अपनी हिन्दी

माँ जैसी भाषा

मातृभाषा के साथ यह अजब रक्त सम्बन्ध है, सगापन है कि दूसरी किसी भाषा के साथ अपनेपन की तमाम कोशिशें भी मातृभाषा का स्थानापन्न पैदा नहीं कर सकतीं। औपनिवेशिक या और किन्हीं वजहों से जिन देशों ने परायी भाषा का दामन थामा, उनका हाल हम देख ही सकते हैं कि वे आज कहाँ हैं।

आदमी और जानवर में फ़र्क़ क्या है?

यह सबसे आसान सवालों में से एक है, क्योंकि जवाब के तौर पर हर किसी को रटा हुआ है कि मनुष्य एक विचारवान प्राणी है, इसलिए जानवर से अलग है, विकास की सीढ़ी पर सबसे ऊपर है। विचार सरणी सिर्फ़ मनुष्य के ही मन के तल से होकर गुज़रती है, जानवर के नहीं। लेकिन तब सवाल यह भी सिर उठाता है कि मनुष्य के मन के तल से होकर गुज़रने वाली इस विचार सरणी का उत्स क्या है? ज़ाहिर है, इसका जवाब इतना आसान नहीं कि हर कोई तपाक से बोल दे। इसका जवाब विज्ञान और दर्शन की ओर से आता है कि मनुष्य के मन में उमड़ने-घुमड़ने वाले विचारों का उत्स है भाषा। विज्ञान कहता है कि नम्बर पहले भाषा का है, फिर विचार का। भाषा न हो तो विचार सम्भव नहीं। मन की भाव-तरङ्गों को विचारों के आकार में ढलने के लिए शब्दों के सङ्केत के बिना काम नहीं चल सकता। इस तरह, भाषा परम आवश्यक है। भाषा बीच से हटा ली जाए तो आदमी का सोचना-विचारना भी थम जाएगा। मनुष्य के मन में भाषा ने ही विचारों के पङ्ख उगाए हैं, इसलिए भाषा ही मनुष्यता की समूची यात्रा में सबसे ज़रूरी उपादान है। भाषा न होती तो विचार पैदा ही न होते और विचार न पैदा होते तो ये महल-दुमहले भी न होते; न होती साहित्य-कला की दुनिया, न ही नज़र आता हर दिन प्रगति की नई कहानी लिखता विज्ञान-तकनीकी का यह चमकता-दमकता संसार। सभ्यता की पूरी कहानी भाषा की ज़बानी रची और कही जानी सम्भव हुई है।

लेकिन भाषा का भी कोई एक अकेला चेहरा नहीं है। जितने देश उतनी भाषाएँ, बल्कि एक देश के भीतर कई-कई भाषाएँ। यहाँ फिर एक सवाल सिर उठाता है कि क्या हर भाषा हर किसी के लिए समान उपयोगी है। जवाब मिलता है कि सारी भाषाएँ सबके लिए एक-सी काम की नहीं हो सकतीं। किसी व्यक्ति के मन के विचार सबसे तेज चलते हुए सबसे मौलिक परिणाम अगर दे सकते हैं तो उस भाषा में, जो उसके समाज की, गाँव-जवार की मूल भाषा है, जिसे उसने जन्म लेने के साथ अपनी माँ की ज़ुबानी सीखी है। इसे ही हम मातृभाषा कहते हैं। दुनिया के सारे समाजों ने अपने वजूद की कहानी अपनी मातृभाषा में ही लिखी है। भले आदमी कितनी ही भाषाएँ सीख ले, पर वह सपने मातृभाषा में ही देख सकता है। मातृभाषा इसीलिए महत्त्वपूर्ण है कि वह हमारे ख़ून में बस चुकी होती है। रक्त के परमाणु उससे आप्लावित होते हैं। इस बात को महज़ जुमला भर न समझिए। यह विज्ञानसम्मत बात है। ऐसे प्रयोग इफ़रात में हुए हैं कि गर्भवती स्त्री जो टीवी सीरियल वग़ैरह देखती है, उसका स्पष्ट प्रभाव गर्भस्थ शिशु पर पड़ता है और जन्म लेने के बाद वैसे सीरियलों वैसी आवाज़ों का सामना होने पर वह महसूस करता है कि उसने उन्हें सुना या देखा है। गर्भस्थ अभिमन्यु द्वारा चक्रव्यूह भेदने की कला के रहस्य को सीख लेने की बात को हम पौराणिक मिथक मानकर जाने दे सकते हैं, पर आधुनिक विज्ञान के प्रयोग यह तो प्रमाणित करने ही लगे हैं कि सीखने की क्रिया माँ के गर्भ से शुरू हो जाती है। एक प्रयोग के तहत दो ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने गर्भवती महिलाओं को कुछ सङ्गीत सुनाने के बाद उनके गर्भस्थ शिशु पर पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन किया। पता चला कि नवजात शिशु उसकी माँ के गर्भ धारण के पाँचवें माह में सुनाए गए सङ्गीत को समझता है। अर्थ यह कि पाँच महीने के भ्रूण की सुनने व सीखने की संवेदनाएँ एकदम सोई हुई नहीं होतीं, माँ की बोल-बात का असर उस पर होता है। पैदा होने के बाद कुछ ही समय में बच्चा कई तरह की ध्वनियों को पहचानने लगता है। उसे माँ की आवाज़ की विशेष पहचान होती है। हो भी क्यों न! आख़िर गर्भ में सोते-जागते वह माँ की नानाविध स्वरलहरियों से ही तरङ्गायित होता रहा था। मातृभाषा यों ही नहीं सपने की भाषा बन जाती। जन्म से पहले से लेकर जन्म के बाद तक का इसका नाता है।

मातृभाषा के साथ यह अजब रक्त सम्बन्ध है, सगापन है कि दूसरी किसी भाषा के साथ अपनेपन की तमाम कोशिशें भी मातृभाषा का स्थानापन्न पैदा नहीं कर सकतीं। औपनिवेशिक या और किन्हीं वजहों से जिन देशों ने परायी भाषा का दामन थामा, उनका हाल हम देख ही सकते हैं कि वे आज कहाँ हैं। दुनिया के कुछ ग़रीब देश हैं—कोंगो, इथोपिया, नाइजर, चाड, मोजम्बिक, बुर्किना फासो, माली, कम्बोडिया, मेडागास्कर, नाइजीरिया, रवाण्डा आदि-आदि। इन देशों ने मानसिक गुलामी के चलते अपनी जनभाषा को छोड़कर राजभाषा के रूप में औपनिवेशिक शासकों की भाषा को स्वीकृति दे रखी है। नतीजे के रूप में इनकी वर्तमान हालत हम देख-समझ सकते हैं। इसके उलट दुनिया के अमीर देशों पर निगाह दौड़ाइए—अमरीका, जापान, डेनमार्क, स्विट्ज़रलैण्ड, जर्मनी, स्वीडन, ऑस्ट्रिया, फ्रांस, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, इटली, कनाडा, इज़रायल, स्पेन, पुर्तगाल, ग्रीस, दक्षिण कोरिया, नीदरलैंड, फिनलैंड आदि-आदि। इन सबने राजभाषा के रूप में उन्हीं भाषाओं को स्वीकृति दे रखी है, जो इनकी जनभाषाएँ हैं, मातृभाषाएँ हैं। मातृभाषा का स्वाभिमान देश के लिए कुछ कर गुज़रने का भी जज़्बा जगाता है।

भारत का हाल अजीब है। कहने को राजभाषा के रूप में जनभाषा या कहें अधिसङ्ख्य आबादी की मातृभाषा हिन्दी को स्वीकृति मिली हुई है, पर राजकाज के काम की दृष्टि से हिन्दी आज भी हाशिये पर है। कालक्रम में जापान जैसे बेहद छोटे-से देश के सङ्ग-साथ अपनी यात्रा शुरू करने वाला भारत आज़ादी के बाद सबसे बड़ी ग़लती यही कर बैठा कि इसने भी अपनी भाषा को उचित स्थान देने के बजाय परायी भाषा पर भरोसा करना ज़रूरी समझा और नतीजा हुआ कि जापान कहाँ और भारत कहाँ! अलबत्ता, भारत का नाम रौशन करने वाली जिन प्रतिभाओं के मौलिक कामों को हम सलाम करते हैं, वे ज़रूर परायी भाषा में पली-बढ़ी नहीं हैं। साहित्य में प्रेमचन्द हों या विज्ञान में डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम, मातृभाषा की बिना पर बने लोग हैं ये। तमिल में प्राथमिक शिक्षा हासिल करने वाले डॉ. कलाम ने स्पष्ट कहा था—“मैं सफल वैज्ञानिक इसीलिए बन सका, क्योंकि मैंने प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में प्राप्त की थी। विज्ञान और गणित की शिक्षा मैंने अपनी मातृभाषा में ली थी।”

हमारे जो बड़े और कामयाब व्यवसायी परिवार दिखाई देते हैं, उनके जिन मुखियाओं ने कामयाब व्यावसायिक साम्राज्यों की नींव रखी, उन सबमें ज़्यादातर ने ही शुरुआती शिक्षा अपनी मातृभाषा में पाई थी। उनके मस्तिष्क की तरङ्गों को दूर तक सोचने-विचारने की शक्ति उनकी अपनी मातृभाषा से मिली थी। अम्बानी परिवार, नुस्ली वाडिया परिवार, बिरला परिवार जैसे 60-70 व्यावसायिक परिवारों के नाम लिए जा सकते हैं। कोई गुजराती, कोई मराठी, कोई हिन्दी, कोई पञ्जाबी-गुरुमुखी, कोई तमिल, कोई तेलगू तो कोई कन्नड़ में पढ़ा है। डॉ. कलाम के अलावा भी अन्य चोटी के कई वैज्ञानिक मातृभाषा में पढ़कर आगे बढ़े। सुपर कम्प्यूटर के आविष्कारक विजय भाटकर मराठी के साधारण स्कूल से पढ़कर निकले। ‘भारतीय अन्तरिक्ष अनुसन्धान सङ्गठन’ (इसरो) के अध्यक्ष रहे प्रो. एम.जी.के. मैनन 12वीं तक मलयालम स्कूल में पढ़े। हरित क्रान्ति के जनक प्रो. स्वामीनाथन ने अपनी मातृभाषा के तमिल स्कूल में पढ़ते हुए मानसिक उर्वरता पाई। सच तो यह है कि मातृभाषा से वञ्चित किए जा चुके कानवेण्ट से पढ़कर निकले ज़्यादातर बच्चे अब साइण्टिस्ट नहीं, बल्कि साइण्टिफिक मैनेजर बन रहे हैं। वास्तविकता यही है कि परायी भाषा में आप स्वाभाविक रूप से सोच नहीं सकते हैं, इसलिए सहज रूप से मौलिक काम भी नहीं कर सकते हैं। सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिक, सर्वश्रेष्ठ व्यापारी, सर्वश्रेष्ठ लेखक मातृभाषा में से ही निकल सकते हैं। विद्वत्ता किसी भी विधा की हो, मातृभाषा के आँगन में ही सहज रूप से पलती और बढ़ती है। नेता तक का काम मातृभाषा के बग़ैर नहीं चलता, भले ही संसद के भीतर पहुँचते ही वह अँग्रेज़ी की राजनीति शुरू कर दे।

अमेरिका में बुद्धिमत्ता मापने के बहुत तरह के टेस्ट होते रहे हैं। ऐसे में कई बार देखा गया कि अश्वेत बच्चे इनमें अक्सर पीछे रह जाते हैं। इस पर ध्यान गया तो वहाँ के समाजशास्त्र विभाग की ओर से रिसर्च किया गया। निष्कर्ष यह निकला कि जब भी किसी आईक्यू टेस्ट में भाषा केन्द्र में आती है तो वह उसी वर्ग को फ़ायदा पहुँचाती है, जो उस भाषा को ठीक से जान रहा होता है, जिसकी वह मातृभाषा है। मसलन, गणित अगर हो तो उन बच्चों को ज़्यादा फ़ायदा पहुँचाएगा, जो अमूर्त चिन्तन करने की क्षमता ज़्यादा रखते हैं। उदाहरण के लिए सभी बच्चों से पूछा जाए कि चिड़िया क्या बोल रही है तो आदिवासी बच्चा सबसे पहले बता देगा, जबकि शहर का बच्चा नहीं बता पाएगा, हालाँकि बुद्धिमत्ता तो उसमें भी है ही।

वास्तव में परेशानी वहीं से शुरू हो जाती है, जबकि हमारे विद्यालय मातृभाषा के ऊपर पढ़ाई-लिखाई की एक दूसरी भाषा थोप देते हैं। बच्चे की जिह्वा का अभ्यास स्वाभाविक रूप से मातृभाषा के हिसाब से होता है। ऐसे में, जब हम घर में एक भाषा बोलते हैं और विद्यालय में किसी अन्य भाषा में पढ़ाई करनी पड़ती है, तो सीखने की क्रिया सहज नहीं रह जाती और मन के तल पर एक उबाऊ सङ्घर्ष शुरू हो जाता है। तमाम छात्र इसी वजह से कुशाग्र बुद्धि होते हुए भी पढ़ाई में पिछड़ने लगते हैं। गाँव के बच्चों को शहरी रङ्ग-ढङ्ग की पढ़ाई इसीलिए आसानी से रास नहीं आती। उन्हें अपनी यात्रा अपनी मातृभाषा के दायरे से बहुत दूर जाकर शुरू करनी पड़ती है। संयुक्त राष्ट्र सङ्घ की एक रिपोर्ट है कि दुनिया में ऐसे बच्चे, जिनके घर की भाषा कुछ और है और स्कूलों में उन्हें किसी और भाषा में पढ़ाया जाता है, वे पढ़ाई में ठीक दिलचस्पी नहीं दिखा पाते। ड्रॉपआउट बच्चों में आधी सङ्ख्या ऐसे ही बच्चों की होती है, जिनके घर की भाषा और स्कूल की भाषा में अन्तर है। बात यह है कि हम जिस सांस्कृतिक परिवेश में रहते हैं, उसी के हिसाब से हमारे सीखने की क्रिया सहज होती है। हमारी सबसे बड़ी परेशानी यही है कि रहते हैं हम एक अलग तरह के सांस्कृतिक परिवेश में, जिसमें हमारे सीखने का ज़रिया हमारी मातृभाषा होती है, पर स्कूल में पहुँचने पर उससे बिलकुल अलग ढाँचे की भाषा को हमें सीखने का माध्यम बनाना पड़ता है। स्पष्टतः जीवन के बेहतरीन रचनात्मक परिणाम उसी भाषा के ज़रिये हमें मिल सकते हैं, जिस भाषा में हम सोते-जागते हैं, जीवनयापन करते हैं।

मातृभाषा का जीवन में कहाँ-कहाँ और कैसा उपयोग रहेगा, यह इस बात पर निर्भर है कि हम अपनी मातृभाषा का कहाँ-कहाँ और कैसा उपयोग करना चाहते हैं। दुर्भाग्य ही है कि आज हम उस दौर से गुज़र रहे हैं, जब यह पूछा जा रहा है कि जीवन में मातृभाषा की उपयोगिता कितनी है। भारत का समाज भाषा के सङ्क्रामक दौर से शायद सबसे ज़्यादा तेज़ी से गुज़र रहा है। अन्यथा यह सवाल तब बेमानी ही होना चाहिए था, जबकि यह स्पष्ट है कि मातृभाषा ही हमारे मनन, चिन्तन और अनुभूति का असली साधन है। आज़ादी के पहले अँग्रेज़ों ने भारत के साथ भाषा का जो दुर्भाग्य रचना शुरू किया था, उसका दंश आज हम कहीं ज़्यादा तीव्रता से झेल रहे हैं। श्रीमती एनी बेसेण्ट ने उन्हीं परिस्थितियों में कहा था—“मातृभाषा द्वारा शिक्षा न देने की स्थिति ने निश्चित रूप से भारत देश को विश्व के सभी देशों में अति अज्ञानी बना दिया है! इसी कारण देश में उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों की सङ्ख्या न्यूनतम तथा अशिक्षितों की सङ्ख्या सबसे अधिक है!”

स्वतन्त्रता सङ्ग्राम के दौरान सन् 1942 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के दीक्षान्त समारोह में महात्मा गांधी मातृभाषा की इसी अहमियत की शिनाख़्त करते हुए कह रहे थे—‘‘जापान आज अमरीका और इङ्ग्लैण्ड से लोहा ले रहा है। लोग इसके लिए उसकी तारीफ़ करते हैं। मैं नहीं करता। फिर भी जापान की कुछ बातें सचमुच हमारे लिए अनुकरणीय हैं। जापान के लड़के और लड़कियों ने यूरोपवालों से जो कुछ पाया है, सो अपनी मातृभाषा जापानी के ज़रिये ही पाया है, अँग्रेज़ी के ज़रिये नहीं। जापानी लिपि बहुत कठिन है, फिर भी जापानियों ने रोमन लिपि को कभी नहीं अपनाया।’’

गांधी ने जिस गहराई और स्पष्टता के साथ मातृभाषा की अहमियत को उस दौर में महसूस किया था, क्या वैसा कुछ आज हम महसूस करते हैं? महसूस करें तो शायद देश की कहानी बदल जाए। हमें शायद अपने देश की भाषाओं पर भरोसा ही नहीं हो पाता कि इनमें कुछ बड़ी बातें भी की जा सकती हैं। बड़ी बातों, बड़ी पढ़ाई के लिए औपनिवेशिक भाषा का मुँह देखने के आदी हो चुके हैं हम। हम याद नहीं कर पाते कि जब इज़रायल जैसे छोटे-से देश ने विलुप्त होती अपनी मातृभाषा हिब्रू को पुनर्जीवित कर लिया और उसमें विज्ञान-तकनीकी तक के काम करते हुए एक-दो नहीं, पूरे 16 नोबेल पुरस्कार हासिल कर लिए तो भला भारत की भाषाओं में भारत के लिए ज़रूरी पढ़ाई क्यों नहीं हो सकती। हम तो अपनी बाँग्ला तक की क्षमता को नहीं समझ पाते, जिसे मातृभाषा के रूप में सहेजने की ख़ातिर आज के बाँग्ला देश या कहें तब के पूर्वी पाकिस्तान ने पाकिस्तान के साथ आर-पार का संघर्ष किया। उसी संघर्ष का नतीजा है कि आज  दुनिया 21 फरवरी को मातृभाषा दिवस के रूप में मनाती है। मातृभाषा के प्रति इस अनुराग का भी असर है ही कि छोटा-सा बाँग्ला देश अपने आका रहे पाकिस्तान से मीलों आगे पहुँच चुका है।

