अपनी हिन्दी

उर्दू से आया तो हिन्दी में ‘बवाल’ हो गया

‘वबाल’ का अर्थ है—विपत्ति, आपत्ति, मुसीबत, जञ्जाल, झञ्झट। इसी के साथ फ़ारसी का जान मिलकर ‘वबालेजान’ बना है; यानी प्राणों के लिए मुसीबत या जञ्जाल। फ़ारसी के ‘गर्दन’ और ‘दोश’ मिलकर बनाते हैं ‘वबालेगर्दन’ और ‘वबालेदोश’। दोनों का मतलब है, गर्दन के लिए बोझ। ‘वबाल पड़ना’ और ‘वबालेजान हो जाना’ जैसे मुहावरे भी हैं।

ख़बरिया चैनल बदलते-बदलते रिमोट ने कल यों ही अचानक किसी फ़िल्मी चैनल पर पहुँचा दिया। आँखों के सामने वरुण धवन और जाह्नवी कपूर की फ़िल्म का एक दृश्य था। फ़िल्म में मेरी कोई रुचि नहीं थी, पर ऊपर दाहिने कोने पर ध्यान गया तो फ़िल्म के नाम पर निगाह अटक गई। लिखा था—बवाल (Bawaal)। इस ‘बवाल’ ने दिमाग़ में खलबली मचा दी। यह बात अलग है कि आजकल आम लोगों को हम ‘बवाल’ लिखते, बोलते और करते देखते ही हैं, पर यहाँ बात समझदारों की है। सामान्य समझ यही है कि फ़िल्मी दुनिया में अपनी-अपनी विधा के माहिर लोग पाए जाते हैं। ऐसा देखा भी जाता रहा है। मज़रूह सुल्तानपुरी, क़ैफ़ी आज़मी, शैलेन्द्र, साहिर लुधियानवी, गोपाल दास नीरज, गुलज़ार, हसरत जयपुरी, आनन्द बख़्शी, पण्डित नरेन्द्र शर्मा, सन्तोष आनन्द वग़ैरह तमाम नाम हैं, जिनके गीतों से गुज़रकर आप अपनी भाषा साफ़-सुथरी और समृद्ध कर सकते हैं। मोहम्मद रफ़ी, लता मङ्गेशकर या उस दौर के अन्यान्य गायकों के गाए गीत आप सुनिए तो उच्चारण की छोटी-सी ग़लती भी ढूँढ़ पाना मुश्किल है। हमारे प्रधानमन्त्री जी ‘भाइयों और बहनों’ बोलकर सम्बोधन में अनुनासिकता की जो सामान्य ग़लती अक्सर करते हैं, वह सामान्य ग़लती भी हिन्दी फ़िल्मी गानों में नहीं मिलेगी। ‘ऐ मेरे वतन के लोगो…’ में ‘लोगो’ मिलेगा, ‘लोगों’ नहीं; ‘दूर हटो ऐ दुनिया वालो हिन्दुस्तान हमारा है…’ में ‘वालो’ मिलेगा, ‘वालों’ नहीं। शुरुआती दौर में एक हिन्दी गाना गाते समय एक स्थान पर लता मङ्गेशकर के मराठी लहज़े पर दिलीप कुमार ने हल्का-सा टोका तो लता जी ने बाक़ायदा एक शिक्षक रखा और अपनी हल्की-फुल्की कमी दूर की। मुझे लगता है कि हमारे प्रधानमन्त्री जी भी सीखने में रुचि रखने वाले व्यक्ति हैं, तो उन्हें भी कोई एक बार टोक दे तो हिन्दी के हित में वे भी अपनी ग़लती सुधार लेंगे।

ख़ैर, बात ‘बवाल’ की है। आजकल सामान्यतः लोग इसे सही मानते हैं और बोलचाल में प्रयोग करते हैं, जबकि सही शब्द है ‘वबाल’। यह अरबी भाषा का शब्द है। उर्दू से होते हुए हिन्दी में रच-बस गया है। उर्दू के जानकार आज भी इसे ‘वबाल’ ही जानते, समझते और प्रयोग करते हैं, पर हिन्दी के समझदारों ने नासमझी में इसे ‘बवाल’ बनाना शुरू किया तो आम जनता के लिए रास्ता आसान है ही कि ‘महाजनो येन गतः स पन्थाः’। ‘वबाल’ का अर्थ है—विपत्ति, आपत्ति, मुसीबत, जञ्जाल, झञ्झट। इसी के साथ फ़ारसी का जान मिलकर ‘वबालेजान’ बना है; यानी प्राणों के लिए मुसीबत या जञ्जाल। फ़ारसी के ‘गर्दन’ और ‘दोश’ मिलकर बनाते हैं ‘वबालेगर्दन’ और ‘वबालेदोश’। दोनों का मतलब है, गर्दन के लिए बोझ। ‘वबाल पड़ना’ और ‘वबालेजान हो जाना’ जैसे मुहावरे भी हैं। अब आप सोचिए कि हिन्दी भाषा में हमें ‘वबाल’ करना है या ‘बवाल’।

