अनायासकुछ और

सचमुच अनुपम!

बिना उनसे मिले विश्वास करना कठिन था कि वे इतने अहङ्कार शून्य भला कैसे हो सकते थे। मुझे भी दस-बारह बरस पहले बात समझ में तब आई, जब पहली बार गांधी शान्ति प्रतिष्ठान के उनके छोटे-से ‘पर्यावरण कक्ष’ में उनसे मिलने पहुँचा। चेहरे से वे मुझे नहीं पहचानते थे, पर मेरे काम से उनका परिचय था। जब मैंने अपना परिचय दिया तो उन्होंने तुरन्त कहा कि ‘गांधीमार्ग’ के लिए आपको लिखना है। मैंने कहा, “लिखवाने तो मैं आपसे आया हूँ, आपका लेख चाहिए।” उन्होंने ज़रा भी उल्लास नहीं दिखाया कि एक प्रसिद्ध पत्रिका में उनका लेख छपना है।

उन्होंने छू दिया और हज़ारों तालाब पानीदार हो गए। बीते कुछ वर्षों में देश के कोने-कोने में यह जादू हमने देखा है। यही उनकी शैली थी, एकदम अनुपम। मन की संवेदना के तारों को छूना उन्हें आता था। जाने कितने लोगों को उन्होंने पानी बचाने और मरते तालाबों को फिर से ज़िन्दा करने की प्रेरणा दी। उनकी बतकही और लिखावट ने देश के भीतर ही नहीं, सरहदों के पार भी लोगों के दिलों को छुआ और नतीजा हुआ कि लोगों ने पानी की अहमियत को गहराई से महसूस करते हुए पानी के बड़े-बड़े काम किए। धरती के किसी हिस्से का भौतिक पानी हो, या कि समाज की चेतना, मान-मर्यादा या कहें इज़्ज़त-आबरू का, यह जब भी मरता हुआ दिखाई देगा, अनुपम मिश्र याद आएँगे। उन्हें और याद आएँगे, जिन्होंने गांधी शान्ति प्रतिष्ठान के उनके छोटे-से ‘पर्यावरण कक्ष’ में प्रवेश के बाद पानी के सङ्केतों में उनके व्यक्तित्व की सामाजिक चेतना के तमाम आयामों को साक्षात् अनुभव किया होगा। यों ही नहीं कहा जाने लगा कि अनुपम जी हमारे समय के अपनी तरह के अकेले और अनुपम व्यक्तित्व थे! महात्मा गांधी को इस पीढ़ी ने नहीं देखा, पर अनुपम मिश्र को जिसने भी नज़दीक से देखा-समझा होगा, उसने ज़रूर अनुभव किया होगा कि साबरमती के सन्त की एक छाया दिल्ली के गांधी शान्ति प्रतिष्ठान के पीछे वाले छोटे अहाते में हमारे इसी समय में कुछ बरस पहले तक हर दिन विचरण करती रही थी।

लेखक, पत्रकार, चिन्तक, फ़ोटोग्राफ़र, समाजकर्मी, सभ्यता-संस्कृति के मर्मज्ञ, जल-संरक्षण के योद्धा—अनुपम जी के व्यक्तित्व के अनेक पहलू हैं, पर हर पहलू का कोई-न-कोई सिरा कहीं-न-कहीं पानी से ज़रूर छूता है। पानी उनके लिए सिर्फ़ पानी नहीं था, पानी के रख-रखाव में वे इस देश के जीवन्त समाज की सदियों से प्रासङ्गिक सिद्ध होती आई परम्पराओं की शिनाख़्त कर रहे थे। उनकी कालजयी कृति ‘आज भी खरे हैं तालाब’ पढ़ते हुए पन्ने-दर-पन्ने इसे महसूस किया जा सकता है। हमारे ऋषि कहते हैं कि ‘यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म’, यानी जो श्रेष्ठतम कर्म है, वह यज्ञ है। अनुपम जी ने तालाब निर्माण की पूरी निर्माण प्रक्रिया और परम्परा को महायज्ञ सिद्घ किया। वरुण देवता का प्रसाद, श्रेष्ठतम काम। पुस्तक का पहला वाक्य ही वे लिखते हैं—“अच्छे-अच्छे काम करते जाना”, राजा ने कूड़न से कहा था। पुस्तक का अन्तिम वाक्य भी यही है—अच्छे-अच्छे काम करते जाना। बताने की ज़रूरत नहीं है कि इस छोटी-सी पुस्तक ने जल-संरक्षण के लिए तालाब निर्माण की कितनी बड़ी क्रान्ति पैदा कर दी। इसकी लाखों प्रतियाँ बिकीं और वितरित हुईं। उन्नीस भाषाओं में अनुवाद हुआ। अनुपम जी ने इसे कॉपीराइट से मुक्त रखा और किसी से कभी कोई रॉयल्टी नहीं ली। जाने कितने प्रकाशकों ने इसे अपने-अपने हिसाब से छापा और मुनाफ़ा कमाया। गांधी शान्ति प्रतिष्ठान से जो संस्करण छपा, उसके आवरण पर उन्होंने अपना नाम तक नहीं दिया। भीतर के चौथे पृष्ठ पर छोटे अक्षरों में लिखा मिलता है—आलेख : अनुपम मिश्र—और साथ में शोध और संयोजन : शीना, मञ्जुश्री; सज्जा और रेखाङ्कन : दिलीप चिञ्चालकर। अनुपम जी ने ‘गांधी मार्ग’ पत्रिका शुरू की तो उसमें भी सम्पादक के बजाय लिखा—सम्पादन : अनुपम मिश्र। कई लोगों को लगा कि शायद गलती से ऐसा छप रहा है, तो उन्होंने चिट्ठी लिखकर इस ग़लती को सुधारने को कहा। अनुपम जी ने समझाया कि छपाई की ग़लती नहीं है, बल्कि जान-बूझकर ‘सम्पादन’ लिखा जा रहा है, आख़िर मैं सम्पादन ही तो कर रहा हूँ! ओहदे के अहङ्कार का कोई मतलब नहीं था उनके लिए। गांधी के आख़िरी जन के साथ जैसे स्थायी गलबहियाँ थी। आयोजनों में भी बड़े आराम से पीछे की पङ्क्ति में जाकर बैठ जाते थे। अन्त समय तक अपने लिए कोई घर नहीं बनाया। प्रचारित होना या किया जाना उन्हें रास नहीं आता था। अपने बारे में शायद ही कभी कुछ उन्होंने लिखा हो। अगर पिता भवानी प्रसाद मिश्र जैसा प्रसिद्ध साहित्यकार हो तो कौन बेटा होगा, जो इसका ज़िक्र बात-बात में अपने फ़ायदे के लिए न करेगा, पर अनुपम जी ने बहुत अनुनय-विनय के बाद पिता पर अपने पूरे जीवन काल में एकमात्र लेख ‘स्नेह भरी उँगली’ लिखा। यों, इसे भी पढ़ना एक नए अनुभव से गुज़रना है।

बिना उनसे मिले विश्वास करना कठिन था कि वे इतने अहङ्कार शून्य भला कैसे हो सकते थे। मुझे भी दस-बारह बरस पहले बात समझ में तब आई, जब पहली बार गांधी शान्ति प्रतिष्ठान के उनके छोटे-से ‘पर्यावरण कक्ष’ में उनसे मिलने पहुँचा। चेहरे से वे मुझे नहीं पहचानते थे, पर मेरे काम से उनका परिचय था। जब मैंने अपना परिचय दिया तो उन्होंने तुरन्त कहा कि ‘गांधीमार्ग’ के लिए आपको लिखना है। मैंने कहा, “लिखवाने तो मैं आपसे आया हूँ, आपका लेख चाहिए।” उन्होंने ज़रा भी उल्लास नहीं दिखाया कि एक प्रसिद्ध पत्रिका में उनका लेख छपना है। सहज भाव से कुछ यों बोले, “मेरा क्या छापेंगे, कुछ नई बात तो है नहीं, बल्कि उन लोगों को ज़रूर छापिए जो बढ़िया ढङ्ग से नए-नए काम कर रहे हैं।” इसके बाद उन्होंने पानी पर काम करने वाले चार-पाँच नाम सुझाए और डायरी उलट-पुलट कर उनके नम्बर भी लिखवा दिए। कुछ समय बाद मुझे एक बार फिर पानी के सवाल पर उनसे लिखवाने की ज़रूरत पड़ी। फ़ोन किया तो पता चला उनकी तबीयत ख़राब चल रही है। लगा कि उनके लिए कुछ लिख पाना सम्भव नहीं है, तो मैंने कहा कि आप अपने लेखों की फ़ाइल मुझे उपलब्ध करा दीजिए तो मैं अपने काम की कोई चीज़ उसमें से निकालने की कोशिश करता हूँ। उन्होंने एक फ़ाइल उपलब्ध करा दी। तीन-चार दिन बाद मैं उनके पास वापस गया और एक लेख उनके हाथ में देते हुए बोला कि छपने से पहले एक बार इस पर निगाह डाल लीजिए। पढ़ते हुए वे चौंक उठे। बोले, “अरे, यह तो एकदम मेरा ही लिखा हुआ लेख लग रहा है। जैसे अभी हाल ही में लिखा हो, पर मैंने तो लिखा नहीं!” मैंने बताया कि कैसे उनके कुछ लेखों में से कुछ अनुच्छेद और लाइनें इधर-उधर करके मैंने इसे तैयार किया है। वे प्रसन्न हुए और भविष्य के लिए मुझे इस बात की इजाज़त दे दी कि मैं जब भी चाहूँ उनके लेखों में से नया कुछ बना सकता हूँ। ऐसा उनका सहज व्यक्तित्व था।

देश में जनसहयोग से हुए कई बड़े कामों में उनकी प्रेरणा रही है। कम लोग जानते हैं कि चिपको आन्दोलन को खड़ा करने में अनुपम जी की बड़ी भूमिका थी। पानी वाले बाबा के नाम से मशहूर राजेन्द्र सिंह के ‘तरुण भारत सङ्घ’ के शुरू में बहुत दिनों तक वे अध्यक्ष रहे। ‘सेण्टर फ़ॉर एनवायरमेण्ट एण्ड फूड सिक्योरिटी’ के वे संस्थापक सदस्य थे। पानी के मुद्दे पर बनी सबसे बड़ी वेबसाइट ‘इण्डिया वाटर पोर्टल’ के कर्ता-धर्ता केसर सिंह बताते हैं कि अनुपम जी का मार्गदर्शन निरन्तर मिलता रहता था, बल्कि प्रायः हर हफ़्ते नियमित रूप से फ़ोन करके वे हालचाल लेते थे और ज़रूरी सलाह भी देते थे। केसर जी के मुताबिक देश भर में जो तालाब अनुपम जी की प्रेरणा से पुनर्जीवित हुए हैं, उनकी सङ्ख्या पचास हज़ार से कम न होगी। उनकी किताबें पढ़-पढ़कर तमाम लोगों ने तालाब निर्माण के काम किए। पानी के लिए हलकान हुए जा रहे गुजरात में भुज के हीरा व्यापारियों ने ‘आज भी खरे हैं तालाब’ से प्रभावित होकर ही अपने पूरे क्षेत्र में जल-संरक्षण अभियान चलाया। सौराष्ट्र में लोगों ने कई यात्राएँ निकालीं। मध्यप्रदेश में सागर जिले के कलेक्टर श्री बी. आर. नायडू को हिन्दी ठीक से नहीं आती थी, पर पुस्तक पढ़ने के बाद इसका उन पर ऐसा असर हुआ कि नारा देते हुए घूमने लगे कि ‘अपने तालाब बचाओ, तालाब बचाओ, प्रशासन आज नहीं तो कल अवश्य चेतेगा।’ और सचमुच, उनके अभियान ने ऐसा रङ्ग दिखाया कि सागर जिले के क़रीब एक हज़ार तालाबों को पुनर्जीवन मिल गया। बुन्देलखण्ड के इलाक़े में सैकड़ों तालाब इस पुस्तक से निकली सीख की वजह से पानी से लबालब दुबारा भरे। मध्यप्रदेश के शिवपुरी जिले के लगभग साढ़े सीन सौ तालाबों को लोगों ने पुनर्जीवित किया। सीधी और दमोह के कलेक्टरों ने अपने-अपने क्षेत्रों में इस पुस्तक की प्रतियाँ बाँटी। देश के अन्यान्य इलाक़ों के ऐसे तमाम प्रसङ्ग मिलेंगे, जिनमें किसी-न-किसी रूप में अनुपम मिश्र का सन्दर्भ होगा। यहाँ तक कि फ्रांस की लेखिका एनीमोन्तो को कहीं से यह किताब मिली तो उन्हें यह दक्षिण अफ्रीकी रेगिस्तानी क्षेत्रों में पानी के लिए हर दिन परेशान रहने वाले लोगों के काम की लगी और उन्होंने इसका फ्रेञ्च में अनुवाद किया।

अनुपम मिश्र जी ने ही पहली बार प्रभावी तरीक़े से समझाया कि भारत में पानी बचाने की परम्परा क्या रही है। उनकी दृष्टि में तालाब सिर्फ़ तालाब नहीं थे, बल्कि श्रद्धा के केन्द्र थे। एक तालाब की संरचना में परिवार और समाज की संरचनात्मक विशिष्टताओं का दर्शन विद्यमान था। समाज के लिए तालाब एक जीवन्त इकाई था। तालाबों की निर्माण प्रक्रिया और उससे जुड़ी परम्पराओं को समझने के लिए उन्होंने देश के कोने-कोने की यात्राएँ कीं। यात्राएँ ही नहीं कीं, बल्कि कई जगहों पर जाकर वे कुछ समय के लिए जैसे बस ही गए। किसी तालाब के निर्माण में वहाँ का समाज कैसा लाभ देखता है, तालाब निर्माण की भूमिका कैसे तैयार होती है, भूमि का चयन कैसे किया जाता है, ढाल कैसा रखा जाएगा, निर्माण कार्य में किन-किन चीज़ों की आवश्यकता होगी, समय-समय पर तालाब की साफ़-सफ़ाई की प्रक्रिया क्या रहेगी, समाज के कौन-कौन से लोग निर्माण में हिस्सा लेंगे, इन सब बातों का बारीक विश्लेषण अनुपम जी ने किया था। उन्होंने तालाब निर्माण में दक्ष जातियों का रोचक वर्णन किया है। उनके लिखे से गुज़रते हुए समझ में आता है कि कैसे गाँव में मुनादी होती थी और ज़मीन का चयन करके श्रमदान के लिए लोग इकट्ठा होते थे। तालाब से नालियाँ कहाँ तक निकाली जाएँगी, रहट वग़ैरह से कैसे जोड़ा जाएगा, इन सब चीज़ों पर समाज बहुत व्यवस्थित ढङ्ग से सोचकर काम करता था। राजा भी ऐसे कामों में सहयोगी बनता था। तब कई मामलों में सत्ता के साथ समाज का सामञ्जस्य था। अनुपम जी ने रोचक जानकारी दी है कि कैसे महाराजा रावल और छत्रसाल स्वयं कुदाल-फावड़ा लेकर तालाब निर्माण की प्रक्रिया में जनसमुदाय के साथ शामिल हुए। उन्होंने स्पष्ट किया है कि जब तक राज और समाज में सहयोग रहा, तब तक तालाब निर्माण की गति भी अबाधित रही, पर अँग्रेज़ आए तो उन्होंने तालाब निर्माण में राज्य-व्यवस्था की ओर से सहयोग का हिस्सा घटा दिया। इस तरह के कामों के लिए उन्होंने पीडब्ल्यूडी और सिंचाई विभाग जैसे उपक्रम खड़े किए। ये सरकारी विभाग वैसा काम कभी नहीं कर सके, जैसा जनसमुदाय अपने बूते कर लेता था। ज़ाहिर है, धीरे-धीरे जनता का राजकाज के साथ सामञ्जस्य कम होता गया और तालाब बनने भी बन्द होने लगे। जो थे, उनमें से भी तमाम सूखने लगे और नक़्शे से ग़ायब होने लगे।

अनुपम जी ने तालाब के बहाने राज के समाज से कटते जाने का गम्भीर विमर्श प्रस्तुत किया है। कैसी सोच-समझ के साथ तालाब बनाए जाते थे, राज के साथ समाज का कैसा रिश्ता था, कैसे यह सब छीजता गया, इन सबको उनके लिखे में जगह-जगह महसूस किया जा सकता है। मसलन—“तालाब एक बड़ा शून्य है अपने आप में। लेकिन तालाब पशुओं के खुर से बन गया कोई ऐसा गड्ढा नहीं कि उसमें बरसात का पानी अपने आप भर जाए। इस शून्य को बहुत सोच-समझ कर, बड़ी बारीकी से बनाया जाता रहा है। छोटे से लेकर एक अच्छे बड़े तालाब के कई अङ्ग-प्रत्यङ्ग रहते थे। हरेक का अपना एक विशेष काम होता था और इसलिए एक विशेष नाम भी। तालाब के साथ-साथ यह उसे बनाने वाले समाज की भाषा और बोली की समृद्धि का भी सबूत था। पर जैसे-जैसे समाज तालाबों के मामले में ग़रीब हुआ है, वैसे-वैसे भाषा से भी ये नाम, शब्द धीरे-धीरे उठते गए हैं।…..” और कि—“बुरा समय आ गया था। भोपा होते तो ज़रूर बताते कि तालाबों के लिए बुरा समय आ गया था। जो सरस परम्पराएँ, मान्यताएँ तालाब बनाती थीं, वे ही सूखने लगी थीं।….पिछले दौर के अभ्यस्त हाथ अब अकुशल कारीगरों में बदल दिए गए थे। ऐसे बहुत से लोग, जो गुनीजनखाना यानी गुणी माने गए जनों की सूची में थे, वे अब अनपढ़, असभ्य, अशिक्षित माने जाने लगे। उस नए राज और उसके प्रकाश के कारण चमकी नई सामाजिक संस्थाएँ, नए आन्दोलन भी अपने नायकों के शिक्षण-प्रशिक्षण में अँग्रेज़ों से भी आगे बढ़ गए थे। आज़ादी के बाद की सरकारों, सामाजिक संस्थाओं तथा ज़्यादातर आन्दोलनों में भी यही लज्जाजनक प्रवृत्ति जारी रही है।…”

असल में अनुपम जी केवल ऊपर-ऊपर से जानकारी लेकर कुछ भी लिख देना पसन्द नहीं करते थे। वे उस पूरी परिस्थिति के साथ रच-बसकर अनुभव लेना पसन्द करते थे। उनके लिखे में उनका एहसास लहराता है। यही वजह है कि उनकी क़लम से जो कुछ भी निकला, उसमें मौलिकता का एक अलग आस्वाद है। उनकी पुस्तकें और लेख पढ़ते हुए महसूस किया जा सकता है कि वैसी लेखनशैली दुर्लभ है। लालित्य लिए हुए सरल-सहज। पानी-सी बहती हुई भाषा। कहीं कोई बनावट नहीं। जैसा बोलते थे, लगभग वैसी ही शैली में वे लिख भी देते थे। लोकमानस में प्रचलित मुहावरे और लोकोक्तियाँ अपने लोकव्यापी ऐतिहासिक सन्दर्भों के साथ उनकी लेखनी में उतरते थे। ‘राजस्थान की रजत बूँदें’, ‘साफ़ माथे का समाज’, ‘हमारा पर्यावरण’ जैसी पुस्तकों और विभिन्न मुद्दों पर उनके लेखों को पढ़ते हुए कोई भी उनकी इस शैली का क़ायल हुए बिना नहीं रहेगा।

अनुपम जी इस बात के हामी थे कि बिना संसाधन, सामाजिक सहयोग की बिना पर समस्याएँ सुलझाई जा सकती हैं। हम समझ सकते हैं कि बिना किसी बाहरी आर्थिक सहयोग या बजट के उन्होंने देश-दुनिया के पर्यावरण की जैसी गहरी पड़ताल की, वैसी भारी-भरकम बजट वाले तमाम सरकारी विभाग भी नहीं कर सके। अनुपम जी के हिसाब से समाज का पानी बचा रहे तो बहुत कुछ बचाए जा सकने की सम्भावना बची रहती है। समाज का पानी बचाए रखने की यह बात उनके लिए सिर्फ़ ज़बानी नहीं थी, बल्कि इसकी साधना उन्होंने स्वयं पर की थी। उनके लिखे में उनका जीवन-व्यवहार परिलक्षित होता था। यही कारण है कि उनकी पत्रकारिता आनन-फानन में जानकारी जुटाकर सामान्य रिपोर्टिंग कर देना भर नहीं थी। चम्बल में जेपी जब डाकुओं का आत्मसमर्पण करवा रहे थे तो अनुपम मिश्र, प्रभाष जोशी और श्रवण गर्ग भी वहाँ रिपोर्टिंग करने गए थे। तय किया कि कुछ हफ़्ते वहाँ रहकर उस वातावरण को ठीक से समझेंगे, फिर कुछ लिखेंगे। इसी का नतीजा रहा कि ‘चम्बल की बन्दूकें गांधी के चरणों में’ के रूप में कुख्यात डकैतों की कहानी का एक अजब शैली में एक अद्भुत दस्तावेज़ इन तीनों तब के युवा पत्रकारों ने मिलकर तैयार किया, जिसकी मिसाल और कोई नहीं। अनुपम जी ने बहुत नहीं लिखा, पर जितना लिखा, उसका प्रभाव बहुत हुआ। छोटी-बड़ी उनकी कुल 17 किताबें हैं। उपलब्धता कुछ की ही है। एक बार नानाजी देशमुख ने बातचीत के दौरान उनसे पूछा, “आज भी खरे हैं तालाब’ के बाद कोई और किताब लिख रहे हैं क्या?” अनुपम जी ने सहज भाव से उत्तर दिया, “ज़रूरत नहीं है। एक से काम पूरा हो जाता है तो दूसरी किताब लिखने की क्या ज़रूरत है?”

अनुपम जी को ग़ुस्सा करना या नाराज़ होना नहीं आता था, पर व्यवस्था की नासमझी पर दुखी होते थे। कई बार उन्होंने तीखी प्रतिक्रियाएँ की हैं। एक बार उनसे पर्यावरण दिवस पर प्रतिक्रिया माँगी गई तो उन्होंने स्पष्ट कहा, “हमें अपनी तकनीक पर अन्धविश्वास हो चला है। हम दिल्ली को पीने का पानी 300 किलोमीटर दूर से लाकर दे रहे हैं। सरकारों का दावा होता है कि हम लोगों को प्यासा नहीं मरने देंगे। यह हो भी रहा है। सरकार सैकड़ों किलोमीटर दूर से पानी लाकर दे रही है। लेकिन शहर के सभी तालाब नष्ट कर दिए गए हैं। 1908 में दिल्ली राजधानी बनी थी, तब दिल्ली में 800 तालाब थे, अब एक भी नहीं है। हमारा भूजल खत्म हो चला है। ऐसे में अगर किसी दिन 300 किलोमीटर दूर भी पानी नहीं रहेगा तो? तो दिल्ली पर कितना बड़ा सङ्कट आ जाएगा! यही सङ्कट गाँवों पर आने वाला है। आज शहर बनते हैं तो सबसे पहले भूजल को नष्ट करने का काम किया जाता है। लेकिन हम लोग 364 दिन सोते रहते हैं और एक दिन, पर्यावरण दिवस पर कहते हैं कि बूँद-बूँद बचाओ। यह डराने की बात नहीं है, चिन्ता की बात है। इसीलिए आज आप सिर्फ सोचें। कुछ अपने भविष्य के लिए सोचें। जिन्हें काम करना है वे बिना किसी मदद के कर रहे हैं। हम जैसे लोगों ने अपना पूरा जीवन लगा दिया, लेकिन आम जन और सरकार सिर्फ एक दिन के लिए जागते हैं। आज सरकार के पास पर्यावरण मन्त्रालय है, लेकिन वह आम लोगों के हित के लिए नहीं, बल्कि बड़े-बड़े प्रोजेक्टों की बाधा दूर करने के लिए है।” अनुपम जी ने नदी जोड़ो परियोजना का भी बेबाकी से विरोध किया था। इसकी जगह उन्होंने राष्ट्रीय वर्षा सिञ्चित क्षेत्र प्राधिकरण के गठन के काम को तीव्रता से आगे बढ़ाने का आह्वान किया था और तर्क दिया था कि सूखा प्रभावित बुन्देलखण्ड क्षेत्र प्रतिबद्धता और निवेश के एक अंश के साथ अपनी पानी की आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है।