वास्तव में मातृभाषा के मामले में हमें बस हीनभावना से बाहर आने की ज़रूरत भर है। हम संसार की समृद्धतम भाषाओं वाले देश हैं। सैकड़ों भाषाओं की गिनती से बाहर देखें तो भी 22 मान्य भाषाओं की  थाती बहुत बड़ी है। सबके अपने समृद्ध शब्द भण्डार हैं। इन सबके पीछे संस्कृत की महान् टकसाल हमेशा साथ निभाने को तैयार है। राजनीति को थोड़ी देर के लिए किनारे रख दें तो हिन्दी इन सबको जोड़कर रखने में सक्षम है। शर्मनाक है कि गुलामी की भाषा को आज़ादी के बाद आज भी भारत ढो रहा है। डेनमार्क जैसा छोटा-सा देश मेडिकल से लेकर विज्ञान तक की पढ़ाई डेनिस में करा सकता है, तो हम क्यों नहीं? इञ्जीनियरिङ्ग, मेडिकल, मैनेजमेण्ट, चार्टर्ड अकाउण्टेंसी वग़ैरह की पढ़ाई हिन्दी में क्यों नहीं? वास्तव में विज्ञान, गणित, इतिहास, भूगोल, दर्शन, समाजशास्त्र, अर्थशास्त्र जैसे सभी विषयों की पढ़ाई हमारी मातृभाषा में सम्भव है। हम बहुत कुछ कर सकते हैं। बात बस इतनी है कि औपनिवेशिक गुलामी हमारे मनों से अभी निकली नहीं है। देश के लोगों में अपनी मातृभाषा पर स्वाभिमान और गौरव करने का भाव जगाने की ज़रूरत है। हम हिन्दुस्तानी अँग्रेज़ी के चक्कर में फँसकर मातृभाषा से दूर होते चले गए और ‘कल्चरल मङ्की’ बनकर रह गए। हमें समझना पड़ेगा कि हमने मातृभाषाओं का स्थानापन्न अँग्रेज़ी को बना रखा है। हमारी प्रतियोगी परीक्षाएँ बिना अँग्रेज़ी के पूरी नहीं होतीं। हम नहीं समझ पाते कि अँग्रेज़ी के सहारे विदेशी सम्पर्क महज़ कुछ देशों में काम करता है। दुनिया के अन्य अधिकतर देशों में जाना पड़े तो वहाँ की भाषाएँ सीखनी ही पड़ती हैं। बेहतर है मातृभाषा में अपनी पकड़ मज़बूत करें। यह होगा तो अन्य भाषाएँ सीखनी ज़्यादा आसान हो जाएँगी।

मातृभाषा को मजबूरी नहीं, ज़रूरी मानने की ज़रूरत है। जब बच्चा मातृभाषा में अपनी पैठ मज़बूत करता है तो वास्तव में वह सिर्फ़ अपना ही नहीं, राष्ट्र के बौद्धिक विकास में भी योगदान करता है। अपनी भाषा को अपनाने के साथ यह सहज रूप से होता है कि अपनी संस्कृति भी सङ्ग-साथ चलने लगती है। हमें समझना होगा कि मातृभाषा का उपयोग केवल बोलने तक, सम्प्रेषण तक, या कि कुछ रचनात्मक कार्यों तक ही नहीं, बल्कि पूरे आर्थिक परिक्षेत्र तक विस्तारित है। भाषाएँ कई सीखें, अच्छी बात है, क्योंकि इससे ज्ञान के विविध आयामों का परिचय मिलता है, पर मातृभाषा का कोई विकल्प नहीं। भारत को स्वभिमान, एकता, अखण्डता बनाए रखते हुए प्रगति-पथ पर आगे बढ़ना है तो मातृभाषा को सम्मान देना ही होगा। (‘अहा ज़िन्दगी’ फरवरी, 2023 अङ्क में प्रकाशित) —सन्त समीर

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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