धर्म-संस्कृति-समाजविमर्श

एक असहाय स्त्री की ख़ातिर देश की जनता के नाम…

मैंने अपनी वेदना व्यक्त की है तो सिर्फ़ इसलिए कि जिन भी हाथों में यह खुला ख़त पहुँचे, वे ग़लतफ़हमियों से बाहर निकलें और एक निर्दोष स्त्री को अपराधी की निगाह से न देखें। जैसा मीडिया ट्रायल उसका चल रहा है, वह किसी सज़ा से कम नहीं है। काश, मेरी भावना उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी जी और देश के प्रधानमन्त्री मोदी जी तक पहुँच पाए।

आज 25 जुलाई, 2023 को जब यह खुला ख़त लिखने बैठा हूँ तो मन पीड़ा से भरा हुआ है। एक असहाय स्त्री की कराह भारत की हवाओं में फैलते महसूस कर रहा हूँ। मानवीय संवेदनाओं पर घाव इस क़दर गहरा रहा है कि हमारे जैसे लोगों को डर लगने लगा है कि कहीं कायनात इसे बद्दुआ में न बदल दे और दया, करुणा, क्षमा की महान् विशिष्टता वाली हमारी भारतीय संस्कृति के माथे पर यह सदियों बाद भी कलङ्क के रूप में नज़र आती रहे। कहने को हम धर्मप्राण देश हैं, पर ऐसा लगता है कि आज़ादी के बाद के इतने वर्षों में हमने धर्म के बुनियादी गुणों को सबसे ज़्यादा कमज़ोर किया है। हम निरन्तर संवेदनहीन होते दिखाई दे रहे हैं और एक लाचार स्त्री की पीड़ा को मसालेदार ख़बर भर में तब्दील कर दिया है। लैला-मजनूँ की कथा में पत्थर मारने वालों की जमात से हम अलग नहीं हैं।

बीते दो हफ़्ते से अन्तस् की वेदना कम होने का नाम नहीं ले रही तो लगा कि मन की बात देश के जनमानस तक पहुँचाने का कोई उपक्रम करूँ, अन्यथा किसी अनहोनी के हाल में देश का ज़िम्मेदार नागरिक होने का अपना आत्मगौरव भी महसूस कर पाना मेरे लिए मुश्किल हो जाएगा। सत्ता की शक्ति अपने पास नहीं है; सो, आमजन तक अपनी बात पहुँचाने में ही बेहतरी की कोई सम्भावना देख सकता हूँ। अगर आप इसे पढ़ रहे हैं तो मैं भी यह मान रहा हूँ कि मेरा यह खुला ख़त सही हाथों तक पहुँच रहा है। अपनी बात लिखते हुए थोड़ी-सी उम्मीद इसलिए भी है कि क़रीब दस-ग्यारह साल पहले अन्ना आन्दोलन के समय जब देश की जनता आज़ादी के कई दशक बाद एक बार फिर से आह्लाद से भर उठी थी और एक बड़ी राजनीतिक क्रान्ति की आहट महसूस कर रही थी, तो उस समय 25 दिसम्बर, 2013 को मैंने ‘आम आदमी पार्टी के विधायकों के नाम खुला ख़त’ लिखा था। यह सोशल मीडिया के ज़रिये वायरल हुआ और देश के हज़ारों लोगों के जीवन में आमूल परिवर्तन का कारण बना। मन को सुकून मिला था, जबकि दादागीरी और गुण्डई के मार्ग पर चल रहे कुछ युवाओं ने भी सन्देश भेजे थे कि इस ख़त को पढ़ने के बाद उन्होंने तय कर लिया है कि अब वे भी अपनी आगे की ज़िन्दगी ईमानदारी से गुज़ारेंगे। देश के तमाम अख़बारों ने उस लम्बे ख़त के अंश मुख्य लेख बनाकर प्रकाशित किए थे। देश के तमाम बुद्धिजीवियों ने उस ख़त को ‘राजनीति की गीता’ तक की सञ्ज्ञा दे डाली थी। यों, वह एक साधारण चिट्ठी थी, जिसमें बस ईमानदारी के साथ मन की भावना थी, बेहतर समाज की चाहत थी। पहली बार जब अरविन्द केजरीवाल इस्तीफ़ा देकर सत्ता से बाहर आए तो इस ख़त को पढ़ने के बाद उन्होंने मुझे याद किया कि मेरे ख़त के आधार पर उनकी पार्टी को कुछ काम करना है। उनके साथ मेरी लम्बी बात हुई। मेरे सुझावों के आलोक में उनकी पार्टी ने कुछ काम किया भी और जनता से उन्होंने विनम्र भाव से अपनी ग़लतियों के लिए क्षमायाचना की। नतीजा हुआ कि दिल्ली ने उन्हें फिर से सिर-आँखों पर बैठाया और पहली बार से भी ज़्यादा बहुमत के साथ उन्हें सत्ता मिली। ख़ैर, किसी ख़त के चन्द अल्फ़ाज़ किसी के ज़ेहन में कब तक ताज़ा रह सकते हैं! घर-द्वार की तरह स्मृतियों पर जमा होती धूल को भी हर दिन साफ़ करने की ज़रूरत होती है। दिन बीते और आम आदमी पार्टी के नेताओं को शायद लगने लगा कि कामयाबी के शिखर पर अब उन्हें आम जनता से सलाह लेने की क्या ज़रूरत! असल में साधना कम हो और शोहरत ज़्यादा मिल जाए, तो सँभालना मुश्किल होता है। अब हम देख ही रहे हैं कि आम आदमी पार्टी भी राजनीति के प्रचलित ढर्रे से अलग नहीं दिखाई देती। यह बात ठीक है कि सम्भावनाओं का आकाश कभी सङ्कुचित नहीं होता, पर आज का सच यही है कि बज़रिये आम आदमी पार्टी सार्थक क़िस्म के किसी बड़े राजनीतिक परिवर्तन की आहट दूर-दूर तक भी कहीं सुन पाना मुश्किल है। (वह खुला ख़त देखना चाहें तो इस वेबसाइट के डाउनलोड पृष्ठ पर जाकर पढ़ या डाउनलोड कर सकते हैं।) https://www.santsameer.com/open-letter-to-your-mlas-25-december-2013/

इतनी-सी बात इसलिए कही कि मुझे लगता है कि जब हम सच्चे मन से कुछ कहते हैं तो उसका कुछ-न-कुछ अच्छा असर भी होता ही है। सामान्य जन का मन यों भी निहित स्वार्थों के वशीभूत कम ही होता है, इसलिए वह सच को सहजता से स्वीकार करता है और इसका प्रभाव दूर तक जाता है। आम आदमी के जीवन में सार्थक बदलाव आए तो मैं मानता हूँ कि यही अन्ततः समाज में भी सार्थक बदलाव का कारण बनता है।

