पत्रकारिताविमर्श

मीडिया में मूल्यबोध का सवाल

बदलते समय में पत्रकारिता के व्यावसायिक चेहरे को नकारने की ज़रूरत नहीं है, पर मीडिया संस्थानों को स्मरण रखना चाहिए कि यह कोई साधारण पेशा नहीं है। देश की जनता तक सही सूचनाएँ पहुँचाने के साथ-साथ परोक्ष रूप में उसे शिक्षित, संस्कारित करने की ज़िम्मेदारी भी मीडिया के कन्धों पर है। यह सही है कि विज्ञापनों को नकारने की गान्धी की हद तक जाना आज की पत्रकारिता के लिए असम्भव-सा है, पर व्यावसायिक हितों के साथ गान्धी के दिए मूल्यबोध पर टिके रहना भी कोई बहुत मुश्किल नहीं है।

यह लेख लिखना शुरू कर रहा हूँ तो बचपन के दिन याद आ रहे हैं। तब ठीक से नहीं मालूम था कि अख़बार या समाचार पत्र का मतलब क्या होता है। मीडिया शब्द से तो ख़ैर सामना ही नहीं हुआ था। अवध के मेरे ग्रामीण इलाक़े में अविश्वसनीय लगने वाली कोई ख़बर फैलने पर जैसे ही किसी के मुँह से निकलता कि यह ‘जनमोर्चा’ में छपा है, तो लोग बिना हील-हुज्जत किए आँख मूँदकर विश्वास कर लेते। ‘जनमोर्चा’ फ़ैज़ाबाद से छपने वाला देश का पहला सहकारी अख़बार रहा है। वर्तमान में इसकी क्या प्रगति या दुर्गति है, ज़्यादा कुछ नहीं पता, पर तीन दशक पहले पूरे अवध के लिए यह किसी भी अख़बार का पर्याय हुआ करता था। अख़बार का नाम कुछ भी हो, आमजन उसे ‘जनमोर्चा’ नाम से ही सम्बोधित करता था। वैसे ही, जैसे कि किसी भी ब्राण्ड के वनस्पति घी को लोग ‘डालडा’ कह दिया करते थे। उस दौर में ज़्यादातर अख़बारों की विश्वसनीयता अपने-अपने इलाक़े में कुछ ऐसी ही रही है। मतलब यह कि अख़बार में छपा है तो ब्रह्मवाक्य। शुरुआती दौर में टीवी चैनलों की विश्वसनीयता भी भरपूर रही है। प्रिण्ट हो या इलेक्ट्रॉनिक, मीडिया से जुड़ा कोई व्यक्ति सामने आ जाए तो समाज उसे एक ख़ास इज़्ज़त की निगाह से देखता था। पत्रकार का सामान्य मतलब था जनता के पक्ष में खड़ा सामाजिक सरोकार से लबालब भरा देश का कुछ अतिरिक्त ज़िम्मेदार व्यक्ति, लेकिन आज अगर पत्रकार या पत्रकारिता-कर्म के लिए कोई यह इज़्ज़त देना चाहे तो सामने से ढेर सारे सवाल उछलकर ज़बान बन्द करने लगते हैं।

पत्रकारिता-कर्म के प्रति जनसामान्य में यदि सम्मान का एक विशिष्ट भाव रहा है, तो इसके पीछे वास्तव में पत्रकारिता का मूल्यबोध है। मूल्यबोध को भारतीय पत्रकारिता का आत्मतत्त्व कह सकते हैं। बताने की ज़रूरत नहीं है कि आज़ादी की लड़ाई को कामयाबी के शिखर तक पहुँचाने में पत्रकारिता के इस मूल्यबोध ने बड़ी भूमिका निभाई थी, लेकिन गौरवपूर्ण अतीत के बरक्स आज पत्रकारिता के हर मोर्चे पर जिस तरह का क्षरण दिखाई दे रहा है, वह चिन्ताजनक है। आशङ्काएँ विश्वास में बदलती दिख रही हैं कि चौथा खम्भा निरन्तर जर्जर हो रहा है। एक सामान्य मज़ाक़ बन गया है कि पत्रकार वह है जो पत्रकार बनते ही आनन-फानन में पत्र के माध्यम से कार की व्यवस्था कर ले। आम बोलचाल में इसे दलाली की सञ्ज्ञा दी जाती है। सच है कि पत्रकारों के एक वर्ग पर दलाल का ठप्पा लग रहा है, तो मीडिया संस्थानों के मालिकों और सम्पादकों पर सूचनाओं के ब्लैकमेलर का। मीडिया में मूल्यबोध का सङ्कट मैदान से लेकर संस्थानों के भीतर तक है। इसका ही नतीजा है कि अख़बार में छपे को ब्रह्मवाक्य मानना अब हास्यास्पद होने लगा है।

