तक सूरज की रोशनी और हवा का असर पहुँचता है। इस गहराई तक ज़मीन में उन जीवाणुओं की भरपूर उपस्थिति होती है जो हवा और सूरज की रोशनी की सहायता से गन्दे कूड़े को उपयोगी खाद और सुगन्धित मिट्टी में बदल देते हैं। सही मायने में देखा जाए तो स्वच्छता पर गान्धी की दृष्टि आज के सन्दर्भों में कहीं और ज़्यादा प्रासङ्गिक हो गई है। शहरों में फैली गन्दगी का आलम हम देख ही रहे हैं। आज के हमारे गाँव भी शहरों से प्रतिस्पर्धा करते दिखाई दे रहे हैं। ऐसे में हवा, पानी, ज़मीन कहीं कुछ भी साफ़ नहीं रहा। ऐसा लगता है कि रोगों के गाँव और शहर हम बसा रहे हैं। आँकड़े कहते हैं कि भारत की जनसङ्ख्या के बहुत बड़े हिस्से के पास सुरक्षित स्वच्छता की पहुँच नहीं हो पाई है। 1970 में केवल 19 प्रतिशत घरों (85 प्रतिशत शहर और 57 प्रतिशत गाँव) में साफ़-सफ़ाई थी। 2008 में यह 30 प्रतिशत जनसङ्ख्या तक पहुँच सकी, जिसमें 52 प्रतिशत शहरों और 20 प्रतिशत ग्रामीण इलाक़ों में थे। शहरी मूलभूत सुविधाएँ गाँवों से पलायन करके शहरों में आए लोगों तक पहुँच नहीं पातीं। 2012 में हमारे देश के करीब 62.6 करोड़ लोग, जो कि जनसङ्ख्या का लगभग 50 प्रतिशत हैं, खुले में शौच कर रहे थे। अलबत्ता, 2 अक्टूबर, 2014 को ‘स्वच्छ भारत मिशन’ के रूप में साफ़-सफ़ाई का अभियान शुरू करके मौजूदा सरकार ने एक महत्त्वपूर्ण काम किया है। देश भर में शौचालय बनाने का अभियान चल ज़रूर रहा है, जिसके चलते कुछ तो स्थिति सुधरी है, पर कचरे के ठीक निस्तारण की दृष्टि का अभाव बना हुआ है। नतीजतन, एक स्थान की स्वच्छता दूसरे स्थान पर गन्दगी की शक्ल अख़्तियार करती देखी जा सकती है। इन हालात के मद्देनज़र यह कहने में अतिशयोक्ति न होगी कि अन्तत: गान्धी-दृष्टि अपनाने से ही कचरे का सही निस्तारण हो पाएगा और स्वच्छता का असली लक्ष्य हासिल करना आसान बनेगा। (सन्त समीर)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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