जेहाद नहीं सेवा का उपक्रम चाहिए
वर्तमान का आचरण लोक-लुभावन हो तो अतीत के ढेर सारे पाप धुल जाते हैं और वर्तमान का आचरण समाज में नकारात्मक भाव पैदा करे तो पिछले ढेर सारे पुण्य भी बिसरा दिए जाते हैं। कहने का अर्थ यही है कि इस्लाम की छवि को साफ़-पाक बनाना है तो उसके मानने वालों को अपने समुदाय के भीतर अन्य समुदायों के साथ एक स्वस्थ संवाद की स्थिति पैदा करनी होगी।
इस्लामी बुद्धिजीवियों और विद्वानों का एक तबक़ा इस बात से चिन्तित है कि फ़तवे, जेहाद और आतङ्कवाद जैसी चीज़ें इस्लाम की छवि ख़राब करने का काम कर रही हैं। प्रायः सभी इस्लामी विद्वान् इस आम धारणा को मिथ्या प्रचार का फल मानते हैं कि इस्लाम काफ़ी कुछ तलवार के बल पर या हिंसा के सहारे फैला। वैसे इस्लामी विद्वानों की यह चिन्ता जायज़ हो सकती है, लेकिन पूरी दुनिया के समाजों में अभिव्यक्ति के खुलेपन की लोकतान्त्रिक प्रक्रियाएँ शुरू हो चुकने के बावजूद इस्लामी सङ्गठन जब ज़रा-ज़रा सी बात पर जेहाद का ऐलान करने लगें, तब क्या कहा जाए। भारत के सन्दर्भ में पाकिस्तान में बैठे इस्लामी सङ्गठनों का गजवा-ए-हिन्द तो आए दिन सिर उठाता ही रहता है, तमाम लोगों को ईसाइयों को लेकर इस्लामी सङ्गठनों का वह चर्चित बयान भी याद होगा, जिसमें उन्होंने कहा था—“हम क्रॉस (सलीब) के अनुचर पोप को बताना चाहेंगे कि अपनी पराजय का इन्तज़ार करो। निरङ्कुश शासको और काफ़िरो, तुम अपने किए के नतीजे देखने का इन्तज़ार करो। हम क्रॉस को मिटा देंगे। तुम्हारे पास अब इस्लाम या मौत को स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।” इस तरह की प्रतिक्रियाओं से इस धारणा को ही बल मिलता है कि तलवार की भाषा इस्लाम की फ़ितरत में है।
इस्लामी बुद्धिजीवियों को इस बात पर भी गम्भीर चिन्तन करना चाहिए कि इस्लाम मानने वालों के लिए आतङ्कवादी बनना आख़िर इतना आसान क्यों है? एक बार आतङ्कवाद का जवाब देने के उद्देश्य से कुछ कट्टरवादी हिन्दू सङ्गठनों ने भी मानव बम तैयार करने की घोषणाएँ की थीं, पर वे ज़रा भी सफल नहीं हुए। करोड़ों हिन्दुओं में एक भी ऐसा नहीं तैयार हुआ, जो धर्म के नाम पर मानव बम बनकर किसी हिंसक गतिविधि को अञ्जाम दे सके। किसी समस्या, तात्कालिक प्रतिक्रिया या स्वार्थ में हिंसा भड़कना एक अलग बात है, परन्तु हिंसा हिन्दुत्व के मूल चरित्र में नहीं है, इसलिए तमाम कोशिशों के बाद भी इसमें आतङ्कवादी सङ्गठन नहीं चलाए जा सकते। स्पष्टतः धुर हिन्दुत्व विरोधी भी यह आरोप नहीं लगा सकते कि हिन्दुस्तान के कोने-कोने में हिन्दू धर्म तलवार के ज़ोर पर फैला। यों झगड़े-टण्टे तो भाई-भाई में भी होते हैं और हिन्दू धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों में भी छिटफुट कुछ सङ्घर्षों