अनायासधर्म-संस्कृति-समाज

इरफ़ान हबीब का सही-ग़लत

हमारे प्रिय इतिहासकार इरफ़ान हबीब पक्के मार्क्सवादी हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि उनके भीतर भी धर्म (सम्प्रदाय के अर्थ में) का एक चेहरा है, जिसकी ओर उनकी निगाहें रह-रहकर झुकती रहती हैं। वैसे, मार्क्सवाद का अब तक का इतिहास देखें तो यह भी किसी धर्म से कम नहीं है और इसमें भी अफीम वाले भरपूर गुण विद्यमान हैं।

ख़ैर, इरफ़ान साहब के साथ बस एक बार का अपना परोक्ष संवाद रहा है। परोक्ष इसलिए कि आमना-सामना करने की ज़रूरत नहीं थी। एक चैनल पर गान्धी की विचारधारा पर मुझे और उन्हें एक साथ बात रखनी थी। उन्होंने अपनी बात रखी और मैंने अपनी। उनके सामने मेरे जैसे लोग तो बच्चे से भी कमतर साबित होंगे, इसलिए बहस-मुबाहिसा करने की ज़रूरत नहीं थी! बहरहाल, विचारधारा कोई भी हो, अगर वह ज़िद की हद तक व्यक्तित्व पर प्रभावी होने लगे तो उसे मैं एक प्रकार की मानसिक बीमारी मानता हूँ; सो, इतिहास के सवाल पर इरफ़ान साहब पर मेरे कुछ किन्तु-परन्तु हो सकते हैं, पर इनसान वे शानदार हैं। यक़ीनन मैं भी उनकी इज़्ज़त करता ही हूँ।

अब असल बात। मथुरा और काशी पर इरफ़ान साहब ने बयान दिया है। महत्त्वपूर्ण है कि उन्होंने इतिहासकार का चोला पहने एजेण्डाधारियों या कि ओवैसी जैसों की तरह औरङ्गज़ेब को साफ़-पाक साबित करने की कोई कोशिश नहीं की। उन्होंने साफ़ माना है कि औरङ्गज़ेब ने काशी और मथुरा में हिन्दू मन्दिरों को ध्वस्त किया था और यह करके उसने ग़लत किया था। उन्होंने यहाँ तक कहा कि यह साबित करने के लिए किसी सर्वेक्षण या अदालत के आदेश की आवश्यकता नहीं है कि वाराणसी और मथुरा में मन्दिर तोड़े गए थे, क्योंकि इतिहास की किताबों में पहले ही इसका उल्लेख किया गया है।

मज़हबी या ग़ैर मज़हबी विचारधाराओं के परे जाकर इतिहास को इतिहास की तरह ही देखा जाए तो इरफ़ान साहब के यहाँ तक के बयान में कोई समस्या नहीं है। समस्या इसके आगे है। आगे उन्होंने कहा है कि औरङ्गज़ेब ने जो किया, उसे तीन सौ साल बाद दुरुस्त करने का औचित्य नहीं है। इरफ़ान साहब के हिसाब से आख़िर तीन सौ साल से वहाँ पर मस्ज़िद बनी हुई है; औरङ्गज़ेब ने भले ही वहाँ पर मन्दिरों की जगह मस्ज़िद बनवाई हो; लेकिन अब उन्हें तोड़कर वापस से मन्दिर बनाना उचित नहीं है, वह भी तब, जबकि देश में संविधान लागू है। वे कहते हैं कि जो काम औरङ्गज़ेब ने किया, वही काम अब आप करने जा रहे हैं, ऐसे में आप में और औरङ्गज़ेब में क्या अन्तर रह गया?

इस मामले में इरफ़ान साहब से मैं सहमत नहीं हूँ। आख़िर ग़लती दुरुस्त हो सकती हो तो परेशानी क्या? अगर मन्दिर को तोड़कर बनाई गई मस्ज़िद केवल इसलिए बनी रहने दी जाए कि वह तीन सौ साल पहले से बनी हुई है, तो सवाल है कि सदियों तक मस्ज़िद की बुनियाद में मौजूद रही मन्दिर की पृष्ठभूमि पर क्या विस्मृति की धूल चढ़ा दी जाए? क्या सदियों पहले से मस्ज़िद की जगह मौजूद आस्था के मन्दिर की तुलना में एक क़ौम के स्वाभिमान को तोड़ने के लिए नफ़रत के भाव से बनाए गए इस मस्ज़िद के ढाँचे को बड़ा मान लिया जाय? अगर सचमुच कहीं कोई ग़लती है, तो उसे दुरुस्त करने का औचित्य भी आख़िर क्यों नहीं? अतीत की इतनी बड़ी घटना को ‘जो हुआ सो हुआ’ कहकर भुला देना क्या इतना आसान है? मुग़लों द्वारा मन्दिर को तोड़कर मस्ज़िद बना देना, एक इमारत को दूसरी इमारत में बदल देना भर नहीं था। यह दूसरी क़ौम की सम्पत्ति पर क़ब्ज़ा कर लेना या उसे हड़प लेना तो था ही, बुतशिकन के अहङ्कारी भाव से दूसरी क़ौम के सांस्कृतिक और धार्मिक चिह्नों को मिटा देने का अभियान भी था। हो सकता है, कुछ लोगों को ‘रेसकोर्स रोड’ को ‘लोककल्याण मार्ग’ बना देना, ‘किङ्ग्सवे’ को ‘राजपथ’ के अहङ्कार से नीचे उतार कर ‘कर्तव्य पथ’ में बदल देना, ‘इण्डियन पीनल कोड’ को ‘भारतीय न्याय संहिता’ बना देना, फ़ैज़ाबाद को ‘अयोध्या’ का मूल नाम दे देना, ‘मुग़ल गार्डन’ को ‘अमृत उद्यान’ में रूपायित करना, या कि इण्डिया गेट के सर्किल पर किङ्ग जार्ज की जगह नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की प्रतिमा लगा देना अखरे या ग़लत और अनौचित्यपूर्ण लगे, पर मैं समझता हूँ कि जो क़ौम विरासत के गौरव पर ध्यान नहीं दे सकती, वह अपना आत्मसम्मान और स्वाभिमान भी नहीं बचा सकती। अतीत के गौरव पर इतराना अलग बात है, पर एक स्वाभिमानी क़ौम के लिए वह ऊर्जा का स्रोत भी है। मैं मानता हूँ, आत्मनिर्भर भारत की राह आसान बनानी है तो उसे गुलामी से प्रतीकों से बाहर निकालना भी एक ज़रूरी काम है। यह सब भाजपा करे, काँग्रेस करे या कोई और, इससे मुझे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।

यदि आज काशी या मथुरा में दुबारा मन्दिर निर्माण होता है तो इस पर यह कहना सरासर ग़लत है कि ‘जो काम औरङ्गज़ेब ने किया वही काम अब आप करने जा रहे हैं, ऐसे में आप में और औरङ्गज़ेब में क्या अन्तर रह गया?’ अगर यह समझाना पड़े कि औरङ्गज़ेब के काम में और अब के काम में बुनियादी अन्तर है, तो यह समझदारों की समझदारी पर तरस खाने वाली बात होगी। ऐसा नहीं था कि हिन्दुओं ने मथुरा या काशी में किसी मस्ज़िद को तोड़कर मन्दिर बना लिया हो और तब औरङ्गज़ेब ने मन्दिर को तोड़कर दुबारा मस्ज़िद बनाई हो। सच्चाई यह है कि मुग़लों ने भारतीय समाज के गौरवबोध और आत्मसम्मान के भाव को ख़त्म करने की मंशा से काम किया था। ऐसा भी नहीं है कि वे एकतरफ़ा रूप से ग़लत ही थे। अपने हिसाब से अपनी नज़र में वे ठीक ही कर रहे थे। उन्हें सिखाया गया था कि इस्लामबहिः लोगों को दीन की राह पर लाना उनका कर्तव्य है। वे इस्लाम की तत्कालीन व्याख्याओं के हिसाब से जन्नत बनाने और लाने का काम कर रहे थे। अँग्रेज़ों से पहले अँग्रेज़ों की तरह वे भी भारत को सभ्यता का पाठ पढ़ा रहे थे। असल में बात यह भी है कि जिन क़ौमों की अपनी कोई समृद्ध विरासत नहीं होती, वे क़ौमें दूसरी क़ौमों की गौरवपूर्ण विरासत का महत्त्व भी ठीक से नहीं समझ पातीं और अक्सर नफ़रत के वशीभूत होकर उन्हें नष्ट करने का काम करने लगती हैं। अयोध्या में आज अगर राम का मन्दिर बना है तो यह किसी तरह की नफ़रत के वशीभूत नहीं है, बल्कि एक क़ौम की आस्था और संस्कृति के प्रतीक को पुनर्जीवन देने जैसा है। यह कितना ज़रूरी था, इसका एहसास इरफ़ान हबीब की मार्क्सवादी नास्तिक भावनाओं के सहारे सम्भव नहीं है। यह भी याद रखना चाहिए कि मुसलमानों की एक बड़ी सङ्ख्या ने इस विरासत का महत्त्व समझा है और राम मन्दिर को भरपूर समर्थन दिया है; बल्कि, दर्शनार्थी बनकर वे राम मन्दिर तक गए हैं और जा रहे हैं।

बहस लम्बी हो सकती है, पर मैं समझता हूँ कि यह देश बहुभाषी और अनेकानेक मतावलम्बियों वाला है। इस्लाम के अनुयायियों के लिए अपना बड़ा दिल दिखाने का वक़्त है। अन्ततः वे भी यहीं की मिट्टी में जनमे हैं और राम-कृष्ण उनके भी पूर्वज हैं। मान्यताएँ भले बदल ली हों, पर पूर्वजों की विरासत और गौरवबोध साझा हैं। इतिहास पर कितनी भी लीपापोती की जाए, पर मन्दिर विरोधियों को भी पता है कि मुग़लों ने इस देश के एक-दो नहीं हज़ारों मन्दिरों को तोड़ा। बुतशिकन का यह मनोभाव अफ़ग़ानिस्तान जैसे देश में आज भी देखा जा सकता है, जहाँ आएदिन अब तक बौद्धों-हिन्दुओं के बचे हुए चिह्नों को जमींदोज़ किया जाता रहा है। तोड़े गए हज़ारों मन्दिरों में से अगर आस्था के केवल तीन सबसे महत्त्वपूर्ण केन्द्रों को हिन्दू समुदाय माँग रहा है तो समभाव के हामी मुसलमान समुदाय को भी सहयोग का हाथ बढ़ाने के लिए सामने आना चाहिए। आग्रहों-पूर्वग्रहों के वशीभूत क्रिया-प्रतिक्रिया अलग बात है, पर भारत संसार का अकेला ऐसा देश है, जहाँ का बहुसङ्ख्यक समाज अपने ही आस्था के केन्द्रों के लिए दशकों से अदालती लड़ाई लड़ रहा है। थोड़ी देर के लिए कल्पना कीजिए कि यदि इस देश में हिन्दू अल्पसङ्ख्यक होते और मुसलमान बहुसङ्ख्यक; और आस्था के ये केन्द्र मुसलमानों के होते, तो क्या होता? क्या वही न होता, जो ओवैसी का भाई अपने भाषणों में बोलता रहा है? संसार के सारे मुस्लिम राष्ट्रों का अतीत और वर्तमान देखिए और सोचिए के बहुसङ्ख्यक स्थिति में क्या मुसलमान समुदाय अपने आस्था के केन्द्रों के लिए इस तरह से अदालती लड़ाई लड़ने की ज़हमत उठाता? गङ्गा-जमुनी तहज़ीब के हिमायती और मज़हब से पहले मुल्क को आगे रखने के सदाशयी कुछ मुसलमान भले ही ऐसा करने की बात करते, पर सबसे पहले वे ही जिबह किए जाते। जो लोग हिन्दुत्व के उभार से भयभीत हैं और गङ्गा-जमुनी तहज़ीब की दुहाई देते हैं, उन्हें याद रखना चाहिए कि गङ्गा-जमुनी तहज़ीब या अनेकता में एकता की भावना अगर भारत में चरितार्थ हुई है तो वह यहाँ की जड़ ज़मीन या कि पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों की वजह से नहीं, बल्कि यहाँ के रहने वालों की मानसिकता की वजह से है। बहुसङ्ख्यक समुदाय या कहें सनातनी समुदाय की मानसिकता सबके साथ मिलजुल कर रहने की रही है, इसलिए यहाँ गङ्गा-जमुनी संस्कृति ने आकार लिया और दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र सम्भव हुआ है। यह कटु सत्य है कि इस देश में मुसलमान बहुसङ्ख्यक होते तो गङ्गा-जमुनी संस्कृति के हिमायती चन्द मुसलमानों की एक न चलती और यह देश भी अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान जैसा बनता दिखाई देता।

