धर्म-संस्कृति-समाजविमर्श

नास्तिक कौन?

यदि हम, सृष्टि को जैसा चलना चाहिए, वैसा चलने देने में सहयोगी हैं, इस संसार में अपनी भूमिका कुशलता से निभाते हैं तो सृष्टि में अस्तित्व की स्थिति का ही सम्मान करते हैं; और यदि हम, प्रकृति के नियमों का उल्लङ्घन करते हैं, सृष्टि के सुचारु रूप से सञ्चालित होने देने में बाधा पहुँचाते हैं तो इसका अर्थ है कि अस्तित्व भाव की ही उपेक्षा करते हैं।

नास्तिक—अर्थात् जो ईश्वर को न माने। यही इसका प्रचलित अर्थ है। मतलब यह कि ईश्वर में विश्वास करने वाले आस्तिक हैं, भले ही वे किसी भी धर्म-सम्प्रदाय के हों। नास्तिक हुए जैन, बौद्ध, चार्वाक; या आधुनिक साम्यवादी किस्म के लोग। लेकिन नास्तिकता की मूल परिभाषा कुछ और कहती है। मूल परिभाषा है—नास्तिको वेद निन्दकः—यानी जो वेद निन्दक हैं, वेद विरोधी हैं, वेद को अमान्य करते हैं, वे नास्तिक हैं।

ध्यान देने पर पता चलेगा कि यह प्राचीन और मूल परिभाषा ही नास्तिकता और आस्तिकता का अर्थ ज़्यादा सही ढङ्ग से व्यक्त करती है और विज्ञानवाद की प्रतिपादक भी है। ‘विद्’ धातु से निष्पन्न ‘वेद’ का मूल अर्थ है—ज्ञान। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्वेद इसीलिए वेद कहे जाते हैं, क्योंकि माना जाता है कि इनमें मनुष्य जीवन के लिए आवश्यक मूलभूत ज्ञान की बातें बताई गई हैं। इस तरह ‘नास्तिको वेद निन्दकः’ का अर्थ हुआ कि जो ज्ञान का विरोध करे, ज्ञान को प्रतिष्ठा न दे, अमान्य करे, वह नास्तिक है। थोड़ा और गहरे उतरें तो पता चलेगा कि ज्ञान का स्थूल रूप है—अस्तित्व, वजूद। इस संसार में जो कुछ है अस्तित्वमान है। है या होना, यानी अस्तित्व। सूक्ष्म और स्थूल असङ्ख्य मूर्तिमान पदार्थों से लेकर अमूर्त विचारों, भावनाओं तक सब कुछ अस्तित्व के ही रूप हैं। अस्तित्व भाव से ही ‘आस्तिक’ निकला है। अस्तित्व का स्वीकार आस्तिकता है, अस्तित्व का नकार नास्तिकता।

जीवनविद्या के प्रवर्तक बाबा नागराज कहा करते थे, इस सृष्टि का सत्य है—अस्तित्व। इस अस्तित्व को जान लिया जाए तो जीवन का मर्म समझ में आ जाएगा और हम सहज, सुन्दर जीवन जीने लगेंगे। इस तरह देखें तो अस्तित्व में आस्था रखने वाले, उसे मानने वाले आस्तिक कहे जाने चाहिए। यही विज्ञानवाद है। इस तरह यह भी स्पष्ट होता है कि ईश्वर को न मानने वाले पन्थ, विचारधारा के लोग अस्तित्व को मानते हैं तो वे आस्तिक ही हैं। आज के साम्यवादी और विशेष रूप से विज्ञान को ही सब कुछ मानने वाले धुर आस्तिक हुए, क्योंकि वे अस्तित्व के या कहें ‘अस्ति’ भाव के पुजारी हैं। इस तरह, देवी-देवता और भगवान् में आस्था रखने वाले या धर्मभीरु लोग, हो सकता है कि किन्हीं अर्थों में ज़्यादा नास्तिक क़िस्म के सिद्ध हों, क्योंकि ऐसा प्रायः देखा जाता है कि कई तरह के धार्मिक विश्वास ज्ञान का, संसार के यथार्थ सत्य या अस्तित्व का विरोध करते हैं। हो सकता है, कई तरह की धार्मिक आस्थाएँ सिर्फ़ रूढ़ियाँ हों और सत्य से उनका दूर-दूर तक कोई रिश्ता ही न हो। यदि हम, सृष्टि को जैसा चलना चाहिए, वैसा चलने देने में सहयोगी हैं, इस संसार में अपनी भूमिका कुशलता से निभाते हैं तो सृष्टि में अस्तित्व की स्थिति का ही सम्मान करते हैं; और यदि हम, प्रकृति के नियमों का उल्लङ्घन करते हैं, सृष्टि के सुचारु रूप से सञ्चालित होने देने में बाधा पहुँचाते हैं तो इसका अर्थ है कि अस्तित्व भाव की ही उपेक्षा करते हैं। बात सोचने की है कि जो सब लोग अपने को नास्तिक कहते हैं, उनमें से वास्तव में कितने नास्तिक हैं, और जो लोग ख़ुद को आस्तिक समझते हैं उनमें से कितने वास्तव में आस्तिक! (सन्त समीर) — 22 दिसम्बर, 2006 को ‘हिन्दुस्तान’ दैनिक में प्रकाशित

सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *