हिन्दी का व्यावहारिक और वैज्ञानिक पक्ष
जिस समय देवनागरी का जन्म हुआ, उस समय भारत की स्थिति दुनिया के अन्य देशों की तरह कबीलाई नहीं थी। भारतीय मानस विकास के चरम पर था। गूढ़ दार्शनिक-सामाजिक संवादों की एक पूरी परम्परा चल रही थी। श्रुति परम्परा में अध्ययन-अध्यापन जारी था। कहने का अर्थ यह है कि देवनागरी या पूर्व रूप ब्राह्मी का विकास अशिक्षित, जङ्गली लोगों ने नहीं, बल्कि समझदारी के शिखर पर बैठे मनीषियों ने किया। इस नाते भी देखा जाए तो देवनागरी महज़ एक लिपि भर नहीं है। यह हमारी सांस्कृतिक विकास प्रक्रिया का एक चेहरा भी है, जिस पर हम गर्व कर सकते हैं।
बड़े-बड़े लोगों के ऐसे बयान अक्सर पढ़ने-सुनने को मिल जाते हैं कि हिन्दी को व्यावहारिक, लोकप्रिय और आधुनिक वैज्ञानिकता के अनुकूल बनाने के लिए इसके लहज़े का हिङ्ग्लिशीकरण और लिपि का रोमनीकरण कर दिया जाना चाहिए। सवाल है कि क्या वास्तव में ऐसा कर देने से हिन्दी संसार का सरताज बन जाएगी या नतीजा कुछ ऐसा होगा कि यह न घर की रह पाएगी न घाट की? हिन्दी के हिङ्ग्लिशीकरण, रोमनीकरण और सरलीकरण का अभियान चलानेवालों को चाहिए कि हिन्दी के सामर्थ्य को थोड़ी और ईमानदारी के साथ पहचानने का प्रयत्न करें। इस हिसाब से देखें तो किसी भाषा की व्यावहारिकता और सामर्थ्य का एक पैमाना यह हो सकता है कि विभिन्न विधाओं की रचना अभिव्यक्तियों के प्रति उसकी अनुकूलता कितनी है। इस पैमाने पर हिन्दी कितनी खरी उतरती है, इसका जवाब इस सवाल में छिपा है कि क्या विश्व साहित्य की कोई ऐसी विधा है, जिसे अपना पाने में हिन्दी असमर्थ है? बताने की ज़रूरत नहीं है कि इस मोर्चे पर हिन्दी की शक्ति अद्भुत है। गद्य हो या पद्य, संसार की प्रायः सभी विधाओं में हिन्दी में सफलतापूर्वक रचनाकर्म किया जा रहा है। फ़ारसी की पुराने ज़माने की ग़ज़ल से लेकर जापानी की आधुनिक काव्य विधा हाइकू तक हिन्दी में अपना जलवा बिखेर रहे हैं। अब यही सवाल ज़रा उलटकर कीजिए कि क्या हिन्दी की तरह अन्य भाषाओं में भी विभिन्न भाषाओं की अन्यान्य विधाओं में सहज रचनाकर्म सम्भव है? हिन्दी का मुक़ाबला अक्सर अँग्रेज़ी से कराया जाता है, इसलिए बेहतर होगा कि एक तुलना अँग्रेज़ी से ही कर ली जाए। हिन्दी की अनेक काव्य विधाओं में से सबसे प्रचलित दोहा या चौपाई की चार-छह पङ्क्तियाँ क्या अँग्रेज़ी में लिखकर कोई दिखा सकता है? एक बार मज़ाक में किसी ने ‘प्रविसि नगर कीजै सब काजा। हृदय राखि कोसलपुर राजा।।’ का अँग्रेज़ी में अनुवाद कुछ यों किया–‘इण्टर द सिटी डू एवरीथिङ्गा। हर्ट पुटिङ्ग कोसलपुर किङ्गा।।’ इस उदाहरण पर आप हँसे बिना नहीं रह सकते। स्पष्ट है कि अँग्रेज़ी में ऐसे काम, व्याकरण और शब्दों में तोड़-मरोड़ करके सिर्फ़ मज़ाक के तौर पर किए जा सकते हैं, गम्भीरता के साथ नहीं। अब ज़रा सोचिए कि हिन्दी में अभिव्यक्ति का सामर्थ्य अधिक है या अँग्रेज़ी में? हिन्दी ज़्यादा लचीली भाषा है या अँग्रेज़ी? हर तरह की विधा को अपना लेने की व्यावहारिकता ऊँचे दर्जे के लचीलेपन के बग़ैर सम्भव नहीं है, और इस कसौटी पर हिन्दी के सामने अँग्रेज़ी ही क्या, दूसरी तमाम भाषाएँ भी आसानी से खड़ी नहीं हो सकतीं। सच्चाई यही है कि अँग्रेज़ी अपनी ख़ूबियों के कारण नहीं, बल्कि तकनीकी वर्चस्व वाले देशों की भाषा होने के कारण दुनिया भर में फैल रही है। इसके उलट, हिन्दी अपने सामर्थ्य के चलते बचती-बढ़ती चली आई है, बावजूद इसके कि आज़ादी के बाद से ही इसे पीछे धकेलने की भरसक कोशिशें की जाती रही हैं।
हिन्दी के व्यावहारिक सामर्थ्य का एक प्रबल पक्ष यह है कि दूसरी भाषाओं के शब्दों को अपनाने और उन्हें अपनी प्रकृति में ढाल लेने की इसकी विशेषता अद्भुत है। अरबी, फ़ारसी, तुर्की, अँग्रेज़ी जैसी भाषाएँ हिन्दी के सम्पर्क में ज़्यादा रहीं तो इनके शब्दों को हिन्दी ने आश्चर्यजनक सहजता के साथ अपनाया है। तमाम, ख़ाली, क़ीमत, अमीर, उजबक, कैंची, कुली, चकमक, गलीचा, तोप, चाकू, तमगा,दरोग़ा, लाश, आज़ाद, आबाद, गरम, नरम, ताज़ा, सादा, ख़ुशी जैसे सैकड़ों शब्द हैं, जो दैनन्दिन व्यवहार में चलते हैं, पर आम हिन्दीभाषी को क़तई नहीं मालूम कि ये अरबी, फ़ारसी और तुर्की के शब्द हैं। अगर बताया न जाए तो क्या कोई ध्यान दे पाएगा कि दाँतों तले उँगली दबाना, हाथ-पैर मारना, पानी-पानी होना, नमक हरामी करना, काम तमाम करना, ज़मीन-आसमान एक करना, हुक्का-पानी बन्द करना, तितर-बितर करना–जैसे फ़ारसी के अनेक मुहावरे हिन्दी ने ज्यों के त्यों अपना लिए हैं। इसी तरह मशीन, कटपीस, कमेटी, कुनैन, केतली, कोट, गिलास, गैस, चाक, चिमनी, अपील, जज, जेल, जेलर, टिकट, डायरी, प्रेस, बम, बटन, मनीऑर्डर, मफलर, मलेरिया, राशन, लालटेन, रिवाल्वर, लोकल, सूटकेस, हारमोनियम, सिनेमा जैसे अन्यान्य शब्दों को देखें तो ज़्यादातर लोगों के लिए जान पाना कठिन है कि ये मूल रूप में अँग्रेज़ी के शब्द हैं। अचार, अलमारी, आलपीन, गमला, गोभी, गोदाम, काजू, सागू, नीलाम, चाबी, तम्बाकू, बोतल, सन्तरा, मिस्त्री, मेज जैसे शब्द हिन्दी में ऐसे रचे-बसे हैं कि शायद ही कुछ लोग समझ पाएँ कि ये पुर्तगाली जैसी किसी अन्य भाषा के हैं। हिन्दी की व्यावहारिकता और लचीलापन देखना हो तो बाज़ार-भाव, चोर-दरवाज़ा, मियाँ-मिट्ठू, राजमहल, मोमबत्ती, जेबघड़ी, आँधी-तूफ़ान, ख़ून-पसीना, जाति-बिरादर, पुलिस-चौकी, पार्सल-घर, डाकघर, जेबकतरा, रेलगाड़ी जैसे सैकड़ों तरह के भाषाई फ्यूजन में देखिए। दो भाषाओं के मेल से अपने मतलब का शब्द बना लेने की ऐसी सहजता अन्य किसी भाषा में दिखाई देनी मुश्किल है।