अलबत्ता, विरासत के पुनर्जीवन के इस अभियान के दौरान बहुसङ्ख्यक हिन्दुओं को चाहिए कि वे भी मुसलमानों को आश्वस्त करें कि अगर किसी दिन यह देश हिन्दू या सनातन राष्ट्र जैसा कुछ घोषित हो जाए तो भी मुसलमानों की सुरक्षा को यहाँ कोई ख़तरा नहीं होगा, बल्कि एक सनातनी राष्ट्र में वे मुस्लिम राष्ट्रों से कहीं ज़्यादा सुकून भरी ज़िन्दगी जी सकेंगे, क्योंकि सनातन की संस्कृति ही यही है कि वह ख़ुद से पहले दूसरों का ख़याल करती है। भारत की संस्कृति ही है कि यहाँ अपने मुँह में रोटी का निवाला डालने से पहले आस-पड़ोस का ध्यान रखा जाता रहा है कि कहीं कोई भूखा तो नहीं। यह ‘अतिथि देवो भव’ की मान्यता का देश है। मुसलमान हिन्दुओं के मन्दिरों में भले न जाएँ, पर हिन्दू मुसलमानों के मज़ारों, दरगाहों पर भी पूरी श्रद्धा से जाते रहे हैं। मुझे मेरे गाँव की बातें याद हैं, जबकि पास के छोटे-से शहर जलालपुर से कोई ग़रीब मुसलमान हज पर जाना चाहता था, तो मदद माँगने हमारे गाँव तक चला आता था। लोग दिल खोलकर सहयोग करते थे। जाने कितनों की हज यात्रा हिन्दुओं के दिए दान के सहारे सम्भव हुई है। आज अगर साम्प्रदायिक मनोभाव वाली छोटी-मोटी अनपेक्षित प्रतिक्रियाएँ हिन्दुओं की ओर से भी यदा-कदा दिखाई पड़ती हैं, तो समझना चाहिए कि यह स्थिति रह-रहकर पैदा कर दिए जाने वाले असुरक्षाबोध की वजह से बनी है। सच्चाई यही है कि हिन्दुत्व के मूल स्वभाव में साम्प्रदायिक अभियान चलाने जैसा कुछ नहीं है। सनातन संस्कृति की हल्की-फुल्की समझ रखने वाला भी समझ सकता है कि भारत का हिन्दू समुदाय जिस दिन ख़ुद को सुरक्षित महसूस करने लगेगा, उस दिन आरएसएस और बजरङ्ग दल, जिन्हें हम मुसलमानों की प्रतिक्रिया में पैदा हुए सङ्गठन मानते हैं, स्वेच्छा से अपना अस्तित्व समाप्त कर लेंगे या पूरी तरह से दूसरे संरचनात्मक कामों में संलग्न हो जाएँगे। (सन्त समीर)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *