पुस्तक-चर्चाविमर्शसाहित्य

दृश्य-संस्कृति के बहाने दिलचस्प सभ्यता-विमर्श

देखना-दिखना-दिखाना रोज़मर्रा की ज़िन्दगी का अनिवार्य हिस्सा है। अगर आप अन्धे नहीं हैं तो यह इतनी आमफ़हम बात लगती है कि इस पर जैसे विमर्श की कोई ज़रूरत महसूस ही नहीं होती। भारतीय समाज में दृश्य-संस्कृति की एक समृद्ध थाती है, पर किसी लिखित या मौखिक विमर्श का अभाव है। समय-सन्दर्भों में दृश्य जगत् के दायरे का विस्तार या सङ्कुचन होता रहा है; सामाजिक रुचियाँ, अनुभव और प्रभाव क्षेत्र बदलने के साथ उकेरी गई दृश्यावलियाँ भी बदलती या बनती-बिगड़ती और सँवरती रही हैं; परन्तु इनके बीच से उभरने वाले सभ्यता-विमर्श को अनदेखा किया जाता रहा है। कोई अव्यक्त-सा विमर्श हमारे या कहें लोक मानस में निरन्तर चलता भी रहा है, तो छिटफुट चर्चाओं के अलावा आधुनिक समाज-विज्ञान ने इसका कभी कोई नोटिस नहीं लिया। वास्तव में प्राचीन से लेकर अर्वाचीन ग्रामीण और नागर-संस्कृति में तमाम कला-अभिव्यक्तियाँ महज़ मनोरञ्जन या एकाङ्गी उद्देश्यों को लक्षित दृश्यावलियाँ ही नहीं हैं, वे ख़ुद के भीतर सभ्यतागत पहचानों और मूल्यों को समेटे हुए ऐसी छवियाँ भी हैं, जिनके देखे जाने के बाद का अनुभव एक अलग क़िस्म के समाजशास्त्रीय अध्ययन और दस्तावेज़ीकरण की माँग करता है। सदन झा की पुस्तक ‘देवनागरी जगत् की दृश्य संस्कृति’ दरअसल दृश्य-संस्कृति के बहाने एक गम्भीर सभ्यता-विमर्श है, जो इस देखे जाने की क्रिया को अध्ययन का विषय बनाने की अपील-सी करती दिखाई देती है। सदन झा भूमिका में लिखते हैं—‘‘देखना एक क्रिया है जैसे सुनना, चलना और सूँघना। समाज-विज्ञान में हम इनके बारे में बात नहीं करते। कम-से-कम भारत में इन क्रियाओं से जुड़े शोधों की सङ्ख्या बहुत कम ही है। अधिक-से-अधिक ये हमारे उदाहरणों का हिस्सा ही बनते हैं।’’

लेखक की चिन्ता इस बात की है कि भारतीय समाज-विज्ञान में विचारधाराओं का वर्चस्व रहा है, जिसके चलते राजनीति के समाज-विज्ञान के प्रति हमारी समझ की गहराई भले बढ़ी है, पर ज्ञान और मीमांसा में इससे उथलापन ही आया है। सौन्दर्य-शास्त्र और कला-विमर्श में कुछ महत्त्वपूर्ण काम हुए है, पर वहाँ भी देखने की क्रिया के अनुभवों की बात ग़ायब है। लेखक अपने निबन्धों में देखने के उस उस विशिष्ट अनुभव की बात करते हुए दृश्य-संस्कृति में विजुअल मीडिया के बढ़ते वर्चस्व और महज़ उत्पाद के रूप में चित्रकला, फोटोग्राफ़ी, कार्टून, सिनेमा वग़ैरह को व्याख्यायित और रेखाङ्कित किए जाने के साथ चित्रों के बनने के तकनीकीगत इतिहास या इनके बाज़ार का इतिहास मात्र बनकर रह जाने के दायरे के पार चित्रों के ज़रिये उभरने वाली सभ्यतागत अनुभूतियों को दर्ज करने की पहल करते हैं।

‘देवनागरी जगत् की दृश्य संस्कृति’ में कुल नौ निबन्ध सङ्ग्रहीत हैं, जो बीते पन्द्रह वर्षों में विभिन्न अवसरों पर लिखे गए हैं। इनके शीर्षकों पर ग़ौर करें तो इनमें ही देखने की क्रिया के एक नए रोचक, लेकिन गम्भीर समाजशास्त्रीय विमर्श के सङ्केत मिलने लगते हैं। ये नौ ही हैं, इसलिए इन्हें यहाँ दर्ज किया जा सकता है—सन्तोष रेडियो ने गढ़े इनसानी रिश्ते (1880 का दशक और उपभोक्ता संस्कृति); मामूली राम की दिल्ली (आर्काइव का शहर और शहर का आर्काइव); भीड़, जनसमुदाय और राजनीति; शहर की देह पर अक्षराघात; सड़क की आँखें, शहर की कहानी; देखने की राजनीति (भारत का झण्डा और आस्था की नज़र); एक नई भाषा का उदयः देवनागरी जगत् में देखना और दिखाना (1850 से 1930 तक); समय के बदले जगह और राष्ट्र के बदले प्रान्त (रेणु और आधुनिक आञ्चलिकता); विभाजन की सिनेमाई ज़मीन (खोया हुआ और बरामद आत्म)।

सदन झा कोई दावा नहीं करते कि वे इन निबन्धों में दृश्य-संस्कृति के समाजशास्त्रीय अध्ययन की कमियों की भरपाई कर रहे हैं, बल्कि वे कहते हैं कि वे विमर्श के लिए ज़रूरी छोटे-मोटे रुझानों की ओर इशारा भर कर रहे हैं। बहरहाल, उनके छोटे इशारों में विमर्श की बड़ी सम्भावनाएँ मौजूद हैं, भारत जैसे देश में तो और भी, जहाँ ‘दर्शन’ जैसा गम्भीर पारिभाषिक शब्द भी देखने की स्थूल चाक्षुष क्रिया से निकल कर मन के धरातल पर अगोचर को व्यक्त करने का उपकरण बन गया है। बचपन के देखे से गुज़रते हुए बिहार के एक ख़ास अञ्चल में घर-घर में पैठ बनाए जिस सन्तोष रेडियो को सदन झा विमर्श का प्रस्थान-बिन्दु बनाते हैं, उसकी व्याप्ति देश के बहुत बड़े भूभाग तक है और सङ्केतात्मकता तो ख़ैर राष्ट्रीय है। सदन झा मिथिलाञ्चल के अपने अनुभव बयान करते हैं, पर वे दिन हम-आप भी याद कर सकते हैं, जब शादी-ब्याह में घड़ी, रेडियो, साइकिल, अँगूठी, सोने की ज़ञ्जीर दहेज का विशिष्ट हिस्सा हुआ करते थे। रेडियो, साइकिल धीरे-धीरे वैवाहिक रस्म अदायगी के पूरे परिदृश्य में लगभग विलोप को प्राप्त होते गए, लेकिन घड़ी, अँगूठी, सोने की ज़ञ्जीर आभूषण की शक्ल में अपनी अर्थवत्ता अब तक बनाए हुए हैं। सत्तर-अस्सी के दशक के इस परिदृश्य में सन्तोष रेडियो के ज़रिये सदन झा सामाजिक संरचना में गहरे प्रवेश करते हैं। एक समय था कि निम्न तबक़े में दूल्हे को दहेज में रेडियो हमेशा नसीब नहीं होता था। सन्तोष रेडियो ने सस्ते होने की वजह से समाज के सभी तबक़ों के दहेज के सामानों मे अपनी पैठ बनाई। लेखक बयान करते हैं—‘‘सन्तोष रेडियो ने निम्न सामाजिक तबक़ों के बीच पहली बार क्षेत्रीय और राष्ट्रीय सुरों को एक साथ एक ही क्षण में उपस्थित होने की ज़मीन बनाई। समाचार सुनने की अहमियत बढ़ने लगी। पहले जहाँ रेडियो सुनना एक सामूहिक कार्य हुआ करता था, वहीं अब यह व्यक्तिगत और दैनिक व्यक्तिगत पसन्द-नापसन्द की गतिविधियों के रूप में नज़र आने लगा।’’ वास्तव में सन्तोष रेडियो की मौजूदगी और बदलते परिदृश्य में उसके अतीत का हिस्सा बनते जाने के रोचक वर्णन में एक पूरे दौर के सामाजिक ताने-बाने के कई अनदेखे रेशों को लेखक बड़े महीन ढङ्ग से पकड़ते हैं।

‘मामूली राम की दिल्ली’ में सदन झा आर्काइव के पन्नों से गर्द झाड़कर उन तमाम दृश्यावलियों से हमें रू-ब-रू कराते हैं, जो दिल्ली के सामाजिक मानस के भूगोल को जैसे हमारे सामने खड़ा ही कर देती हैं। यहाँ 1961 का दिल्ली का मास्टर प्लान है, शहरी नियोजन से सम्बन्धित योजनाएँ हैं; तो होली के रसीले गीत और लुगदी साहित्य भी। सन् 1940 में ‘द हिन्दुस्तान टाइम्स’ में छपी ‘कुँवारी दुलहन एक विवाहित महिला निकली’ ख़बर के उदाहरण से लेखक इस बात की शिनाख़्त का सङ्केत देते हैं कि एक शहर के लिए महत्त्व की सूचियों में समय के साथ क्या कुछ घटता और क्या कुछ बढ़ता जाता है। ‘1828 की दिल्ली डायरी’ से वे दिलचस्प प्रसङ्ग उठाते हैं कि कैसे नवाबों को राजा ने पालकी में बैठकर जाने की छूट दी, और कि किसी ने पगड़ी पहनी तो वह भी  ‘दिल्ली डायरी’ का हिस्सा बन गई। किताब किराने की पर्ची की इबारतों के सहारे भी उस दौर की दिल्ली के रहन-सहन के सामाजिक जुगराफ़िया को सामने लाती है। तीन-चार दशक पहले का दौर देख चुके तमाम लोगों के लिए याद करना ज़्यादा मुश्किल नहीं है कि कैसे सिनेमा की खिड़की पर ज़रा देर में पहुँचने पर या नई फ़िल्म लगने के पहले-दूसरे दिन टिकटों के ब्लैक मार्केटियरों से सामना होता था। लेखक टिकट ब्लैक की ख़बरों के सहारे समाज को देखने-समझने का अद्भुत विमर्श खड़ा करते हैं। सड़क के पोस्टर, जगह-जगह लगे निशान, दीवारों पर चस्पाँ लिखावट—ये सारी दृश्यावलियाँ टुकड़ों-टुकड़ों में होकर भी लेखक को, देखने और देखकर महसूस करते हुए मामूली राम की दिल्ली के आर्काइव के लिए समृद्ध सामग्री उपलब्ध कराती हैं।

‘भीड़, जनसमुदाय और राजनीति’ में सदन झा चारुदत्त और वसन्तसेना के प्रेम के लिए विख्यात ‘मृच्छकटिकम्’ नाटक में भीड़ के उस चेहरे की शिनाख़्त करते हैं, जो प्राचीन या मध्य काल में सम्भवतः पहली बार सत्ता समीकरण को बदलने में सक्रिय भूमिका निभाते दिखाई देता है। भीड़ की मानसिकता की पहचान का अब तक का चला आया एकाङ्गी दृष्टिकोण भी यहाँ खण्डित होता नज़र आता है। भीड़ का मतलब हमेशा एक नकारात्मक समूह नहीं होता या भीड़ हमेशा वैसी नहीं होती जैसी हम उसे समझते आए हैं। एक उदाहरण, जो महात्मा गान्धी के सपनों में था, पर अपने जीवनकाल में जिसे वे ख़ुद कभी भारत में देख नहीं सके, उसे अन्ना आन्दोलन के समय सन् 2011 में हम सबने देखा। समाजविज्ञानियों, बुद्धिजीवियों और सरकारी समझदारों की तमाम भविष्यवाणियों, अटकलों को इस आन्दोलन की भीड़ ने झुठला दिया और ख़ुद को अन्त तक पूरी तरह अहिंसक बनाए रखा। लेखक अन्ना आन्दोलन में इकट्ठा हुए विशाल जमसमुदाय के ज़रिये भीड़ के उस पहलू की पहचान करते हैं, जिसे हमेशा सरलीकृत और एकीकृत वैचारिक रुझानों के हिसाब से ही नहीं समझा जा सकता।

‘शहर की देह पर अक्षराघात’ निबन्ध में लेखक जगह-जगह दीवारों, बस की सीटों, गाड़ियों के आगे-पीछे चिपके शेरो-शायरी वग़ैरह के स्टिकरों की इबारतों में समाज के मनोविज्ञान, सामाजिक संरचना की पहचान करते हुए दृश्य-जगत् की राजनीति पर ज़रूरी संवाद करते हैं। उन्होंने बस में यात्रा करते हुए ख़ुद के देखे एक अदना-से नज़ारे का ज़िक्र किया है, जैसा कि हम अक्सर ही देखकर अनदेखा करते रहते हैं। बस में महिलाओं वाली सीट के ऊपर लिखे ‘महिलाएँ’ में से किसी ने बड़ी मेहनत से ‘म’ अक्षर को मिटा दिया है, यानी जहाँ-जहाँ ‘महिलाएँ’ लिखा होता है, वहाँ-वहाँ अब ‘हिलाएँ’ दिख रहा है। सदन झा इसका दिलचस्प, लेकिन गम्भीर पाठ कुछ यों करते हैं—‘‘यहाँ यह ख़याल रखना ज़रूरी है कि सरकार और राज्य, दोनों ही को एक विचारधारा में पुरुषवादी माना गया है और किसी भी तरह का आरक्षण (महिलाओं के लिए) नारीवादी प्रतिरोध और पुरुषवादी राज्य के बीच समझौते के तौर पर हमारे सामने आता है। इस नज़रिये से ‘म’ का खुरचा जाना पुरुष और महिला सत्ताओं के बीच प्रत्यक्ष सङ्घर्ष नहीं होकर एक त्रिकोणीय लड़ाई में तब्दील हो जाता है—महिला बनाम पुरुष जन स्थान और पुरुषवादी राज्य।’’

इससे भी आगे बात देह-विमर्श तक जाती है। गाड़ियों में चिपके ‘तितली उड़ी बस में चढ़ी सीट ना मिली; ड्राइवर ने कहा आजा मेरे पास लड़की ने कहा हट बदमाश!’ या ‘फूल डाली में होते हैं मगर चमन का नाम होता है; गुनाह लड़की करती है मगर ड्राइवर बदनाम होता है।’….जैसे भौंड़े स्टिकरों में लेखक लैङ्गिक वृत्तों की पहचान के साथ इनमें मौजूद कला-रूपों को भी गहरे तक समझने का आह्वान करते हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से गुज़रने वाली एक सड़क अपनी ‘रङ्गीनी’ के कारण शहर के मजनुँओं की सैरगाह है। यहाँ के पेड़ों पर ‘एबार्शन’ लिखी प्लेटों की एक तसवीर पुस्तक में दी गई है। आख़िर ये प्लेटें क्या सङ्केत करती हैं? इस कॉलेज के बारे में वह कौन-सी पुरुषवादी सोच काम कर रही है, जिसने इस सड़क को इस तसवीर की सबसे नज़दीकी पृष्ठभूमि प्रदान की? एबार्शन करने वालों के द्वारा इस जगह का चुनाव क्यों? ऐसे सवालों के ज़रिये लेखक जन-संस्कृति के अध्ययन के कई अलग तरह के सिरों के सङ्केत करते हैं।

‘सड़क की आँखें, शहर की कहानी’ में दिल्ली की सड़कों, गली-कूचों में फैले शहर के जुगराफ़िया का सांस्कृतिक वितान आप देख सकते हैं। यहाँ सड़कें हैं, उनके किनारे की इमारतें हैं, शहर के बाशिन्दों की ज़िन्दगी है। यह निबन्ध सड़क की ऐसी कहानी है, जिसमें लेखक की आँख से सड़क अपने शहर को देखती है। सड़क के बहाने इतिहास के कई कम चीन्हे सन्दर्भ प्रामाणिक रूप में यहाँ मौजूद हैं, जो पूरी तथ्यात्मकता के साथ पाठक को सभ्यता-विमर्श में उतारते हैं। ‘देखने की राजनीतिः भारत का झण्डा और आस्था की नज़र’ में भारतीय तिरङ्गे झण्डे के राष्ट्र के एक प्रतीक के रूप में आकार लेने की कहानी एक अलग ही विमर्श के साथ मौजूद है। सामान्यतः तिरङ्गे झण्डे के बारे में चर्चा करना राष्ट्र या राष्ट्रवाद के विमर्श में उतरना माना जाता रहा है, पर सदन झा तिरङ्गे की जाँच-पड़ताल में एक राष्ट्र और उसके प्रतीक के बीच के फ़र्क़ को रेखाङ्कित करते हैं। तिरङ्गे पर उनकी दृष्टि एकाङ्गी नहीं हैं, वे उसके पार्श्व की उन तमाम घटनाओं-परिघटनाओं का ऐतिहासिक परिदृश्य खँगालते हैं, जहाँ से झण्डे के देखे जाने में एक राष्ट्र की संकल्पना से जुड़े मूल्यों, मान्यताओं, आस्थाजन्य स्थापनाओं की विविध छवियाँ आकार लेती दिखाई देती हैं। झण्डे के इतिहास की पड़ताल करते हुए लेखक ने संविधान सभा की बहस के बहाने कई अन्तर्विरोधों के साथ बाहर के विरोधों का भी ज़िक्र किया है। गान्धीजी का वह विरोध रोचक सङ्केत पैदा करता है, जिसमें उन्होंने तिरङ्गे से चरख़े के प्रतीक को हटाए जाने पर नाराज़गी जताई थी। बहरहाल, झण्डा संहिता और नेशनल ऑनर एक्ट से होते हुए आप झण्डे का अर्थ, रङ्गों के निहितार्थ, स्वतन्त्रता सङ्ग्राम में भारतीय जानाकाङ्क्षा व ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ झण्डे की भूमिका की पहचान कर सकते हैं।

‘एक नई भाषा का उदय : देवनागरी जगत् में देखना और दिखाना’ निबन्ध में देवनागरी में भाँति-भाँति के साहित्य की छपाई के शुरुआती समय से लेकर अलग-अलग कालखण्डों की ऐतिहासिक पड़ताल करते हुए एक लिपि को देखे जाने की नज़र से देखा गया है। लेख इस बात को रेखाङ्कित करता है कि कैसे उत्तरोत्तर नागरी और फ़ारसी का विवाद नागरी और उर्दू के विवाद और फिर हिन्दी और उर्दू के विवाद के रूप में साम्प्रदायिक और भाषाई रङ्गों के साथ गहराता गया। निबन्ध यह ज़रूरी सवाल उठाता है कि जब साहित्य में लिपि, जिसे देखकर ही पढ़ा जा सकता था या फिर सुनकर ग्राह्य किया जा सकता था और साहित्य का प्रदर्शन और लिपि से भी नाता रहा, तो फिर साहित्य और इसके इतिहास में हम देखने की क्रिया को शामिल क्यों नहीं करते? भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, बालकृष्ण भट्ट, महावीर प्रसाद द्विवेदी जैसे अन्यान्य साहित्यिक विभूतियों के कामों से होते हुए रामचरित मानस वग़ैरह के विज्ञापनों और भूगोल तक के पढ़न-पाठन में देवनागरी जगत् के इतिहास को देखने के भाव से देखना और विश्लेषण करना दिलचस्प है।

आख़िरी दो निबन्धों का ताना-बाना साहित्य के साथ सिनेमाई ज़मीन पर बुना गया है। बात ‘मदर इण्डिया’ के गाँवों से निकलकर सुमित्रानन्दन पन्त की कविताओं से होते हुए ‘परती परिकथा’ और ‘मैला आँचल’ के फणीश्वरनाथ रेणु के रचनाकर्म में गहरे उतरती है। यहाँ प्रेमचन्द, राही मासूम रज़ा, नागार्जुन और अमृतलाल नागर जैसे रचनाकारों के गाँव मौजूद हैं…और इस परिदृश्य में रेणु के आञ्चलिक वर्णनों से गुज़रते हुए लेखक लीक से हटकर कुछ अलग दृश्य-छवियाँ सामने लाते हैं। ‘तीसरी कसम’ के हीरामन और हीराबाई के बीच बैलगाड़ी को विश्लेषणात्मक फ्रेम का हिस्सा नहीं बनाए जाने की आलोचकों की चूक को लेखक गहरे सङ्केतों के साथ पहचानते हैं। रेणु की शिनाख़्त यहाँ प्रचलित आलोचनाओं से अलग हटकर है, जहाँ कि वे समय-केन्द्रित आधुनिकता के दायरे के पार निकलते दिखाई देते हैं। आख़िरी निबन्ध में गोविन्द निहलानी निर्देशित ‘तमस’ के फ्रेम में विभाजन का परिदृश्य है; मनमोहन देसाई निर्देशित ‘छलिया’ के बहाने पीछे छूट गए घर और नए घर के रूमानी सपनों का दृश्य है। ‘लाहौर’, ‘अमर रहे यह प्यार’, ‘गदरः एक प्रेमकथा’ और ‘अर्थ’ जैसी फ़िल्मों के ज़रिये सिनेमाई धरातल पर विभाजन के बदलते दृश्यों को पकड़ने की कोशिश जिज्ञासा जगाती है।    

किताब इस बात को मज़बूती से स्थापित करती है कि समय के बदलते प्रवाह में अलग-अलग कालखण्डों में दृश्यात्मक मानव निर्मितियाँ महज़ दृश्य भर या सामने से दिखने वाले कुछेक सन्देश या सूचनाएँ भर नहीं हैं; बल्कि वे कई और सङ्केत करती हैं…तत्कालीन समाज की संरचना, परम्परा, मानसिकता और मूल्यों का भी आभास कराती हैं, शर्त यह है कि उन्हें आर-पार देखे जाने की एक दृष्टि हमारे पास हो। निष्कर्ष यह कि हर देखे जा रहे दृश्य के पार्श्व में कई और दृश्य हो सकते हैं, जिन्हें देखने के बाद विश्लेषण करने की एक विशिष्ट दृष्टि भारतीय समाज-विज्ञान को विकसित करने की ज़रूरत है। यह गम्भीर और अलग क़िस्म की सभ्यता समीक्षा है, जिसमें वैविध्य है, पर दृश्य-संस्कृति के सुचिन्तित अध्ययन का आह्वान केन्द्रीय भाव है। ऐसी गम्भीर बहस को समर्पित किताब की छपाई में भाषा और वर्तनी की कुछ भूलें अगर न होतीं तो और अच्छा होता। (सन्त समीर)

पुस्तक : देवनागरी जगत् की दृश्य संस्कृति (सभ्यता समीक्षा)

लेखक : सदन झा

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन (रज़ा पुस्तक माला), 1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागञ्ज, नई दिल्ली-110002  मूल्य : 250 रुपये

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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