बात सीमा-सचिन की चर्चित प्रेम कहानी की है। शुरू में मुझे नहीं लगा था कि इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है। टीवी वग़ैरह कम ही देखता हूँ तो पूरी ख़बर पर भी देर से ही ध्यान गया, पर मीडिया का ही व्यक्ति रहा हूँ तो दो-चार ख़बरों पर निगाह पड़ते ही मन में खटका पैदा हुआ। लगा कि एक बार पूरी ख़बर पर ध्यान देने की ज़रूरत है। एक तरफ़ चैनलों पर चलती ख़बरें और दूसरी तरफ़ सीमा नाम की इस पाकिस्तानी लड़की के बयान। जब मैं सीमा के सारे बयान एक तरफ़ से सुनने की कोशिश कर रहा था तो कई बार मेरी आँखें नम हो आईं। मैं नहीं मान पा रहा हूँ कि वह नाटक कर रही है। लड़की के हाव-भाव, उसकी बातों को मैंने एक समाजशास्त्री और मनोविज्ञान के अध्येता के भाव से भी देखने की कोशिश की। स्पष्ट लगा कि हमारे चैनलों ने इस लड़की को टीआरपी बटोरने का एक साधन बना लिया है। मसालेदार ख़बरों की तलाश जैसे उनकी विवशता बन गई है। इस होड़ में एक ख़बर के इर्द-गिर्द जानबूझकर ऐसे-ऐसे झूठ चिपकाए गए हैं, जिनका कोई सिर-पैर नहीं। सीमा अगर सचमुच अपराधी हो तो भी बेसिर-पैर की ऐसी ख़बरों का तरीक़ा ग़लत है। तरस आ रहा है देश के उन कुछ ऊँचे नामों पर भी, जिनसे हम अक्सर समझदारी की उम्मीद करते हैं। मुझे लगता है कि बिना पुख़्ता प्रमाण के एकपक्षीय ढङ्ग से हम किसी पर अपने दुराग्रहों को थोपने लगें तो इससे बड़ा अन्याय और कुछ नहीं। सोच का यह तरीक़ा हमारी सभ्यता-संस्कृति के भी ख़िलाफ़ है। हम ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ वाले देश के लोग हैं। अलबत्ता, इसका मतलब यह नहीं कि स्त्री होने मात्र से किसी को माफ़ कर दिया जाए। अपराधी को दण्ड मिलना ही चाहिए, लेकिन अगर वह अपराधी न हो तो उसे सम्मान भी पूरा दिया जाना चाहिए। सिर्फ़ दुश्मन देश का नागरिक होने मात्र से किसी को ग़लत मान लेना और बिना जाँच-पड़ताल के जासूस घोषित कर देना दरअसल एक दूसरे अर्थ में अपनी ही ग़लत मानसिकता का प्रमाण देना है। ख़ैर, एटीएस की जाँच चलने लगी और कुछ चैनलों ने ज़िम्मेदारी भरी रिपोर्टिङ्ग की तो ग़लत प्रचारित की जा रही कुछ चीज़ों पर हल्की-सी लगाम ज़रूर लगी है, पर अब भी तमाम टीवी और यूट्यूब चैनल सीमा-सचिन मामले में बस मसाला ही तलाशने में लगे हैं।

एक-दो बातों से किञ्चित् शङ्का की स्थिति बन सकती है, पर सीमा के जासूस होने की मुझे कोई बड़ी वजह दिखाई नहीं देती। मैंने उसकी पूरी बातें यथाशक्य ध्यान से सुनी हैं और एक पत्रकार, समाजशास्त्री, समाजकर्मी और भाषाविद् के तौर पर जितनी भी मेरी समझ है, उस हिसाब से उसे समझने की कोशिश की है। अभी हाल कई बातों से भ्रम के बादल कुछ-कुछ छँटे हैं, पर आम आदमी के मन में भर दिए गए एकदम फ़िज़ूल के कई भ्रम अब भी पूरी तरह से बाहर नहीं निकल पाए हैं। ये भ्रम बने रहे तो ख़तरा इस बात का है कि जनता का व्यवहार देशभक्ति के नाम पर भीड़तन्त्र में बदलने लगे और एक निरपराध स्त्री बलिवेदी पर पहुँचा दी जाए। जो आरोप सीमा पर लगाए गए हैं, उनमें से ज़्यादातर मुझे सिरे से बेदम लगे। कुछ प्रमुख आरोपों पर मैं अपनी राय जनता-जनार्दन के सामने रख रहा हूँ और उम्मीद करता हूँ कि आप सहज ढङ्ग से इन पर विचार करेंगे और निष्कर्ष निकालेंगे—

  • कहा जा रहा है कि सीमा केवल पाँचवीं पास है। ऐसे में फर्रादेदार अँग्रेज़ी भला कैसे बोल सकती है? इसके अलावा पाकिस्तानी होते हुए इतनी अच्छी हिन्दी कैसे बोलती है?