अनुपम जी के अपने ही ढङ्ग के अलहदा विचार थे और ज़िन्दगी जीने का भी अपना ही सलीक़ा था। अपनी ही धुन में मगन रहने वाले व्यक्ति थे। लाभ-हानि की ज़रा भी चिन्ता नहीं। ठीक अर्थों में गांधीवादी जलयोद्धा। अतीत के लेखे-जोखे के साथ पानी के वर्तमान का समूचा जुगराफ़िया समझने वाले अनुपम जी पानी के भविष्यवक्ता थे। जो आशङ्काएँ कई दशक पहले उन्होंने जताईं, वे आज सच होने की तरफ़ बढ़ती हुई दिखाई दे रही हैं। बहुत पहले उन्होंने कहा था कि आने वाले समय में बड़े युद्ध सिर्फ़ पानी के लिए होंगे, यदि हम समय रहते न चेते। आज हम दुनिया का हाल देख ही रहे हैं कि क्या हो रहा है। इटली तक की कभी न सूखने वाली गार्डा झील बेहद कम जलस्तर पर पहुँच गई है। पानी मर रहा है और रहनुमाओं को कोई रास्ता ठीक से सूझ नहीं रहा है। अनुपम जी मानते थे कि जल संरक्षण प्रकृति व संस्कृति की रक्षा की अनिवार्य शर्त है। लेकिन दुर्भाग्य कि प्रकृति को सिर्फ़ दोहन का साधन मानने वाले राजकाज चलाने वाले लोग इसके मर्म को समझने की कोशिश क्यों करेंगे?