का इतिहास ढूँढ़ा जा सकता है, पर ये सङ्घर्ष किसी को ज़ोर-ज़बरदस्ती अपने सम्प्रदाय में दीक्षित करने के लिए नहीं थे। यहाँ विभिन्न सम्प्रदायों के अस्तित्व के पीछे मूल वजह थी शास्त्रार्थ और वैचारिक रूप से एक जनसंवाद की स्वस्थ प्रक्रिया। यहाँ एक मूल मान्यता यह रही है कि ‘वादे-वादे जायते तत्त्वबोधः’। क्या इस्लाम के विद्वान् यह भरोसा दे सकते हैं कि उनके यहाँ मान्यताओं पर सवाल खड़े करने, सन्देह करने या शास्त्रार्थ आयोजित करने की छूट है? यदि है तो फ़तवे और जेहाद की नौबत ही क्यों? यहाँ कृपया मुझे हिन्दू धर्म के किसी वकील के तौर पर न देखा जाए, क्योंकि सर्वाङ्ग में हिन्दू धर्म को भी मैं कोई बहुत साफ़-पाक नहीं समझता। इसके वर्तमान स्वरूप में कई वीभत्स बातें हम स्पष्ट देख सकते हैं। चूँकि यहाँ बात हिंसक गतिविधियों के एक मुद्दे से है, इसलिए अन्य बातों की पड़ताल बहुत उचित नहीं है।
बहरहाल, इस्लाम के चन्द बुद्धिजीवियों की चिन्ता पूरे इस्लामी जगत् की चिन्ता बननी चाहिए और धर्म के झण्डाबरदार सभी मुल्ले-मौलवियों को समझना चाहिए कि वे अपनी मज़हबी छवि फ़तवों, ज़िदों और जेहाद की घोषणाओं से नहीं सुधार सकते। किसी समूह के बारे में धारणाएँ और छवियाँ सामूहिक आचरण और लोक व्यवहार का प्रतिफल हुआ करती हैं। वर्तमान का आचरण लोक-लुभावन हो तो अतीत के ढेर सारे पाप धुल जाते हैं और वर्तमान का आचरण समाज में नकारात्मक भाव पैदा करे तो पिछले ढेर सारे पुण्य भी बिसरा दिए जाते हैं। कहने का अर्थ यही है कि इस्लाम की छवि को साफ़-पाक बनाना है तो उसके मानने वालों को अपने समुदाय के भीतर अन्य समुदायों के साथ एक स्वस्थ संवाद की स्थिति पैदा करनी होगी। आगे की सही राह चुनने के लिए तर्क-वितर्क और शास्त्रार्थ का सहज वातावरण बनाना होगा। यही तरीके़ हैं जो हिंसक गतिविधियों में भटक रहे लोगों को शेष समाज के प्रति सहज आचरण दे सकते हैं और फ़तवे और जेहाद की घोषणाएँ मानवीय सेवा के उपक्रमों में बदल सकती हैं। सेवा एक ऐसा अहिंसक हथियार है, जिसके सामने तलवारों की तेज़ धार भी बेकार हो जाती है। सेवा ऐसा आचरण है, जो अक्सर विरोधी को भी बग़ैर तर्क-वितर्क के ही अपना मुरीद बना लेता है। ईसाइयत के प्रचार में सेवा तत्त्व का बहुत बड़ा हाथ रहा है, भले ही इस सेवा में बहुत कुछ छद्म रहा हो।
सिर्फ़ चिन्ता व्यक्त करने और विरोध जताने मात्र से यह आम विश्वास नहीं क़ायम हो जाएगा कि इस्लाम तलवार के बल पर नहीं फैला। दुर्भाग्य यह है कि इस्लाम के दामन में लगे दाग़ धोने के लिए मुल्ले-मौलवियों का एक बड़ा वर्ग हिंसा तक को जायज़ ठहराता है। उसकी समझ में यह नहीं आता कि आज आतङ्कवादी हिंसा इस्लामी मान्यताओं पर सबसे बदनुमा दाग़ है, तो इन्हीं वजहों से। इस्लामी आतङ्कवाद का वर्तमान रूप जनसमस्याओं से हटकर सभ्यताओं के सङ्घर्ष के निकट पहुँच चुका है, तो वह भी इन्हीं वजहों का प्रतिफल है।