मेरी राय—पाँचवीं पास व्यक्ति अच्छी भाषा नहीं बोल सकता, यह क़तई ज़रूरी नहीं। इसी देश में कई अनपढ़ लोग ऐतिहासिक स्थलों पर फर्राटेदार अँग्रेज़ी बोलकर गाइड का काम कर रहे हैं। सामान्य तौर पर डिग्री से हमारी पढ़ाई का प्रमाण ज़रूर मिलता है, पर बिना डिग्री लिए भी हम घर पर रहते हुए पढ़ना चाहें तो पढ़ ही लेंगे। जहाँ तक सीमा की बात है तो चैनलों ने प्रचार ज़रूर किया है कि वह फर्राटेदार अँग्रेज़ी बोलती है, पर प्रमाण के तौर पर एक भी चैनल ने एक भी वीडियो क्लिप ऐसी नहीं दिखाई, जिसमें सीमा ने चार-छह वाक्य भी फर्राटेदार अँग्रेज़ी में बोले हों। उसने शुरू में ही पूछने पर बता दिया था कि सीखना उसे अच्छा लगता है तो वह सोशल मीडिया वग़ैरह के सहारे अँग्रेज़ी के कुछ शब्द सीख गई है, पर फर्राटेदार अँग्रेज़ी क़तई नहीं बोल सकती। दुर्भाग्य से सीमा की हिन्दुस्तानी क़िस्म की हिन्दी पर भी किसी चैनल ने क़ायदे की बात नहीं की। हिन्दी भाषा के अध्येता के तौर पर अगर कहूँ तो सीमा की हिन्दी में कोई आश्चर्यजनक बात है ही नहीं। याद रखना चाहिए कि हिन्दी और उर्दू, दोनों भाषाओं का व्याकरण विधान एक है। अरबी-फ़ारसी शब्द ज़्यादा प्रयोग कीजिए तो उर्दू, संस्कृत और भारत की बोलियों से निकले शब्दों पर ज़ोर दीजिए तो हिन्दी। हज़ारों वाक्य ऐसे हैं, जिनको आप हिन्दी या उर्दू में बाँटकर देख ही नहीं सकते। मसलन—वह आदमी बहुत बदमाश है; आप बड़े नेक इनसान हैं; ज़रा आप भी हाथ लगा दीजिए तो मेरा काम आसान हो जाएगा; ज़िन्दगी बड़ी बेरहम है; खाना खाइए और मज़े में सो जाइए—वग़ैरह-वग़ैरह। बोलचाल में हिन्दीवाले को उर्दू में और उर्दूवाले को हिन्दी में प्रवेश करने में बहुत मुश्किल वाली बात नहीं, बस थोड़े अभ्यास की ज़रूरत है। उर्दूवाले को बोलचाल की हिन्दी में जाना हो तो हिन्दी के बस दो-तीन सौ सामान्य शब्दों की ज़रूरत है, जिन्हें सीखने में महज़ महीने-दो महीने लगेंगे। इसी तरह हिन्दी वाला व्यक्ति दो-तीन सौ बोलचाल में प्रयुक्त अरबी-फ़ारसी के शब्दों को सीखकर सामान्य उर्दू बोल सकता है। कोई भी व्यक्ति इसे प्रयोग करके देख सकता है। एक सामान्य व्यक्ति और विद्वान् के बीच भी महज़ दो-ढाई हज़ार शब्दों का ही अन्तर होता है। सोचिए कि सीमा अगर दो-तीन साल से भारतीयता में रचने-बसने की कोशिश में लगी है, तो उसकी ऐसी हिन्दी में कैसा आश्चर्य? जिन्होंने सीमा के मकान मालिक की बातें सुनी होंगी, वे भी समझ सकते हैं कि उसका लहज़ा सीमा से कोई बहुत अलग नहीं था। यह भी समझिए कि मेरे जैसे व्यक्ति ने कोडिङ्ग जैसी चीज़ कभी नहीं सीखी, पर ज़रूरत लगी तो चन्द दिनों में सीखकर अपनी वेबसाइट ख़ुद डिज़ाइन कर ली। अपना कम्प्यूटर मैं ख़ुद बना-बिगाड़ सकता हूँ। असाध्य बीमारियों का शिकार होने पर जब डॉक्टरों ने हाथ खड़े कर लिए तो मैंने ख़ुद चिकित्सा सीखी और अपने कॉम्बिनेशन बनाकर अपना इलाज भी कर लिया। याद रखना चाहिए कि जुनून और जिजीविषा असम्भव चीज़ें भी सम्भव बना सकती हैं। बताने की ज़रूरत नहीं कि इश्क़ का जुनून तो और भी अजब होता है।

  • कहा जा रहा है यह लड़की जिस आत्मविश्वास से सवालों के जवाब देती है और जैसा इसका हाव-भाव है, वैसे में ज़रूर यह जासूस है, एक्टिङ्ग कर रही है और आईएसआई ने ही इसे प्रशिक्षित किया है। क्या पाँचवीं पास एक लड़की में इतना आत्मविश्वास हो सकता है?

मेरी राय—क्या आईएसआई के सिखाए जासूसों में सचमुच ऐसा ही आत्मविश्वास और ऐसा ही उनका हाव-भाव होता है? क्या कसाब वग़ैरह के हाव-भाव सीमा की तरह के ही थे? यक़ीनन यह बचकाना तर्क है। सीमा के कम पढ़े-लिखे होने की वजह से यह कयास लगाया जा रहा है, पर ध्यान से देखिए-समझिए तो उसका आत्मविश्वास और हाव-भाव, दोनों सहज लगेंगे। कोई बनावटीपन नहीं है इस लड़की में। पाँचवीं तक ही पढ़ने का मतलब यह नहीं है कि उसमें आत्मविश्वास कम होगा ही होगा। ऐसा हो तो यह भी मानना पड़ेगा कि कबीर, तुलसी, नानक वग़ैरह डिग्रीधारी नहीं थे, इसलिए उनमें भी आत्मविश्वास बहुत कम रहा होगा। आत्मविश्वास का अभ्यास एक अलग चीज़ है। मैंने बड़े-बड़े डिग्रीधारियों को देखा है कि अगर पहले से मञ्च पर खड़े होकर बोलने का अभ्यास नहीं रहा है, तो मञ्च पर खड़े होते ही उनके पैर काँपने लगते हैं। आज युवाओं के सबसे बड़े प्रेरक व्यक्तित्व के रूप में पहचाने जाने वाले सन्दीप माहेश्वरी का अनुभव बहुत-से लोगों ने सुना ही होगा कि वे पहली बार मञ्च पर बोलने के लिए खड़े हुए तो उनके साथ क्या हुआ। उम्मीद की जाती है कि पढ़ने-लिखने पर आत्मविश्वास आएगा, पर यह ज़रूरी नहीं। कोशिश करने पर आत्मविश्वास राबड़ी देवी और फूलन देवी जैसों में भी आ जाता है।

रही सीमा के एक्टिङ्ग या अभिनय करने की बात, तो जिसे एक्टिङ्ग की ज़रा भी समझ होगी उसके लिए यह तर्क ही हास्यास्पद है। मेरा फ़िल्म जगत् के लोगों से हल्का-फुल्का परिचय रहा है। मेरे कुछ मित्र या मेरे सिखाए-पढ़ाए कुछ लोग फ़िल्मों में काम भी कर रहे हैं तो इस नाते अभिनय संसार का कुछ जुगराफ़िया मुझे भी पता है। अमिताभ बच्चन, नसीरुद्दीन शाह, मनोज वाजपेयी, नवाजुद्दीन सिद्दीक़ी जैसे आला दर्जे के मँजे हुए अभिनेताओं का भी कई-कई री-टेक के बाद कोई शॉट ‘ओके’ हो पाता है। पहले से तमाम तैयारी के बावजूद बड़े-बड़े अभिनेताओं तक को दस-दस, बीस-बीस री-टेक देने पड़ते हैं। अगर सीमा हैदर एक्टिङ्ग कर रही है तो उसे तो साक्षात् अभिनय की देवी का अवतार ही मानना पड़ेगा, क्योंकि उसके सामने तुरन्त स्क्रिप्ट रखी जा रही है और उस पर ही उसे तुरन्त अभिनय करना है। अगर वह सचमुच अभिनय कर रही है तो उसे संसार की सबसे अच्छी अभिनेत्री मानना पड़ेगा, क्योंकि अचानक किए जा रहे हर तरह के सवालों पर वह नॉनस्टॉप और बिना री-टेक के सहजता से जवाब देते हुए बात कर रही है। दुनिया में आज तक कोई ऐसा जासूस सामने नहीं आया है, जिसने पकड़े जाने के बाद कई दिनों तक मीडिया या जनता के सवालों का इस तरह सहज भाव से लगातार उत्तर देने की हिम्मत दिखाई हो। सच बात यह है कि एक लड़की, जो पुलिस के घेरे में है और जिसे पीछे से कोई ‘कवरअप’ देना सम्भव नहीं है, जिसके सम्पर्क के सारे माध्यम पुलिस ने अपने क़ब्ज़े में ले रखे हैं, अगर फिर भी वह बिना हिचके हर बात का जवाब दे रही है, तो इसे आसानी से समझा जा सकता है कि वह बनावटी बातें नहीं कर रही है। बात सीधी है। सीमा हैदर सहज ढङ्ग से सही बात बोल रही है। उसकी बातों से साफ़ झलकता है कि पाकिस्तान में रहते हुए उसे भारतीय सभ्यता-संस्कृति अच्छी लगने लगी थी। पाकिस्तान के फ़रेबी माहौल में भारत को कोई भी समझने की कोशिश करेगा तो उसे भारत के लोग ज़्यादा ईमानदार और अच्छे लगेंगे। उसके मन में भरोसा जगा कि भारत में सच्चाई की इज़्ज़त की जाती है और उसके सच को भी यहाँ के लोग इज़्ज़त देंगे, पर दुर्भाग्य से महज़ पाकिस्तानी होने के नाते कुछ लोग उसके ख़िलाफ़ बेसिर-पैर का प्रचार अभियान चलाने में लग गए हैं।      

  • कहा जा रहा है कि सचिन नाम के लड़के की न कोई शक्ल-सूरत है और न ही इसकी बातें कुछ ख़ास हैं। भला कोई ख़ूबसूरत लड़की इस पर क्यों मर-मिटेगी? ज़रूर सीमा इस लड़के को फँसाकर अपना जासूसी का मक़सद पूरा करना चाहती थी।

मेरी राय—भारतीय सभ्यता में पले-बढ़े समझदार कहे जाने वाले लोग अगर ऐसा कहें तो मानना पड़ेगा कि हमारी सांस्कृतिक समझ का बहुत क्षय हो चुका है। सच्चे प्रेम की परिभाषा देनी हो तो हम आज भी कहते हैं कि सच्ची मुहब्बत सूरत नहीं सीरत देखती है; या कि जो प्रेम सिर्फ़ चेहरा देखकर किया जाता है, वह ज़्यादा समय तक नहीं टिकता। राजेश खन्ना की फ़िल्म का वह गीत बहुतों को याद होगा“दिल को देखो चेहरा न देखो, चेहरे ने लाखों को लूटा; दिल सच्चा और चेहरा झूठा…।” गाँवों में एक कहावत है कि दिल लगा गधी से तो परी क्या चीज़ है। स्त्रियों के मामले में इसी का उल्टा करके कुछ कह सकते हैं। जो लोग यह कहते हैं कि सचिन जैसे अति साधारण शक्ल वाले से किसी लड़की का प्यार करना सम्भव नहीं है, तो ऐसे लोग प्रकारान्तर से दरअसल यह कहना चाहते हैं कि प्यार-मुहब्बत के लिए ख़ूबसूरती अनिवार्य है। मतलब कि इश्क़ सिर्फ़ ख़ूबसूरत लोगों से ही किया जा सकता है, बदसूरत या साधारण सूरत वाले लोगों से इश्क़ नहीं हो सकता। सोचा जा सकता है कि कैसी मूर्खतापूर्ण बात है यह। कुछ लोग कह रहे हैं कि वह अपनी हवस मिटाने के चक्कर में यहाँ चली आई। ऐसे लोग ज़रा ध्यान से सोचेंगे तो समझ में आएगा कि सीमा की हवस मिटाने के लिए सचिन कितना उपयुक्त हो सकता है। हवस मिटाने का काम पाकिस्तान में ज़्यादा आसान था, उसके लिए जान जोख़िम में डालने की ज़रूरत नहीं थी।  

मुझे इन दोनों की प्रेम कहानी में एक सहज चीज़ दिखाई देती है और वह पाकिस्तान के माहौल से जुड़ी है। बताने की ज़रूरत नहीं है कि पाकिस्तान का हाल आज कैसा है। कोई भी लड़की अगर सोशल मीडिया वग़ैरह के ज़रिये दुनिया देखने लगे और उसका दिमाग़ खुलने लगे तो सहज रूप से उसे महसूस होगा कि वह पाकिस्तान में रहते हुए जैसे किसी क़ैदख़ाने में बन्द है। खुले दिमाग़ की किसी लड़की के मन में उस क़ैदख़ाने से आज़ाद होने की चाहत भी पैदा होगी। मुझे लगता है, सीमा के साथ भी ऐसा कुछ हुआ होगा। किसी भी समझदार को आसानी से समझ में आता है कि भारत में हर तरह के लोगों को जीने-रहने की जैसी आज़ादी है, वैसी दुनिया में और कहीं नहीं है। यहाँ एक मुसलमान लड़की भी चाहे तो बुरक़ा पहनकर बाज़ार जाए या बिना बुरक़े के, उसे कोई रोकेगा-टोकेगा नहीं। भारतीय संस्कृति की विशेषताएँ, त्योहार मनाने की परम्पराएँ किसी को भी आकर्षित करती हैं। एक तरफ़ यह लड़की भारतीयता से प्रभावित हुई और दूसरी तरफ़ जब सचिन ने उससे कहा कि पाकिस्तान वापस जाओ और अपने चारों बच्चों को भी साथ ले आओ, नहीं तो वे बेचारे बिना माँ के बच्चे परेशान होंगे, तो ज़ाहिर है, बच्चों को बेसहारा छोड़कर अपने प्रेमी के साथ भाग जाने के इस युग में सचिन का यह ज़िम्मेदारी भरा रवैया एक पाकिस्तानी लड़की के लिए भारत के लोगों पर भरोसा बढ़ाता है और यह एक भारतीय के प्रेम में मर-मिटने की भावना को और पक्का करने के लिए काफ़ी है। सोचिए कि जब उसका पति उसके पास रहता न हो और फ़ोन तक पर उससे लड़ाई-झगड़े करता रहा हो, ऐसे समय में एक हिन्दुस्तानी लड़के से उसकी दोस्ती हो जाए, तो उसे कैसा महसूस होगा। ख़्वाबों की एक नई दुनिया आकार लेने लगेगी। ऐसे में, बन्द चहारदीवारी के घनघोर अँधेरे की नाउम्मीदी के बीच यक-ब-यक रोशनी की एक हल्की-सी किरण सूरज से भी ज़्यादा महत्त्वपूर्ण लग सकती है। सीमा हैदर बार-बार कहती रही है कि वह भारत में बड़ी उम्मीद और आस लेकर आई थी, पर यह तो जाने क्या हो गया। भारत के प्रति यही ‘उम्मीद और आस’ वह तत्त्व है, जिसने सीमा को सीमा पार करने का ख़तरा उठाने का हौसला दिया।