इसी तरह से दीपावली के एक-दो दिन बाद एक विद्यार्थी ने मुझसे पूछा था कि उसने अख़बारों में ‘दिवाली’ लिखा पढ़ा है, जबकि कई किताबों में ‘दीवाली’ लिखा हुआ है; आख़िर सही क्या है। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, इस मसले पर मैंने फेसबुक की अपनी किसी टिप्पणी में पहले कभी लिखा है। सही शब्द ‘दीवाली’ ही बनेगा। ‘दीपावली’ से बात चली है तो सहज रूप से ‘दीवाली’। पहले ‘दीवाली’ ही लिखा जाता रहा है। ‘दिवाली’ की भाषा-क्रान्ति विशेष रूप से हिन्दी अख़बारों ने शुरू की। एक बार तो हिन्दुस्तान अख़बार के कुछ महारथियों ने मेरी आँखों के सामने ‘दीवाली’ को ‘दिवाली’ बनाया। मेरी ज़िम्मेदारी में ‘कादम्बिनी’ ज़्यादा थी और अख़बार के कुछ काम कभी-कभार ही आते थे तो ‘कादम्बिनी’ में मैंने अपने रहते हमेशा ‘दीवाली’ ही लिखा। एक बार अवश्य ऐसा हुआ कि अख़बार के साहित्य वाले पृष्ठ पर एकदम ऊपर हरिवंश राय बच्चन की एक कविता में ‘दिया’ छप रहा था तो संयोगवश डिज़ाइन विभाग से गुज़रते हुए मेरी निगाह पड़ गई तो मैंने उसे ‘दीया’ करवाया। यों मेरी ज़िम्मेदारी छोटी थी, तो कई गड़बड़ियाँ देखकर भी ज़्यादा कुछ नहीं कर सकता था। कुछ लोगों का तर्क है कि ‘दिवाली’ नाम है, इसलिए सही है। सच यह है कि नाम ‘दीपावली’ है और फिर ‘दीवाली’, ‘दिपावली’ और ‘दिवाली’ नहीं। यत्र-तत्र बोलचाल में ज़रूर ‘दिवाली’ सुनाई देता है, पर हर कहीं नहीं।

इसी तरह दीपक के लिए और नाम ‘दीप’ और ‘दीवा’ हैं, ‘दिप’ और ‘दिवा’ नहीं। ‘दीप’ में ‘आवली’ या ‘आवलि’ मिलाकर ‘दीपावली’ या ‘दीपावलि’ बना है। ‘ल’ पर छोटी ‘इ’ या बड़ी ‘ई’ में से कोई भी मात्रा लगा सकते हैं, क्योंकि संस्कृत में पङ्क्ति या कतार के लिए ‘आवली’ और ‘आवलि’, दोनों शब्द हैं, लेकिन ‘द’ पर छोटी ‘इ’ की मात्रा लगाना ग़लत है। संस्कृत में ‘आली’ और ‘आलि’ शब्द भी कतार और पङ्क्ति के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। इन शब्दों के और भी अर्थ हैं, पर यहाँ उनका वर्णन अप्रासङ्गिक होगा। इन्हीं शब्दों के सङ्कुचन से बने ‘अली’ शब्द का अर्थ भी पङ्क्ति या कतार है, पर यह केवल हिन्दी कविताओं में मात्रा बढ़ा-घटाकर छन्द ठीक रखने की दृष्टि से प्रयोग होता है। ‘दीवा’ (दीपक) में ‘आली’ या ‘अली’ जोड़कर बनाएँगे तो भी शब्द बनेगा ‘दीवाली’। ‘दिवाली’ बनाने के लिए ‘दिवा’ में ‘आली’ या ‘अली’ मिलाना पड़ेगा, जबकि ‘दिवा’ का मतलब होता है दिन। ‘दीया’ या ‘दीपक’ के लिए तो ‘दीवा’ ही चाहिए। मैं मानता हूँ कि जिन शब्दों की तार्किक व्युत्पत्तियाँ उपलब्ध हैं, उन्हें जितना हो सके तार्किक ही बनाए रखा जाए तो भाषा के विकास के लिए ज़्यादा अच्छा है। (सन्त समीर)

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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