अहिंसक गान्धी की शक्तिपूजा
महात्मा गान्धी का नाम आते ही अहिंसा शब्द बरबस याद आ जाता है; और, इसी के साथ अहिंसा के पक्ष-विपक्ष भी याद आते हैं। एक पक्ष है कि गान्धी की अहिंसा के रास्ते ही देश और दुनिया की बुनियादी समस्याओं का समाधान मिल सकता है। दूसरा पक्ष है कि गान्धी की अहिंसा से देश-समाज का कोई भला नहीं होने वाला, यह राष्ट्र को कायर बनाने वाला है। दिक़्क़त यह है कि पक्ष-विपक्ष दोनों पर निगाह दौड़ाएँ तो गान्धी की अहिंसा पर एकपक्षीय ज्ञान ही उभरता दिखाई देता है। एक बड़ा सवाल है कि गान्धी की अहिंसा की जिस स्थापना ने आज़ादी की लड़ाई में पूरे देश को एक साथ खड़ा कर देने का जादुई कारनामा कर दिखाया, आख़िर आज़ादी के बाद ऐसा क्या हुआ कि उसी स्थापना पर आयोजित हर विमर्श बिना शङ्का-कुशङ्का, किन्तु-परन्तु के अब पूरा नहीं होता? ज़रा गहरे उतरने की कोशिश करें तो इस सवाल के जवाब में यह ज़रूरी सवाल उभरता है कि गान्धी के नाम पर बने संस्थानों से लेकर तमाम निकायों के हमारे सत्ता-प्रतिष्ठानों ने फूल-मालाएँ चढ़ाने के अलावा सचमुच क्या गान्धी की अहिंसा की राह का कोई काम शिद्दत से किया? सोचिए तो इस सवाल के जवाब से यह बात साफ़ होने लगती है कि आज़ादी के समय में बहादुरी की, शक्ति की प्रतीक बनी अहिंसा आज़ादी के बाद धीरे-धीरे क्यों कायरता का पर्याय बनती गई।
गान्धी की अहिंसा की स्थापना को समझने में एक बुनियादी चूक हम लगातार करते रहे हैं, जिसे गहराई से समझने की ज़रूरत है। किसी भी परिस्थिति में हथियार या हाथ न उठाने को हमने अहिंसा का रूढ़ पर्याय मान लिया है और यही हमारी सबसे बड़ी भूल है। याद रखने की बात है कि महात्मा गान्धी ने अपनी छोटी से छोटी स्थापना के सूत्र भी भारतीय सभ्यता-संस्कृति की विरासत से गुज़र कर तलाशे हैं। उन्होंने आज़ादी की लड़ाई को धार देने की राह की तलाश में पूरे हिन्दुस्तान की कठिन यात्रा की थी। दबे-कुचले, शोषित-पीड़ित, छोटे-बड़े हर किसी के हृदय में उतरने की कोशिश की थी। गान्धी की यह भारत को समझने की, भारत की खोज की आयोजना थी। इसी के परिणामस्वरूप उन्होंने स्वदेशी, गोरक्षा, दलितोद्धार, नशाबन्दी जैसे कार्यक्रमों की ज़रूरत पहचानी थी। इन्हें चलाने के लिए और जनमानस को आज़ादी के महान् यज्ञ से जोड़ने के लिए भारतीयता की विरासत से ही उन्हें सत्य और अहिंसा के अमोघ अस्त्र मिले थे। गान्धी की अहिंसा का मर्म समझने के लिए 4 अगस्त, 1920 को ‘यङ्ग इण्डिया’ में लिखी उनकी यह पङ्क्ति ही पर्याप्त है—‘‘समूची प्रजाति के नपुंसक हो जाने का ख़तरा उठाने के मुक़ाबले मैं हिंसा को हज़ार गुना बेहतर मानता हूँ।’’
गान्धी की अहिंसा वैसी नहीं है, जैसी कि आमतौर पर लोग समझते हैं। यह कोई आयातित या नक़ली स्थापना नहीं है, बल्कि सौ टका उस प्राचीन भारतीयता से निकली है, जिसके गर्भ से रामराज्य, विश्वगुरु, सर्वसमावेशी समाज और हर तरह से आत्मरक्षा में समर्थ भारत की तसवीर बनती है। गान्धी भारत के लोगों को भारत की वह प्राचीन शक्ति याद दिलाते हैं, जिसे भूलने के नाते गुलामी के दिन देखने पड़े। गान्धी यह बात अच्छी तरह जानते थे कि हर भारतीय मूल्य के मूल में एक मज़बूत आधार है। यहाँ शब्द और वर्ण तक बिना आधार के नहीं हैं। ‘अहिंसा’ शब्द को भी ध्यान से देखें तो इसका अर्थ पूरी आभा से प्रकट होने लगता है। भीतर हिंसा का बल रखते हुए भी जब हिंसा को नकार दिया जाय, तो अ-हिंसा। हिंसा के आगे नकारात्मक ‘अ’ लगाकर ‘अहिंसा’ बनाया गया है। अहिंसा के गर्भ में हिंसा की क्षमता भरी हुई है, पर समझदारी यह कि हिंसा न की जाय। हिंसा की शक्ति रखते हुए हिंसा न करना मनुष्य धर्म है। हिंसा पर उतारू रहना पशुत्व है। गान्धी के एक पक्ष को देखते रहने के आदी लोगों को गान्धी को सर्वाङ्ग रूप में देखना चाहिए। सन् 1918 के एक पत्र में गान्धीजी लिखते हैं—‘‘…एक राष्ट्र की हैसियत से हम मारने की सच्ची शक्ति खो बैठे हैं। यह तो स्पष्ट है कि जो मारने की शक्ति गँवा बैठा हो, वह अहिंसा का पालन नहीं कर सकता। अहिंसा में ऊँचे प्रकार का त्याग समाया हुआ है। जो जनता कमज़ोर और कायर हो गई हो, वह त्याग का आचरण नहीं कर सकती। ठीक वैसे ही, जैसे चूहे के लिए यह नहीं कहा जा सकता कि उसने बिल्ली को मारने की शक्ति का त्याग किया है। यह बात भयङ्कर भले लगे, पर बिलकुल सच है कि हमें अनवरत और सायास विचारपूर्वक इस शक्ति को पुनः प्राप्त करना होगा और उसे प्राप्त करने के बाद ही हम स्वयं इस शक्ति का सतत त्याग करके हिंसा की यातनाओं से दुनिया को मुक्त कर सकेंगे।’’ गान्धी के इस कथन को समझने के बाद बताने की ज़रूरत नहीं रह जाती कि आज़ादी के बाद भारत को किस तरह से अहिंसा की साधना करने की ज़रूरत थी।
गान्धी अहिंसा की साधना में और आगे की बात कहते हैं—‘‘सच तो यह है कि हम लड़ाई की शक्ति खो बैठे हैं। हममें अपनी स्त्रियों की रक्षा करने तक की शक्ति नहीं है। धर्म के नाम पर हम कर्म (कर्तव्य) को भूल गए हैं।’’ गान्धी जब सैनिक भर्ती के काम में लगे तो उसके पीछे का कारण उन्होंने बताया—‘‘लोगों को लगता है कि मेरे इस (फ़ौजी भर्ती) काम से अहिंसा के ध्येय की मेरी उपासना को हानि पहुँचेगी। मैंने तो इसी ध्येय की उपासना के लिए यह काम हाथ में लिया है। … शरीर बल की व्यर्थता हमारी समझ में आए, उस शक्ति का हम त्याग करें, उससे पहले हममें मारने की पूरी शक्ति होनी चाहिए।’’ 11 अगस्त, 1920 को ‘यङ्ग इण्डिया’ में उनका लिखा यह भी ध्यान देने योग्य है—‘‘मेरा पक्का विश्वास है कि जहाँ केवल कायरता और हिंसा में से एक का चुनाव करना है, वहाँ मैं हिंसा को चुनूँगा….कायर की भाँति, अपने अपमान का विवश साक्षी बनने की अपेक्षा भारत के लिए अपने सम्मान के रक्षार्थ शस्त्र उठा लेना मैं ज़्यादा अच्छा समझूँगा।…लेकिन मेरा विश्वास है कि अहिंसा हिंसा से अत्यधिक श्रेष्ठ है, दण्ड की अपेक्षा क्षमा अधिक मानवोचित है। क्षमा योद्धा का आभूषण है….लेकिन संयम को क्षमा की संज्ञा तभी दी जा सकती है, जब संयमकर्ता में दण्ड देने की शक्ति हो; बेबस प्राणी द्वारा दी गई क्षमा का तो कोई अर्थ ही नहीं है…’’ आगे चलकर 8 मई, 1941 को वे लिखते हैं—‘‘मेरी अहिंसा ऐसे लोगों के अस्तित्व को स्वीकारती है जो अहिंसा का बरताव नहीं कर सकते या नहीं करेंगे। अत: शस्त्र धारण करके उसका कारगर इस्तेमाल करेंगे। मैं हज़ारवीं बार यह दोहराना चाहूँगा कि अहिंसा दुर्बल का शस्त्र नहीं है, बल्कि सर्वाधिक बलवान का शस्त्र है।’’
स्पष्ट है कि गान्धी की अहिंसा वीरों का आभूषण है, कायरों का नहीं। गान्धी की भाषा में कायर कभी अहिंसक नहीं हो सकता। कुछ वैसे ही जैसे कि किसी मच्छर-जैसी काया वाले व्यक्ति को कोई पहलवान थप्पड़ मार दे और मच्छर-जैसी काया वाला व्यक्ति कहे कि जाओ तुमको माफ़ किया तो इसका कोई अर्थ नहीं; लेकिन अगर किसी पहलवान को कोई कृशकाय व्यक्ति थप्पड़ मार दे और पहलवान कहे कि जाओ तुमको माफ़ किया तो बात समझ में आती है। क्षमा के लिए क्षमा का बल ज़रूरी है। त्याग तभी सम्भव है, जब त्याग के लायक़ पास में कुछ हो। इसी तरह अहिंसा, हिंसा की पूरी शक्ति होते हुए भी हिंसा न करने की समझदारी है। कम लोग ध्यान दे पाते हैं कि गान्धी ने कभी कहा था—‘‘प्राचीन हिन्दुस्तान के लोग युद्धकला जानते थे—उनमें हिंसा करने की शक्ति थी—किन्तु उन्होंने इस प्रवृत्ति को यथाशक्ति अधिक से अधिक कम किया और दुनिया को सिखाया कि मारने से न मारना ज़्यादा अच्छा है। आज तो मैं देखता हूँ कि हर एक आदमी की इच्छा मारने की तो है, परन्तु बहुत से लोग वैसा करने से डरते हैं अथवा उसकी शक्ति ही नहीं रखते। परिणाम कुछ भी हो, किन्तु मेरा निश्चित विचार है कि मारने की शक्ति तो हिन्दुस्तान को फिर से प्राप्त कर ही लेनी चाहिए।…’’
अहिंसा के पुजारी गान्धी को शक्तिपूजा और वीरोपासना आती है। उनकी वीरोपासना के आगे नक़ली वीरोपासना की पोल खुल जाती है। 29 जुलाई, 1926 के ‘यङ्ग इण्डिया’ में वे लिखते हैं—‘‘वीरोपासना एक उत्तम गुण है। किसी राष्ट्र या व्यक्ति के सामने कोई आदर्श न हो तो वह उन्नति नहीं कर सकता। वीर उसे प्रकाश देता है और उसका उत्साह बढ़ाता है, उससे भावना को कार्यरूप में परिणत करना सम्भव बनता है। वह हमको निराशा के दल-बल से उबारता है। उसके कृत्यों का स्मरण हममें असीम त्याग करने का बल भरता है।…’’ गान्धी की अहिंसा को समझने के लिए उनकी ‘न्यूनतम हिंसा’ को भी समझना ज़रूरी है। एक बार उनके आश्रम की कुटिया में साँप घुस आया। तमाम कोशिशें की गईं कि उसे सही-सलामत बाहर निकाल दिया जाए, पर वह ऐसी जगह पर था कि हर जतन बेकार गया। ऐसे में दुःखी मन से गान्धी ने उसे मारने की इजाज़त दे दी और कहा—‘‘मुझे एक साँप की मृत्यु पर उतना दुःख नहीं होगा, जितना कि उसके काटे हुए एक बच्चे की मृत्यु पर।’’ उन्होंने ने 24 अक्टूबर, 1926 को कुछ इसी तरह से लिखा—‘‘…हमेशा प्राण लेना हिंसा नहीं है। या यों कहें कि अनेक अवसरों पर प्राण न लेने में अधिक हिंसा है।’’
बात यह है कि गान्धी की अहिंसा का मर्म ठीक ढङ्ग से समझ लिया गया होता तो चीन, पाकिस्तान जैसे देशों के साथ समस्याएँ कब की सुलझ चुकी होतीं। हम गान्धी की शान्ति और अहिंसा का नाम ले-लेकर अब तक अहिंसक बतकही करते रहे हैं, जिसका दुश्मन देशों ने कोई वज़न नहीं लिया और वे हमें कमज़ोर मानते रहे। सच भी यही है, हम उतने मज़बूत नहीं बने हैं, जितना कि बनना चाहिए था। हमारी अहिंसा तब तक जगहँसाई से ज़्यादा और कुछ नहीं होगी, जब तक कि हम मज़बूती के शिखर पर नहीं होंगे। वास्तव में भारत को मज़बूत बनने की ज़रूरत है। मज़बूत भारत ही पूरी दुनिया को शान्ति का सन्देश मज़बूती से दे सकता है। धैर्य और संयम की यह मज़बूती गान्धी के रास्ते पर चलते हुए अहिंसा की साधना से ही आ सकती है। समझने की बात है कि महात्मा गान्धी मजबूरी का नहीं, मज़बूती का नाम है। गान्धी की शक्तिपूजा शान्ति का सन्देशवाहक है।