इन तीन बातों को लेकर अब भी सीमा हैदर पर सबसे ज़्यादा सवाल खड़े किए जा रहे हैं, इसलिए इन पर सिलसिलेवार मैंने अपनी बात रखी। इनके अलावा कई मुद्दों पर अब सच्चाई सामने आ चुकी है, भले ही आम जनता का उन पर ज़्यादा ध्यान नहीं गया है, या मीडिया के लोग उन पर बात करना नहीं चाहते। छह पासपोर्ट की बात स्पष्ट हो चुकी है कि चार उसके बच्चों के, एक उसका ख़ुद का और एक अन्य, जो निरस्त हो चुका है। इनमें से कोई भी फ़र्जी पासपोर्ट नहीं है। दुर्भाग्य से हमारे देश की अधिसङ्ख्य जनता विदेश यात्राएँ नहीं करती तो उसे लगता है कि बच्चे चाहे जितने हों, पर पासपोर्ट तो एक ही होना चाहिए। उन्हें नहीं मालूम कि बच्चे अगर विदेश जा रहे हैं तो उनका भी पासपोर्ट बनवाना ही होगा। मीडिया सनसनी फैलाने के लिए जनता के ऐसे ही अज्ञान का फ़ायदा उठाता है। दुबई, नेपाल होते हुए भारत आने पर भी सवाल किए गए, पर अब साफ़ हो गया है कि पाकिस्तान से भारत हवाई यात्रा करनी हो तो हर किसी को ऐसा ही करना होता है। नेपाल से भारत आना तो कोई मसला ही नहीं होना चाहिए। बचपन की कुछ बातें मुझे याद हैं कि मेरे इलाक़े के तमाम लोग जब मूड होता नेपाल निकल लेते और गाँजे-भाँग का धन्धा करने वाले तो दस-बीस किलो गाँजा वग़ैरह भी साथ लेकर आते। दुर्भाग्य से बड़े-बड़े बुद्धिजीवी बनने वाले लोगों में से भी कइयों को नेपाल से भारत में आवाजाही की सही स्थिति का पता नहीं है। सीमा हैदर की उम्र पर भी सवाल हैं, पर वह कई बार इसे स्पष्ट कर चुकी है, जो पूरी तरह विश्वसनीय है। हमारे ही देश में हम देखते हैं कि जुलाई के महीने में अचानक फेसबुक वग़ैरह पर जन्मदिनों की बाढ़ आ जाती है। ज़ाहिर है, जुलाई स्कूल खुलने और नाम लिखाने का समय रहा है, तो इस समय दो-चार साल उम्र कम करके अन्दाज़े से जन्मतिथि लिखा दी जाती रही है। शादी के समय के जिस अदालती काग़ज़ के आधार पर सीमा के पहले विवाह को प्रेम विवाह कहा जा रहा है, उसका भी सच उसने बता दिया था। हम भारत के हिसाब से देखना चाहें तो भी ऐसे काग़ज़ों के सही-ग़लत का अन्दाज़ा लगा सकते हैं। पैसा बचाने के लिए ज़मीन-मकान की ख़रीद-बेच की रजिस्ट्री में असली दाम छिपाने की परम्परा पुरानी है। किसी लड़की के लिए शादी करना मजबूरी हो तो अदालती काग़ज़ में सहमति ही दिखानी पड़ेगी। वैसे ऐसे काग़ज़ वकीलों के भरोसे और उनकी राय के हिसाब से तैयार किए जाते हैं, आम आदमी को तो पता भी नहीं होता कि काग़ज़ में लिखा क्या है। अच्छे-अच्छे पढ़े-लिखे लोग भी एग्रीमेण्ट के काग़ज़ों को ध्यान से पढ़ने की ज़हमत नहीं उठाते और बाद में मुक़दमेबाज़ी में फँस जाते हैं।

सीमा हैदर के बारे में कहा गया कि वह बार-बार बयान बदलती रही है, लेकिन सच एकदम उलट है। आम आदमी ख़बरों के शीर्षक, वीडियो के थम्बनेल, चैनलों की समाचार पट्टियाँ ऊपर-ऊपर से देखकर अक्सर आगे बढ़ जाता है और इतने को ही पूरा सच मान लेता है। सनसनी इसी वजह से फैली। सच्चाई यह है कि सीमा ने एक बार भी बयान नहीं बदला। उसने बयान बदले होते तो उसके बदलते बयानों की वीडियो क्लिप दिखाने में कोई चैलन पीछे न रहता, लेकिन एक भी चैनल ने एक भी क्लिप ऐसी नहीं दिखाई, जिसमें कि सीमा बयान बदलते हुए दिखी हो। बाक़ी वह स्पष्ट बताती रही है कि उसके पास कोई चारा नहीं था तो उसने ग़लत तरीक़े से भारत की सीमा में प्रवेश किया, हालाँकि पकड़े जाने से पहले उसे इस बात इतना गहरा एहसास नहीं था कि यह तरीक़ा ग़लत है, क्योंकि वह ख़ुद को हिन्दू और सचिन की पत्नी मान रही थी और उसे इतना ही पता था कि नेपाल से भारत जाने के लिए पासपोर्ट-वीजा की ज़रूरत नहीं होती। सीमा हैदर के पाकिस्तानी सेना में मेजर होने की बात तो इतनी वाहियात निकली कि क्या कहा जाए, फिर भी फैक्ट चेक होने के बावजूद अब भी तमाम अच्छे-भले लोग इस बात पर विश्वास कर रहे हैं और उसे जासूस बता रहे हैं। भाई के सेना में होने पर भी स्पष्टता बहुत पहले आ चुकी है। सच तो यह है कि सीमा ने इस बात को स्वयं न बताया होता तो कोई जान भी न पाता। मीडिया ने शोर मचाया कि सीमा हैदर ने अपने फेसबुक अकाउण्ट से भारत में कई लोगों को फ्रेण्ड रिक्वेस्ट भेजे। यह भी कि सेना के कुछ लोगों को भी उसने रिक्वेस्ट भेजी थी। सीमा ने स्पष्ट बताया था वह फेसबुक चलाती ही नहीं। वह इंस्टाग्राम पर ज़रूर थी, पर उसे भी पब्लिक चर्चा में आने के बाद किया। कहा गया कि उसके पास तीन-तीन फ़र्ज़ी आधार कार्ड मिले हैं, जबकि शुरू में ही उसने बताया था कि उसके पास उसका अपना और दो परिवार के पाकिस्तानी पहचान कार्ड हैं, जिन्हें शिनाख़्ती कार्ड कहते हैं। इसी बात को फ़र्ज़ी आधार कार्ड का नाम देकर चैनलों ने जमकर हो-हल्ला मचाया। हाँ, अगर भारत में बसने के लिए उसका कोई आधार कार्ड गड़बड़ तरीक़े से बनाया गया होगा, तो ज़रूर एक मामला बनता है। लेकिन, इस एक गड़बड़ी की वजह से क्या उसे जासूस मान लिया जाना चाहिए? इसी देश में एक-दो नहीं, हज़ारों आधार कार्डों में गड़बड़ियाँ की गई हैं और आएदिन इसकी ख़बरें भी आती रहती हैं, तो क्या ये सब जासूस हैं? इसके अलावा बेहद महत्त्वपूर्ण बात यह है कि क्या आज तक कोई ऐसा जासूस हुआ है, जो सरकारी एजेंसियों की हर तरह की जाँच का इतने दिनों तक सामना करे, साथ-साथ हद दर्जे का मीडिया ट्रायल दिन-रात झेले, फिर भी उसकी ऐसी कोई ग़लती न दिखाई दे, जिससे कि उसे कठघरे में खड़ा किया जा सके।