हिन्दी की व्यावहारिकता के पक्ष में एक बड़ी शक्ति हमारी बोलियाँ हैं। इस देश में बोलियों की सङ्ख्या काफ़ी बड़ी है, जिसके चलते विविध भावों और विधाओं को अभिव्यक्ति देने के लिए हिन्दी के पास शब्दों कोई कमी नहीं रह जाती। आवश्यकता सिर्फ़ इस बात की है कि हिन्दी की इस क्षमता का उपयोग विज्ञान, गणित, इतिहास, भूगोल, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र आदि विधाओं में खुलकर किया जाए। हिन्दी की व्यावहारिकता का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि हिन्दी की बोल-बात को देश के कोने-कोने में अहिन्दीभाषी लोग भी प्रायः समझ लेते हैं।
हिन्दी भाषा की व्याकरणिक संरचना इसकी व्यावहारिकता और वैज्ञानिकता को एक साथ सिद्ध करती है। हिन्दी की विशिष्टता है कि यह जिस क्रम में बोली जाती है उसी क्रम में लिखी भी जाती है। कर्ता-कर्म-क्रिया का क्रम प्रयोग की दृष्टि से इसे व्यावहारिक और सहज बनाता है। हिन्दी में शब्दों की व्युत्पत्ति का भी तार्किक आधार है, तो सन्धि और समास से शब्द निर्माण की सुचिन्तित व्यवस्था शब्दार्थ को सुनिश्चतता और प्रासङ्गिकता प्रदान करती है। शब्द शृङ्खलाओं में प्रत्ययों और उपसर्गों का सौन्दर्य आसानी से देखा जा सकता है। शब्दार्थ की अभिधा, लक्षणा और व्यञ्जना शक्तियाँ शब्दार्थ और वाक्यार्थ की शक्ति बढ़ाने वाली हिन्दी की अद्भुत विशेषताएँ हैं।
वैज्ञानिकता की दृष्टि से देखा जाए तो हिन्दी भाषा की जो विशेषता इसे संसार की सभी भाषाओं में सबसे आगे खड़ा करती है, वह है इसकी लिपि। हिन्दी ने अपनी लिपि संस्कृत से ली है तो इस नाते संस्कृत की कई दूसरी वैज्ञानिकताएँ भी उसे विरासत में मिल गई हैं। लिपि ऐसी विशेषता है, जिसे केन्द्र में रखकर अभियान चलाया जाए तो संसार की अन्यान्य भाषाओं के लिए एक सर्वमान्य लिपि का सवाल हल हो सकता है।
हिन्दी की लिपि देवनागरी का विश्लेषण किया जाय तो कई रोचक तथ्य निकलते हैं।
हम जानते हैं कि दुनिया में लिपियों का विकास ध्वनियों को सङ्केतों में बदलने की ज़रूरत के चलते हुआ, लेकिन देवनागरी लिपि को जब हम देखते हैं तो एक बात पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है कि अन्य लिपियों का विकास जिस तरह से हुआ, देवनागरी का विकास उससे कुछ अलग तरह से हुआ है। जिस समय देवनागरी का जन्म हुआ, उस समय भारत की स्थिति दुनिया के अन्य देशों की तरह कबीलाई नहीं थी। भारतीय मानस विकास के चरम पर था। गूढ़ दार्शनिक-सामाजिक संवादों की एक पूरी परम्परा चल रही थी। श्रुति परम्परा में अध्ययन-अध्यापन जारी था। कहने का अर्थ यह है कि देवनागरी या पूर्व रूप ब्राह्मी का विकास अशिक्षित, जङ्गली लोगों ने नहीं, बल्कि समझदारी के शिखर पर बैठे मनीषियों ने किया। इस नाते भी देखा जाए तो देवनागरी महज़ एक लिपि भर नहीं है। यह हमारी सांस्कृतिक विकास प्रक्रिया का एक चेहरा भी है, जिस पर हम गर्व कर सकते हैं।