महात्मा गान्धी, बाबूराव विष्णु पराड़कर, माधवराव सप्रे जैसे क्रान्तिधर्मा मनीषियों ने व्यावसायिक हितों की होड़ में पत्रकारिता के मूल्यबोध को हो सकने वाले नुक़सान को बहुत पहले ही पहचान लिया था। आज के समय में जबकि मीडिया व्यवसाय और मिशन के बीच कोई सीमारेखा नहीं निर्धारित कर पा रहा है तो गान्धी जैसे लोगों को शुरू से ही अपने पत्रकारिता-कर्म के उद्देश्य और मन्तव्य में कहीं कोई उलझन नहीं थी। गान्धी के लिए पत्रकारिता जीवनयापन का हेतु नहीं, बल्कि जीवन सँवारने, उसे अर्थमय बनाने का माध्यम थी। सन्देश वे यह भी दे रहे थे कि जीवन में कोई भी काम सिर्फ़ रोज़गार के तौर पर ही नहीं अपनाया जाना चाहिए। रोज़गार अनिवार्य है, पर हर रोज़गार में जीवन मूल्यों को ऊँचाई देने का नैतिक उद्देश्य अवश्य शामिल रहना चाहिए। गान्धीजी की नज़र में समाचार पत्र आमजन के पक्ष में लड़ाई के सबसे प्रभावशाली हथियारों में से एक था। 4 जून, 1903 को जब उन्होंने ‘इण्डियन ओपिनियन’ का सम्पादन सँभाला तो पत्रकारिता के अपने उद्देश्यों पर भी स्पष्ट लिखा—‘‘पत्रकारिता का पहला काम जनभावनाओं को समझना और अभिव्यक्ति देना है। पत्रकारिता का दूसरा उद्देश्य लोगों में ज़रूरी भावनाओं को जगाना है। पत्रकारिता का तीसरा उद्देश्य निर्भीक तरीक़े से गड़बड़ियों को उजागर करना है।’’

समाज हित को ध्यान में रखकर देखा जाय तो वास्तव में गान्धी के बताए ये तीनों उद्देश्य जनसञ्चार माध्यमों के बुनियादी सूत्र होने चाहिए, लेकिन आज इनमें से पहले दो उद्देश्य मीडिया के नए बन रहे चेहरे पर दूर-दूर तक कहीं नज़र नहीं आते, तो तीसरा उद्देश्य भी विकृत रूप में ही देखा जा सकता है।

बदलते समय में पत्रकारिता के व्यावसायिक चेहरे को नकारने की ज़रूरत नहीं है, पर मीडिया संस्थानों को स्मरण रखना चाहिए कि यह कोई साधारण पेशा नहीं है। देश की जनता तक सही सूचनाएँ पहुँचाने के साथ-साथ परोक्ष रूप में उसे शिक्षित, संस्कारित करने की ज़िम्मेदारी भी मीडिया के कन्धों पर है। यह सही है कि विज्ञापनों को नकारने की गान्धी की हद तक जाना आज की पत्रकारिता के लिए असम्भव-सा है, पर व्यावसायिक हितों के साथ गान्धी के दिए मूल्यबोध पर टिके रहना भी कोई बहुत मुश्किल नहीं है।

एक समय था कि देश के अख़बार और पत्रिकाएँ ‘राष्ट्रीय नवनिर्माण अङ्क’ छापा करते थे, पर क्या आज हम ऐसी उम्मीद कर सकते हैं। भारतीय मीडिया का चेहरा मिशन भाव के साथ बनना शुरू हुआ और लम्बे समय तक वह अपने इस मूल्यबोध पर क़ायम रहा। ऐसा नहीं था कि पत्रकारिता तब आजीविका का साधन नहीं बनी। आजीविका का साधन वह बनी, पर मिशनरी भाव की अनिवार्यता के साथ। आगे मिशनरी भाव पीछे व्यवसाय। पत्रकारिता के हमारे पुरोधाओं को एहसास था कि व्यावसायिकता को शीर्ष पर रखे जाने का मतलब होगा पत्रकारिता का दूषित होना। अमेरिकी राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट ने 1904 में कहा था—‘‘वह आदमी जो लिखता है, जो महीने-दर-महीने, हफ़्ते-दर-हफ़्ते, दिन-रात चीज़ें जुटाकर लोगों के विचारों को आकार देता है, दरअसल वही आदमी है जो किसी अन्य व्यक्ति की अपेक्षा, लोगों के व्यक्तित्व या वैशिष्ट्य को तय करता है और साथ-साथ यह भी, कि वे किस तरह के निजाम के क़ाबिल हैं।’’

