हिन्दी की राह के रोड़े
इसी देश में अँग्रेज़ी माध्यम के ऐसे विद्यालय खड़े हो रहे हैं, जहाँ हिन्दी बोलने पर अघोषित सेंसर है। ‘पापा-मम्मी’ के रूप में काफ़ी हद तक हमारे नौनिहालों का संस्कृतीकरण हो चुका है। अब गाँवों में भी ‘माई’, ‘बाबू’, ‘काका’ बोलना दकियानूसी और शर्म का विषय बनने लगा है। जिस गति से कानवेण्टीकरण चल रहा है, उसमें ‘कुकुरमुत्ते’ वाला मुहावरा भी बहुत पीछे छूट गया है।
हिन्दी का हाल हिन्दुस्तान में कैसा है, बयान कर पाना आसान नहीं। उम्मीदों से ज़्यादा आशङ्काएँ हैं। हिन्दी का खा-खाकर मुटिया रहे लोग भी जब अँग्रेज़ी के ढोल-ताशे बजाने लगें तो फिर कहने को रह ही क्या जाता है? आज़ादी के इतने बरस बाद गुलाम मानसिकता घटने की कौन कहे, जैसे दिनोंदिन बढ़ ही रही है। कभी फादर कामिल बुल्के ने कहा था—‘‘संस्कृत माँ, हिन्दी गृहिणी और अँग्रेज़ी नौकरानी है।’’ बेल्जियम से आकर हिन्दी के लिए ख़ुद को समर्पित कर देने वाले फादर ने यह कहते हुए इस बात को गहरे तक महसूस किया था कि इस देश की असल भाषाई ज़रूरत क्या है। वास्तव में उन्होंने संस्कृत, हिन्दी और अँग्रेज़ी के लिए जिन जगहों को रेखाङ्कित किया था, उनकी प्रासङ्गिकता आज भी वैसी-की-वैसी है। लेकिन, दुर्भाग्य कि हमारे सत्ताधीश निरन्तर जैसी परिस्थितियाँ बना रहे हैं उसमें नौकरानी राजरानी बन गई है और माँ और गृहिणी को हर दिन लतियाती-धकियाती हुई दिखाई दे रही है। माँ (संस्कृत) को तो इस हाल में लाकर छोड़ दिया गया है कि भूले से भी आप उसके पक्ष में कोई बात करते दिखाई दे जाएँ तो बिना किसी किन्तु-परन्तु के दकियानूसी, मनुवादी, पोंगापन्थी आदि-आदि की चिप्पी आप पर चिपका दी जाएगी। हिन्दी की हालत ज़रूर अभी इतनी दयनीय नहीं है, पर आने वाले कुछ वर्षों में इसका भी हाल वही हो जाय और यह भी विलुप्त होने के कगार पर पहुँचा दी जाए तो आश्चर्य नहीं।
कुछ लोग मेरी बात पर हँस सकते हैं और कह सकते हैं कि मैं बेवजह का स्यापा कर रहा हूँ। हिन्दी उन्हें दिन-दूनी रात-चौगुनी गति से प्रगति पथ पर बढ़ती हुई दिखाई दे सकती है। हालाँकि, एक अर्थ में वे ग़लत भी नहीं हैं। निश्चित रूप से हिन्दी का संसार विस्तार कर रहा है। राष्ट्र की सीमाएँ पार कर विदेशी धरती पर भी इसने अपनी हैसियत साबित की है। सरहदों के पार निगाह दौड़ाएँगे तो हिन्दी को सम्भावनाओं के संसार में सरपट दौड़ लगाते और सम्भावनाओं का ख़ुद का एक नया संसार रचते हुए पाएँगे। यह बताने की ज़रूरत नहीं है कि भारतीय बाज़ार में पैठ की लालसा पाले विदेशी भी अब हिन्दी सीखने को आतुर हैं। यदि मॉरीशस, त्रिनिदाद, दक्षिण अफ्रीका, गुयाना, सूरीनाम तथा फीजी जैसे देशों में प्रवासी भारतीय अपनी विरासत के तौर पर इस भाषा को पाल-पोस रहे हैं तो अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, जर्मनी, पोलैण्ड, रूस, चीन, जापान, कोरिया जैसे अन्यान्य देशों के लिए यह बाज़ार की ज़रूरत बन रही है। यह सोचना भी कम अच्छा नहीं लगता कि दुनिया के डेढ़ सौ से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जाने लगी है। और तो और, हिन्दी फिल्में सीमा के पार भी अपना बाज़ार बना रही हैं और हिन्दी गाने अहिन्दीभाषियों के कानों में रस घोलने लगे हैं। ऐसे में, जब हमारी हिन्दी विश्वपटल पर एक बड़ी भूमिका में आने को तैयार दिखाई दे रही हो, तब कोई भी यह सवाल कर ही सकता है कि हमारे जैसे लोग हिन्दी के हाल पर आख़िर क्यों इतने बेहाल हुए जा रहे हैं?