मानवीय व्यवहार के लिए सर्वाधिक उपयुक्त प्रकृति की ध्वनियों को पकड़ने वाली देवनागरी से बेहतर लिपि संसार में अभी तक और कोई नहीं है। देवनागरी में अ..है तो ..अ, इ..है तो..इ, क..है तो..क, ख है तो ..ख। इसी तरह सारे वर्णों को आप वही लिखते हैं जो आप बोलते हैं। देवनागरी के हर वर्ण की बनावट में भी एक जादू है। दिलचस्प है कि हर वर्ण अपनी बनावट में अपने मूल अर्थ का भान कराता है। देवनागरी वर्णों की बनावट में हमारे मनीषियों की तार्किक सोच दिखाई देती है, जो अन्य किसी लिपि में नहीं पाई जाती।
वर्णों की बनावट की बात करते हुए यह बताना ज़रूरी है कि देवनागरी की इस अजब-ग़ज़ब अक्षरात्मकता और ध्वन्यात्मकता का मूल कारण क्या है। वास्तव में भारतीय मनीषा समूची प्रकृति को ही एक लयबद्ध रचना मानती है। हमारे पुरखे मानते थे कि प्रकृति में कुछ भी अललटप्प नहीं है। पूरी प्रकृति सुविचारित है, तारतम्य में है और इसका ज़र्रा-ज़र्रा नियमों में बँधा है। इसी सोच की वजह से आस्तिकता का जन्म हुआ कि यह सृष्टि नियन्त्रण में है और इसका कोई नियन्ता है। इस बुनियादी सोच के चलते हमारे लोगों ने प्रकृति में अललटप्प ढङ्ग से जीने के बजाय इसके साथ समरस होकर जीने का तरीक़ा अपनाया। इसीलिए उन लोगों ने अपने काम के भौतिक-अभौतिक जो भी उपकरण बनाए, उन सबमें भी एक लयबद्धता तलाशी और अन्तिम सीमा तक उनकी बुनियाद प्रकृतिसम्मत रखने की कोशिश की। योग, सङ्गीत, आयुर्वेद..जैसी अन्यान्य विद्याओं के प्राचीन रूपों में इस लयबद्धता को साफ़ तौर पर महसूस किया जा सकता है। लिपि-निर्माण में भी इसी लयबद्धता, सुव्यवस्था, प्रकृतिसम्मतता को ध्यान में रखा गया। यह बात ज़रूर है कि इस तरह की स्थापना से लिपियों के विकास से जुड़ी कई मान्यताओं पर प्रश्नचिह्न खड़ा होता है, पर हमारी वर्णमाला में स्पष्ट दिखनेवाली यह सुव्यवस्था ही है, जिसके चलते क़रीब एक शताब्दी पहले ही आशुलिपि के अनुसन्धानकर्ता आइजक पिटमैन और मोनियर विलियम्स जैसे प्रसिद्ध अँग्रेज़ विद्वानों को भी मानना ही पड़ा था कि संसार की समस्त लिपियों में देवनागरी में सबसे ज़्यादा पूर्णता है।
देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता को ठीक से समझने के लिए संस्कृत में प्रयुक्त होने वाली मूल वर्णमाला के परिप्रेक्ष्य में विचार कर लिया जाय तो बात अच्छी तरह स्पष्ट हो जाती है। हिन्दी में स्वीकृत वर्णमाला में संस्कृत प्रयोग वाले कुछ वर्णों को त्याग दिया गया है तो ज़रूरत के कुछ नए वर्ण बना लिए गए हैं, पर मूल वर्णमाला में वास्तव में कुल 64 वर्ण हैं। 