अनुपम जी का मुख्य विषय पानी था, पर इसके इर्दगिर्द धर्म, दर्शन, सभ्यता-संस्कृति, विज्ञान, कला, भाषा आदि के दिलचस्प सूत्र भी तलाशे जा सकते हैं। ‘तकनीक कोई अलग विषय नहीं है’, ‘भाषा और पर्यावरण’, ‘अकाल अच्छे कामों और विषयों का भी’, ‘भूकम्प की तर्जनी और कुम्हड़बतिया’, ‘साध्य, साधन और साधना’ जैसे कई लेखों में उनकी विचार-विविधता देखी जा सकती है। कृषि प्रबन्ध, भूमि प्रबन्ध, जल प्रबन्ध, वन प्रबन्ध, समाज प्रबन्ध और परम्परागत खेती जैसे विषयों पर उनका गहन अध्ययन था, पर यह सब महज़ किताबी नहीं था। विषय के जानकारों से बिना मिले-बतियाए उन्हें चैन नहीं पड़ता था। डिग्रीधारियों के बजाय ज़मीनी सतह पर काम करने वाले गुणी लोगों को वे ख़ास महत्त्व देते थे। अपना अनुभव उन्हें बाँटते थे और उनका अनुभव स्वयं ग्रहण करते थे। पानी का अगर किसी का काम उन्हें पसन्द आता था, तो उसके यहाँ बिना बुलाए पहुँच सकते थे। 10-12 लोग ऐसे होते ही थे, जिनके यहाँ वे साल में एक बार पहुँचते ही थे। बातें भी नपी-तुली ही करते थे। विश्वसनीयता ऐसी हासिल की थी कि अगर किसी के बारे में उन्होंने कुछ कहा तो उनके जानने वाले उसे पूरा प्रामाणिक मान लेते थे। कम लोगों को मालूम होगा कि अनुपम जी फ़ोटोग्राफ़र भी बहुत अच्छे थे। साहित्य की समझ उन्हें विरासत में मिली थी। उनकी सम्पादन कला की बढ़िया झलक ‘गांधीमार्ग’ के पन्नों में दिखाई देती है। नाट्यकला और फ़िल्मों की भी उनकी समझ गहरी थी। गांधीवादियों के बारे में आम धारणा है कि उन्हें स्वाद का पता कम ही होता है, पर अनुपम जी को अपने आसपास के बारे पता होता था कि कहाँ खाना अच्छा मिलता है, कहाँ की आइसक्रीम स्वादिष्ट होती है। वे अपने मुलाक़ातियों को भी सुझाते थे कि फलाँ जगह जा रहे हो तो वहाँ की अमुक चीज़ का स्वाद ज़रूर लेना। हर काम सफ़ाई से करते थे। रद्दी काग़ज़ के टुकड़ों में जहाँ भी लिखने की जगह दिखाई देती, उसका भी क़ायदे से इस्तेमाल कर लेते थे। हर भले काम में सलाह-मशवरा देने को तो वे तत्पर रहते ही थे, यदि उन्हें लगता कि किसी के काम को देश के सामने लाने की आवश्यकता है, तो उसमें भी भरपूर मदद करते थे। देश के कई वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों का काम देश के सामने लाने में उनकी बड़ी भूमिका रही है। उनके साथ काम कर चुके विचारक प्रो. रामेश्वर मिश्र पङ्कज ने अपने एक संस्मरण में ज़िक्र किया है कि दिल्ली में परम्परागत जल प्रबन्धन कैसा था, इसके अध्ययन के लिए अनुपम जी ने एक सक्षम टोली बनाई थी। जब यमुना तट पर स्थित अखाड़ों और मन्दिरों से सहयोग लेने अनुपम जी के साथ उनकी टोली गई, तो उनमें से एक अखाड़ा मास्टर चन्दगीराम का भी था, जो कुश्ती में विश्वविजेता थे। अनुपम जी वहाँ सुबह ही पहुँचे। चन्दगीराम जी ने व्यायाम रोककर उनका स्वागत किया और थोड़ी ही देर में कन्धे पर गमछा डालकर उनके साथ यह कहते हुए चल दिए कि इस पुण्य कार्य में मुझसे जो भी सहयोग हो सकेगा और जिस-जिस से बात करनी होगी, मैं ख़ुशी-ख़ुशी करूँगा। समाज पर उनके भरोसे का यह एक उदाहरण है। इस भरोसे की वजह से ही वे हमेशा दूसरों को उत्साहित करने की भावदशा में दिखाई देते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि पानी के पहरुओं के सन्देशों को देश के कोने-कोने तक पहुँचाने में वे कैसे ज़्यादा से ज़्यादा मदद कर पाएँ। इसके लिए वे कहते थे—“अपन तो बस डाकिया हैं। इधर की डाक उधर पहुँचाते रहते हैं।”

जल-संरक्षण के ये अनुपम हरकारे आज इस असार संसार में नहीं हैं, पर उम्मीद की जा सकती है कि उनके पहुँचाए सन्देशों की अनुगूँज उनकी कृतियों और उनके द्वारा तैयार किए गए जलयोद्धाओं के ज़रिये सुनाई देती रहेगी। (सन्त समीर) –‘अहा ज़िन्दगी’ जून-2023 अंक में प्रकाशित

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

One thought on “सचमुच अनुपम!

  • इन्द्रेशा

    अनुपम जी जैसे लोग सचमुच दुर्लभ हैं। उनको समझने के लिए यह शानदार आलेख है।

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