रूजवेल्ट का यह कथन वास्तव में मीडिया के कन्धों पर बैठी महान् ज़िम्मेदारी  का सङ्केत है। निष्कर्ष यह भी है कि पत्रकार को इस बात की आज़ादी थी कि वह चाहे तो किसी का पक्षधर बनकर रहे या आज़ाद-ख़याल रहे। हालाँकि यहीं पर इस बात की पहचान भी की जा सकती है कि कैसे राजनीति की दिशा निर्धारित करने की भूमिका निभाने वाले मीडिया को राजनीति ने अपने हितसाधन के लिए मजबूर करने की कोशिशें शुरू कीं। एक समय आता है कि 1909 में इन्हीं रूजवेल्ट के ख़िलाफ़ ‘पनामा कनाल’ घूसखोरी के मामले में जोसेफ पुलित्जर जैसा पत्रकार लड़ाई लड़ता है। रूजवेल्ट पूरी ताक़त लगाते हैं पुलित्जर को तोड़ने की। जेल की धमकियाँ दी जाती हैं, पर तीन साल की अदालती लड़ाई के बाद पुलित्जर की विजय होती है। दिलचस्प है कि अमेरिकी मीडिया ने अपने ताक़तवर सत्ता प्रतिष्ठान के ख़िलाफ़ कई निर्णायक लड़ाइयाँ लड़ी हैं और इसकी परम्परा अब तक चली आई है, पर भारतीय मीडिया आज़ादी के कुछ दशकों बाद बेहद दयनीय स्थिति तक निर्वीर्य होता हुआ दिखाई देता है। आपात्काल में हमारे अधिकतर मीडिया संस्थान इन्दिरा गान्धी के सामने कैसे साष्टाङ्ग दण्डवत हुए, यह बताने की बहुत ज़रूरत नहीं है। किसी पत्रकार के पुलित्जर की तरह डट जाने की आज के समय में भारत में मिसाल मिलनी मुश्किल है। भारतीय पत्रकारिता के हाल के दशकों में प्रभाष जोशी जैसे गिनती के सम्पादक हुए, जिन्होंने किसी भी मुश्किल घड़ी में अपने रिपोर्टर के साथ मुस्तैदी से खड़े होने का दम दिखाया, अन्यथा किसी अनपेक्षित रिपोर्ट पर सत्ता-प्रतिष्ठान का इशारा मिलते ही एकदम निर्दोष पत्रकार को सज़ा दे दी जाती है और बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है। यह सब होते हुए मैंने अपनी आँखों से देखा है। हाल यह है कि सम्पादक अपने दोष का भागी अपने मातहतों को भी बना दे तो आश्चर्य नहीं। और तो और, आजकल कोई स्कूप हाथ लगे तो उसका प्रकाशित होना या न होना कई बार इस बात पर निर्भर होता है कि मोलभाव में कितनी सफलता हाथ लगी।

पत्रकारिता में मूल्यबोध के सङ्कट के कारण जितने बाहर हैं, उससे कहीं ज़्यादा मीडिया संस्थानों के भीतर हैं। भारत में मीडिया संस्थानों की स्थापना आज़ादी के मिशन के तहत हुई है। जो पत्रकार बनता था, वह एक तरह से स्वतन्त्रता सेनानी भी बन जाता था। आज़ादी की लड़ाई के बलिदानियों में पत्रकारों की सङ्ख्या बहुत बड़ी है। जनचेतना की चाहत में क्रान्तिधर्मा लोगों ने मीडिया संस्थान खड़े किए थे। आज़ादी के बाद ये ही मीडिया संस्थान मुनाफ़े को प्राथमिकता देने वाले हाथों में पहुँच गए। ठेकेदार, बिल्डर, भूमाफ़िया और नम्बर-दो का धन्धा करने वाले तमाम लोग अख़बार निकालकर और टीवी चैनल चलाकर मीडिया संस्थानों के मालिक बन गए। यों, विरासत अचानक से ख़त्म नहीं हो जाती तो क्षरण भी धीरे-धीरे शुरू हुआ। मूल्यबोध की उदात्तता घोषित उद्देश्य वाक्यों में बनी रही, पर उनकी आत्मा निकल गई। असली पत्रकार फ़ैसले लेने की भूमिका से बाहर कर दिया गया और मैनेजर क़िस्म के लोग प्रभावी हो गए।

