अब बच्चे लोरी नहीं सुनते
आधुनिकता के रङ्ग में रँगी माँएँ बहुत कम मिलेंगी जिन्हें लोरी की दो-चार पङ्क्तियाँ याद होंगी। आज की माँओं को व्यवसाय से, नौकरी से, भाँति-भाँति के उपभोक्ता सामानों को जुटाने और उनकी व्यवस्था करने से फ़ुरसत नहीं है। कभी कुछ वक़्त बचता भी है तो टीवी के ढेरों चैनलों पर दिन-रात चलने वाली फ़िल्में या धारावाहिक ज़्यादा ज़रूरी लगते हैं। नई माँओं के लिए बच्चे पालना ज़रूरी नहीं, बल्कि मजबूरी है।
‘चन्दामामा आरे आवा पारे आवा, नदिया किनारे आवा, सोने की कटोरिया में दूध-भात लिहे आवा, मुन्ना के मुँहा में घुटूक….’ और लोरी का आख़िरी शब्द पूरा होते-होते नन्हा बालक मुँह ऐसे चलाना शुरू करता है जैसे कि चन्दामामा सचमुच अपने हाथों से उसे दूध-भात खिला रहे हों। इस तरह, लोरी के बोल में दूध-भात खाता और माँ की मीठी थपकियों में समाए वात्सल्य के असीम संसार में विचरता हुआ बच्चा बड़ी सहजता से ‘निंदिया रानी’ की गोद में पहुँच जाता है।
लोरियों की अजब परम्परा चली आई है इस देश में। प्रकृति और संस्कृति के जाने कितने रूप सँजो रखे हैं इन लोरियों ने। संस्कृति-परम्परा और भौगोलिक विविधताओं के साथ-साथ देश के अलग-अलग हिस्सों की लोरियों की छटा भी अनेकानेक रूपों में निखरती दिखाई देती है। भोजपुरी लोरी की यह बानगी देखने लायक़ है—“खन्ता-मन्ता खेली थै, कानी कौड़िया पाई थै, गङ्गा में बहाई थै, गङ्गा माई बालू देंय, ऊ बलुआ हम भुजवा के देई, भुजवा हम्मैं दाना देय, ऊ दनवा हम घसियरवा के देई, घसियरवा हम्मैं घास दैय, ऊ घसिया हम गइया के देई, गइया हम्मैं दूध देय, ऊ दुधवा हम मुन्ना के देई, मुन्ना पियै घुटूक से…!” यह लोरी गङ्गा की आस्था और उसकी उपयोगिता से लेकर भारतीय समाज में गाय की महत्ता तथा लोक-जीवन के आपसी अन्तर्सम्बन्धों का काफी गहरा और सहज बोध कराती दिखती है। यहाँ लोरी भावी जीवन में एक-दूसरे के काम आने का अन्योन्याश्रित भाव और नैतिकता का बोध जगाने वाली अबोध शिशु की पहली पाठशाला बन जाती है।
गुजराती लोरी या ‘हालरडु’ सुनाते हुए वहाँ की माँएँ लोकमाता ‘रन्ना देवी’ को याद करती हैं, उनका अहसान जताती हैं—“घर के पिछवाड़े सुन्दर पालना, पलने में सोने वाला भेजा रन्ना दे माँ ने, बाँझन का लाँछन माँ ने धो दिया।” बुन्देलखण्ड की माँएँ अपने बच्चों को लोरियों में दूध पिलाकर छोटी उम्र का वीर बनाती रही हैं और अपने लाडलों को आक्रान्ताओं से लड़ने के लिए रणभूमि में जाने की प्रेरणा देती रही हैं। गहराती रात के आग़ोश में ‘सो जा बारे बीर, सो जा बारे बीर… बीर की बलैयाँ ले हों जमुना के तीर…’ सुनते हुए नींद लेने वाला बच्चा भला कैसे वीरता के इतिहास नहीं लिखेगा! सिर्फ़ वीरता का ही नहीं, संवेदनशीलता का भी, क्योंकि ऐसी लोरियाँ वीरता के साथ क्रूरता नहीं, बल्कि मनुष्यता का पाठ पढ़ाती हैं। मनुष्यता भरी वीरता ने ही महाराजा छत्रसाल को ‘बुन्देलखण्ड के शिवाजी’ की उपाधि तक पहुँचाया। आल्हखण्ड के आल्हा-ऊदल को भी हम भला कैसे भूल सकते हैं! इसी तरह राजस्थानी लोरियाँ भी वात्सल्य के साथ अपनी धरती के वीर सपूतों की गाथाओं से भरी पड़ी हैं। नन्हे कृष्ण-कन्हैया और राजा दशरथ के आँगन में खेलते बालपन के राम के जाने कितने रूप तो देश के हर हिस्से की लोरियों में मिल जाते हैं।