दरअसल, हमारे जैसे लोगों की परेशानी की वजह यह है कि हिन्दी के बढ़ते संसार में हिन्दी की सामर्थ्य का हाथ कम बाज़ार की पैदा की हुई विवशताओं का हाथ ज़्यादा है। कई विदेशी विश्वविद्यालयों में यदि हिन्दी भी पढ़ाई जाने लगी है तो इसलिए नहीं कि यह एक समृद्ध और अभिव्यक्ति की अनगिन सम्भावनाओं से भरी हुई भाषा है, बल्कि इसकी ओर विदेशियों का रुझान मात्र इस कारण से है कि इसका बाज़ार बड़ा है। वैसे, बाज़ार की वजह से भी हिन्दी बढ़े तो बुराई क्या है, लेकिन समझने की कोशिश करें तो यहीं पर इस भाषा के लिए एक गहरे सङ्कट की शुरुआत होती हुई दिखाई दे जाती है। वह सङ्कट यह है कि जिस विवशता में हिन्दी का विस्तार होता हुआ आज दिख रहा है, उस विवशता को ही एकदम से दूर कर देने की जुगत में कई गुना तेज़ी से अँग्रेज़ी के विस्तार की आयोजनाएँ भी रची जा रही हैं। नई पीढ़ी को नर्सरी से ही अँग्रेज़ी में पारङ्गत किया जा रहा है। इसी देश में अँग्रेज़ी माध्यम के ऐसे विद्यालय खड़े हो रहे हैं, जहाँ हिन्दी बोलने पर अघोषित सेंसर है। ‘पापा-मम्मी’ के रूप में काफ़ी हद तक हमारे नौनिहालों का संस्कृतीकरण हो चुका है। अब गाँवों में भी ‘माई’, ‘बाबू’, ‘काका’ बोलना दकियानूसी और शर्म का विषय बनने लगा है। जिस गति से कानवेण्टीकरण चल रहा है, उसमें ‘कुकुरमुत्ते’ वाला मुहावरा भी बहुत पीछे छूट गया है। हिन्दी के बढ़ते विस्तार में अँग्रेज़ी का एक अन्तर्विस्तार कहीं ज़्यादा गहरा है। हिन्दी धीरे-धीरे हिंग्रेज़ी हो रही है। हमारे कई अख़बार हिन्दी को अँग्रेज़ीमय बनाने में ज़ोर-शोर से लगे हुए हैं।
इस पूरे परिदृश्य में अगले दो-चार दशक बाद की हिन्दी का जुगराफ़िया पहचानने की कोशिश कीजिए तो हमारे जैसे लोगों की चिन्ता की वजहें भी साफ़ हो जाएँगी। क्या ऐसा नहीं लगता कि यही हाल रहा तो हिन्दी का विस्तार रथ अगले कुछ दशकों में ख़ुद को अँग्रेज़ी के साम्राज्य में खड़ा पाएगा, जहाँ उसके पहिये छिटका दिए जाएँगे और उसके घोड़े अँग्रेज़ी का अश्वमेध सम्पन्न करने का साधन बनते दिखाई देंगे? कभी आपने ध्यान दिया कि अधिकतर हिन्दीभाषी भी अब मोबाइल पर रोमन में सन्देश भेजने में सहज महसूस करने लगे हैं। की-बोर्ड ही ऐसे हैं कि आपको मजबूरी में अँग्रेज़ी का इस्तेमाल करना पड़े। फेसबुक और ट्विटर पर भी लोग हिन्दी अकसर रोमन में लिखते दिखाई देते हैं। मैं अपने मोबाइल में लोगों के नाम-पते हिन्दी में लिखकर सुरक्षित करता हूँ तो कई लोगों की मुद्रा अचरज भरी हो जाती है। यानी, आने वाले समय का अनुमान आप लगा सकते हैं। हिन्दी बची हुई है तो इसलिए कि इस देश में अँग्रेज़ी सीखना आज भी एक हौवा है; लेकिन नई पीढ़ी, जो पाँच-छह साल की उम्र में स्कूल में दाख़िला लेते ही अँग्रेज़ी