कहाँ खो गया गाँव सलोना!
अजब क़िस्सागोई थी वह। कहानियाँ ख़ास अन्दाज़ और लय में सुनाई जाती थीं। यदि होली का त्योहार आने में एकाध माह बाक़ी हुआ तो किसी-किसी दिन ढोल की थाप पर फागुन के गीतों की महफ़िल भी जम जाती। गुड़ की हर नई ‘पाग’ (पाक) का स्वाद लेते हुए गीत और क़िस्सागोई के बीच कब पहर भर रात बीत गई और आख़िरी ‘पाग’ उतरने के साथ काम ख़त्म हुआ, यह पता ही नहीं चलता था।
‘कहाँ खो गया गाँव सलोना, औ उसकी नूरानी धूप’ के रूप में व्यक्त शायर की वेदना के स्वर वर्तमान गाँवों की दशा पर बहुत कुछ कह जाते हैं। सचमुच, बैलों के गले की घण्टियाँ अब कम सुनाई देती हैं। चौपाल सूने हो गए हैं और दिन भर का काम निबटाकर शाम की अलमस्ती में क़िस्सागोई से नई पीढ़ी को संस्कार के पाठ पढ़ाना भी लोग भूल से गए हैं। सदियों के अनुभव समेटे सिर्फ़ कुछ शब्दों के ‘मसल’ सुनाने की बुज़ुर्गों की लाग-डाँट भी अब गाहे-बगाहे ही सुनाई देती है। रोम-रोम में वीरता के भाव भरने वाले ‘आल्ह खण्ड’ की गूँज और ‘बिरहा’ की स्वर लहरियाँ तो नई पीढ़ी के लिए जैसे अनजानी ही हैं। पनघट पर चहल-पहल नहीं रही तो ‘पद-अपद’ सुनाने की महिलाओं की जुगलबन्दी भी नहीं सुनाई देती। खेत-खलिहान की धूल-मिट्टी में कञ्चे और कौड़ियाँ खेलते बच्चों की किलकारियाँ तक बस्ते के बोझ तले जैसे दब-सी गई हैं।
आज के गाँवों की तस्वीर कुछ ऐसी ही है। नए विज्ञान और तकनीकी के पहियों से बनी आधुनिक विकास की गाड़ी गाँवों की ओर बहुत कुछ लेकर आई है, तो बहुत कुछ इसने गाँवों से बाहर भी कर दिया है। इस विकास के चलते गाँवों में सुविधाओं के कुछ छींटे यदि पड़े हैं तो यहाँ की दयालुता, निःस्वार्थता, निश्चिन्तता, अपनापन तथा सामूहिकता के भाव के अगाध भण्डार से बहुत कुछ खाली भी हो गया है। विकास की आधुनिक बयार ने गाँव के लोगों की लालसाएँ इतनी तीव्रता से जगा दी हैं कि उनकी सुकून भरी ज़िन्दगी में खलबली मच गई है। अपने हिस्से की आधी रोटी से किसी की भूख मिटा देने में सुकून महसूस करने के कभी के संस्कार अब दूसरों का हिस्सा हड़प लेने के स्वार्थ में बदल गए हैं। मनोरंजन के साधन के नाम पर घर-घर तक पहुँच बना चुके टेलीविज़न ने मनोरंजन के असली साधनों को निगल लिया है। आज के सूचना माध्यमों ने गाँव के बच्चों को जिस दुनिया में पहुँचा दिया है वहाँ अब बच्चे गिल्ली-डण्डा, कबड्डी, खो-खो और सुटुर्र जैसे देशी और मुफ़्त के खेल खेलना भूल गए हैं और महँगे बैट, बाल और पैड के साथ अँग्रेजी क्रिकेट की बैटिङ्ग और फील्डिङ्ग में रम चुके हैं। इसके अलावा टेलीविज़न जैसे माध्यमों ने गाँव के लोगों में जागरूकता तो बढ़ाई है, पर उपभोक्तावाद और शहरी जीवनशैली के प्रति ललक जगाने का काम कहीं ज़्यादा किया है।