ऐसा नहीं है कि लोरियाँ सिर्फ़ बच्चे को पुचकारने की निरुद्देश्य और अर्थहीन अभिव्यक्तियाँ हैं। वे जीवन के किन्हीं गहरे उद्देश्यों से जोड़ने का महत्त्वपूर्ण काम करती हैं। जाने कितने बिम्बों में प्रकृति का मानवीकरण करती लोरियाँ प्रकृति के साथ साहचर्य का एक परोपकारी भाव बचपन में ही अङ्कुरित कर देती हैं। माता-पिता, भाई-बहन, मामा-मामी, दादा-दादी, चाचा-चाची जैसे पारिवारिक सम्बन्धों के प्यार-दुलार की अहमियत भी इन लोरियों के ज़रिये ही पहली बार नन्हे बालक के अन्तर्मन तक पहुँचती है। लोरियों में माँ के निश्छल स्नेह के इतने दृश्य उभरते हैं कि तुतलाती ज़ुबान की सारी ज़िदें पूरी हो जाती हैं। स्नेह का भूखा बच्चा जब खेल-खिलौने से भी आजिज़ आ जाता है और ग़ुस्से में रो-रोकर हाथ-पाँव पटकने लगता है तो मीठी थपकियों में भीगी ये लोरियाँ रामबाण नुस्ख़ा बन जाती हैं।
सदियों से माँ का स्नेह बरसाती लोरियाँ बच्चे के स्वस्थ विकास के लिए कितनी ज़रूरी हैं, यह अब आधुनिक विज्ञान के पुरोधा भी महसूस करने लगे हैं। विश्व स्वास्थ्य सङ्गठन के एक अध्ययन का निष्कर्ष है कि जो बच्चे प्यार के वातावरण में माँ के सान्निध्य में नींद लेते हैं, वे अलग सुलाए जाने वाले बच्चों की तुलना में बड़े होकर ज़्यादा सुलझे इनसान बनते हैं। अब जबकि तमाम प्रयोगों से यह भी सिद्ध हो गया है कि गर्भस्थ शिशु पर भी माँ की मानसिक स्थितियों का असर होता है, तो फिर इस संसार में आँखें खोल चुके शिशु पर ये लोरियाँ गहरा असर क्यों नहीं डालेंगी! यह अजीब बात है कि माँ की लोरी सुनकर बच्चा अपने छोटे-मोटे शारीरिक कष्ट भूलकर गहरी नींद में सो जाता है। लोरी गुनगुनाती माँ का स्पर्श पाकर नन्हा शिशु अपने-आपको सबसे ज़्यादा सुरक्षित महसूस करता है और रोना-धोना भूलकर चुप हो जाता है। वैज्ञानिक कहते हैं कि लोरी सुनते-सुनते सोने वाले बच्चे ज़्यादा गहरी नींद सोते हैं और नींद में चौंक पड़ने या डरावने सपने देखने जैसी समस्याएँ उनको परेशान नहीं करतीं। विज्ञानवेत्ताओं ने कई प्रयोगों के बाद यह भी सिद्ध किया है कि जिस तरह का गीत-सङ्गीत मनुष्य सुनता है उसके चरित्र में वैसी भावनाएँ भी प्रवहमान होने लगती हैं। बालमन तो वैसे भी कोरी स्लेट होता है; फिर अगर देश, समाज, संस्कृति और प्रकृति के आपसी अन्तर्सम्बन्धों के आख्यान सुनाती लोरियाँ नन्हे बच्चों के चरित्र निर्माण में अहम भूमिका निभाने लगें तो क्या आश्चर्य? भारतीय समाज में अपने परिवेश और प्रकृति के साथ सामञ्जस्य बैठाकर जीवन जीने का एक उदात्त भाव अगर मौजूद रहा है तो यह लोरी जैसी तमाम लोक विधाओं के ज़रिये बचपन से ही मिलने वाले संस्कारों का ही फल है। निष्कर्ष यह है कि लोरी जीवन की शुरुआत की सबसे प्रभावी पाठशाला है। जो माएँ लोरी के ज़रिये अपने बच्चों को जितना ही ज़्यादा स्नेहिल स्पर्श देती हैं, उनके बच्चे जीवन सङ्ग्राम में उतने ही आत्मविश्वास, सहजता और निडरता के साथ परिस्थितियों का सामना कर सकने के क़ाबिल बनते हैं।