में दीक्षित हो रही है, उसके लिए इस हौवे का भला क्या मतलब? और तब, सोचिए कि हिन्दी की जगह कहाँ बचती है? अँग्रेज़ी के समर्थक आराम से कह सकते हैं कि आख़िर हिन्दी की ज़रूरत भी क्या है? पूरा देश अँग्रेज़ी सीख जाय तो परेशानी क्या है? क्या इससे पूरी दुनिया से संवाद करना हमारे लिए आसान नहीं हो जाएगा? कहने को कहा जा सकता है कि हाँ पूरी दुनिया से तो नहीं, पर अँग्रेज़ी बोलने वाले कुछ देशों से हमारे लोगों का संवाद ज़रूर आसान हो जाएगा, लेकिन यहीं पर कई प्रश्न खड़े होने लगते हैं। क्या इस देश की आम जनता को अपने रोज़मर्रा के व्यवहार में विदेशियों से संवाद बनाने की ज़रूरत पड़ती है; या उसे रोज़-रोज़ अपने पड़ोसी से संवाद करना होता है? क्या ज़रूरत भर की अँग्रेज़ी इस देश के कुछ प्रतिनिधियों को नहीं सिखाई जा सकती; या कि हमारा संवाद दूसरे देशों से अभी तक रुका पड़ा है? क्या देश के बच्चे-बच्चे को अँग्रेज़ी सिखा देना ही संवाद की समस्या का समाधान है? क्या चीन, जापान, फ्रांस, रूस, जर्मनी वगैरह यही कर रहे हैं? क्या वे अपनी भाषाओं को बचाए रखते हुए उन्हें विस्तारित करने में नहीं लगे हुए हैं? अगर वे अपनी भाषाओं को बचाए हुए हैं तो क्या हम अपनी भाषा को ज़िन्दा रखते हुए दुनिया से संवाद के माध्यम विकसित नहीं कर सकते?
दरअसल, भाषा से भी बड़ा प्रश्न भाषा से जुड़ी अपनी सांस्कृतिक और सभ्यतागत अस्मिता का है। फ्रेञ्च जानने वाला अँग्रेज़ी में बड़े आराम से प्रवेश कर सकता है, पर फ्रांस का नागरिक अपनी भाषा से बेहद लगाव महसूस करता है तो इसीलिए कि उसे अपनी राष्ट्रीय अस्मिता की चिन्ता है। जापानियों, चीनियों और दूसरे तमाम देशों के साथ यही स्थिति है। भाषा महज़ भाषा नहीं होती। उसके साथ जाने कितनी परम्पराओं का, सांस्कृतिक पहचानों का रेला चलता है। भाषा पर सङ्कट प्रकारान्तर से देश की सांस्कृतिक पहचानों पर सङ्कट है। अभी हाल भले ही अँग्रेज़ी में रोज़गार की अपार सम्भावनाएँ दिखाई दे रही हों, पर जिस दिन देश के सारे लोग अँग्रेज़ी में पारङ्गत हो चुके होंगे और अँग्रेज़ी में ही अपनी जीविका तलाश रहे होंगे उस दिन हमारा क्या हाल होगा? इसकी कल्पना कीजिए तो देह में सिहरन पैदा हो जाएगी। ‘माया मिली न राम’ वाली स्थिति हमारी होगी। न पूरी तरह अँग्रेज़ बन पाएँगे और न ठीक से हिन्दुस्तानी रह पाएँगे। सही कहा जाए तो ‘कल्चरल मङ्की’ यानी ‘सांस्कृतिक बन्दर’ की शक्ल में हम दिखाई देंगे। यहीं पर एक बात पर कुछ और गहराई से सोचना चाहिए। आख़िर ऐसा क्यों है कि जितने ज़ोर-शोर से हम हिन्दुस्तानी अँग्रेज़ी से गलबहियाँ करने में जुटे हुए हैं, वैसा किसी और देश में नहीं है। और, सिर्फ़ अँग्रेज़ी से गलबहियाँ करने की ही बात नहीं है, बल्कि इस देश में जो लोग अँग्रेज़ी सीख लेते हैं, उनमें से अधिकतर हिन्दी को अँगूठा दिखाने में भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने लगते हैं। हिन्दी बोलने वाले उन्हें गँवारू लगते हैं। हिन्दी-विस्तार दरअसल एक धोखा है और इसलिए कि अधिसङ्ख्य आबादी, जो बाज़ार की ख़रीदार है, उस तक अभी हिन्दी के रास्ते ही पहुँचा जा सकता है।
यहीं पर हिन्दी की राह के एक और रोड़े की पहचान कर लेनी चाहिए। सच तो यह है कि यही सबसे बड़ा रोड़ा है, जिस पर हिन्दी के बड़े-बड़े विद्वानों का भी आमतौर पर ध्यान नहीं जाता। यह ऐसा रोड़ा है जो हिन्दी का सामर्थ्य पहचानने से हमें रोकता है और हम अपनी ही भाषा से वह लगाव नहीं महसूस कर पाते जो कि होना चाहिए था। आज़ादी के बाद दस साल के लिए पं. जवाहरलाल नेहरू ने अँग्रेज़ी को राजकाज में बनाए रखने की ज़रूरत क्या बताई कि यह आने वाले दिनों में नासूर बनता चला गया और बात यहाँ तक पहुँच गई कि जब तक देश में एक भी व्यक्ति हिन्दी का विरोध करेगा तब तक अँग्रेज़ी चलती रहेगी। यह अजब ही हादसा हुआ देश के साथ। करोड़ों लोग अँग्रेज़ी का विरोध करें, हिन्दी की माँग करें तो उसका कोई मूल्य नहीं, पर एक व्यक्ति भी हिन्दी का विरोध कर दे तो उसकी बात सिर माथे। हिन्दी को स्थापित करने का जो काम आज़ादी के तुरन्त बाद बड़ी आसानी से हो सकता था, वह नहीं किया गया। हिन्दी तब बड़े आराम से राजकाज सँभाल सकती थी। जो लोग अँग्रेज़ी के साथ तादात्म्य की अुनभूति कर रहे थे, वे भी कोई हिन्दी से अनभिज्ञ तो नहीं ही थे। निश्चित रूप से कुछ दिनों में उनकी भी आदत हिन्दी में काम करने की बन ही जाती। ख़ैर, यह न हो सका और देश के आमजन की मानसिकता को भी अँग्रेज़ी की तरफ़ मोड़ा जाने लगा। हिन्दी हमारे व्यवहार की भाषा थी तो इसे चलाए रखने को हम विवश थे, पर लालसा हमारी अँग्रेज़ी के प्रति ही दिनोंदिन बढ़ती रही। यदि आज़ादी के बाद हम भी जापान की तरह का कुछ काम करते, उधार की तकनीक पर निर्भर रहने के बजाय अपनी ज़रूरतों के हिसाब से अपनी तकनीक विकसित करते, तो शायद विज्ञान-तकनीक के रास्ते वर्चस्व बना रही अँग्रेज़ी के प्रति बहुत मोह पालने की ज़रूरत न होती। तकनीक में हम उधारी की राह चले तो इस रास्ते आ रही भाषा और संस्कृति से भी कहाँ बचे रह सकते थे। इस सबका कुल परिणाम यह हुआ कि हम हिन्दी में भले रोज़मर्रा का व्यवहार चलाते रहे, पर उसके प्रति हमारे दिलों में जो लगाव रहना चाहिए था, नहीं रहा। हम कामचलाऊ हिन्दी तक सीमित हो गए। यह कामचलाऊ हिन्दी ही, हिन्दी की राह का सबसे बड़ा रोड़ा है। अच्छी हिन्दी सीखने की हमने ज़रूरत नहीं समझी। हमारे विद्यालयों में भी अधकचरी हिन्दी सिखाई जा रही है, बल्कि सही कहा जाए तो हिन्दी सिखाई ही कहाँ जा रही है? वह मातृभाषा ठहरी तो लोग कामचलाऊ तो यों ही सीख लेते हैं। अँग्रेज़ी ज़रूर हम ज़िम्मेदारी से सीखते हैं। जिन्हें ठीक से अँग्रेज़ी नहीं आती वे भी चार-छह अँग्रेज़ी व्याकरण की किताबों और शब्दकोशों के नाम बता देंगे, पर हिन्दी व्याकरण और शब्दकोशों के बारे में उनसे पूछ लीजिए तो बग़ले झाँकने लगेंगे। हिन्दी में पीएचडी कर चुके बहुत से लोगों का हाल यह है कि वे नहीं बता पाते कि हिन्दी वर्णमाला में कितने वर्ण हैं, या कि ‘क्ष’ ‘ढ़’, ‘श्र’, ‘ज्ञ’ जैसे चिह्न कहाँ से आ टपके? उस पर तुर्रा यह कि जो थोड़ी-बहुत हिन्दी लिख लेता है, वह ख़ुद को महान् विद्वान् समझने लगता है। हिन्दी के लेखकों और पत्रकारों में यह बीमारी बहुत गहरी है। कभी-कभी तो लाइलाज-सी लगती है। साहित्य की पत्रिकाओं के पन्ने पलटिए तो पता चलेगा कि हमारे लेखक कई बार लिखत-पढ़त से ज़्यादा एक-दूसरे की नुक़्ताचीनी और टाँग खिंचाई में ही मगन रहते हैं। यह बात अलग है कि नामधाम कमा चुके कई लेखकों की रचनाओं की मूल प्रतियाँ आप पढ़ लें तो माथा पीटने को मन करे। ऐसा कहने की हिम्मत मैं जुटा पा रहा हूँ तो इसलिए कि प्रमाणस्वरूप कई नामी लेखकों की मूल प्रतियाँ जहाँ-तहाँ से जुटाकर अपने पास मैंने सहेज रखी हैं। सच कहूँ तो मेरी भी हिन्दी कोई बहुत अच्छी नहीं रही है। विज्ञान पढ़ते-पढ़ते हिन्दी बस घलुवे में पढ़ ली। लेकिन, जब देखा कि हिन्दी के तमाम समझदारों की हिन्दी मुझसे भी ज़्यादा गई-गुज़री है, तो मन में आया कि क्यों न अपने समकक्षों और आने वाली पीढ़ियों के लिहाज़ से मैं भी हिन्दी के लिए कुछ करने की कोशिश करूँ।
हिन्दी के पत्रकारों का हाल और अजब है। किसी पत्रकार से बात कीजिए तो अकसर ऐसा होगा कि वह अपने अग़ल-बग़ल वालों की कमियाँ और अपनी क़ाबिलियत बघारता नज़र आएगा। अगर आप उसकी हाँ में हाँ नहीं मिलाते तो आड़े में जाकर किसी तीसरे से वह आपकी भी ऐसी-तैसी करता दिखाई देगा। बॉस की कुर्सी पर पहुँचने के बाद तो कम ही लोग सहज रह पाते हैं। अहङ्कार इतना कि अपनी ग़लतियों को डङ्के की चोट पर सही ठहराते हैं। कुछ साल पहले जब मैं अख़बार के एक संस्थान में नया-नया ही शामिल हुआ था तो मेरे तब के सम्पादक जी ने एक दिन अपना लिखा सम्पादकीय मेरे पास यह सोचकर पढ़ने को भेज दिया कि कहीं कुछ हल्की-फुल्की भूल-चूक रह गई हो तो ठीक हो जाए। उन्हें यह अन्देशा नहीं था कि वे व्याकरणिक स्तर पर भी कई तरह की ग़लतियाँ करते हैं। ऐसा शायद इसलिए था कि तब तक उनके स्तम्भ को किसी ने सुधारने की हिम्मत नहीं की थी, या कह सकते हैं कि ज़हमत नहीं उठाई थी। जब मैंने सात-आठ सौ शब्दों के उस लेख में बीस-पच्चीस लाल चिह्न लगा दिए तो वे बुरी तरह भड़क गए। छपते-छपाते कुछ ग़लतियाँ तो उन्होंने स्वीकार कीं, पर कुछ और तरह की ग़लतियों को सही मानने की उनकी आदत मैं बदल नहीं सकता था; सो, वे वैसी-की-वैसी ही छपीं। वह अङ्क आज भी मैंने सहेज कर रखा है। वैसे, आजकल के सम्पादकों में कुछ लोग ऐसे हैं जो किसी शङ्का की स्थिति में अपने कनिष्ठों से जानकारी लेने में कोई हर्ज नहीं समझते, पर अधिकतर की स्थिति यही है कि अपनी ज़िद चलाने से बाज़ नहीं आते। भाषा के सरलीकरण के नाम पर जो अराजकता फैलाई जा रही है, उसका बहुत बड़ा कारण यही है।
नई पीढ़ी में सम्भावनाएँ तो हैं, पर शायद उसे कुछ और सहिष्णुता का अभ्यास करने की ज़रूरत है। एक दिलचस्प घटना है। अपने अख़बार के फ़ीचर विभाग में लगे एक सूचना-पट्ट पर एक दिन मेरी दृष्टि पड़ी। उस पट्ट पर 15-20 शब्द लिखे थे, जिनके आगे सही या ग़लत इङ्गित किया गया था। जो सही के रूप में इङ्गित थे उनमें से कुछ शब्दों पर मैंने आपत्ति जताई कि वे वास्तव में ग़लत लिखे गए हैं। उर्दू का एक शब्द था ‘ईनाम’। पत्रकार मित्रों ने बताया कि यह पुरस्कार के अर्थ में प्रयोग किया गया है। मैंने कहा कि यदि ऐसा है तो सही शब्द ‘इनाम’ होगा, क्योंकि ‘ईनाम’ और ‘इनाम’ दोनों उर्दू के हैं और दोनों के अर्थ अलग-अलग हैं। ‘ईनाम’ का अर्थ है—प्रविष्ट कराना, घुसाना; जबकि ‘इनाम’ का अर्थ होता है—पारितोषिक या पुरस्कार। वैसे भी ‘इनाम’ वास्तव में उर्दू लहज़े में ‘इन्आम’ है। ख़ैर, एक पत्रकार साथी भले इनसान थे तो कुछ किन्तु-परन्तु के बाद सहजता से मान गए, पर जब मैंने ‘संन्यासी’ शब्द पर आपत्ति जताई तो एक दूसरे पत्रकार ने कहा कि यह बिलकुल सही शब्द है; और यह भी कि उन्हें इस शब्द के बारे में फलाँ विद्वान् ने बताया था। मैंने कहा कि यह विशुद्ध संस्कृत का शब्द है और संस्कृत में एक साथ आने वाले दो पञ्चमाक्षरों में से एक या दोनों हल् रूप में साथ-साथ आएँ तो वे अपने मूल रूप में ही लिखे जाएँगे। यहाँ किसी एक को अनुस्वार रूप में लिखना ग़लत है। उदाहरण के लिए उन्नति, सम्मति, सन्मार्ग, वाङ्मय, सन्निधि आदि-आदि। इसी तरह से ‘संन्यासी’ को भी सही रूप में लिखा जाएगा तो बनेगा—सन्न्यास। यह बात अलग है कि हिन्दी में ‘संन्यास’ मानक जैसा मानकर लिखा जा रहा है तो इसे रोक पाना आसान नहीं है। इसके अलावा यह भी समझना चाहिए कि पञ्चमाक्षर व्यञ्जन होते हैं, जबकि अनुस्वार न तो व्यञ्जन है और न ही स्वर—यह तो इन दोनों से इतर अयोगवाह है। हुआ यह कि मेरी बात से लोग चुप तो हो गए, पर ऐसा नहीं हुआ कि वे अपनी ग़लती मानने को तैयार हुए हों। एक नामी समीक्षक ने एक किताब की समीक्षा लिखी और अन्त में समीक्षा-कर्म के चलन के अनुसार उस किताब की व्याकरण और वर्तनी की कुछ ग़लतियों को रेखाङ्कित किया, पर दुर्भाग्य यह कि उनकी तीन-चार सौ शब्दों की उस समीक्षा में ही दर्जन भर से ज़्यादा ग़लतियाँ मेरे सामने मुँह बाए खड़ी थीं। यह भी अजब है कि हिन्दी का लेखक यह ध्यान देने की ज़रूरत ही नहीं समझता कि उसके लिखे को कितना कुछ सुधार कर छापा गया है। हाल तो यह है कि आप अपने लेख में सही शब्द ‘मूसलधार’ लिखकर भेजिए तो डेस्क पर उसे ‘मूसलाधार’ बना दिया जाएगा। उपसम्पादक इतना भी दिमाग़ नहीं लगाता कि यह ‘मूसल’ के साथ ‘धार’ का मामला है। ‘मूसला’ के साथ ‘धार’ या ‘मूसल’ के साथ ‘आधार’ का नहीं। मेरे साथ कई बार ऐसा हुआ है कि मेरे लिखे सही शब्दों को ग़लत मानकर अर्थ का अनर्थ कर दिया गया है। एक बार मैंने ‘गवार (एक प्रकार की फली) की सब्ज़ी’ का उल्लेख किया तो उपसम्पादक महोदय ने उसे ‘गँवार की सब्ज़ी’ बना दिया।
ऐसी अनेक घटनाएँ हैं, जिनसे सम्बन्धित अनेक पृष्ठ दस्तावेज़ के रूप में मैंने सहेज कर रखे हुए हैं। किसी का नाम लेकर इसलिए नहीं लिख रहा हूँ कि कहीं बेवजह की टाँग-खिंचाई न शुरू हो जाए। अलबत्ता, इन घटनाओं से इतना तो पता चलता ही है कि जिनके कन्धों पर आज हिन्दी का भविष्य है उनका ख़ुद का वर्तमान कैसा है। बेहद आसान हिन्दी लापरवाह शिक्षण-प्रशिक्षण के चलते कठिन बना दी गई है। हिन्दी पर केंद्रित बहसें इस बात में उलझा दी जाती हैं कि इसे गांधी वाली ‘हिन्दुस्तानी’ होना चाहिए या संस्कृतनिष्ठ और ख़ास ढङ्ग की परिमार्जित। हिन्दी को सरल बनाने का भूत तो अजब ढङ्ग से ही हिन्दी के जाने कितने ही महारथियों के सिर पर सवार है। थोड़ा भी ध्यान दीजिए तो पता चलेगा कि कठिन और सरल की बहस का अधिकांश बचकानेपन से भरा हुआ है। आख़िर कठिन और सरल को नापने का पैमाना क्या है? क्या उच्चारण में दिक़्क़त पैदा करने वाले शब्द कठिन हैं या जो शब्द चलन में कम हैं वे कठिन हैं? उच्चारण में कठिनाई हो तो बात समझ में आती है। मुखसुख का ध्यान रखना अनुचित नहीं है, पर चलन में जो शब्द नहीं हैं या कम हैं, यदि उनकी अर्थवत्ता बनती हो तो उन्हें भी क्यों न फिर से व्यवहार में लाया जाय! क्या इससे भाषा समृद्ध नहीं होगी? वास्तव में इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि शब्द उन्हीं के हाथ का खिलौना बने हैं, जिन्होंने सरल और कठिन के बीच विभाजन रेखा खींचने के बजाय बेहतर सम्प्रेषण को अपने रचना-कर्म का प्रस्थानबिन्दु बनाया। इसी से जुड़ी हुई बहस है कि हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ होना चाहिए या कि इसमें से संस्कृत के शब्दों को निकाल बाहर किया जाय। जो लोग हिन्दी को संस्कृत जैसा बनाना चाहते हैं उन्हें ध्यान रखना चाहिए हिन्दी की भलाई यदि संस्कृत जैसी बनने में ही थी तो इसका संस्कृत से इतर विकास ही क्यों हुआ? वास्तव में हिन्दी एक अलग वातावरण की