इस्लामी समुदाय के साथ एक मुश्किल यह भी है कि वह वर्तमान चुनौतियों का सामना करने के बजाय बन्द समाज की वकालत करने लगता है। इस्लाम का दामन साफ़-पाक देखने की इच्छा रखने वाले लोगों को सोचना चाहिए कि एक तरफ़ आप चाँद-तारों की सैर के मनसूबे भी पालें और दूसरी तरफ़ बन्द समाजों की दुनिया बनाना चाहें तो यह अब सम्भव नहीं हो सकता। विज्ञान और तकनीक के रथ की सवारी जिस मुक़ाम तक पहुँचना चाहती है, सही अर्थों में वहाँ धार्मिक समूहों, साम्प्रदायिक ज़िदों या जातीय पहचानों के कोई मायने नहीं रह जाते। ऐसे में, दूसरे समुदायों से कटकर रहना या उन्हें काफ़िर क़रार देना मूर्खतापूर्ण साम्प्रदायिक सनक के अलावा और कुछ नहीं हो सकता।
वैसे, इस्लाम के कुछ विद्वान् अगर यह सोचते हैं कि आतङ्कवादी हिंसा का आरोप पूरे मुस्लिम समुदाय पर नहीं लगाया जा सकता, तो यह एकदम से अनुचित नहीं है; बल्कि, आतङ्कवादी गतिविधियों में सिर्फ़ इने-गिने गुट ही सक्रिय हैं। लेकिन इस आधार पर मुस्लिम समुदाय एकदम दोषमुक्त भी नहीं हो जाता, क्योंकि आतङ्कवादियों की हरकतों के पीछे उनका निजी स्वार्थ नहीं, बल्कि एक ख़ास क़िस्म की वैचारिक ऊर्जा है और यह ऊर्जा उन्हें इस्लाम की मान्यताओं से ही मिल रही है, कहीं बाहर से नहीं। सिर्फ़ यह कहकर छुटकारा नहीं पाया जा सकता कि आतङ्कवादी हिंसा सिर्फ़ कुछ सिरफिरे या बहके हुए लोगों का काम है। पूरी दुनिया में इस्लाम के नाम पर हो रही आतङ्कवादी गतिविधियाँ इस बात का स्पष्ट सङ्केत हैं कि इस्लाम की पूरी विचारधारा में कहीं ऐसा कुछ ज़रूर है, जिसे इस तरह की हिंसा के लिए आसानी से आधार बनाया जा सकता है।
इस्लामी विद्वानों को अगर लगता है कि आतङ्कवादी गुट इस्लाम की बेजा व्याख्याएँ करके अपना निहित स्वार्थ साध रहे हैं तो उन्हें पूरे तेवर के साथ इस्लाम की मानवीय व्याख्याओं को सामने लाना चाहिए और अपने समुदाय में फैले वैचारिक भ्रमों को दूर करने की मुहिम चलानी चाहिए। हिंसक गतिविधियों के लिए वैचारिक आधार नहीं रहेगा तो कोई ओसामा बिन लादेन या आईएसआई जैसे सङ्गठन अपनी किसी सनक के लिए किसी धर्मप्राण आम आदमी को बरगला भी नहीं सकेंगे। मुल्ले-मौलवियों को भी यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए कि—इस्लाम तलवार के बल पर फैला—इसका जवाब हिंसा को उकसाने वाले फ़तवों से नहीं, दया-करुणा-सेवा के उपक्रमों से ही दिया जा सकता है। और असल में, यह बात सिर्फ़ इस्लाम पर ही नहीं, अन्य धर्मों पर भी किसी-न-किसी कोण से लागू होती है, क्योंकि प्रायः हर धर्म के इतिहास में कुछ-न-कुछ रक्तरञ्जित पन्ने मिल ही जाएँगे। (सन्त समीर)