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भाषाई फ्यूज़न में कितना कनफ्यूज़न!

‘खानापूरी’ और ‘पेशाबघर’ जैसे शब्द हम अकसर प्रयोग करते हैं। ‘खाना’ और ‘पेशाब’ फ़ारसी के हैं तो ‘पूरी’ और ‘घर’ हिन्दी के। इसी तरह ‘धन-दौलत’, ‘समझौता-परस्त’, ‘काम-धन्धा’, ‘गुलाब-जामुन’, ‘खेल-तमाशा’, ‘चोर-बाज़ार’, ‘दाना-पानी’, ‘बाल-बच्चे’, ‘तन-बदन’, ‘सीधा-सादा’ जैसे संयुक्त शब्दों में पूर्वार्ध हिन्दी है तो उत्तरार्ध फ़ारसी।

फेसबुक की एक पोस्ट ने लिखने का यह विषय दे दिया। बात भाषाई फ्यूज़न की है, जो कई बार जानबूझ कर और कई बार बेवकूफ़ी में होते हुए हम देखते रहते हैं। शब्दों का यही घालमेल बाद में चलन बन जाता है। कल एनडीटीवी की एङ्कर ने जैसा कहा, कुछ उसी तरह से ‘बड़ी अफ़सोसजनक बात कही है आपने’– टाइप के वाक्य आपने अकसर सुने होंगे और भाषा के जानकार लोगों को दो भिन्न भाषाओं के ऐसे ‘फ्यूज़न’ पर खेद जताते हुए भी देखा होगा। सही शब्द होगा ‘अफ़सोसनाक’, क्योंकि फ़ारसी का प्रत्यय तो ‘नाक’ है। ‘जनक’ संस्कृत का शब्द है। दो भाषाओं में इस तरह का मेल बैठाना कई बार अटपटा लगता है और स्थिति हास्यास्पद बन जाए तो भी ताज्जुब नहीं। नासमझी में कई बार उपसर्गों तक का हास्यास्पद प्रयोग हो जाता है; मसलन, आजकल लोग ‘बेफ़िजूल’ और ‘बेफ़ालतू’ जैसे शब्द ख़ूब इस्तेमाल करने लगे हैं। ‘बे’ और ‘बा’ उर्दू के उपसर्ग हैं। ‘बे’ अभाव तो ‘बा’ भाव व्यक्त करता है। ‘फ़िजूल’ और ‘फ़ालतू’ का अर्थ किसी को बताने की ज़रूरत नहीं है। इन शब्दों के आगे ‘बे’ लगाते ही ‘फ़िजूल’ और ‘फ़ालतू’ चीज़ें काम की बन जाती हैं, जबकि हम कहना इसका उल्टा चाहते हैं। हिन्दी के विद्वान शब्दों के ऐसे घालमेल पर अगर आपत्ति जताते हैं तो उनकी भी बात काफ़ी हद तक ठीक ही है, क्योंकि भाषाओं के घालमेल से कई तरह की जटिलताएँ पैदा होती हैं जो भाषा-शिक्षण से लेकर भाषा वैज्ञानिक अध्ययन तक के लिए परेशानी का सबब बनती हैं। बावजूद इसके, वास्तविकता यही है कि वर्तमान में हिन्दी में जिस तरह से अन्यान्य भाषाओं के शब्दों, उपसर्गों व प्रत्ययों का आगम दिखाई दे रहा है, उसके चलते दो भिन्न भाषाओं के मेल से बने सङ्कर शब्दों का प्रचलन भी निरन्तर बढ़ रहा है। ‘अफ़सोसजनक’ जैसे शब्द शुरू में अज्ञानतावश प्रयोग किए जाते हैं, पर धीरे-धीरे इतने प्रचलित हो जाते हैं कि मान्य कर लिए जाते हैं।

बहुत से शब्द ऐसे भी हैं जो समझ-बूझकर आवश्यकतानुसार दो भाषाओं के मेल-मिलाप से बना लिए गए हैं और प्रचलित हैं। उदाहरण के लिए ‘डबलरोटी’, ‘रेलगाड़ी’ और ‘नौकर-चाकर’ जैसे शब्दों पर ध्यान दीजिए। शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा मिले जिसकी ज़ुबान पर ये शब्द न आए हों। हमारे रोज़मर्रा के व्यवहार में गहरे तक रचे-बसे हुए हैं ये। लेकिन, क्या कभी आपने ध्यान दिया कि इन शब्दों के मूल में आख़िर भाषा कौन सी है। ध्यान देंगे तो पता चलेगा कि अँग्रेज़ी के ‘डबल’ के साथ हिन्दी की ‘रोटी’, बड़े आराम से हजम की जाने लगी और अँग्रेज़ी की ‘रेल’ के साथ हिन्दी की ‘गाड़ी’ चल निकली। तुर्की के ‘नौकर’ के साथ फ़ारसी का ‘चाकर’ भी हिन्दी में बड़े आराम से गलबहियाँ करने लगा।

हिन्दी के साथ संस्कृत का गहरा नाता है, इसलिए इन दोनों भाषाओं के शब्द एक साथ सङ्गति बैठाते ज़्यादा दिखाई देंगे। ‘अणुबम’, ‘उपबोली’, ‘गुरुभाई’, ‘परमाणु बम’, ‘आवागमन’, ‘खेती-व्यवस्था’, ‘घर-द्वार’, ‘समझौता-प्रेमी’ जैसे शब्दों में ‘अणु’, ‘उप’, ‘गुरु’, ‘परमाणु’, ‘गमन’, ‘व्यवस्था’, ‘द्वार’, ‘प्रेमी’, संस्कृत के तत्सम शब्द हैं तो ‘बम’, ‘बोली’, ‘भाई’, ‘आवा’, ‘खेती’, ‘घर’, ‘समझौता’ जैसे शब्द हिन्दी के अपने हैं। इसके अलावा भाषा के विकासक्रम में समय-समय पर अँग्रेज़ी, फ़ारसी, अरबी और तुर्की बोलने वालों के साथ हिन्दीवालों का लेना-देना काफ़ी रहा है तो इन भाषाओं के मेल से शब्द निर्माण की भी एक प्रक्रिया निरन्तर चलती रही है। ‘खानापूरी’ और ‘पेशाबघर’ जैसे शब्द हम अकसर प्रयोग करते हैं। ‘खाना’ और ‘पेशाब’ फ़ारसी के हैं तो ‘पूरी’ और ‘घर’ हिन्दी के। इसी तरह ‘धन-दौलत’, ‘समझौता-परस्त’, ‘काम-धन्धा’, ‘गुलाब-जामुन’, ‘खेल-तमाशा’, ‘चोर-बाज़ार’, ‘दाना-पानी’, ‘बाल-बच्चे’, ‘तन-बदन’, ‘सीधा-सादा’ जैसे संयुक्त शब्दों में पूर्वार्ध हिन्दी है तो उत्तरार्ध फ़ारसी। अरबी के ‘अख़बार’, ‘किताब’ और ‘माल’ में हिन्दी के ‘वाला’, ‘घर’ और ‘गाड़ी’ मिले तो बन गए ‘अख़बारवाला’, ‘किताबघर’ और ‘मालगाड़ी’। ‘टिकटबाबू’, ‘पॉकेटमार’, ‘पार्सल-घर’, ‘पुलिसवाला’, ‘मोटरगाड़ी’, ‘ठलुआ-क्लब’ में हम आसानी से समझ सकते हैं कि ‘टिकट’, ‘पॉकेट’, ‘पार्सल’, ‘पुलिस’, ‘मोटर’ और ‘क्लब’ अँग्रेज़ी के हैं तो ‘बाबू’, ‘मार’, ‘घर’, ‘वाला’, ‘गाड़ी’, ‘ठलुआ’ हिन्दी के। संस्कृत और अँग्रेज़ी के मेल से भी हिन्दी के शब्द बने हैं। उदाहरण के लिए ‘अधिकारी-क्लब’, ‘क्रास-मुद्रा’ ‘प्रेस-सम्मेलन’, ‘प्रेस-वार्ता’ आदि। संस्कृत-फ़ारसी का मेल देखना हो तो ‘छायादार’, ‘विज्ञापनबाज़ी’, ‘गुलाब-वाटिका’, ‘मजदूर-संघ’ जैसे शब्दों पर गौर फ़रमाइए। ‘छाया’, ‘विज्ञापन’, ‘वाटिका’ और ‘सङ्घ’ संस्कृत के हैं तो ‘दार’, ‘बाज़ी’, ‘गुलाब’ और ‘मजदूर’ फ़ारसी के।

ऐसे ही तुर्की की ‘तोप’ में हिन्दी की ‘गाड़ी’ लगाकर ‘तोपगाड़ी’ चलाई गई। इस ‘तोप’ को संस्कृत के ‘सैनिक’ चलाते हैं तो ‘तोप सैनिक’ बन जाते हैं। ‘धन-दौलत’ में संस्कृत के ‘धन’ के साथ अरबी की ‘दौलत’ दिखाई देती है। संस्कृत के ‘विवाह’ में अरबी का ‘ख़र्च’ ‘विवाह-ख़र्च’ की व्यवस्था करता है। किसी ‘शक्कर मिल’ तक आप पहुँचें तो फ़ारसी की ‘शक्कर’ अँग्रेज़ी की ‘मिल’ में ही दिखाई देगी। ‘पॉकेट-ख़र्च’ का इन्तज़ाम अँग्रेज़ी और अरबी मिलकर करते हैं। ‘गोलची’ की कामयाबी भी अँग्रेज़ी के ‘गोल’ और तुर्की के ‘ची’ में है।

आख़िर भाषा का मामला भी तो ‘बहता नीर’ ठहरा। बहने दीजिए, देखिए कहाँ जाकर रुकता है। ज़माना फ्यूज़न का है भाई, मिलावट कहाँ नहीं है! (10 दिसम्बर, 2015)

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सन्त समीर

लेखक, पत्रकार, भाषाविद्, वैकल्पिक चिकित्सा पद्धतियों के अध्येता तथा समाजकर्मी।

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