25 स्वर, 25 वर्ग (कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग) के तथा 13 स्फुट के जोड़कर 63 अक्षर हुए और इनमें एक अर्धचन्द्र मिलाकर कुल 64 होते हैं। इन वर्णों पर और सूक्ष्मता से विचार करें तो पता चलेगा कि मूलतः कुल 17 अक्षर हैं। केवल प्रयत्न से उच्चारित होने वर्णों, यानी स्वरों (अ, इ, उ, ऋ, लृ) की संख्या 5 तथा जिनके उच्चारण में स्थान और प्रयत्न दोनों सहायक होते हैं, यानी व्यञ्जनों (क, ग, च, ज, ट, ड, त, द, प, ब) की सङ्ख्या 10 है। दो मध्यस्थ, यानी अनुस्वार तथा विसर्ग हैं। ये ही 17 अक्षर आपसी संयोग से 64 प्रकार के स्वरूप ग्रहण कर लेते हैं। हमारे मनीषियों ने और गहरे उतरकर पहचाना कि सारी ध्वनियों की जड़ में एक ही ध्वनि या वर्ण ‘अ’ है। मुँह सहज रूप से खुलता है तो सबसे पहले ‘अ’ ही निकलता है। इस ‘अ’ को बोलते हुए जब जीभ को इधर-उधर हिलाते-डुलाते या स्पर्श कराते हुए उच्चारण किया जाता है तो भाँति-भाँति की ध्वनियाँ सुनाई देने लगती हैं। अब ज़रा इस दिलचस्प और एकदम प्राकृतिक या कहें परम वैज्ञानिक ध्वनि परिवर्तन की प्रक्रिया की एक बानग़ी देखें कि कैसे एक वर्ण से दूसरा वर्ण मिलता है तो सहज रूप से एक तीसरे वर्ण का जन्म हो जाता है। प्रयोग के तौर पर हम ‘क’ और ‘ह’ को मिलाकर बोलने की कोशिश करें तो आश्चर्यजनक रूप से ‘ख’ सुनाई देगा। इसी तरह बताने की ज़रूरत नहीं है कि ग+ह=घ, च+ह=छ, ज+ह=झ, ट+ह=ठ, ड+ह=ढ, त+ह=थ, द+ह=ध, प+ह=फ, ब+ह=भ…बन जाते हैं। यह देवनागरी के ध्वनि-विज्ञान की तरफ़ सङ्केत भर है। संसार की अन्य भाषाओं की लिपियों में वर्णों के विकास और शब्द निर्माण में कहीं कोई वैज्ञानिकतापूर्ण समझ नहीं नज़र आती, परन्तु देवनागरी लिपि की वैज्ञानिकता का इससे स्पष्ट प्रमाण और क्या हो सकता है कि कोई ध्वनि जैसी उच्चारित होती है, उसे उसी रूप में इस लिपि में लिखा जाता है।
देवनागरी के वर्ण कैसे अपनी बनावट में भी अपने अर्थ का भान कराते हैं, यह समझना रोचक है। शुरू के दो मूल स्वरों ‘अ’ और ‘इ’ की ही सङ्क्षिप्त विवेचना कर लें तो बाक़ी के लिए बात साफ़ हो जाएगी। वर्णमाला के पहले अक्षर ‘अ’ के पुराने रूप की बनावट दिलचस्प है। उच्चारण के समय मुँह में बनने वाले आकार तथा अक्षरार्थ, दोनों का ध्यान रखा गया है। ‘अ’ का उच्चारण करते समय इसकी ध्वनि तालु से लेकर बाहर तक सीधे दण्ड (।) जैसे आकार में निकलती है। तो यह दण्ड या स्तम्भ (।) ही ‘अ’ के पुराने रूप का मूल है। चूँकि किसी भी अक्षर का उच्चारण बिना अ-कार के सम्भव नहीं होता तो इसलिए वर्णमाला के हर अक्षर की बनावट में भी इस स्तम्भ की उपस्थिति दिखाई देती है, यानी ‘अ’ सबमें समाया हुआ है। कोई मात्रा (स्वर) लगाई जाती है तो वह भी इसी स्तम्भ यानी ‘अ’ पर लगाई जाती है। ‘अ’ (लिपि चिह्न के पुराने रूप पर ध्यान दें) की बनावट में एक विशेषता यह है कि यह स्वतन्त्र रूप में लिखा जाता है तो (।) के बजाय शून्य जैसे आकार ‘0’ में