एक बात यह बार-बार कही जाती रही है कि चार बच्चों की अम्मा को पबजी खेलने की फ़ुरसत भला कैसे मिल जाती थी। सही कहें तो यह बचकाना सवाल है। अपने इर्दगिर्द हम देखें तो पता चलेगा कि कई-कई बच्चों की अम्मा और कामकाजी होने के बावजूद तमाम महिलाएँ फेसबुक, इंस्टाग्राम वग़ैरह पर ख़ूब सक्रिय रहती हैं। मेरे ही फेसबुक वाल पर कई ऐसी महिलाएँ हैं, जो अपने बच्चों और घर-परिवार को सँभालते हुए भी फेसबुक पोस्ट लिखने के लिए जैसे-तैसे समय निकाल ही लेती हैं, अच्छी लेखिकाएँ हैं। जिसने भी अपने घर की महिलाओं को सहेलियों से फ़ोन पर घण्टों बतियाते हुए देखा होगा, उसके लिए समझना मुश्किल नहीं है कि पबजी के लिए समय कैसे निकलता है। सीमा के पास नौकरी-चाकरी थी नहीं, पर ख़र्च के पैसे मिल ही जाते थे। ऐसे में, उसके पास दिन का काफ़ी समय पबजी खेलने के लिए भी था ही।

बार-बार प्रचारित किया गया कि सीमा को नमाज़ और कलमा पढ़ना नहीं आता, जबकि सच्चाई यह है कि उसने सिर्फ़ इतना कहा कि उसने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया है, इसलिए नमाज़-कलमा नहीं पढ़ना चाहती, पर किसी को सुनना हो तो ज़रूर सुना सकती है। कैसी ज़्यादती कि किसी चैनल ने नमाज़ और कलमा सुनने की ज़हमत नहीं उठाई, बस शोर मचाना शुरू कर दिया कि उसे तो नमाज़ पढ़नी आती ही नहीं। एक सिन्धी पत्रकार ने उससे सिन्धी में सवाल न पूछे होते तो शायद कोई यह भी न जान पाता कि सीमा सबसे बढ़िया ढङ्ग से सिन्धी ही बोलती है। सीमा का विश्वास है कि सच की जीत होती है, इसलिए जन्म से लेकर अब तक की सारी बातें उसने सहज भाव से पूरी ईमानदारी से बताई हैं। कोई जासूस ऐसा कभी न करता। यह लड़की जासूस होती तो भारत में प्रवेश से पहले नेपाल में सबसे पहले अपने पासपोर्ट वग़ैरह ही नष्ट करती। संसार में ऐसा कौन जासूस है, जो अपनी पहचान के सारे असली सबूत साथ लेकर चलता है? सबसे बड़ी बात कि सीमा नार्को टेस्ट, ब्रेन मैपिङ्ग से लेकर जितने भी टेस्ट सम्भव हैं, वह सब कराने को तैयार है। अगर कुछ लोगों को लगता है कि तमाम जाँच में साफ़-सुथरी साबित होने के बाद भी हर हाल में उसे जासूस ही कहा जाना चाहिए, तो मैं कहूँगा कि ऐसे लोग बीमार मानसिकता के शिकार हैं, देशभक्ति का सिर्फ़ नाटक करते हैं और भारतीय संस्कृति के उपासक तो क़तई नहीं हो सकते। अच्छी बात है कि इस घटाटोप के बीच कई समझदार लोग, रॉ वग़ैरह के अनुभवी अधिकारी तक स्पष्ट कह रहे हैं कि इस लड़की के तौर-तरीक़े से स्पष्ट है कि यह जासूस नहीं हो सकती। ख़बरों को मसालेदार बनाने वाली ग़लीज़ पत्रकारिता के बीच कुछ पत्रकारों ने भी काफ़ी ज़िम्मेदारी के साथ सिर्फ़ सच पर केन्द्रित पत्रकारिता की है, जिसके नाते भी थोड़ी उम्मीद अभी बची हुई है।

बहरहाल, टीवी चैनलों, यूट्यूब वग़ैरह को किनारे कर दें तो हम अनुमान सिर्फ़ उन बातों के आधार पर ही लगा सकते हैं, जो सीमा ने ख़ुद अपने मुँह से बोले हैं या जो कुछ पुलिस और एटीएस ने कहा है। स्पष्ट है कि पुलिस और एटीएस ने कोई निष्कर्ष अभी तक नहीं दिया है और सीमा के सारे बयान सामने हैं। ऐसे में इससे इतर जो कुछ दिखाया जा रहा है, वह सब हवा-हवाई और जनता को गुमराह करने वाला है।  

किया क्या जाए?