ज़रूरत थी और उसी के अनुकूल इसका विकास हुआ। यह ज़रूर है कि इसने अपनी बहुत-सी ऊर्जा संस्कृत से ली है तो उसके शब्दों के टकसाल का भी यह इस्तेमाल करेगी ही। हिन्दी के सङ्ग-साथ इस देश की तमाम बोलियाँ और भाषाएँ हैं तो यह उनसे भी कुछ-कुछ गलबहियाँ करती ही चलेगी। यहाँ तक की उर्दू भी कोई बेगानी भाषा नहीं है। इसी देश में पैदा हुई, पली-बढ़ी है तो हिन्दी से इसका भी बहनापा रहेगा ही। लिपि को छोड़ दें तो व्याकरणिक संरचना में दोनों ही भाषाएँ ज़्यादा दूर नहीं हैं। कई बार तो बोलचाल या लिखत-पढ़त में हिन्दी-उर्दू के बीच कोई विभाजक रेखा आप तय ही नहीं कर सकते। मैं तो मानता हूँ कि हिन्दी का यह बहुरङ्गी रूप कमज़ोरी नहीं उसका सामर्थ्य है। अलग-अलग रूपों में हिन्दी की जितनी छटाएँ सम्भव हैं उतनी दुनिया की किसी दूसरी भाषा में सम्भव नहीं हैं। अवधी, ब्रज, भोजपुरी, मैथिली, उर्दू जैसी अन्यान्य बोलियों-भाषाओं के साथ आप हिन्दी को अद्भुत सामर्थ्यवान भाषा के रूप में देख सकते हैं। हिन्दी को न संस्कृतनिष्ठ बनाने का हठ पालना चाहिए और न उर्दू-निष्ठ। लिखत-पढ़त की सहज धारा में यह कुछ-कुछ संस्कृतनिष्ठ होने लगे तो क्या परेशानी; और, उर्दू का लहज़ा भी भाषा में रवानी पैदा करे तो भी क्या मुसीबत!
असल बात हिन्दी के वातावरण से मेल बैठाने की है। जो बोलियाँ-भाषाएँ हिन्दी के साथ सामञ्जस्य बनाती हुई दिखाई देती हैं उनके शब्द अपनाने पर हिन्दी की समृद्धि में चार चाँद लगेंगे, पर अँग्रेज़ी का मसला अलग तरह का है। हिन्दी के साथ इसका मेल-मिलाप अनमेल विवाह-सा है। हाँ, समय के साथ अँग्रेज़ी के जो शब्द हिन्दी से मेल बैठाने लगे हैं उन्हें हम धड़ल्ले से इस्तेमाल कर ही रहे हैं, उनसे किसी को कहाँ कोई दिक़्क़त है! इसके अलावा, हिन्दी का सौभाग्य है कि इसने संस्कृत की विज्ञानसम्मत लिपि देवनागरी को अपना कर अपने सामर्थ्य को और पुख़्ता किया है। काश! हिन्दी वर्णमाला की वैज्ञानिकता और इसके अभिव्यक्ति सामर्थ्य को पहचान कर इसे नई पीढ़ी को बताने का काम किया जाए तो शायद यह पीढ़ी भी अपनी भाषा पर एक-न-एक दिन गर्व की अनुभूति करने लगेगी। ऐसा होने लगे तो सबसे बड़ी बात यह होगी कि लोग अच्छी हिन्दी सीखने के प्रति ज़्यादा रुचि दिखाएँगे। और इस तरह, यदि अच्छी हिन्दी के जानकारों की सङ्ख्या बढ़ने लगी, तो आज हम हिन्दी में विज्ञान, समाज विज्ञान वग़ैरह के उम्दा लेखन का जो रोना रोते रहते हैं, उसकी नौबत नहीं आएगी। वास्तव में इसी राह पर चलते हुए भाषा पर मँडरा रहे ख़तरे के बादल छँट सकेंगे और शिक्षा की तमाम विधाओं में उच्चकोटि के रचनाकर्म का मार्ग प्रशस्त होगा। अन्ततः यही स्थिति हिन्दी को सही मायने में उसकी असली जगह भी दिलाने का काम करेगी। (सन्त समीर)