इन परिवर्तनों के साथ मालिक, सम्पादक, उपसम्पादक और मैदान में उतरकर काम करने वाले रिपोर्टर के रिश्तों में बहुत बड़े बदलाव होते गए हैं, जो बाहर से दिखाई नहीं देते। एक तरफ़ नया प्रबन्धन पत्र-पत्रिका या चैनल को महज़ उत्पाद के रूप में देखने का अभ्यासी हो चला है, तो दूसरी तरफ़ नए दौर में बड़े मीडिया संस्थानों के भीतर सम्पादक और पत्रकार के बीच में एचआर नाम का एक बिचौलिया बैठा दिया गया है, जिसका पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं है। एचआर की उपस्थिति ने पत्रकारों के वेतनमान में विषमता फैलाकर वैमनस्य का क़ायदे से बीजारोपण कर दिया है। पत्रकारों के सङ्गठन निस्तेज होते गए हैं और पत्रकारों के सामूहिक हित का कोई काम बेमानी हो गया है। पत्रकारिता को महज़ नौकरी या धन्धा मानकर चलने वाला तेज़-तर्रार पत्रकार अपना काम बना लेता है, पर सीधे-सादे सामाजिक सरोकारों का दामन थामकर चलने वाले और चुपचाप काम करने में विश्वास करने वाले पत्रकार को कुछ समय बाद घुटन का शिकार होना पड़ता है। पत्रकार आपसी प्रतिस्पर्धा में जीने को विवश हैं। यह स्थिति पत्रकारिता के मूल्यबोध और उसकी गुणवत्ता, दोनों पर असर डालती है। पत्रकारिता-कर्म किसी क्लर्क-जैसी नौकरी में बदलती चली जाए तो किसी विशिष्ट मूल्यबोध के संरक्षण और संवर्धन की बात सोची भी नहीं जा सकती। वर्तमान परिदृश्य यह है कि मीडिया संस्थानों के उदात्त से दिखने वाले मूल्यबोध को समर्पित श्लोगनों, आधार वाक्यों को आत्मभ्रम के विद्रूप से ज़्यादा महत्त्व नहीं दिया जा सकता। बहरहाल, मीडिया के सामने कई यक्षप्रश्न खड़े हैं और विश्वसनीयता का सङ्कट है, फिर भी ऐसा नहीं है कि नाउम्मीदी का कोई सिरा पकड़ में ही न आए और समाधान का रास्ता ही न सूझे। उम्मीदों के आसमान की कोई सीमा नहीं होती। रास्ते कहीं-न-कहीं से निकलने ही लगते हैं। मुख्यधारा का मीडिया अगर अपनी विश्वसनीयता खोता दिख रहा है तो एक दूसरे छोर पर एक वैकल्पिक मीडिया आकार लेता हुआ भी दिखाई दे रहा है। सोशल मीडिया ने बड़ा मञ्च दिया है। यहाँ सम्पादन में अराजकता और प्रशिक्षण के अभाव का सङ्कट ज़रूर है, पर धीरे-धीरे एक परिपक्वता का भरोसा भी पैदा हो रहा है। यह एक बड़ी परिघटना है कि आज़ादी के दौर की तरह हाल के दिनों में कई मीडिया उपक्रम जनसहयोग के आधार पर खड़े होने शुरू हुए हैं। कई अच्छे यूट्यूब चैनल और वेबसाइटें अब लगभग संस्थान का रूप ले चुके हैं और पत्रकारिता में रुचि रखने वाले हज़ारों लोगों को रोज़गार के साथ-साथ स्वतन्त्र अभिव्यक्ति की आज़ादी दे रहे हैं। सम्पादक की मनमानी के चलते मुख्यधारा के मीडिया में मेहनती पत्रकारों के लिए जहाँ बाईलाइन का घोर सङ्कट दिखाई दे रहा है, वहीं वैकल्पिक मीडिया ने कई नए चेहरों को पहचान दी है। मुख्यधारा के मीडिया ने ख़ुद को सुधारने की कोशिश नहीं की तो हो-न-हो एक दिन वह नेपथ्य में चला जाए और मीडिया का यह नया चेहरा मुख्यधारा का चेहरा बन जाए। कारण कि सामने विकल्प हो तो देर-सबेर आमजन निष्पक्ष सूचनाओं के स्रोत को ही प्राथमिकता देगा। तमाम अराजकताओं के बरक्स नया मीडिया सङ्केत दे रहा है कि जनसरोकार के साथ खड़ी मूल्यबोध में पगी पत्रकारिता ही अन्ततः पत्रकारिता के खो रहे सम्मान को वापस दिलाएगी। हम देख रहे हैं कि अभिव्यक्ति को मिल रही नए तरीक़े की आज़ादी ने कई अच्छे लेखक और खोजी पत्रकार पैदा किए हैं। यत्र-तत्र कम-से-कम वैकल्पिक मीडिया की पत्रकारिता में प्रेरणा का तत्त्व फिर से काम करता हुआ दिखाई दे रहा है, तो उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले दिनों में न्यूजरूम में काम करने की आज़ादी बढ़ेगी; और, सत्ता और सम्पादक का अनपेक्षित दबाव कम होगा। (सन्त समीर)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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