सवाल है कि किया क्या जाए। मेरा स्पष्ट मानना है कि सीमा हैदर ग़लत निकले तो सज़ा और सही निकले तो सम्मान। उसके सच्चे प्रेम के लिए सम्मान, भारत की महान् समावेशी संस्कृति पर आस्था के लिए सम्मान। अगर वह किसी जासूसी वग़ैरह के लिए नहीं आई और सिर्फ़ प्रेम की ख़ातिर मासूम बच्चों के साथ भारत के लोगों पर भरोसा करके दीन-धर्म और देश छोड़कर यहाँ चली आई तो यह छोटी बात नहीं है। जैसी समझदारी से उसने बातें की हैं, उस पर गर्व किया जाना चाहिए और भारत भूमि पर उसका स्वागत होना चाहिए। यह राम-कृष्ण का देश है, प्रेम और सहृदयता की धरती है। मैं सोचता हूँ कि जिस संविधान की दुहाई देकर कुछ लोग सीमा को फाँसी के फन्दे तक पहुँचाना चाहते हैं या वापस सीमा पार भेजना चाहते हैं, उस संविधान के निर्माता बाबा साहब अम्बेडकर के सामने यह मामला आया होता तो वे क्या फ़ैसला देते। महात्मा गान्धी के सामने सीमा-सचिन को पेश किया गया होता तो वे क्या करते? सरदार  बल्लभ भाई पटेल, एकात्म मानववाद के महान् चिन्तक पण्डित दीनदयाल उपाध्याय, जेपी, लोहिया के सामने यह मुद्दा आया होता तो क्या होता? और तो और सरदार भगत सिंह क्या कहते, पं. रामप्रसाद बिस्मिल क्या कहते? मुझे जानने वाले जानते हैं कि मैंने अपना जीवन इन्हीं महापुरुषों के हिसाब से जीने की कोशिश की है। बारह-तेरह साल की उम्र में बी.आर. नन्दा की लिखी गान्धी की जीवनी पढ़ ली तो बालमन पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि घरवालों से ज़िद कर ली और आज तक खादी के कपड़े ही पहनता आया हूँ। इस राह पर चलते हुए इस मामले में इसी निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि हमारे महापुरुष इस लड़की का हिन्दुस्तान की सरज़मी पर इस्तक़बाल करते, आशीर्वाद देते। उसके सीखने की प्रतिभा की तारीफ़ करते। सीमा के सच्चे प्यार के लिए सीमा का अपमान न होता। अगर सीमा पार करने की ग़लती के लिए सज़ा भी दी जाती तो कुछ इस तरह कहा जाता कि तुम्हारा प्रायश्चित्त यह है कि तुम कोई ऐसा काम सीख लो, जिससे देश का मान बढ़े। आज भी बहुत ज़रूरी लगे तो हम सज़ा के तौर पर कुछ ऐसा निर्देशित कर सकते हैं कि सीमा हैदर हफ़्ते में एक-दो दिन ग़रीब बच्चों को कोई अच्छी चीज़ सिखाए-बताए, या ऐसा कुछ और। ध्यान देना चाहिए कि पाँचवीं तक पढ़ी होने के बावजूद उसमें सीखने की अद्भुत क्षमता है। इस क्षमता का देशहित में उपयोग किया जा सकता है। कुछ अच्छी चीज़ें सिखाने की ज़िम्मेदारी लेने वाले मेरे जैसे तमाम लोग मिल जाएँगे। प्रचलित तरीक़े से संविधान की दुहाई देना हमेशा सही नहीं होता। संविधान ईश्वर की बनाई और आसमान से उतारी गई कोई किताब नहीं है कि उसकी हर पङ्क्ति पत्थर की लकीर मान ली जाए। संविधान हम बनाते हैं, समय-समय पर संशोधन भी करते हैं। हम चाहें तो संविधान में संवेदना भर दें या उसे संवेदनहीन बना दें।

मैंने अपनी वेदना व्यक्त की है तो सिर्फ़ इसलिए कि जिन भी हाथों में यह खुला ख़त पहुँचे, वे ग़लतफ़हमियों से बाहर निकलें और एक निर्दोष स्त्री को अपराधी की निगाह से न देखें। जैसा मीडिया ट्रायल उसका चल रहा है, वह किसी सज़ा से कम नहीं है। काश, मेरी भावना उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी जी और देश के प्रधानमन्त्री मोदी जी तक पहुँच पाए। मेरे जैसे लोग महसूस करते हैं कि ज़माने बाद इस देश को दो ऐसे नेता मिले हैं, जो फ़ैसला लेने का दम रखते हैं। योगी जी तो हैं ही, मोदी जी ने भी अपना जीवन सन्न्यासियों जैसा ही बिताया है। सन्न्यासी की बुनियादी विशिष्टता ही है—दया, करुणा, क्षमा; अपने लिए नहीं, औरों के लिए जीना। आज़ादी के बाद से संवेदनहीन होती जा रही राजनीति के बीच इन दोनों नेताओं ने समय-समय पर संवेदना के लक्षण दिखाए भी हैं और देश का दिल जीता है। मैं नहीं कहता कि देश के जो लोग इन दोनों नेताओं का विरोध करते हैं, वे विरोध करना बन्द कर दें। विरोध के अपने तर्क हैं और वे जायज़ हो सकते हैं, पर मैं महसूस करता हूँ कि योगी जी और मोदी जी में वह क्षमता है कि वे मैं जैसा सोच रहा हूँ, उससे भी शानदार फ़ैसला इस मामले में देश के सामने ला सकें। याद कीजिए कि मोदी जी की एक अपील पर कैसे करोड़ों लोगों ने कोरोना काल में अपनी छतों पर खड़े होकर थाली बजाई थी। उनमें अपील की क्षमता आज भी है और मैं महसूस करता हूँ कि ये दोनों नेता अगर सीमा हैदर को आशीर्वाद देकर अभयदान दें तो जो लोग ऊपर-ऊपर की झूठी ख़बरों पर विश्वास करके सीमा को सीमा पार करने का नारा लगा रहे हैं, वे भी स्वीकार कर लेंगे कि हमारे नेता जो कह रहे हैं वही सच है। ऐसे फ़ैसले से योगी जी और मोदी जी का क़द और ऊँचा हो जाएगा। दिल से कोई अपनी ग़लती मान रहा हो तो हमें याद रखना चाहिए कि भारत की संस्कृति क्षमा की संस्कृति है और यह भारतीयता के महान् मूल्यों का सन्देश देने का एक महान् अवसर बन सकता है। दुश्मन देश की सही, पर बेटी तो बेटी है। हम उस देश के रहवासी हैं, जो दरवाज़े पर आ गए अनजान राही को भी अतिथि का पूरा मान देने की परम्परा का हामी है। विनम्र बनकर दुश्मन भी द्वार पर आ खड़ा हो तो हम उसे भी एकबारग़ी देवता मान लेते हैं, ख़ुद को उससे भी विनम्र कर लेते हैं। अलबत्ता, आज हम धर्मयुद्ध के युग में नहीं जी रहे हैं, इसलिए नहीं कहूँगा कि दरवाज़े पर आए दुश्मन को देवता माना जाए, पर परिस्थितियों की मारी सीमा हैदर तो किसी भी सूरत में कहीं से भी दुश्मन नहीं दिखाई देती। उसके मासूम बच्चे कौन-सी जासूसी सीख लेकर आए होंगे? यह बात ज़रूर है कि इस पूरे घटनाक्रम ने एक और बात की तरफ़ हमारा ध्यान आकर्षित किया है; और वह है, हमारी सीमाओं की सुरक्षा-व्यवस्था। नेपाल भगवान श्रीराम की ससुराल है, वहाँ से रोटी-बेटी के हमारे सदियों पुराने रिश्ते हैं, तो अन्य देशों की तरह तो वहाँ की सीमा को नहीं घेरा जा सकता, फिर भी इसे और मज़बूत बनाने की ज़रूरत है। बहरहाल, मैं योगी जी और मोदी जी से यही अपील करूँगा कि इस लाचार लड़की को अभयदान दें। शङ्का-कुशङ्का हो तो कुछ बन्दिशें लगा सकते हैं। इस देश की सुरक्षा एजेंसियों की ज़द में आ ही गई है, तो कहीं भागकर तो नहीं जा पाएगी। अगर उसके आईएसआई वग़ैरह से कोई सम्पर्क रहे भी होंगे तो अब तो पूरी तरह टूट ही चुके हैं। उसके चेहरे से देश परिचित हो चुका है। अब कौन-सी जासूसी वह कर पाएगी और किसको किस तरह की ख़ुफ़िया जानकारी भेज पाएगी! मैं समझता हूँ कि योगी जी और मोदी जी तक सही बात पहुँचेगी तो वे ज़रूर कुछ इसी तरह का फ़ैसला लेंगे।