लेकिन दुर्भाग्य कि नए युग के बच्चे लोरी नहीं सुन पाते। आधुनिकता के रङ्ग में रँगी माँएँ बहुत कम मिलेंगी जिन्हें लोरी की दो-चार पङ्क्तियाँ याद होंगी। आज की माँओं को व्यवसाय से, नौकरी से, भाँति-भाँति के उपभोक्ता सामानों को जुटाने और उनकी व्यवस्था करने से फ़ुरसत नहीं है। कभी कुछ वक़्त बचता भी है तो टीवी के ढेरों चैनलों पर दिन-रात चलने वाली फ़िल्में या धारावाहिक ज़्यादा ज़रूरी लगते हैं। नई माँओं के लिए बच्चे पालना ज़रूरी नहीं, बल्कि मजबूरी है; इसलिए, बच्चों की चिल्ल-पों से निजात पाने के लिए उन्हें टीवी के सामने ही लिटा दिया जाता है और इस तरह कुतूहल में डूबी इन बच्चों की निगाहें टीवी के पर्दे को घूरती हुई किसी नए तरह के अनजाने संसार में अनायास ही प्रवेश कर जाती हैं। लोरी सुनने की उम्र में एक बच्चे के मानस पटल पर भय, हिंसा, आतङ्क, अश्लीलता और अनपेक्षित जिज्ञासाओं के हज़ारों-हज़ार दृश्य कितना बुरा असर छोड़ते हैं, इसके वैज्ञानिक अध्ययन किसी स्वस्थ भविष्य का सङ्केत नहीं देते।
पश्चिम के उपभोक्तावाद ने हमारी संस्कृति के अनगिनत पहचान धूमिल कर दिए हैं, और लोरी जैसी परम्पराएँ भी इस धुन्ध में खोती जा रही हैं। इस सांस्कृतिक विस्मृति का ही नतीजा है कि आज के नौनिहाल लोरियों की स्वर लहरियाँ नहीं, टीवी का शोर सुनते बड़े होते हैं। अब नन्हे-मुन्नों के सामने माँ का वात्सल्य छलकाता, ममत्व से भीगा, हँसता, खिलखिलाता, लोरी गुनगुनाता चेहरा नहीं, बल्कि अनगिनत चैनलों पर सिगरेट का धुआँ उड़ाते, शराब का पैग छलकाते, ईर्ष्या-द्वेष, मार-पीट, छल-छद्म का खेल-खेलते ज़िन्दगी को विद्रूप बनाते जाने कितने रङ्गों के वीभत्स चेहरे होते हैं। उपभोक्तावाद ने हमारे संयुक्त परिवार की अवधारणा को काफ़ी कमज़ोर किया है। नतीजतन, दादा-दादी, चाचा-चाची जैसे ढेरों परिवारीजनों की गोद में लोरी सुनने के सुख से अब के बच्चे वञ्चित होते जा रहे हैं। सिर्फ़ माँ-बाप तक सीमित होते जा रहे परिवारों की व्यस्त दिनचर्या में बच्चे कहीं तन्हा छूट गए हैं। वात्सल्य से वञ्चित इस ज़माने के नौनिहाल आज अगर छोटी उम्र में ही अपराधी और उजड्ड प्रवृत्ति के दिखाई देने लगे हैं, तो इसके पीछे भी ये परिस्थितियाँ एक बड़ी वजह हैं। काश! हम आने वाले सङ्कट की पहचान करते हुए देश की माताओं में अपने बच्चों के प्रति ठीक दायित्वबोध जगाने का कोई प्रभावी काम कर सकते तो लोरी जैसी जीवन-निर्माण की विधाएँ भी पुनर्जीवित हो उठतीं। (सन्त समीर)
बिल्कुल बच्चे अब लोरी सुनते पर इसमे दोष उनका नहीं, क्योंकि अब लोरी सुनाने वाली माँ ही नहीं मिलती