एक समय था जब नए साधनों से दूर रहते हुए अपनी कठिन ज़िन्दगी में भी गाँव के लोग एक-दूसरे के सुख-दुःख का ख़याल करके चलते थे। तब गाँव का धनी आदमी भी ग़रीब बड़े-बुज़ुर्गों को काका, चाचा या बाबा का ही सम्मान देता हुआ दिखाई देता था और ग़रीब से ग़रीब आदमी भी ‘पद’ (उचित) की बात पर धनी आदमी को फटकार लगा सकता था। गाँव के लोगों में अपनत्व था, तो धन-सम्पत्ति की वजह से कोई भावनात्मक दूरी नहीं पैदा हो सकती थी। लेकिन, इस दौर में उपभोक्तावाद ने ज़्यादा से ज़्यादा सुविधाएँ जुटा लेने की मानसिकता पैदा कर दी तो गाँव के लोग भी त्याग-संयम की भाषा भूलकर स्वार्थ साधने में लग गए हैं। स्वार्थ के भोगवादी रूप ने पड़ोसियों के साथ आत्मीय सम्बन्धों में दरार पैदा कर दी है। व्यवहार में काइयाँपन और बोल-बात-मुस्कराहटों में शातिरपना गहरे तक घुल गया है। अब गाँव के सीधे-सादे आदमी को भी यह चिन्ता सताती रहती है कि कहीं पड़ोसी उससे आगे न बढ़ जाय। साधन-सम्पन्नता की इस भागमभाग में जिसके पास कुछ इकट्ठा हो जाता है उसके तो जैसे पाँव ही ज़मीन पर नहीं पड़ते। इस दौर का धन-कुबेर गाँव में रहते हुए भी गाँव से कट जाता है। उसका आदर्श टेलीविज़न और फ़िल्मों में दिखने वाली शहरी जीवनशैली होती है और वह गाँव के अपने घर को भी वैसे ही सुविधासम्पन्न बनाना चाहता है। कुछ बरस पहले तक हाल यह था कि गाँव के साधारण और बहुत धनी लोगों के रहन-सहन में कोई बहुत फ़र्क़ नहीं हुआ करता था, लेकिन अब तो धन की आमद होते ही पहनावे तक में फ़र्क़ दिखाई देने लगता है।
आधुनिक जीवनशैली की बनावटी ज़रूरतों ने एक ऐसा बनावटी तनाव पैदा कर दिया है कि गाँवों की अलमस्ती ग़ायब हो गई है। कभी-कभी बचपन के कुछ दृश्य याद आते हैं। तब गन्ने की पिराई बैलों से ही होती थी। बड़ा गाँव हुआ तो टोले बँट जाते थे, नहीं तो छोटे गाँवों में एक कोल्हू ही काफ़ी होता था। जैसे-जैसे जिसके पास ईंधन की तैयारी होती, वैसे-वैसे बारी-बारी से एक-एक घर की गन्ने की पिराई की जाती। हर घर से लोग गन्ना छिलाई के लिए शामिल होते। गन्ने की पिराई चाहे जिसकी हो, पर बैल भी सबके ही बारी-बारी से कोल्हू में चलाए जाते। इधर कोल्हू से रस तैयार होता और उधर गुल्लौर से धुआँ उठना शुरू हो जाता। शाम ढलते-ढलते गाँव के क्या बूढ़े क्या बच्चे, सब ही सामूहिक बतकही की चौपाल सजाने गुल्लौर में जमा हो जाते। जाड़े के दिन तो ख़ैर होते ही थे; सो, गाँव के बच्चे आलू और ताज़ी मटर की फलियाँ भूनने और ‘लुका-छिपी’ खेलने में मगन रहते। और, यदि कभी कोई बाबा या दादा से कहानियाँ सुनने की फ़रमाइश कर बैठता तो माहौल की रौनक़ ही कुछ और हो जाती। ‘क़िस्सा तोता-मैना’, ‘रानी सारङ्गा-सदाबृज’, ‘बाला लखन्दर’, ‘आल्हा-ऊदल’, ‘कौआ-हकनी’ जैसी ढेरों कहानियाँ मुझे इसी तरह के माहौल में सुनने को मिली थीं और इनके कई सार्थक संस्कारों को मैं अपने ऊपर आज भी महसूस करता हूँ।
अजब क़िस्सागोई थी वह। कहानियाँ ख़ास अन्दाज़ और लय में सुनाई जाती थीं। यदि होली का त्योहार आने में एकाध माह बाक़ी हुआ तो किसी-किसी दिन ढोल की थाप पर फागुन के गीतों की महफ़िल भी जम जाती। गुड़ की हर नई ‘पाग’ (पाक) का स्वाद लेते हुए गीत और क़िस्सागोई के बीच कब पहर भर रात बीत गई और आख़िरी ‘पाग’ उतरने के साथ काम ख़त्म हुआ, यह पता ही नहीं चलता था।