मीडिया का व्यक्ति रहा हूँ तो मीडियावालों से इतना ही निवेदन करूँगा कि दूसरे चैनलों से होड़ की चुनौतियों के बावजूद संवेदनाओं को मरने मत दीजिए। यह कोई ज़मीन-जायदाद का विवाद नहीं है कि आप दो एकड़ के बजाय सनसनी फैलाने के लिए दिखाना शुरू कर दें कि दो सौ एकड़ पर क़ब्ज़ा कर लिया। ऐसे मामलों में किसी की जान का ख़तरा नहीं होता, पर सीमा-सचिन के मामले में जीवित-जाग्रत दो इनसानों के जीवन-मरण का सवाल है। एक स्त्री, जो इस अगाध विश्वास के साथ अपना देश छोड़ आई है कि भारत के लोग ‘जियो और जीने दो’ की मान्यता वाले बेहद अच्छे लोग हैं, यहाँ की संस्कृति महान् है; उसके विश्वास को क्या इस तरह चकनाचूर कर दिया जाना चाहिए? देखिए कि टीवी और यूट्यूब चैनल कैसे-कैसे शीर्षक देकर ख़बरें चला रहे हैं। देखने पर माथा भन्ना जाता है। मसलन—‘पाकिस्तान भागती सीमा…बॉर्डर से LIVE’, ‘सीमा दे रही है धमकी’, ‘लाई डिटेक्टर में सीमा ने क़बूला राज…सचिन को बुलाया गया था पाकिस्तान!’, ‘सचिन ने सीमा को दिया तलाक-तलाक-तलाक!’, ‘पाकिस्तान की जासूस निकली सीमा!’, ‘सीमा हैदर की खुली कुण्डली हुई फरार!’, ‘कैमरे पर रो-रोकर बोल दिया मैं जासूस हूँ!’, ‘सीमा का सचिन को बड़ा धोखा…पाक पहचान ने खोले राज़…सीमा के ISI से गहरे लिङ्क…अब होगी फाँसी की सज़ा’। इसी तरह के सैकड़ों बेसिर-पैर के निहायत झूठे थम्बनेल।

यदि लड़की जासूस नहीं है और सिर्फ़ प्रेम के वशीभूत यहाँ तक आ गई है तो उसे एक ग़लती के लिए इतनी बड़ी सज़ा नहीं देनी चाहिए। सीमा हैदर से कहीं ज़्यादा ग़लत तरीक़े से इस देश में म्याँमार, बाँग्ला देश वग़ैरह से लाखों लोग भारत में प्रवेश करके रह रहे हैं और हम उन्हें समय-समय पर यहाँ की नागरिकता देने की बात करते हैं और देते हैं, तो क्या सीमा हैदर पर सिर्फ़ जासूस होने का ग़लत आरोप लगा देने भर से वह सचमुच ग़लत हो गई और अब उसे इस देश में जगह देने से इनकार कर देना चाहिए? सीमा की तबीयत ख़राब होने के बाद जब वह कुछ ठीक होकर एक चैनल से बात करने को बैठी और उसे बताया गया कि एक अधिकारी के मुताबिक उसे पाकिस्तान वापस भेजने की तैयारी चल रही है तो वह जिस तरह से फफककर रोई, उसे देखकर जिसका दिल न पसीजे तो मैं समझता हूँ कि वह कोई क्रूर इनसान ही हो सकता है। वह न भारत का भला कर सकता है, न भारतीयता का।

बात बस इतनी है कि सरकारी एजेंसियों पर ज़बरदस्ती का दबाव का माहौल न बनाएँ और जाँच सहज ढङ्ग से पूरी होने दें, तो एक दिन सब कुछ साफ़ हो जाएगा। नतीजा निकालने में इतनी भी उतावली क्यों, आख़िर सीमा पुलिस की ज़द में है, कहीं भागी तो नहीं जा रही! चैनलों पर सही ख़बरों का शोर चले चलता रहे, क्या परेशानी; पर उनके ग़लत शोर से जनता भ्रमित होती है और कई बार इस माहौल में प्रशासन भी ग़लत फ़ैसले लेने को मजबूर हो सकता है। सन् 2003 में हुए निशा शर्मा और मुनीष दलाल के मामले में हमने देखा था। मीडिया ने सरासर ग़लत निशा शर्मा को सेलिब्रिटी बना दिया। नौ साल बाद सच्चाई सामने आई, पर तब तक मुनीष का परिवार तबाह होता रहा। भारत जीवन का सम्मान करने वाला देश है। हम अपने खाने से पहले जानवरों, पक्षियों, चींटियों तक का हिस्सा निकालते हैं। क्या इस दौर में अब हमें ऐसी संवेदना की ज़रूरत नहीं रही? मैं समझता हूँ कि सीमा-सचिन के बहाने एक ऐसा अवसर हमारे सामने आया है कि हम दिखाएँ कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ की बात इस देश में आज भी चरितार्थ होती है। (सन्त समीर)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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