दण्ड (।) जोड़कर बनाया गया है। शून्य का गोल आकार इसलिए कि अ-कार की ध्वनि निकलते समय पूरा मुँह इसी आकार में चारों ओर से एक समान खुला रहता है (सर्व मुखस्थानमवर्णमित्येके—पाणिनि)। इसका सबसे अच्छा चित्र 0 ही हो सकता है। मज़े की बात है कि ‘अ’ अक्षर पूर्ण, सर्वव्यापक, अखण्ड के साथ-साथ अभाव के अर्थ वाला भी है, तो पूर्णता और अभाव दोनों के लिए भी 0 सर्वथा उपयुक्त प्रतीक है। इस तरह स्पष्ट हुआ कि ‘अ’ के पुराने रूप की बनावट में कितनी वैज्ञानिकता है।
इसी प्रकार ‘ई’ के अक्षरार्थ पर ध्यान दें तो इसका अर्थ ‘गति’ है। निःसन्देह कहा जा सकता है कि गति का स्वाभाविक प्रतीक बनाना हो तो उसे कुछ-कुछ सर्पिल बनाना पड़ेगा। ‘ई’ में गति का यही प्रतीक विद्यमान है। अन्य वर्णों की बनावट में भी ऐसी ही तार्किकता देखी जा सकती है।
इतनी वैज्ञानिकतापूर्ण लिपि के होते हुए भी जो लोग हिन्दी को रोमनमय बनाना चाहते हैं, वे वास्तव में अमूल्य हीरा फेंककर कङ्कड़, पत्थर सहेजने वाला काम कर रहे हैं। यह बात ज़रूर है कि हमारी लिपि के मूल ध्वनि-चिह्न वर्तमान तक आते-आते काफ़ी परिवर्तित हो गए हैं, परन्तु इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि अक्षरात्मकता और ध्वन्यात्मकता की इसकी मूल विशेषता का इससे क्षरण नहीं हुआ है।
देवनागरी की वैज्ञानिकता का एक निरुत्तर कर देने वाला उदाहरण यह भी है कि इसमें स्वर-व्यञ्जन, अल्पप्राण-महाप्राण, अनुनासिक्य-अन्तस्थ-ऊष्म आदि रूपों में ध्वनि-चिह्नों की क्रम-व्यवस्था को ध्वनि-वैज्ञानिक पद्धति से उच्चारण स्थान तथा प्रयत्नों को आधार बनाकर तय किया गया है। इसमें अन्य भाषाओं की तरह एक चिह्न से अनेक ध्वनियों को व्यक्त नहीं किया जाता, बल्कि प्रत्येक ध्वनि के लिए स्वतन्त्र चिह्न निर्धरित है। इससे लेखन में किसी भ्रम की गुञ्जाइश नहीं रह जाती। अँग्रेज़ी जैसी भाषा की रोमन लिपि में जिस तरह से विद्वान् से विद्वान् व्यक्ति को भी हर नए शब्द की वर्तनी (स्पेलिङ्ग) रटनी ही पड़ती है, उस तरह से देवनागरी लिपि में करने की आवश्यकता नहीं होती। इसमें तो वर्णमाला और मात्रा-विधान को जान लेने के बाद केवल शुद्ध उच्चारण जान-सुनकर भी किसी भी शब्द को ठीक रूप में लिखा जा सकता है। निष्कर्ष यही है कि संस्कृत और देश भर की अन्यान्य बोलियों के चलते हिन्दी सम्पूर्ण भारत के लिए सर्वाधिक व्यावहारिक भाषा तो है ही, विज्ञानसम्मत भी ऐसी है कि वैश्विक स्तर पर स्पष्ट रूप से यह अग्रिम पङ्क्ति में शामिल होने का सामर्थ्य रखती है।
बहुत ही अच्छा लेख है । संत समीर के हिन्दी पर लिखे सभी लेखों की बात ही अलग है। हिन्दी भाषा को सरल तरीके से प्रस्तुत करने के लिए और हिन्दी के प्रचार, प्रसार और उत्थान में संत समीर जैसे विद्वानों काअत्यंत महत्वपूर्ण योगदान है ।