ऐसे हुआ करते थे बचपन के वे दिन, जब किसी एक घर पर आ पड़ा काम का बोझ भी पूरे गाँव के लिए मनोरंजन का सामूहिक उत्सव बन जाता था। तीज-त्योहार से लेकर शादी-ब्याह तक हर किसी मौक़े पर गाँव के लोगों का आपसी मनमुटाव भुलाकर एकजुट हो जाना एक विराट् सांस्कृतिक विरासत की ही पहचान है, लेकिन दुर्भाग्य से अब हमारे गाँवों की सांस्कृतिक पहचान और परम्पराएँ अपनी अस्मिता खोने लगी हैं।
कुछेक दशक पहले ही गाँवों में आपसी सामञ्जस्य इतना था कि आपस के झगड़े गाँव की पञ्चायत के स्तर पर ही सुलझ जाते थे। तब पञ्चों का फ़ैसला सिर-माथे ही रहता था। मूल्यबोध इतना गहरा था कि पञ्च चुन लिए जाने के बाद अपने विरोधी को भी न्याय दिलाना आत्मगौरव का अहसास दिलाता था। मुंशी प्रेमचन्द की ‘पञ्चपरमेश्वर’ कहानी वास्तव में तब के गाँवों में प्रवहमान उदात्त भावों से बेहतर परिचय कराती है। लेकिन अब के गाँवों में स्वार्थ इतने गहरे तक उतर आया है कि नैतिकता मज़ाक़ की चीज़ बनने लगी हैं। इस सबके चलते न अब वैसे पञ्च रहे और न वैसी पञ्चायत। नतीजा यह हो रहा है कि छोटे-छोटे विवादों पर भी बन्दूकें तन जाती हैं और मामला कोर्ट-कचहरी से नीचे नहीं सुलझता।
आज के गाँवों में राजनीतिक जागरूकता तो आई है, पर उसके साथ वैमनस्यता का एक नया माहौल भी पैदा हो गया है। अब राजनीतिक पार्टियाँ सम्प्रदायों के मानिन्द ही दिखने लगी हैं। पहले लोग भले ही कम जागरूक थे, पर इतना चरित्र तो था कि चुनाव का समय आने पर एक कर्त्तव्य-भाव के साथ वोट डालते जाते थे। गाँव की महिलाएँ तो समूहों में लोकगीत गाते हुए ही चुनाव केन्द्र तक पहुँचती थीं। लेकिन अब वोट देने के लिए जाते लोगों का तेवर देखकर ऐसा लगता है जैसे कि वे युद्धक्षेत्र में जा रहे हों। वैमनस्यता और स्वार्थ इतने प्रभावी हो चुके हैं कि अब दूसरे की मुसीबत में काम आने के लिए भी लोग अपने स्वार्थ के मौक़े ही ज़्यादा तलाशते हैं। अँग्रेजों द्वारा इस देश को कङ्गाल कर दिए जाने के बाद भी अभी कुछ बरस पहले तक हमारे गाँवों में ऐसी स्थिति तो नहीं ही थी कि किसी ग़रीब को आत्महत्या करनी पड़े। तमाम कुरीतियों और अन्धविश्वासों के बावजूद ग़रीब को रोटी देना गाँव का अमीर अपना कर्त्तव्य मानता था। लेकिन, अब एक तरफ़ अमीरी के नए टापू खड़े हो रहे हैं तो दूसरी तरफ़ ग़रीबों का जीना और मुश्किल हो रहा है; और वे, अपने दुःख-दर्द के साथ इतने अकेले पड़ गए हैं कि आत्महत्या के अलावा कोई रास्ता नहीं सूझता।
भूले-बिसरे ठहरे हुए से अतीत को याद करते हुए और किसी फ़िल्म की तेज़ रफ़्तार रील की तरह भागते वर्तमान को देखते हुए कभी-कभी ऐसा लगता है कि हतप्रभ हो उठने के अलावा हमारे पास और कोई चारा ही नहीं रह गया है। अब तो किसी के मुँह से यह सुनकर कि भारत की आत्मा गाँवों में बसती है, मन एक बार विषाद से भर उठता है। (सन्त समीर)